Chapter
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34
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---|---|---|---|---|
1 | 10 | 5 | 1 | و دیگر که گنجم وفادار نیست |
1 | 10 | 5 | 2 | همین رنج را کس خریدار نیست |
1 | 10 | 6 | 1 | بر این گونه یک چند بگذاشتم |
1 | 10 | 6 | 2 | سخن را نهفته همی داشتم |
1 | 10 | 7 | 1 | سراسر زمانه پر از جنگ بود |
1 | 10 | 7 | 2 | به جویندگان بر جهان تنگ بود |
1 | 10 | 8 | 1 | ز نیکو سخن بهْ چه اندر جهان |
1 | 10 | 8 | 2 | به نزد سخن سنج فرّخ مهان |
1 | 10 | 9 | 1 | اگر نامدی این سخن از خدای |
1 | 10 | 9 | 2 | نبی کِی بدی نزد ما رهنمای |
1 | 10 | 10 | 1 | به شهرم یکی مهربان دوست بود |
1 | 10 | 10 | 2 | تو گفتی که با من به یک پوست بود |
1 | 10 | 11 | 1 | مرا گفت خوب آمد این رای تو |
1 | 10 | 11 | 2 | به نیکی گراید همی پای تو |
1 | 10 | 12 | 1 | نبشته من این نامهٔ پهلوی |
1 | 10 | 12 | 2 | به پیش تو آرم مگر نغنوی |
1 | 10 | 13 | 1 | گشاده زبان و جوانیت هست |
1 | 10 | 13 | 2 | سخن گفتن پهلوانیت هست |
1 | 10 | 14 | 1 | شو این نامهٔ خسروان باز گوی |
1 | 10 | 14 | 2 | بدین جوی نزد مهان آبروی |
1 | 10 | 15 | 1 | چو آورد این نامه نزدیک من |
1 | 10 | 15 | 2 | بر افروخت این جان تاریک من |
1 | 11 | 1 | 1 | بدین نامه چون دست کردم دراز |
1 | 11 | 1 | 2 | یکی مهتری بود گردنفراز |
1 | 11 | 2 | 1 | جوان بود و از گوهر پهلوان |
1 | 11 | 2 | 2 | خردمند و بیدار و روشن روان |
1 | 11 | 3 | 1 | خداوند رای و خداوند شرم |
1 | 11 | 3 | 2 | سخن گفتن خوب و آوای نرم |
1 | 11 | 4 | 1 | مرا گفت کز من چه باید همی |
1 | 11 | 4 | 2 | که جانت سخن برگراید همی |
1 | 11 | 5 | 1 | به چیزی که باشد مرا دسترس |
1 | 11 | 5 | 2 | بکوشم نیازت نیارم به کس |
1 | 11 | 6 | 1 | همی داشتم چون یکی تازه سیب |
1 | 11 | 6 | 2 | که از باد نامد به من بر نهیب |
1 | 11 | 7 | 1 | به کیوان رسیدم ز خاک نژند |
1 | 11 | 7 | 2 | از آن نیکدل نامدار ارجمند |
1 | 11 | 8 | 1 | به چشمش همان خاک و هم سیم و زر |
1 | 11 | 8 | 2 | کریمی بدو یافته زیب و فر |
1 | 11 | 9 | 1 | سراسر جهان پیش او خوار بود |
1 | 11 | 9 | 2 | جوانمرد بود و وفادار بود |
1 | 11 | 10 | 1 | چنان نامور گم شد از انجمن |
1 | 11 | 10 | 2 | چو در باغ سرو سهی از چمن |
1 | 11 | 11 | 1 | نه ز او زنده بینم نه مرده نشان |
1 | 11 | 11 | 2 | به دست نهنگان مردم کشان |
1 | 11 | 12 | 1 | دریغ آن کمربند و آن گِردگاه |
1 | 11 | 12 | 2 | دریغ آن کِیی برز و بالای شاه |
1 | 11 | 13 | 1 | گرفتار ز او دل شده ناامید |
1 | 11 | 13 | 2 | نوان لرز لرزان به کردار بید |
1 | 11 | 14 | 1 | یکی پند آن شاه یاد آوریم |
1 | 11 | 14 | 2 | ز کژی روان سوی داد آوریم |
1 | 11 | 15 | 1 | مرا گفت کاین نامهٔ شهریار |
1 | 11 | 15 | 2 | گرت گفته آید به شاهان سپار |
1 | 11 | 16 | 1 | بدین نامه من دست بردم فراز |
1 | 11 | 16 | 2 | به نام شهنشاه گردنفراز |
1 | 12 | 1 | 1 | جهان آفرین تا جهان آفرید |
1 | 12 | 1 | 2 | چون او مرزبانی نیامد پدید |
1 | 12 | 2 | 1 | چو خورشید بر چرخ بنمود تاج |
1 | 12 | 2 | 2 | زمین شد به کردار تابنده عاج |
1 | 12 | 3 | 1 | چه گویم که خورشید تابان که بود |
1 | 12 | 3 | 2 | کز او در جهان روشنایی فزود |
1 | 12 | 4 | 1 | ابوالقاسم آن شاه پیروز بخت |
1 | 12 | 4 | 2 | نهاد از بر تاج خورشید تخت |
1 | 12 | 5 | 1 | ز خاور بیاراست تا باختر |
1 | 12 | 5 | 2 | پدید آمد از فرّ او کان زر |
1 | 12 | 6 | 1 | مرا اختر خفته بیدار گشت |
1 | 12 | 6 | 2 | به مغز اندر اندیشه بسیار گشت |
1 | 12 | 7 | 1 | بدانستم آمد زمان سخن |
1 | 12 | 7 | 2 | کنون نو شود روزگار کهن |
1 | 12 | 8 | 1 | بر اندیشهٔ شهریار زمین |
1 | 12 | 8 | 2 | بخفتم شبی لب پر از آفرین |
1 | 12 | 9 | 1 | دل من چو نور اندر آن تیره شب |
1 | 12 | 9 | 2 | نخفته گشاده دل و بسته لب |
1 | 12 | 10 | 1 | چنان دید روشن روانم به خواب |
1 | 12 | 10 | 2 | که رخشنده شمعی بر آمد ز آب |
1 | 12 | 11 | 1 | همه روی گیتی شب لاژورد |
1 | 12 | 11 | 2 | از آن شمع گشتی چو یاقوت زرد |
1 | 12 | 12 | 1 | در و دشت بر سان دیبا شدی |
1 | 12 | 12 | 2 | یکی تخت پیروزه پیدا شدی |
1 | 12 | 13 | 1 | نشسته بر او شهریاری چو ماه |
1 | 12 | 13 | 2 | یکی تاج بر سر به جای کلاه |
1 | 12 | 14 | 1 | رده بر کشیده سپاهش دو میل |
1 | 12 | 14 | 2 | به دست چپش هفتصد ژنده پیل |
1 | 12 | 15 | 1 | یکی پاک دستور پیشش به پای |
1 | 12 | 15 | 2 | بداد و بدین شاه را رهنمای |
1 | 12 | 16 | 1 | مرا خیره گشتی سر از فرّ شاه |
1 | 12 | 16 | 2 | و زان ژنده پیلان و چندان سپاه |
1 | 12 | 17 | 1 | چو آن چهرهٔ خسروی دیدمی |
1 | 12 | 17 | 2 | از آن نامداران بپرسیدمی |
1 | 12 | 18 | 1 | که این چرخ و ماه است یا تاج و گاه |
1 | 12 | 18 | 2 | ستاره است پیش اندرش یا سپاه |
1 | 12 | 19 | 1 | یکی گفت کاین شاه روم است و هند |
1 | 12 | 19 | 2 | ز قنّوج تا پیش دریای سند |
1 | 12 | 20 | 1 | به ایران و توران ورا بندهاند |
1 | 12 | 20 | 2 | به رای و به فرمان او زندهاند |
1 | 12 | 21 | 1 | بیاراست روی زمین را به داد |
1 | 12 | 21 | 2 | بپردخت از آن تاج بر سر نهاد |
1 | 12 | 22 | 1 | جهاندار محمود شاه بزرگ |
1 | 12 | 22 | 2 | به آبشخور آرد همی میش و گرگ |
1 | 12 | 23 | 1 | ز کشمیر تا پیش دریای چین |
1 | 12 | 23 | 2 | بر او شهریاران کنند آفرین |
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