Chapter
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34
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1 | 3 | 17 | 1 | همی بر شد آتش فرود آمد آب |
1 | 3 | 17 | 2 | همی گشت گرد زمین آفتاب |
1 | 3 | 18 | 1 | گیا رست با چند گونه درخت |
1 | 3 | 18 | 2 | به زیر اندر آمد سرانشان ز بخت |
1 | 3 | 19 | 1 | ببالد ندارد جز این نیرویی |
1 | 3 | 19 | 2 | نپوید چو پیوندگان هر سویی |
1 | 3 | 20 | 1 | و زان پس چو جنبنده آمد پدید |
1 | 3 | 20 | 2 | همه رستنی زیر خویش آورید |
1 | 3 | 21 | 1 | خور و خواب و آرام جوید همی |
1 | 3 | 21 | 2 | و زان زندگی کام جوید همی |
1 | 3 | 22 | 1 | نه گویا زبان و نه جویا خرد |
1 | 3 | 22 | 2 | ز خاک و ز خاشاک تن پرورد |
1 | 3 | 23 | 1 | نداند بد و نیک فرجام کار |
1 | 3 | 23 | 2 | نخواهد از او بندگی کردگار |
1 | 3 | 24 | 1 | چو دانا توانا بد و دادگر |
1 | 3 | 24 | 2 | از ایرا نکرد ایچ پنهان هنر |
1 | 3 | 25 | 1 | چنین است فرجام کار جهان |
1 | 3 | 25 | 2 | نداند کسی آشکار و نهان |
1 | 4 | 1 | 1 | چو زین بگذری مردم آمد پدید |
1 | 4 | 1 | 2 | شد این بندها را سراسر کلید |
1 | 4 | 2 | 1 | سرش راست بر شد چو سرو بلند |
1 | 4 | 2 | 2 | به گفتار خوب و خرد کار بند |
1 | 4 | 3 | 1 | پذیرندهٔ هوش و رای و خرد |
1 | 4 | 3 | 2 | مر او را دد و دام فرمان برد |
1 | 4 | 4 | 1 | ز راه خرد بنگری اندکی |
1 | 4 | 4 | 2 | که مردم به معنی چه باشد یکی |
1 | 4 | 5 | 1 | مگر مردمی خیره خوانی همی |
1 | 4 | 5 | 2 | جز این را نشانی ندانی همی |
1 | 4 | 6 | 1 | تو را از دو گیتی بر آوردهاند |
1 | 4 | 6 | 2 | به چندین میانجی بپروردهاند |
1 | 4 | 7 | 1 | نخستین فطرت پسین شمار |
1 | 4 | 7 | 2 | تویی خویشتن را به بازی مدار |
1 | 4 | 8 | 1 | شنیدم ز دانا دگرگونه زین |
1 | 4 | 8 | 2 | چه دانیم راز جهان آفرین |
1 | 4 | 9 | 1 | نگه کن سرانجام خود را ببین |
1 | 4 | 9 | 2 | چو کاری بیابی از این به گزین |
1 | 4 | 10 | 1 | به رنج اندر آری تنت را رواست |
1 | 4 | 10 | 2 | که خود رنج بردن به دانش سزاست |
1 | 4 | 11 | 1 | چو خواهی که یابی ز هر بد رها |
1 | 4 | 11 | 2 | سر اندر نیاری به دام بلا |
1 | 4 | 12 | 1 | نگه کن بدین گنبد تیزگرد |
1 | 4 | 12 | 2 | که درمان ازوی است و ز اوی است درد |
1 | 4 | 13 | 1 | نه گشت زمانه بفرسایدش |
1 | 4 | 13 | 2 | نه آن رنج و تیمار بگزایدش |
1 | 4 | 14 | 1 | نه از جنبش آرام گیرد همی |
1 | 4 | 14 | 2 | نه چون ما تباهی پذیرد همی |
1 | 4 | 15 | 1 | از او دان فزونی از او هم شمار |
1 | 4 | 15 | 2 | بد و نیک نزدیک او آشکار |
1 | 5 | 1 | 1 | ز یاقوت سرخ است چرخ کبود |
1 | 5 | 1 | 2 | نه از آب و گرد و نه از باد و دود |
1 | 5 | 2 | 1 | به چندین فروغ و به چندین چراغ |
1 | 5 | 2 | 2 | بیاراسته چون به نوروز باغ |
1 | 5 | 3 | 1 | روان اندر او گوهر دلفروز |
1 | 5 | 3 | 2 | کز او روشنایی گرفته است روز |
1 | 5 | 4 | 1 | ز خاور بر آید سوی باختر |
1 | 5 | 4 | 2 | نباشد از این یک روش راستتر |
1 | 5 | 5 | 1 | ایا آن که تو آفتابی همی |
1 | 5 | 5 | 2 | چه بودت که بر من نتابی همی |
1 | 6 | 1 | 1 | چراغ است مر تیره شب را بسیچ |
1 | 6 | 1 | 2 | به بد تا توانی تو هرگز مپیچ |
1 | 6 | 2 | 1 | چو سی روز گردش بپیمایدا |
1 | 6 | 2 | 2 | شود تیره گیتی بدو روشنا |
1 | 6 | 3 | 1 | پدید آید آنگاه باریک و زرد |
1 | 6 | 3 | 2 | چو پشت کسی کو غم عشق خْوَرد |
1 | 6 | 4 | 1 | چو بیننده دیدارش از دور دید |
1 | 6 | 4 | 2 | هم اندر زمان او شود ناپدید |
1 | 6 | 5 | 1 | دگر شب نمایش کند بیشتر |
1 | 6 | 5 | 2 | تو را روشنایی دهد بیشتر |
1 | 6 | 6 | 1 | به دو هفته گردد تمام و درست |
1 | 6 | 6 | 2 | بدان باز گردد که بود از نخست |
1 | 6 | 7 | 1 | بود هر شبانگاه باریکتر |
1 | 6 | 7 | 2 | به خورشید تابنده نزدیکتر |
1 | 6 | 8 | 1 | بدینسان نهادش خداوند داد |
1 | 6 | 8 | 2 | بود تا بود هم بدین یک نهاد |
1 | 7 | 1 | 1 | تو را دانش و دین رهاند درست |
1 | 7 | 1 | 2 | در رستگاری ببایدت جست |
1 | 7 | 2 | 1 | و گر دل نخواهی که باشد نژند |
1 | 7 | 2 | 2 | نخواهی که دائم بوی مستمند |
1 | 7 | 3 | 1 | به گفتار پیغمبرت راه جوی |
1 | 7 | 3 | 2 | دل از تیرگیها بدین آب شوی |
1 | 7 | 4 | 1 | چه گفت آن خداوند تنزیل و وحی |
1 | 7 | 4 | 2 | خداوند امر و خداوند نهی |
1 | 7 | 5 | 1 | که خورشید بعد از رسولان مه |
1 | 7 | 5 | 2 | نتابید بر کس ز بوبکر به |
1 | 7 | 6 | 1 | عمر کرد اسلام را آشکار |
1 | 7 | 6 | 2 | بیاراست گیتی چو باغ بهار |
1 | 7 | 7 | 1 | پس از هر دو آن بود عثمان گزین |
1 | 7 | 7 | 2 | خداوند شرم و خداوند دین |
1 | 7 | 8 | 1 | چهارم علی بود جفت بتول |
1 | 7 | 8 | 2 | که او را به خوبی ستاید رسول |
1 | 7 | 9 | 1 | که من شهر علمم علیم در است |
1 | 7 | 9 | 2 | درست این سخن قول پیغمبر است |
1 | 7 | 10 | 1 | گواهی دهم کاین سخنها ز اوست |
1 | 7 | 10 | 2 | تو گویی دو گوشم پر آواز اوست |
1 | 7 | 11 | 1 | علی را چنین گفت و دیگر همین |
1 | 7 | 11 | 2 | کز ایشان قوی شد به هر گونه دین |
1 | 7 | 12 | 1 | نبی آفتاب و صحابان چو ماه |
1 | 7 | 12 | 2 | به هم بستهٔ یکدگر راست راه |
1 | 7 | 13 | 1 | منم بندهٔ اهل بیت نبی |
1 | 7 | 13 | 2 | ستایندهٔ خاک پای وصی |
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