Chapter
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76
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34
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---|---|---|---|---|
1 | 7 | 14 | 1 | حکیم این جهان را چو دریا نهاد |
1 | 7 | 14 | 2 | بر انگیخته موج از او تندباد |
1 | 7 | 15 | 1 | چو هفتاد کشتی بر او ساخته |
1 | 7 | 15 | 2 | همه بادبانها بر افراخته |
1 | 7 | 16 | 1 | یکی پهن کشتی به سان عروس |
1 | 7 | 16 | 2 | بیاراسته همچو چشم خروس |
1 | 7 | 17 | 1 | محّمد بدو اندرون با علی |
1 | 7 | 17 | 2 | همان اهل بیت نبی و ولی |
1 | 7 | 18 | 1 | خردمند کز دور دریا بدید |
1 | 7 | 18 | 2 | کرانه نه پیدا و بن ناپدید |
1 | 7 | 19 | 1 | بدانست کو موج خواهد زدن |
1 | 7 | 19 | 2 | کس از غرق بیرون نخواهد شدن |
1 | 7 | 20 | 1 | به دل گفت اگر با نبی و وصی |
1 | 7 | 20 | 2 | شوم غرقه دارم دو یار وفی |
1 | 7 | 21 | 1 | همانا که باشد مرا دستگیر |
1 | 7 | 21 | 2 | خداوند تاج و لوا و سریر |
1 | 7 | 22 | 1 | خداوند جوی می و انگبین |
1 | 7 | 22 | 2 | همان چشمهٔ شیر و ماء معین |
1 | 7 | 23 | 1 | اگر چشم داری به دیگر سرای |
1 | 7 | 23 | 2 | به نزد نبی و علی گیر جای |
1 | 7 | 24 | 1 | گرت زین بد آید گناه من است |
1 | 7 | 24 | 2 | چنین است و این دین و راه من است |
1 | 7 | 25 | 1 | بر این زادم و هم بر این بگذرم |
1 | 7 | 25 | 2 | چنان دان که خاک پی حیدرم |
1 | 7 | 26 | 1 | دلت گر به راه خطا مایل است |
1 | 7 | 26 | 2 | تو را دشمن اندر جهان خود دل است |
1 | 7 | 27 | 1 | نباشد جز از بیپدر دشمنش |
1 | 7 | 27 | 2 | که یزدان به آتش بسوزد تنش |
1 | 7 | 28 | 1 | هر آنکس که در جانش بغض علی است |
1 | 7 | 28 | 2 | از او زارتر در جهان زار کی است |
1 | 7 | 29 | 1 | نگر تا نداری به بازی جهان |
1 | 7 | 29 | 2 | نه برگردی از نیک پی همرهان |
1 | 7 | 30 | 1 | همه نیکیات باید آغاز کرد |
1 | 7 | 30 | 2 | چو با نیکنامان بوی همنورد |
1 | 7 | 31 | 1 | از این در سخن چند رانم همی |
1 | 7 | 31 | 2 | همانا کرانش ندانم همی |
1 | 8 | 1 | 1 | سخن هر چه گویم همه گفتهاند |
1 | 8 | 1 | 2 | بر باغ دانش همه رفتهاند |
1 | 8 | 2 | 1 | اگر بر درخت برومند جای |
1 | 8 | 2 | 2 | نیابم که از بر شدن نیست رای |
1 | 8 | 3 | 1 | کسی کو شود زیر نخل بلند |
1 | 8 | 3 | 2 | همان سایه ز او بازدارد گزند |
1 | 8 | 4 | 1 | توانم مگر پایهای ساختن |
1 | 8 | 4 | 2 | بر شاخ آن سرو سایه فکن |
1 | 8 | 5 | 1 | کز این نامور نامهٔ شهریار |
1 | 8 | 5 | 2 | به گیتی بمانم یکی یادگار |
1 | 8 | 6 | 1 | تو این را دروغ و فسانه مدان |
1 | 8 | 6 | 2 | به رنگ فسون و بهانه مدان |
1 | 8 | 7 | 1 | از او هر چه اندر خورد با خرد |
1 | 8 | 7 | 2 | دگر بر ره رمز و معنی برد |
1 | 8 | 8 | 1 | یکی نامه بود از گه باستان |
1 | 8 | 8 | 2 | فراوان بدو اندرون داستان |
1 | 8 | 9 | 1 | پراگنده در دست هر موبدی |
1 | 8 | 9 | 2 | از او بهرهای نزد هر بخردی |
1 | 8 | 10 | 1 | یکی پهلوان بود دهقان نژاد |
1 | 8 | 10 | 2 | دلیر و بزرگ و خردمند و راد |
1 | 8 | 11 | 1 | پژوهندهٔ روزگار نخست |
1 | 8 | 11 | 2 | گذشته سخنها همه باز جست |
1 | 8 | 12 | 1 | ز هر کشوری موبدی سالخَورد |
1 | 8 | 12 | 2 | بیاورد کاین نامه را یاد کرد |
1 | 8 | 13 | 1 | بپرسیدشان از کیان جهان |
1 | 8 | 13 | 2 | و زان نامداران فرخ مهان |
1 | 8 | 14 | 1 | که گیتی به آغاز چون داشتند |
1 | 8 | 14 | 2 | که ایدون به ما خوار بگذاشتند |
1 | 8 | 15 | 1 | چه گونه سر آمد به نیک اختری |
1 | 8 | 15 | 2 | بر ایشان همه روز گُند آوری |
1 | 8 | 16 | 1 | بگفتند پیشش یکایک مهان |
1 | 8 | 16 | 2 | سخنهای شاهان و گشت جهان |
1 | 8 | 17 | 1 | چو بشنید از ایشان سپهبد سخن |
1 | 8 | 17 | 2 | یکی نامور نامه افکند بن |
1 | 8 | 18 | 1 | چنین یادگاری شد اندر جهان |
1 | 8 | 18 | 2 | بر او آفرین از کهان و مهان |
1 | 9 | 1 | 1 | چو از دفتر این داستانها بسی |
1 | 9 | 1 | 2 | همی خواند خواننده بر هر کسی |
1 | 9 | 2 | 1 | جهان دل نهاده بدین داستان |
1 | 9 | 2 | 2 | همان بخردان نیز و هم راستان |
1 | 9 | 3 | 1 | جوانی بیامد گشاده زبان |
1 | 9 | 3 | 2 | سخن گفتن خوب و طبع روان |
1 | 9 | 4 | 1 | به شعر آرم این نامه را گفت من |
1 | 9 | 4 | 2 | از او شادمان شد دل انجمن |
1 | 9 | 5 | 1 | جوانیش را خوی بد یار بود |
1 | 9 | 5 | 2 | ابا بد همیشه به پیکار بود |
1 | 9 | 6 | 1 | بر او تاختن کرد ناگاه مرگ |
1 | 9 | 6 | 2 | نهادش به سر بر یکی تیره ترگ |
1 | 9 | 7 | 1 | بدان خوی بد جان شیرین بداد |
1 | 9 | 7 | 2 | نبد از جوانیش یک روز شاد |
1 | 9 | 8 | 1 | یکایک از او بخت برگشته شد |
1 | 9 | 8 | 2 | به دست یکی بنده بر کشته شد |
1 | 9 | 9 | 1 | برفت او و این نامه ناگفته ماند |
1 | 9 | 9 | 2 | چنان بخت بیدار او خفته ماند |
1 | 9 | 10 | 1 | الهی عفو کن گناه ورا |
1 | 9 | 10 | 2 | بیفزای در حشر جاه ورا |
1 | 10 | 1 | 1 | دل روشن من چو برگشت از اوی |
1 | 10 | 1 | 2 | سوی تخت شاه جهان کرد روی |
1 | 10 | 2 | 1 | که این نامه را دست پیش آورم |
1 | 10 | 2 | 2 | ز دفتر به گفتار خویش آورم |
1 | 10 | 3 | 1 | بپرسیدم از هر کسی بیشمار |
1 | 10 | 3 | 2 | بترسیدم از گردش روزگار |
1 | 10 | 4 | 1 | مگر خود درنگم نباشد بسی |
1 | 10 | 4 | 2 | بباید سپردن به دیگر کسی |
Subsets and Splits