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Sanskrit
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1 विदेहमुक्ति के क्या लक्षण होते हैं?
१.विदेहमुक्तेः किं लक्षणम्‌?
उससे यहाँ सूत्र के पदों का अन्वय होता है - शकटिशकट्योः अक्षरम्‌ अक्षरं पर्यायेण उदात्तः इति।
ततश्च अत्र सूत्रस्यस्य पदान्वयः भवति- शकटिशकट्योः अक्षरम्‌ अक्षरं पर्यायेण उदात्तः इति।
इस प्रकार से प्रजापति का वर्णन है।
इत्येवं प्रकारेण स प्रजापतिः वर्णितः।
ऊपर काहे श्रद्धा के लक्षणा का श्रद्धा का अभिमानी देवता सेवनीय योग्य धन के शीश पर सबसे प्रधानभूत होकर के रहने के कारण वाणी से अथवा स्तोत्र से विशेष रूप से स्तुति करता हूँ।
श्रद्धाम्‌ उक्तलक्षणायाः श्रद्धायाः अभिमानिदेवतां भगस्य भजनीयस्य धनस्य मूर्धनि प्रधानभूते स्थाने अवस्थितां वचसा वचनेन स्तोत्रेण आ वेदयामसि अभितः प्रख्यापयामः।
बहुव्रीहौ प्रकृत्या पूर्वपदम्‌ इस सूत्र से प्रकृत्या इस तृतीयान्त पद की यहाँ अनुवृति है।
बहुव्रीहौ प्रकृत्या पूर्वपदम्‌ इति सूत्रात्‌ प्रकृत्या इति तृतीयान्तं पदम्‌ अनुवर्तते।
असम्प्रज्ञात समाधि में चित्तवृत्तियों का तिरोभाव होता है।
असम्प्रज्ञातसमाधौ चित्तवृत्तयः तिरोभवन्ति।
पांच मन्त्र वाले इस सूक्त में वर्णन किया गया है की इस ब्रह्माण्ड में जो कुछ भी दिखाई देता है, वह सब प्रजापति ही है।
पञ्चमन्त्रात्मके सूक्तेऽस्मिन्‌ वर्णितमस्ति यत्‌ ब्रह्माण्डेऽस्मिन्‌ यत्किञ्चिदपि दृश्यते, तत्सर्वं प्रजापतिरेवास्ति।
यहाँ “तत्पुरुषः समानाधिकरणः कर्मधारयः” यह सूत्र प्रमाण है।
अत्र "तत्पुरुषः समानाधिकरणः कर्मधारयः" इति सूत्रं प्रमाणम्‌।
उदाहरण - इसका उदाहरण है - बिभ्रेती जराम्‌।
उदाहरणम्‌- अस्य उदाहरणं भवति - बिभ्रेती जराम्‌।
ब्राह्मण ग्रन्थों में ब्रह्मा के महान्‌ गौरव का अनेक जगह वर्णन है।
ब्राह्मणग्रन्थेषु ब्रह्मणः महान्‌ गौरवः अनेकत्र वर्णितः अस्ति।
द्यावा और पृथिवी तेरे मुख को कहते है।
अश्विनौ द्यावापृथिव्यौ तव व्यात्तम्‌ मुखम्‌ ।
तृतीय लिङ्ग है अपूर्वता।
तृतीयं लिङ्गं तावत्‌ अपूर्वता।
वेदान्त से तात्पर्य उपनिषद्‌ प्रमाण तदुपकारी शारीरिक सूत्रादि जो वेदान्त शास्त्र में कहे गये हैं।
वेदान्तो नाम उपनिषद्प्रमाणं तदुपकारीणि शरीरकसूत्रादीनि चेति उक्तं वेदान्तसारे।
संसार बन्धनों से मुक्ति सभी चाहते हैं।
संसारबन्धनात्‌ मुक्तिं सर्व इच्छन्ति।
आदि के 180 दिनों के अनुष्ठान में प्रथमदिन में अतिरात्र और अन्तिम दिन में स्वर साम विहित हैं परन्तु अन्तिम 180 दिनों के अनुष्ठान में प्रथम दिन स्वर साम और अन्तिम दिन में अतिरात्र विहित है।
आद्यानां १८० दिवसानाम्‌ अनुष्ठाने प्रथमदिवसे अतिरात्रः किञ्च अन्तिमदिवसे स्वरसामः विहितः परन्तु अन्तिमानां १८० दिवसानाम्‌ अनुष्ठाने प्रथमदिवसे स्वरसामः किञ्च अन्तिमदिवसे अतिरात्रः विहितः।
अर्थात्‌ आमन्त्रित पद में जिस प्रकार का स्वर है, उसी प्रकार का ही स्वर पूर्ववर्ति सुबन्त में भी लगाना चाहिए।
अर्थात्‌ आमन्त्रिते पदे यादृशः स्वरः अस्ति तादृशः एव स्वरः पूर्ववर्तिनि सुबन्ते अपि प्रयोज्यः।
(क) विवेकः (ख) फलम्‌ (ग) अपूर्वता (घ) उपपत्तिः 15. तात्पर्यनिर्णायक छ लिङऱगों में यह नहीं है।
(क) विवेकः (ख) फलम्‌ (ग) अपूर्वता (घ) उपपत्तिः 15. तात्पर्यनिर्णायकेषु षट्सु लिङ्गेषु इदम्‌ नास्ति।
यह संशय वेदान्त का जो विषय प्रमेय है वह जीवब्रह्मेक्य तथा तद्विषयक है।
अयं संशयः वेदान्तस्य यो विषयः प्रमेयं जीवब्रह्मैक्यं तद्विषयकोऽस्ति।
इस नियम का उल्लङ्घन नहीं करता है।
अस्य नियमस्य उल्लङ्घनं न कुर्वन्ति।
जैगीषव्य का शिष्य कौन हे?
जैगीषव्यस्य शिष्यः कः?
मित्रवरुण की महानता से ही निरन्तर भ्रमणरत सूर्य दैनिक गति के द्वारा बन्ध जलराशि को छुडाने में समर्थ होती है।
मित्रावरुणयोः माहात्म्यात्‌ एव निरन्तरभ्रमणरतः सूर्यः दैनिकगत्या बद्धान्‌ जलराशीन्‌ आकर्षयितुं समर्थो भवति।
जिससे उसे कभी कभी निधि की प्राप्ति होती है।
कदापि निधिप्राप्तिनि भवति।
18.4.1 ) अन्नमय का आत्मत्व निराश स्थूल देह अन्नमय कोश होता है।
१८.४.१) अन्नमयस्य आत्मत्वनिरासः स्थूलदेहः खलु अन्नमयकोशः।
और निर्वकल्पकसमाधि में भी सभी चित्तवृत्तियों का तिरोभाव होता है तथा अखण्डाकार ब्रह्मविषयणी चित्तवृत्ति का तिरोभाव होता है।
निर्विकल्पकसमाधौ तु न हि सर्वासां चित्तवृत्तीनां तिरोभावो भवति, अखण्डाकारा ब्रह्मविषयिणी ।
अक्षसूक्त में कितवनाम का कोई जुआरी अक्षक्रीडा में मद रहता था।
अक्षसूक्ते कितवनामकः कश्चित्‌ अक्षक्रीडायां मत्तः आसीत्‌ ।
जगत्‌ में सभी प्राणी उसी की आज्ञा पालन करते है।
जगति सर्वे प्राणिनः तस्य एव आज्ञाकारिणः।
सूत्र का अर्थ- यदवृत्त शब्द से उत्तर तिङन्त को नित्य ही अनुदात्त नहीं होता है।
सूत्रार्थः - यत्र पदे यच्छब्दः ततः परं तिङन्तं नित्यम्‌ अनुदात्तं न भवति।
चाप्‌, टाप्‌, डाप्‌ प्रत्यय तीनों लिङ्गों के मध्य पुस्त्व बोध के लिए और नपुंसकत्व के ज्ञान के लिए प्रत्ययान्तर अपेक्षित नहीं है।
चाप्‌ टाप्‌ डाप्‌ प्रत्ययाः तत्र त्रिषु लिङ्गेषु मध्ये पुंस्त्वबोधनाय नपुंसकत्वबोधनाय च प्रत्ययान्तरम्‌ अपेक्षितं नास्ति।
योगियों की अहिंसा में प्रतिष्ठा होने पर हिंस्रपशु भी उनके सामने हिंसा प्रकटी नहीं करते हैं।
योगिनः अहिंसायां प्रतिष्ठा भवति चेत्‌ हिंत्रपशवोऽपि तं प्रति हिंसां न प्रदर्शयन्ति।
अथवा वेदों का वैदिक साहित्य के अध्ययन-अध्यापन विषय -विधियों का निर्देश शिक्षा शास्त्र में किया है।
वेदानां वैदिकसाहित्यस्य वा अध्ययन-अध्यापनविषयक-विधीनां निर्देशः शिक्षाशास्त्रे कृतः।
इसके बाद व्यधिकरण तत्पुरुष समास विधायकों सूत्रों द्वितीयाश्रितातीत इन सूत्रों की यहाँ आलोचना होती है।
ततः व्यधिकरणतत्पुरुषसमासविधायकानां द्वितीया श्रितातीतेत्यादीनां सूत्राणामालोचनम्‌ अत्र भवति।
यस्मात्‌ ऋते किञ्चन कर्म न क्रियते, तत्‌ मे मनः शिवसङ्कल्पम्‌ अस्तु।
यस्मात्‌ ऋते किञ्चन कर्म न क्रियते , तत्‌ मे मनः शिवसङ्कल्पम्‌ अस्तु।
वज्र के साथ भीषण-विनाश शब्दों का नित्य संम्बद्ध है।
वज्रेण सह भीषण-विनाशशब्दौ नित्यं संम्बद्धौ।
वृत्र को मारकर इन्द्र ने बन्द जलमार्ग को खोल दिया।
वृत्रं हत्वा इन्द्रः पिहितं जलमार्ग मुमोच।
10. महिना इसका लौकिकरूप क्या है?
10. महिना इत्यस्य लौकिकं रूपं किम्‌।
इसलिए शरीर का धारण होता है।
अतः शरीरस्य धारणं भवति।
वहाँ पर जो भेद प्रतीति होती है वह अज्ञानमूला होती है।
तत्र या भेदप्रतीतिः सा अज्ञानमूला।
“घोरझ्च मे घोरतरझ्च मे' यहाँ भीषणत्व तथा 'शिवाय च शिवतराय च' यहां कल्याणत्व घोषित है।
'घोरञ्च मे घोरतरञ्च मे' इति भीषणत्वम्‌ तथा 'शिवाय च शिवतराय च' इति कल्याणत्वं च विघोषितम्‌।
अतः उसका एकस्वर होता है।
अतः तस्य ऐकस्वर्यं भवति।
यह उपनिषद्‌ सामवेद के छान्दोग्य ब्राह्मण का अंश विशेष है।
उपनिषदियं सामवेदस्य छान्दोग्यब्राह्मणस्य अंशविशेषा।
वृक्ष के साथ शिलादि का जो भेद होता है वह विजातीय भेद कहलाता है।
वृक्षेण साकं शिलादीनां यः भेदः स विजातीयः भेदः।
तथा उसे किस प्रकार से जाना जा सकता है।
तत्‌ कथं ज्ञायते।
पद से परे हो किन्तु पाद के आदि में वर्तमान नहीं है जो आमन्त्रित पद, उन सभी पद को अनुदात्त स्वर होता है यह सूत्र का अर्थ प्राप्त होता है।
पदात्‌ परं किञ्च पादस्य आदौ अवर्तमानं यत्‌ आमन्त्रितं पदं, तस्य सर्वस्य पदस्य अनुदात्तस्वरः भवति इति सूत्रार्थः लभ्यते।
हे मनुष्य, सभी जगह मुखविशिष्ट अर्थात्‌ जिसके विषय में कोई सोच नही सकता उस प्रकार की शक्ति सम्पन्न वह परमात्मा प्रत्येक पदार्थ में व्याप्त होकर के रहता है।
हे मनुष्य, सर्वत्र मुखविशिष्टः अर्थात्‌ अचिन्त्यशक्तिसम्पन्नः परमात्मा प्रतिपदार्थं तिष्ठन्‌ अस्ति।
प्रज्वलित करते है।
संदीप्यते।
मृत्यु के अतिक्रमण अर्थात्‌ मृत्युाहित्य के अलावा कोई मार्ग नहीं है - जो तम से परे है उस महान्‌ देशकाल आदि भेद से रहित आदित्यवर्ण पुरुष को जानकर ही मरण का अतिक्रम हो सकता है अन्य कोई उपाय नहीं है।
मृत्योः अतिक्रमाया, मृत्युराहित्याय। पन्थाः - यः तमसः परः तम्‌ महान्तम्‌ देशकालाद्यवच्छेदरहितम्‌ आदित्यवर्णं पुरुषं विदित्वा एव मरणातिक्रमः नान्यथा।
“षष्ठी” इस सूत्र का क्या अर्थ है?
"षष्ठी" इति सूत्रस्यार्थः कः?
उसकी दोनों उपाधियाँ सुषुप्ति में नहीं होती हैं।
तदुपाधिद्वयमपि सुषुप्तौ नास्ति।
2 सप्तदशावयवविशिष्ट लिङ्गशरीर का परिचय दीजिए?
२. सप्तदशावयवविशिष्टस्य लिङ्गशरीरस्य परिचयः दीयताम्‌।
“उच्चैरुदात्तः”, ` नीचैरनुदात्तः", और ` समाहारः स्वरितः" आचार्य गालव कृत शिक्षा ग्रन्थ।
'उच्चैरुदात्तः', 'नीचैरनुदात्तः', 'समाहारः स्वरितः' चेति।आचार्यगालवकृतः शिक्षाग्रन्थः।
कभी भी इसका कोई एक निश्‍चित वर्ण नहीं होता है।
कदाचित्‌ तस्य कश्चित्‌ अपि वर्णो न तिष्ठति इति।
किंराजन्‌ से पुल्लिंग में सु प्रत्यय होने पर किंराजा रूप बना।
किंराजन्‌ इत्यस्मात्‌ पुंसि सौ किंराजा इति रूपम्‌।
अमुष्येत्यन्तः इस वार्तिक से कैसे स्यान्तस्य षष्ठ्यन्त पद का अन्त उदात्त नहीं होता है?
अमुष्येत्यन्तः इति वार्तिकेन कथं स्यान्तस्य षष्ठ्यन्तपदस्य न अन्तोदात्तत्वम्‌ ?
ततत्पुरुषः'' इस सूत्र से पहले प्राक्‌ अव्ययीभावः पद अधिग्रहण किया गया है।
"तत्पुरुषः" इत्यस्मात्‌ सूत्रात्‌ प्राक्‌ अव्ययीभावः इति पदम्‌ अधिक्रियते।
अर्थात्‌ सामानाधिकरण्य यह अर्थ है।
अर्थात्‌ सामानाधिकरण्यम्‌ इत्यर्थः।
ब्रह्मविद्या संसार के प्राणी को बनाता, विस्तृत करता और शिथिल करता है।
ब्रह्मविद्या संसाररिणः सादयति विशादयति शिथिलयति।
बुद्धि से लेकर देह पर्यन्त अज्ञान का ही कार्य होता है।
बुद्धितः आरभ्य देहपर्यन्तं सर्वम्‌ अज्ञानस्य कार्य भवति।
यहाँ इन दोनों ही पद प्रथमा एकवचनान्त है।
अत्र उभयमेव पदम्‌ प्रथमैकवचनान्तं बोध्यम्‌।
तृतीय अर्थ है -यज्ञों के अनुष्ठान में देवों का आह्वान हविदान देवपूजा इत्यादि का कुछ स्थिर क्रम दिखाई देता है।
तृतीयोऽर्थः - यज्ञानाम्‌ अनुष्ठाने देवानाम्‌ आह्वानम्‌ हविरदानम्‌ देवपूजा इत्यादीनाम्‌ कश्चित्‌ स्थिरः क्रमः दृश्यते।
प्रकृत सूत्र से विहित कार्य गोष्ठज इस शब्द स्वरूप को होता है।
प्रकृतसूत्रविहितं कार्यं गोष्ठज इति शब्दस्वरूपस्य भवति।
विश्वम्भरा - विश्व का जो भरण - पोषण करती है वह विश्वम्भरा।
विश्वम्भरा- विश्वं भरतीति या सा विश्वम्भरा।
वहाँ के लिए उदाहरण जैसे - गोधूमाः।
तत्र उदाहरणं यथा- गोधूमाः।
इस प्रश्‍न का उत्तर देते हुए कहतें हैं कि प्रश्‍न के प्रशमन के लक्षण में आपततः इस पद का प्रयोग किया गया है।
अत एव अस्य प्रश्नस्य प्रशमनाय लक्षणे आपाततः इति पदस्य प्रयोगः।
इसलिए सुषुप्ति में जगत को प्रतीति नहीं होती हे।
सुषुप्तौ मनोभावात्‌ जगतः प्रतीतिरेव नास्ति।
पौर्णमासी अर्थात्‌ पूर्णिमा।
पौर्णमासी अर्थात्‌ पूर्णिमा।
यहाँ यत्‌ यह प्रत्यय है।
अत्र यत्‌ इति प्रत्ययः।
एक ही प्रपञज्चरूप अखिल कार्य का कारण अज्ञान नष्ट होता है तो अज्ञान के कार्यों का भी नाश हो जाता है।
एवमेव प्रपञ्चरूपस्य अखिलस्य कार्यस्य कारणम्‌ अज्ञानं नष्टं चेत्‌ अज्ञानकार्याणाम्‌ अपि नाशः भवति।
रस नहीं होता है।
रसः नास्ति।
ऋषियों ने केवल मन्त्रों को देखा, वे उसके कर्ता नहीं हैं।
ऋषयः केवलं मन्त्राणि दृष्टवन्तः न तु कृतवन्तः।
राजयोग प्रधान रूप से साधनों का उपदेश देता है।
राजयोगः प्राधान्येन साधनानि उपदिशति।
स्वरित से परे अनुदात्तों की संहिता में या एकश्रुति हो यह अर्थ है।
स्वरितात्‌ परेषाम्‌ अनुदात्तानां संहितायामेकश्रुतिः स्यात्‌ इत्यर्थः।
अविग्रह नित्यसमास का उदाहरण है-कृष्णसर्पः।
अविग्रहस्य नित्यसमासस्योदाहरणं यथा कृष्णसर्पः इति।
ऋग्वेद का ज्योतिष क्या है?
ऋग्वेदस्य ज्यौतिषं किम्‌?
किस प्रकार के गुरु के पास जाना चाहिए तो कहते हैं कि शमदमादि सम्पन्न आचार्य के पास जाना चाहिए।
कीदृशम्‌ गुरुम्‌ अभिगच्छेत्‌। आचार्यं शमदमादिसम्पन्नम्‌ अभिगच्छेत्‌।
2. जिन कर्मों का नरकादि अनिष्ट ही फल होता है वे शास्त्र के द्वारा प्रतिषिद्ध कर्म निषिद्ध कर्म कहलाते है।
२. येषां कर्मणां नरकादि अनिष्टम्‌ एव फलं तानि शास्त्रेण प्रतिषिद्धानि कर्माणि निषिद्धानि।
तदेव शुक्रं तद्‌ ब्रह्म ता आपः स प्रजापतिः॥ १ ॥
तदेव शुक्रं तद्‌ ब्रह्म ता आपः स प्रजापतिः ॥ १ ॥
और ब्रह्मत्व को समझने पर कहे गये पञ्चकोशों की भी ब्रह्म में ही कल्पना करनी चाहिए।
तथा च ब्रह्मस्वरूपावगतये वक्ष्यमाणाः पञ्चकोशाः अपि ब्रह्मणि कल्पिताः वर्तन्ते।
गति अर्थ लोटा लकार को लृण्ण चेत्कारक सर्वान्यत्‌ इस सूत्र से गत्यर्थ लोट्‌ लकार है, चेत्‌ कारकम्‌, सर्वान्यत्‌ इन पदों की अनुवृति है।
गत्यर्थलोटा लृण्ण चेत्कारकं सर्वान्यत्‌ इति सूत्रात्‌ गत्यर्थलोटा, चेत्‌ कारकम्‌, सर्वान्यत्‌ इति पदानि अनुवर्तन्ते।
रुद्रो के साथ में (वागाम्भृणी) कैसे चलती हूँ?
रुद्रैः सह अहं(वागाम्भृणी) कथं चरामि।
यहाँ पूर्वकायः, अर्ध पिप्पली क्रम अनुसार उदाहरण हैं।
अत्र पूर्वकायः, अर्धपिप्पली इति यथाक्रमम्‌ उदाहरणम्‌।
अथवा अतीत अनागतवर्तमान में प्रयोग करने वाले पदार्थो का ग्राहक है।
यद्वा अतीतानागतवर्तमानविप्रकृष्टव्यवहितपदार्थानां ग्राहकम्‌ इत्यर्थः।
जैसे सूर्य देव संसार में विचरण करता है।
यथा सविता देवो जगति विहरति ।
पाँच वायु कौन-कौन हैं?
पञ्च वायवः के ?
यज्ञादि कर्म पापों का नाश करते हैं यदि वे फलों के आशा को त्याग करके किए गए होते हैं तो।
यज्ञादीनि कर्माणि पापनाशं कुर्वन्ति फलाशां त्यक्त्वा कृतानि चेत्‌।
अन्तः करण में जितने निषिद्धकर्मजनित पाप होते हैं वे पाप निषिद्धकर्मो की और प्रेरित करते हैं।
अन्तःकरणे यावत्‌ निषिद्धकर्मजनितानि पापानि सन्ति तावत्‌ तानि पापानि निषिद्धकर्मसु प्रेरयन्ति।
और वे विधि जैसे विनियोग, हेतु, निरुक्ति, आख्यान इत्यादि।
ते च विधयः यथा विनियोगः, हेतुः, निरुक्तिः आख्यानम्‌ इत्यादयः।
53. यथाअर्थ में अव्ययीभावसमास का अर्थ लिखो।
५३. यथार्थ अव्ययीभावसमासस्योदाहरणं लिखत।
निधेहि इसका अर्थ लिखिए।
निधेहि इत्यस्य अर्थं लिखत?
वह ही वाणी के द्वारा असुर आदिशत्रुओं को मारकर प्रजाओं की रक्षा करती है।
सा वागेव असुरादिशत्रुनिधनद्वारा प्रजानां रक्षां विदधाति।
अभि अभि इस स्थिति में 'इको यणचि” इस सूत्र से अच्‌ के परे अभि इसके इकार के स्थान में यण्‌ आदेश होने से अभ्यभि यह रूप सिद्ध होता है।
अभि अभि इति स्थिते 'इको यणचि' इति सूत्रेण अचि परे अभि इत्यस्य इकारस्य स्थाने यणादेशे अभ्यभि इति रूपं सिध्यति।
ऐहिक और परलोक दोनों प्रकार के फलों से वाप्त अपूर्व साधन को जो बताता है वो भगवान्‌ वेद है।
ऐहिकामुष्मिकोभयविधफलावाप्तेः अपूर्वं साधनं वेदयति भगवान्‌ वेदः।
यज्ञकर्मणि अजपन्यूङ्खसामसु यह सूत्र में आये पदच्छेद है।
यज्ञकर्मणि अजपन्यूङ्कसामसु इति सूत्रगतपदच्छेदः।
सूत्र अर्थ का समन्वय - दाक्षेः यहाँ पर दाक्षि - शब्द का षष्ठी एकवचन का रूप है।
सूत्रार्थसमन्वयः - दाक्षेः इति दाक्षि - शब्दस्य षष्ठ्येकवचने रूपम्‌।
काव्य में रस ही प्रधान है।
काव्ये रस एव प्रधानः।
इसके बाद चाप्‌ के चकार का चुदू सूत्र से इत्संज्ञा होने पर, पकार की हलन्त्यम्‌ सूत्र से इत्संज्ञा होने पर तस्यलोपः सूत्र से दोनों इत्संज्ञकों का लोप होने पर कारीषगन्ध्य आ स्थिति होती है।
ततः चापः चकारस्य चुटू इति सूत्रेण इत्संज्ञायाम्‌, पकारस्य हलन्त्यम्‌ इति सूत्रेण इत्संज्ञायाम्‌, तस्य लोपः इति सूत्रेण उभयोः लोपे सति कारीषगन्ध्य आ इति स्थितिः भवति।
योगियों के लिए शौच अत्यन्त अपेक्षित होता है शौच के बिना कोई आध्यात्मिक सिद्धि नहीं होती है।
योगिनः शौचम्‌ अत्यन्तमपेक्षितम्‌। शौचं विना न हि काचिद्‌ आध्यात्मिकी सिद्धिः सम्भवति।
अतः अव्ययीभाव से सुप्‌ का लोप नहीं होने पर वाक्य का अर्थ होता है।
अतः अव्ययीभावात्‌ सुपो न लुक्‌ इति वाक्यस्यार्थो भवति ।
पूजायां नान्तरम्‌ इस सूत्र से पूजायाम्‌ इस सप्तम्यन्त नान्तरम्‌ इस प्रथमान्त दोनों पदों की अनुवृति है।
पूजायां नान्तरम्‌ इति सूत्रात्‌ पूजायाम्‌ इति सप्तम्यन्तं नान्तरम्‌ इति प्रथमान्तं पदद्वयमनुवर्तते।
मध्याह्न में आकाश पर चढ़कर द्वितीय पाद को रखता है।
मध्याह्न आकाशम्‌ आरोढुं द्वितीयं पादं निक्षिपति।
अग्नि के सर्वज्ञ होने की भी कीर्ति है, क्योंकि वह यज्ञविषयक सभी कुछ जानती है।
अग्नेः सर्वज्ञत्वमपि कीर्तितं यतः स यज्ञविषयकं सर्वं वेत्ति।