Hindi
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Sanskrit
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लेकिन उसकी वृत्ति का अवभास नहीं होता है।
परन्तु तस्याः वृत्तेः अवभासो न भवति।
उस रुद्रदेव का प्रतीक वज्र है।
तस्मात्‌ रुद्रदेवस्य प्रतीकं वज्रः इति।
फिर यहाँ तीर्थ पद अश्रुत होता है।
पुनः अत्र तीरपदार्थः अश्रुतः अस्ति।
कृषि- खेती ही करो।
कृषिमित्‌ कृषिमेव कृषस्व कुरु ।
वेद में तो विश्वा यह रूप है।
वेदे तु विश्वा इति स्थितिः।
विवेकानन्द के द्वारा वर्णित चार प्रकार के योग कौन-कौन से हैं?
विवेकानन्देन वर्णिताः चत्वारः योगाः के?
निर्विकल्प समाधि में अखण्डाकार चित्तवृत्ति का उदय होने पर अज्ञान बन्धन के नाश से जीव मुक्त हो जाता है।
निर्विकल्पकसमाधौ अखण्डाकारचित्तवृत्तेरुदये सति अज्ञानबन्धनाशात्‌ जीवो मुच्यते।
सूत्र अर्थ का समन्वय- यहाँ कर्ता में लोट्‌ लकार है।
सूत्रार्थसमन्वयः- अत्र कर्तरि लोट्लकारः अस्ति।
अलङकृत वर्णन में किनका मानवीकरण होता है?
अलङ्कृतवर्णने केषां मानवीकरणं भवति?
उनकी उक्ति है -' मित्रः अहरभिमानिनी देवता वरुणः रात्र्यभिमानिनी।
तस्य उक्तिर्हि - मित्रः अहरभिमानिनी देवता वरुणः रात्र्यभिमानिनी।
सूक्ष्म विचार से ज्ञात होता है कि वे तीनों देव परमात्मा की ही तीन अभिव्यक्तियां है।
सूक्ष्मविचारेण ज्ञायते यत्‌ ते त्रयोऽपि देवाः परमात्मन एव तिस्रः अभिव्यक्तयः।
6 इन अनुबन्धों में सबसे अन्यतम क्या हे?
6. अयमनुबन्धेषु अन्यतमः।
यह सुत्रार्थ।
इति सुत्रार्थः।
इससे एकश्रुति का निषेध होता है, और स्वरित के स्थान में उदात्त होता है।
अनेन ऐकश्रुत्यस्य निषेधः भवति, स्वरितस्य स्थाने उदात्तश्च भवति।
वहाँ विषय ज्ञान में मन कारण है।
तत्र विषयज्ञाने मनः कारणम्‌।
व्याख्या - अङ्ग यह दुसरे को अपनी और अभिमुखी करने अर्थ में निपात है।
व्याख्या- अङ्ग इत्यभिमुखीकरणार्थो निपातः।
इसलिए सुषुप्ति स्थूलसूक्ष्मलयस्थान वाली कही जाती है।
अतः सुषुप्तिः स्थूलसूक्ष्मप्रपञ्चलयस्थानमित्युच्यते।
अज्ञान नाश से ही ज्ञान उत्पन्न होता है।
अज्ञाननाशाद्‌ एव ज्ञानं जायते।
इस पाठ को पढ़कर आप सक्षम होंगे : ० अथर्ववेद के साहित्य विषय को समझ पाने में; ० अथर्ववेद रूप वृक्ष की अनेक दिशाओं में फैली हुई शाखाओं के विषय को जानने में; ० अथर्ववेद के मूल प्रतिपाद्य विषयों को समझ पाने में; और ० स्त्री-राजा आदि के वैदिक कर्म के विषयों को जानने में।
इमं पाठं पठित्वा भवन्तः- अथर्ववेदस्य साहित्यविषये ज्ञास्यन्ति। अथर्ववेदरूपवृक्षस्य विविधासु दिक्षु प्रसृतानां शाखानां विषये ज्ञातुं शक्ष्यन्ति। अथर्ववेदस्य मूलप्रतिपाद्यविषयान्‌ ज्ञास्यन्ति। स्त्री-राजादीनां वैदिककर्मविषये ज्ञास्यन्ति।
“बृहती छन्द छत्तीस अक्षरों का होता है।
'बृहतीच्छन्दः षट्त्रिंशदक्षराणां भवति।
अतः वेदान्त उक्त मार्ग का ही अनुसरण करना चाहिए यह सिद्धान्त होता है।
अत एव वेदान्तोक्तमार्ग एव अनसरणीय इति सिद्धान्तः।
वृत्र युद्ध के समय में इन्द्र ने सोमपूर्ण तीन सरोवर को रिक्त कर दिया था।
वृत्तयुद्धसमये इन्द्रः सोमपूर्ण हृदत्रयमपि निश्शेषेण रिक्तं चकार।
वेद धर्म का निरूपण करने में पृथक्‌ प्रमाण है।
वेदो धर्मनिरूपणे पृथक्‌ प्रमाणम्‌।
उसका यहाँ सूत्र अर्थ होता है - अभि इस उपसर्ग को छोड़कर अन्य उपसर्ग आद्युदात्त हो।
ततश्च अत्र सूत्रार्थः भवति- अभि इत्युपसर्ग वर्जयित्वा अन्ये उपसर्गाः आद्युदात्ताः स्युः इति।
उस वज्र के द्वारा मेघ के भिन्न होने पर गाय जैसे अपने बछडे की और भागती है, वैसे ही जल भी अपने वेगसहित नीचे समुद्र की ओर जाना प्रारम्भ करती है।
तेन वज्रेण मेघे भिन्ने सति गौः स्ववत्सं प्रति यथा धावति तथा जलमपि सवेगं नीचैः समुद्रं प्रति गन्तुम्‌ आरभत।
उससे मन की शान्ति प्राप्त होती है।
तेन च मनसः शान्तिः लभ्यते।
पादोऽस्य विश्वां भूतानि त्रिपार्द॑स्यामूर्त दिवि॥
पादोऽस्य विश्वा भूतानि त्रिपादस्यामृतं दिवि॥
प्रत्येक सूक्त में सायणभाष्य को व्याख्या रूप से दिया हुआ है।
प्रत्येकं सूक्तस्य सायणभाष्यं व्याख्यारूपेण प्रदत्तम्‌ अस्ति ।
3 सगुण ब्रह्म कौ उपासना के कितने भेद होते हैं तथा वे कौन-कौन से हैं?
3 सगुणब्रह्मोपासनायाः भेदाः कति के च।
अपने आशय को गुप्त रखने वाले के लिए।
अनातताय धनुष्यनारोपिताय।
1. त्रयीलक्षण क्या है?
१. त्रयीलक्षणं किम्‌?
कर्तृत्व तथा करणत्व के भेद सद्भाव से यह दो प्रकार की होती है।
कर्तृत्वकरणत्वाभ्यां भेदसद्भावात्‌।
और सूत्र का अर्थ होता है-''प्रति, अनु, अव, पूर्वक सोमलोमन्‌ समास से समासान्त तद्धित संज्ञक अच्‌ प्रत्यय उदाहरण -सामासान्त का समास के समासान्त में उदाहरण है-प्रतिसामम्‌ प्रतिगमं साम इस लौकिक विग्रह में प्रति सामन्‌ सु इस अलौकिक विग्रह में “कुगतिप्रादयः” इस सूत्र से प्रादि तत्पुरुष समास होता है।
एवं च सूत्रार्थः - "प्रत्यन्ववपूर्वात्‌ सामलोमान्तात्समासात्‌ समासान्तः तद्धितसंज्ञकः अच्प्रत्ययो भवति" इति।उदाहरणम्‌ - सामान्तस्य समासस्य समासान्ते उदाहरणं प्रतिसामम्‌ इति। प्रतिगतं साम इति लौकिकविग्रह प्रति सामन्‌ सु इत्यलौकिकविग्रहे "कुगतिप्रादयः" इत्यनेन सूत्रेण प्रादितत्पुरुषसमासो भवति।
सभी उपनिषदों के तात्पर्य का प्रतिपाद्यार्थ कहा है - तमेव विदित्वाऽतिमृत्युमिति।
सर्ववेदान्तैः तात्पर्येण प्रतिपाद्यार्थम्‌ आह- तमेव विदित्वाऽतिमृत्युमिति।
पुनः शार्ङ्गरवादेः पद प्रातिपदिकात्‌ का विशेषण होता है।
पुनः शार्ङ्गरवादेः इति पदं प्रातिपदिकात्‌ इत्यस्य विशेषणं भवति।
हमारे इस जीवन को श्रद्धामय बना दो।
अस्मानस्मिन्‌ जीवने श्रद्धामयान्‌ कुरु इति।
दो पद वाला यह सूत्र है।
द्विपदात्मकं सूत्रम्‌ इदम्‌।
क्योंकि जैसे आरण्यक यज्ञ के गूढ़ रहस्य का प्रतिपादन करता है वैसे ही कर्मकाण्ड की दार्शनिक व्याख्या भी प्रस्तुत करता है।
यतो हि यथा आरण्यकं यज्ञीयगूढरहस्यस्य प्रतिपादनं करोति तथा कर्मकाण्डस्य दार्शनिकव्याख्याम्‌ अपि प्रस्तौति।
क्योंकि प्राचीन देवों ने यज्ञ से समस्त प्रपञ्च की सृजना की।
तथाहि पुरा देवाः यज्ञेन प्रपञ्चस्य सृष्टिम्‌ इष्टवन्तः।
तिङन्त स्वर विधायक कुछ सूत्रों की यहाँ आलोचना की है।
तिङन्तस्वरविधायकानि चितानि सूत्राणि अत्र आलोचितानि।
2. वेदान्त के अनुबन्धों में सम्बन्ध क्या होता है?
2 वेदान्तस्य अनुबन्धेषु सम्बन्धः कः।
रथ आदि चेतना के समान मुख्य प्रवृत्ति चाहते हैं, बिना अधिकार के नहीं चाहते हैं।
रथादयः चेतनावद्‌ अधिष्ठिताः प्रवृत्तिमर्हन्ति न अनधिष्ठिताः।
कर्षात्वतो घञोऽन्त उदात्तः' इस पूर्वसूत्र से उदात्त इस प्रथमान्त पद की अनुवृति है।
कर्षात्वतो घञोऽन्त उदात्तः' इति पूर्वसूत्रात्‌ उदात्तः इति प्रथमान्तं पदम्‌ अनुवर्तते।
स्वरित संज्ञा विधायक सूत्र (समाहारः स्वरितः' है।
स्वरितसंज्ञाविधायकं सूत्रं हि समाहारः स्वरितः इति।
चारों वेदों में अथर्ववेद सबसे अर्वाचीन है।
चतर्षु वेदेषु अथर्ववेदः अतीव अर्वाचीनः।
अर्थात्‌ नपुंसकलिङ्ग विशिष्ट अर्थ का वाचक है।
अर्थात्‌ नपुंसकलिङ्गविशिष्टार्थस्य वाचकः अस्ति।
बाघ ने क्या किया इस प्रकार से बार-बार प्रश्‍न करने पर हम अन्य के स्वप्न के अनुभव के विषय में पूर्ण रूप से जान सकते है।
व्याघ्रेण किं कृतम्‌ इत्येवं पौनःपुन्येन आकाङ्कया प्रश्नान्‌ कृत्वैव अपरस्य स्वप्नानुभवः सम्यगवबुध्यते।
अब मूलपाठ समझते है सहस्र॑शीर्षा पुरुषः सहस्राक्षः सहस्र॑पात्‌।
इदानीं मूलपाठम्‌ अवगच्छाम सहस्रशीर्षा पुरुषः सहस्राक्षः सहस्र॑पात्‌।
तो इसका एक समाधान है।
अस्तीति समाधानम्‌।
जिसके वीर पुत्र हो उसके समान।
यस्मिन्‌ वीराः पुत्राः सन्ति तद्‌ वीरवत्‌।
तत्पुरुष का तृतीय भेद है द्विगुः।
तत्पुरुषस्य तृतीयो भेदः द्विगुः।
शक्ति से स्तुति करते है यहाँ पर उदाहरण दिया गया है।
वीर्येण स्तूयमानत्वे दृष्टान्तः।
प्रतिपदविधाना षष्ठी न समस्यते ( वार्तिकम्‌ ) वातिकार्थ-प्रतिपदविधान जो षष्ठी अन्त वाले पद को सुबन्त के साथ समास नहीं होता है।
प्रतिपदविधाना षष्ठी न समस्यते (वार्तिकम्‌ ) वार्तिकार्थः - प्रतिपदविधाना या षष्ठी तदन्तं सुबन्तं न समस्यते।
यह उपासना उद्गीतसङगीत का अङगभूत है।
एषा उपासना उद्गीतसङ्गीतस्य अङ्गभूता।
उत्तरपदार्थ प्रधान है जिसमें वह उत्तरपदार्थप्रधान।
उत्तरपदार्थः प्रधानः यस्मिन्‌ स उत्तरपदार्थप्रधानः।
आर्चज्योतिष में क्या कहा है?
आर्चज्योतिषे किमुच्यते?
25. “' भूतपूर्वः" यहाँ पर भूतशब्द का पूर्वनिपात कैसे होता है?
२५ . भूतपूर्व इत्यत्र भूतशब्दस्य कथं पूर्वनिपातः?
वहाँ विधि और विधान का मिलान होता है।
तत्र विधिविधानञ्च सयुक्तिकं भवति।
घट के इन्द्रियों गोचरत्व के कारण ही घट है इस प्रकार से कहा जाता है।
घटस्येन्द्रियगोचरत्वात्‌ घटोऽस्ति इत्युच्यते।
इसलिए आठवें अध्याय के “आमन्त्रितस्य च' इस सूत्र से सर्वानुदात्त स्वर की प्राप्ति होती है।
अतः आष्टमिकेन 'आमन्त्रितस्य च' इति सूत्रेण सर्वानुदात्तस्वरः विधीयते।
न गोश्वन्साववर्णराडङक्रुङकृद्भ्यः इस सूत्र से यहाँ न इस अव्यय कौ, कर्षात्वतो घञोऽन्त उदात्तः इस सूत्र से उदात्तः इस प्रथमा एकवचनान्त पद कौ, सावेकाचस्तृतीयादिर्विभक्तिः इससे यहाँ विभक्तिः इस प्रथमा एकवचनान्त पद की अनुवृति है।
न गोश्वन्साववर्णराडङ्क्रुङ्कुद्भ्यः इति सूत्रात्‌ अत्र न इति अव्ययम्‌, कर्षात्वतो घञोऽन्त उदात्तः इति सूत्रात्‌ उदात्तः इति प्रथमैकवचनान्तं पदम्‌, सावेकाचस्तृतीयादिर्विभक्तिः इत्यस्मात्‌ अत्र विभक्तिः इति प्रथमैकवचनान्तं पदम्‌ अत्र अनुवर्तन्ते।
ऋग्वेद के सूक्तों में 'दानस्तुति' नाम के कुछ मन्त्र प्राप्त होते हैं।
ऋग्वेदस्य सूक्तेषु 'दानस्तुतिः' नाम्ना कतिपये मन्त्रा लभ्यन्ते।
और कुछ तिथि-मास-पक्ष-नक्षत्र परक है।
केचन च तिथि-मास-पक्ष-नक्षत्रपरकाः वर्तन्ते।
उनका बनाया हुआ ग्रन्थ- अष्टाध्यायी सभी अङऱगों में सुललित होकर के विराजमान है।
तत्कृतः ग्रन्थः- अष्टाध्यायी सर्वाङ्गसुललितो भूत्वा विभाति।
सरलार्थ - यह रुद्राध्याय का बारहवाँ मन्त्र है।
सरलार्थः - अयं रुद्राध्यायस्य द्वादशो मन्त्रः।
पाप शब्द और अणकशब्द कुत्स्यमान समानाधिकरण सुबन्तों के साथ समास होता है और वह तत्पुरुष संज्ञक होता है।
पापशब्दः अणकशब्दश्च कुत्स्यमानैः समानाधिकरणैः सुबन्तैः सह समस्यते, स च तत्पुरुषसंज्ञको भवति ।
चौबिसवाँ पाठ समाप्त ॥
इति चतुर्विशः पाठः।
13. सम्बन्धत्रय के द्वारा “तत्त्वमसि” इस महावाक्य के अखण्डार्थत्व का विचार कीजिए।
१३. सम्बन्धत्रयेण “तत्त्वमसि” इति महावाक्यस्य अखण्डार्थत्वं विचारयतु?
इसप्रकार उसी को जानकर ही मृत्यु को पार करके स्वस्वरूप को प्राप्त करता है या परब्रह्म के पास जाता है, ये उपाय ही है।
अथ तमेव तं विदित्वा एव मृत्युम्‌ अत्येति मृत्युम्‌ अतिक्रम्य एति स्वस्वरूपं प्राप्नोति परब्रह्म एति गच्छति इत्युपचारः।
धारयन्ति - धृ-धातु से णिच लट्‌ प्रथमपुरुषबहुवचन में।
धारयन्ति- धृ-धातोः णिचि लटि प्रथमपुरुषबहुवचने।
कर्मधारयश्च जातीयश्च देशीयश्च कर्मधारय जातीयाः तेषु कर्मधारयजातीय देशीयेषु यहां इतरेत्तरद्वन्द्व समास है।
कर्मधारयश्च जातीयश्च देशीयश्च कर्मधारयजातीयदेशीयास्तेषु कर्मधारयजातीयदेशीयेषु इति इतरेतरद्वन्द्वसमासः ।
उनमें इस पाठ मे केवलसमास का और अव्ययीभावसमास का विवरण किया गया है । अव्ययीभाव, तत्पुरुष, बहुव्रीहि, द्वन्द इत्यादि में विशेष संज्ञा विनिर्मुक्त समास होता है केवलसमास।
तेषु अस्मिन्‌ पाठे केवलसमासस्य अव्ययीभावसमासस्य च विवरणं कृतम्‌। अव्ययीभावः, तत्पुरुषः, बहुव्रीहिः, द्वन्द्वः इत्यादिविशेषसंज्ञाविनिर्मुक्तः समासो भवति केवलसमासः।
अत्ति - अद्-धातु से लट्‌ प्रथमपुरुष एकवचन में अत्ति यह रूप है।
अत्ति- अद्‌-धातोः लटि प्रथमपुरुषैकवचने अत्ति इति रूपम्‌।
अन्त अर्थ में अव्ययीभाव समास का उदाहरण है साग्नि।
अन्तार्थ अव्ययीभावसमासस्योदाहरणं भवति साग्नि इति।
स्वामी विवेकानन्दन भी योगचतुष्टय के विषय में अपने मत का प्रचार किया।
स्वामिविवेकानन्देन अपि योगचतुष्टयविषये स्वमतं विशदीकृतम्‌।
यह ग्रन्थ संहिता शिक्षा इस नाम से व्यवहार में लाया गया है।
अयं ग्रन्थः संहिताशिक्षा इति नाम्ना व्यवहृतः अस्ति।
सूत्र अर्थ का समन्वय- अभिभञ्‌जतीनाम्‌ यहाँ पर अभिभञ्‌जती यह ङीप्प्रत्ययान्त पद है।
सूत्रार्थसमन्वयः- अभिभञ्जतीनाम्‌ इत्यत्र अभिभञ्जती इति ङीप्प्रत्ययान्तं पदम्‌।
इसलिए साधनों का जो क्रम है उसका प्रमाणों के साथ इस पाठ में उपस्थापन किया गया है।
अत एव साधनेषु यः क्रमः वर्तते तस्य प्रमाणोपन्यासपुरः प्रकटनं विधीयते ।
रुद्र का धनुष बाण और तलवार विफल हो।
रुद्रस्य धनुः बाणाः खड्गश्च विफलीभवतु।
पासों से पराजित ऋणी मनुष्य।
अक्षपराजयादृणवान्‌ ।
इसी प्रकार विश्वय॑शाः, विश्वम॑हान्‌ इत्यादि में भी जानना चाहिए।
एवं विश्वय॑शाः, विश्वम॑हान्‌ इत्यादौ अपि बोद्धव्यम्‌।
वहाँ पर गुरु उसको वेदान्त का श्रवण कराते है।
ततश्च गुरुः तं वेदान्तम्‌ श्रावयति।
स्वर वर्ण आदि शिक्षा का सम्पूर्ण विषयों का सरल साङ्ग और उपाङ्ग सहित यहाँ विवेचना की है।
स्वरवर्णादिशिक्षायाः समग्रविषयाणां सरसं सरलं साङ्कोपाङ्गं च विवेचनम्‌ अत्र वर्तते।
यदि एक बार ही सम्पादन करना हो तो उसका वर्षा ऋतु में सम्पादन करना चाहिए।
यदि सकृदेव सम्पादनीयः तर्हि स वर्षर्तौ सम्पादनीयः।
पुरुष के किस अङ्ग से क्या उत्पन्न हुआ, इसकी मन्त्रानुसार व्याख्या करो।
पुरुषस्य कस्मात्‌ अङ्गात्‌ किं किम्‌ उत्पन्नम्‌ इति मन्त्रानुसारेण व्याख्यात।
निर्गुण ब्रह्म ज्ञानमात्रस्वरूप होता है।
निर्गुणं ब्रह्म ज्ञानमात्रस्वरूपम्‌।
तब सर्वनामत्व से स्मै भाव सिद्ध होता हे।
तदा सर्वनामत्वात्‌ स्मैभावः सिद्धः।
यहाँ असुन्‌ प्रत्यय के नकार की इत्संज्ञा होती है, अतः असुन्‌ प्रत्यय नित्‌ होता है, उस नित में असुन्प्रत्यय के परे उस चनः इसके आदि अच्‌ अकार की प्रकृत सूत्र से उदात्त स्वर होता है।
अत्र असुन्प्रत्ययस्य नकारस्य इत्संज्ञा भवति अतः असुन्प्रत्ययः नित्‌ भवति, तेन निति असुन्प्रत्यये परे तदन्तस्य चनः इत्यस्य आदेः अचः अकारस्य प्रकृतसूत्रेण उदात्तस्वरः भवति।
न प्रातिलोम्यम्‌ अप्रातिलोम्यं तस्मिन्‌ अप्रातिलोम्ये यहाँ पर नञ्तत्पुरुष समास है।
न प्रातिलोम्यम्‌ अप्रातिलोम्यं तस्मिन्‌ अप्रातिलोम्ये इति नञ्तत्पुरुषसमासः।
42. प्रकरण प्रतिपाद्य अर्थ का प्रकरण के आदि में तथा अन्त में उपपादन उपक्रम तथा उपसंहार कहलाता है।
४२. प्रकरणप्रतिपाद्यस्य अर्थस्य प्रकरणस्य आदौ अन्ते च उपपादनम्‌ उपक्रमोपसंहारौ इति।
इसलिए श्रुति कहती है - पूर्व में भी कहा कि ये था और है।
तदाह श्रुतिः- पूर्वमेवाहमिहासमिति >
एक ही विषय में चित्‌ का धारण ही धारणा होती है।
एकस्मिन्‌ विषये चित्तस्य धारणं हि धारणा।
यह प्रपाठक सामान्य रूप से `अरण' इस पद से जानी जाती है।
प्रपाठकोऽयं सामान्यतः “अरण इति पदेन ज्ञायते।
"अग्निर्वै प्रथमो देवतानाम्‌”, "अग्निर्वै देवानामवमः”, इत्यादि ब्राह्मणवाक्य देवताओं में अग्नि की प्रधानता को निःसन्देह प्रकट करते हैं।
"अग्निर्वै प्रथमो देवतानाम्‌”, "अग्निर्वै देवानामवमः”, इत्यादीनि ब्राह्मणवाक्यानि देवतासु अग्नेः प्राथम्यं निःसन्देहं प्रकटयन्ति।
प्रलय कितने प्रकार के होते हैं तथा कौन-कौन से प्रलय होते हैं?
प्रलयः कतिविधः। के च ते।
“स्तोकान्तिकदूरार्थकृच्छ्राणि क्तेन'' इस सूत्र का क्या अर्थ है?
"स्तोकान्तिकदूरार्थकृच्छ्राणि क्तेन" इति सूत्रस्यार्थः कः?
उससे उसका अधिष्ठाता देव रुद्र भीषण और गर्जनशील है।
तस्मात्‌ तस्य अधिष्ठाता देवः रुद्रः भीषणः गर्जनशीलश्च।
लौहित्य स्फटिक का धर्म नहीं होता है फिर भी लोहित स्फटिक इस प्रकार का व्यवहार होता है।
लौहित्यं स्फटिकस्य धर्मः नास्ति, तथापि लोहितः स्फटिक इति व्यवहारः अस्ति।
2 जहत्‌ लक्षणा क्या होती है?
२. जहल्लक्षणा नाम किम्‌?
सुख का क्या कारण है?
सुखस्य किं कारणम्‌ ?