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Sanskrit
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अमावास्या पर दो दिन तथा पूर्णिमा पर दो दिन इस याग का अनुष्ठान करना चाहिए।
अमावास्यायां दिनद्वयं पूर्णिमायां च दिनद्वयम् अस्य यागस्य अनुष्ठानं कर्तव्यम्‌।
घटावच्छिन्न ब्रह्म में ही अज्ञान होता है।
घटावच्छिन्ने ब्रह्मणि हि अज्ञानं वर्तते।
अतः यहाँ प्रदत्त प्रकार द्वारा भिन्न प्रकार से छात्रको अपना उत्तर सिद्ध करना चाहिए।
अतः अत्र पदत्तप्रकारात्‌ भिन्नेन प्रकारेण छात्रः स्वस्य उत्तराणि सिद्धानि कुर्यात्‌।
वैसे ही जैसे पट में धागे ओतप्रोत रूप से है वैसे ही प्रजाओं का सभी ज्ञान मन में रहता है।
तथाहि पटे यथा तन्तवः ओतप्रोतरूपेण वर्तन्ते तथैव प्रजानां सर्वं ज्ञानं मनसि तिष्ठति।
इन लघु आख्यानों में कुछ स्थलों पर अत्यधिक गम्भीर तत्व के तथ्यों का भी सङ्केत प्राप्त होता है, जो ब्राह्मण के कर्मकाण्ड वर्णन से बिल्कुल भिन्न होता है, तथा गहरे -गम्भीर अर्थ का भी प्रतिपादन होता है।
एतेषु लघ्वाख्यानेषु क्वचित्‌ स्थलेषु अतीव गम्भीरतात्त्विक-तथ्यानाम्‌ अपि सङ्केतः प्राप्यते, यद्‌ ब्राह्मणस्य कर्मकाण्डात्मकवर्णनाद्‌ नितान्तं भिन्नं भवति, तथा गूढ-गम्भीरार्थप्रतिपादकम्‌ अपि भवति।
केवल धर्ममूल होने से ही वेदों का आदर नहीं किया जाता है, अपितु विश्व के सबसे प्राचीन ग्रन्थ होने से और ऊचें तत्वों के निरूपण करने से आदरविशेष को हमेशा प्राप्त होते है।
न केवलं धर्ममूलकतयैव वेदाः समादृताः, अपि तु विश्वस्मिन्‌ सर्वप्राचीनग्रन्थतया अत्युच्चतत्त्वप्रतिपादकतया च आदरविशेषं लभते सदा।
नयत - नी-धातु से लोट मध्यमपुरुषबहुवचन में (छान्दसदीर्घ)।
नयत - नी - धातोः लोटि मध्यमपुरुषबहुवचने ( छान्दसदीर्घः ) ।
समास अवयव और विभक्ति का लोप नहीं होता हे।
समासावयवविभक्तेश्च लोपो न भवति" इति।
गरजने वाले पर्जन्य पापियों का संहार करते है।
वर्षकर्मवतो यत्पर्जन्यः स्तनयन्‌ हन्ति दुष्कृतः पापकृतः इति ॥
समास विधायक सूत्रार्थ लेखन अवसर पर बहुत "समस्यते'' इस पद का प्रयोग है।
समासविधायकसूत्रार्थलेखनावसरे बहुत्र "समस्यते" इति पदस्य प्रयोगः अस्ति।
वेदान्त उपनिषद्‌ प्रमाण तथा तदुपकारी शारीरिक सूत्रादि होते हैं।
वेदान्तो नाम उपनिषदुप्रमाणं तदुपाकारीणि शारीकसूत्रादीनि च।
इस जगत में छोटे-छोटे कीट से लेकर मनुष्यों तक प्राणियो को सुखप्राप्त करने के लिए और दुःख छोड़ने के लिए उनकी यह प्रवृत्ति हम दिन रात देखते हैं।
इह खलु जगति आकीटपतङ्गं प्राणिनां सुखप्राप्तये दुःखपरिहाराय च प्रवृत्तिद्वयम्‌ अहर्निशं दरीदृश्यते।
उससे यहाँ उदात्त से परे अनुदात्त के होने से 'उदात्तादनुदात्तस्य स्वरितः' इस पूर्व सूत्र से अनुदात्त के स्थान में स्वरित की प्राप्ति, उसका उदात्त परे होने पर प्रकृत सूत्र से पूर्व सूत्र से प्राप्त स्वरित स्वर का निषेध होता है।
तेन अत्र उदात्तात्‌ परस्य अनुदात्तस्य सत्त्वाद्‌ उदात्तादनुदात्तस्य स्वरितः इति पूर्वण सूत्रेण अनुदात्तस्य स्वरिते प्राप्ते तस्य उदात्तपरत्वाद्‌ अनेन प्रकृतसूत्रेण पूर्वेण प्राप्तस्य स्वरितस्वरस्य निषेधः भवति।
इसके बाद अ ब्राह्मण सर्वसंयोग होने पर निष्पन्न से अब्राह्मण शब्द से सु प्रक्रिया कार्य में अब्राह्मणः रूप होता है।
ततः अ ब्राह्मण इति जाते सर्वसंयोगे निष्पन्नात्‌ अब्राह्मणशब्दात्‌ सौ प्रक्रियाकार्ये अब्राह्मणः इति रूपम्‌ ।
किन्तु पूर्णिमा तथा अमावास्या पर अस्वस्थ होते हुए भी ब्राह्मण को ही करना चाहिए।
किन्तु पूर्णिमायाम्‌ अमावास्यायाञ्च अस्वस्थतासत्त्वे अपि ब्राह्मणेनैव करणीयं भवति।
सूत्र व्याख्या-यह अतिदेश सूत्र है।
सूत्रव्याख्या - इदम्‌ अतिदेशसूत्रम्‌ ।
62. सम्पत्ति अर्थ में अव्ययीभाव समास का क्या उदाहरण है? 63. अन्त अर्थ में अव्ययीभाव समास का क्या उदाहरण हे?
६२. सम्पत्त्यर्थ अव्ययीभावसमासस्य किम्‌ उदाहरणम्‌? ६३. अन्तार्थ अव्ययीभावसमासस्य किम्‌ उदाहरणम्‌?
43. “राजाहः सखिभ्यष्टच्‌'' सूत्र से।
४३. राजाहःसखिभ्यष्टच्‌ इति सूत्रेण।
और विद्यारण्य स्वामी कहते है को “दृश्यमानस्य सर्वस्य जगतस्तत्त्वमीर्यते।
अपि च विद्यारण्यस्वामिनः निगदन्ति यत्‌ -“दृश्यमानस्य सर्वस्य जगतस्तत्त्वमीर्यते।
उन द्रोहो को और विरोध को दूर कर दो, जो मैंने अपने शरीर से किये।
तान्‌ द्रोहान्‌ विरोधान्‌ च अपह्नियताम्‌, ये मया स्वशरीरेण कृताः।
कुछ संवाद सूक्त के नाम लिखो।
केषाञ्चन संवादसूक्तानां नामानि लिखत।
इन तीनों ज्योतिष शास्त्रों के भी लेखक लगध नाम के आचार्य है।
एतेषां त्रयाणाम्‌ अपि ज्यौतिषाणां प्रणेता लगधो नाम आचार्यः।
उसका वैशिष्ट्य और स्वरूप का भी विस्तार से यहाँ वर्णन किया गया है।
तस्य वैशिष्ट्यं स्वरूपश्चापि प्रायशः विस्तरेण अत्र वर्णितः।
महाभारत के शान्ति पर्व में आचार्य गालव द्वारा शिक्षा ग्रन्थ का उल्लेख प्राप्त होता है।
महाभारते शान्तिपर्वणि आचार्यगालवकृतस्य शिक्षाग्रन्थस्य उल्लेखः लभ्यते।
तब वह प्रतिबिम्ब जीव कहलाता है।
तदा स प्रतिबिम्बः जीव इत्युच्यते।
ईर्मा इसका क्या अर्थ है?
ईर्मा इत्यस्य कः अर्थः।
वेदों का अध्ययन करके काम्यादि कर्मों का त्याग करके नित्यादी अनुष्ठानों को करके चित्त शुद्ध तथा एकाग्र होता है तो संशय तथा विपर्यय की निवृत्ति भी सम्भव होती है।
वेदान्‌ अधीत्य काम्यादीनां त्यागम्‌ नित्यादीनाम्‌ अनुष्ठानं च कृत्वा चित्तं शुद्धम्‌ एकाग्रं च भवति चेत्‌ संशयविपर्यययोः निवृत्तिः सम्भवति।
जल प्रलय के समय नौका में स्थिर होकर के प्रतीक्षा करो।
प्लावने सति नौकायां संवक्षसि प्रतीक्षां करिष्यसि।
उससे 'ति' इसकी उदात्त भिन्न की लसार्वधातुक के परे होने से पूर्व अभ्यस्त संज्ञक धा धातु के आदि अच्‌ दकार से उत्तर अकार की प्रकृत सूत्र से उदात्त स्वर सिद्ध होता है।
तेन 'ति' इति उदात्तभिन्नस्य लसार्वधातुकस्य परत्वात्‌ पूर्वस्य अभ्यस्तसंज्ञकस्य धाधातोः आदेः अचः दकारोत्तरस्य अकारस्य प्रकृतसूत्रेण उदात्तस्वरः सिध्यति।
“पोटायुवतिस्तोककतिपयगृष्टिधेनुवशावेहद्भष्कयणीप्रवक्तृश्रोत्रियाध्यापकधूर्तैर्जातिः“ इस सूत्र से जाति की अनुवृत्ति होती है।
" पोटायुवतिस्तोककतिपयगृष्टिधेनुवशावेहद्भष्कयणीप्रवक्तृश्रोत्रियाध्यापकधूर्तैर्जातिः " इत्यस्मात्‌ सूत्रात्‌ जातिः इत्यनुवर्तते ।
अन्तः करणशुद्धिकरण परक चित्तैकाग्र शुद्धि परक साधन, साधन चतुष्टय कहे जाते हैं वो सभी इनके अन्तर्गत होते हैं।
अन्तःकरणशुद्धिकराणि चित्तैग्रतासाधनानि साधनचतुष्टयम्‌ इति एतानि सर्वाण्यपि अत्र अन्तर्भवन्ति।
सूत्र ही लक्षण बोला जाता है।
सूत्रं हि लक्षणम्‌ उच्यते।
और क्या कहते हो।
किं तदित्युच्यते।
7. संयम के जीतने पर क्या होता है?
७. संयमजये सति किं भवति?
दिव्य देवताओं का भी वह ही अधिपति है।
दिग्देवतानामपि सः अधिपतिः।
अन्वय - येन अमृतेन (मनसा) इद्‌ भूतं भूवनं भविष्यत्‌ सर्व परिगृहीतम्‌।
अन्वयः - येन अमृतेन ( मनसा ) इदं भूतं भूवनं भविष्यत्‌ सर्व परिगृहीतम्‌।
7. प्रजापति के स्वरूप का वर्णन कोजिए।
७. प्रजापतिस्वरूपं वर्णयत।
मनुष्य सुख में लिप्त रहना चाहता है।
सुखलिप्सुः मनुजः ।
शाडयायन आरण्यक दूष्टा के गुरु का क्या नाम है?
शाङ्यायनारण्यकस्य द्रष्टुः गुरोः नाम किम्‌?
बोधक प्रमाण होता है।
बोधकं च प्रमाणम्‌।
जैसे इन्द्र सोम रस पीते है, युद्ध करते हैं, वृत्र को मरते हैं और अश्व चलाते हैं।
यथा इन्द्रः सोमरसं पिबति, युद्धं करोति, वृत्रं हन्ति, अश्वं चालयति।
इन सभी अङ्गो का क्रमानुसार अनुष्ठान करना चाहिए।
एतानि अङ्गानि यथाक्रमम्‌ अनुष्ठेयानि।
छन्द में मन्त्रों की उदात्त अनुदात्त स्वरित स्वरों की विकल्प से एकश्रुति होती है यह इस सूत्र का निष्कर्ष निकला है।
छन्दसि मन्त्राणाम्‌ उदात्तानुदात्तस्वरितस्वराणां विकल्पेन एकश्रुतिः भवति इति निष्कर्षः।
नागरखण्ड ने भी इसको आदि वेद कहते है।
नागरखण्डः अपि इमम्‌ आद्यवेद इति वदति
और वह छान्दोग्य उपनिषद्‌ है।
सा च छान्दोग्योपनिषत्‌।
साधारण तया अन्ग विहीन आदि दोष रहित बकरे ही बली के लिए लाए जाते हैं।
साधारणतया दन्तुखञ्जत्वकाणत्वादिदोषरहिताः छागाः एव बलित्वेन आहूयन्ते।
जहाँ उपलब्ध अवान्तर विषय तो उन विधियों के ही पोषक और निर्वाहक है।
यत्र समुपलब्धाः अवान्तरविषयाः तु तेषाम्‌ एव विधीनां पोषकाः निर्वाहकाश्च भवन्ति।
और चैतन्यप्रदीप्त अतिसूक्ष्म अज्ञानवृत्ति के द्वारा आनन्द का अनुभव होता है।
तथा च चैतन्यप्रदीप्ताभिः अतिसूक्ष्माभिः अज्ञानवृत्तिभिः स आनन्दम्‌ अनुभवति।
इसलिए जीवन्मुक्त के और भी कर्म फलों को भोगने के लिए अवशिष्ट नहीं होते है।
अतः इतोऽपि किमपि कर्म न अवशिष्यते जीवन्मुक्तस्य फलभोगाय।
सृष्टि और संहार पुनः पुनः आते हैं।
सृष्टिसंहाराभ्यां पुनः पुनः आगच्छति।
क्योंकि विदेहमुक्त का अज्ञान के अशेष से विनाश हो जाता है।
यतो हि विदेहमुक्तस्य अज्ञानस्य अशेषतः विनाशो भवति।
अन्तिम मन्त्रत्रिष्टुप्‌ छन्द में है।
अन्त्यो मन्त्रः त्रिष्टुष्छन्दसा आम्नातः।
उन “क नाम वाले प्रजापति देवता की हम हवी के द्वारा पूजा करेंगे अथवा हम हव्य द्वारा किन देवता की पूजा करें।
कं प्रजापतिं देवाय देवं दानादिगुणयुक्तं हविषा वयमृत्विजः परिचरेम।
वैदिक वाङ्मय में अलङकारों के प्रयोग से रस का ही प्रतिपादन किया जाता है।
वैदिकवाङ्गये अलङ्काराणां प्रयोगेण रसः एव प्रतिपादितः।
इसी प्रकार अन्य फिट्‌-स्वर विधायक सूत्रों का भी वर्णन है।
एवमेव अन्यानि फिट्-स्वरविधायकानि अपि वर्णितानि।
उन दोनों में धातु प्रातिपदिक में इतरेतरयोगद्वन्दसमास है।
तयोः धातुप्रातिपदिकयोः इति इतरेतरयोगद्वन्द्वसमासः।
जो शब्द पूर्व गुणवाचक थे अब द्रव्यवाचक वे ही गुणवचनशब्द से गृहित होते हैं।
ये शब्दाः पूर्वं गुणवाचकाः आसन्‌ इदानीं द्रव्यवाचकास्ते एव गुणवचनशब्देन गृह्यन्ते।
विन्दति - विद्‌-धातु से लट्‌ प्रथमपुरुष एकवचन में (वैदिक) जरतः - जृ-धातु से शतृप्रत्यय करने पर षष्ठी एकवचन में।
विन्दति - विद्‌ - धातोः लटि प्रथमपुरुषैकवचने ( वैदिकम्‌ ) जरतः - जृ - धातोः शतृप्रत्यये षष्ठ्यैकवचने ।
लेकिन उन देवों द्वारा यजमान की अभीष्ट की सिद्धि होती है।
परं तैः देवैः यजमानस्य अभीष्टसिद्धिः भवति।
33. अव्ययीभावसमास के लक्षण में प्रायेण पद किसलिए ग्रहण किया गया है?
३३. अव्ययीभावसमासलक्षणे प्रायेण इति पदं किमर्थम्‌?
उससे पूर्वपाणिनीयाः यह रूप बनता हे।
तस्मात्‌ पूर्वर्पाणिनीयाः इति रूपं भवति।
* सर्वोपनिषदां मध्ये सारमष्टोत्तरं शतम्‌' यह मुक्तिकोपनिषद्‌ का वाक्य है।
“सर्वोपनिषदां मध्ये सारमष्टोत्तरं शतम्‌“ इत्येतद्‌ मुक्तिकोपनिषद्वाक्यम्‌।
सम्भवतः इन ऋषियों द्वारा दुष्ट मन्त्रों का समूह अलग सत्ता को भी धारण करता है।
सम्भवतः आभ्याम्‌ ऋषिभ्यां दृष्टानां मन्त्रानां समूहः पृथक्‌ सत्ताम्‌ अपि धत्ते।
गुहाहित क्या होता है?
गुहाहितं भवति किम्‌ ?
सरलार्थ - हे मित्रवरुणतुम विशेषशरीर के दीप्ति को बढाने वाले हो।
सरलार्थः- हे मित्रवरुणौ युवां विशेषशरीरस्य दीप्तिं वर्धमानाः।
वहाँ लौकिक वैदिक दोनों प्रकार के व्याकरण को बताया गया है।
तत्र लौकिकं वैदिकम्‌ उभयविधम्‌ अपि व्याकरणम्‌ आम्नातम्‌।
“न लोपो नञः” इस सूत्र से नञ पद की अनुवृत्ति होती है और तत्‌ पञ्चमी विपरिणाम में होती है।
" न लोपो नञः " इत्यस्मात्‌ सूत्रात्‌ नञः इत्यनुवर्तते तच्च पञ्चम्यन्ततया विपरिणमते ।
बहुत जगह विनियोग के प्रसङ्ग में कल्पना का ही विशेष रूप प्रभाव से परिलक्षित होता है, किन्तु ब्राह्मण की व्याख्या रीति से, और अनुगमन से इस प्रकार कल्पना आश्रितों में कुछ स्थलों में भी युक्तिमत का प्रतिपादन करता है।
बहुत्र विनियोगस्य प्रसङ्गे कल्पनाया एव विशेषरूपेण प्रभावः परिलक्षितो भवति, किन्तु ब्राह्मणस्य व्याख्या रीत्या, अनुगमनेन च एवंविधेषु कल्पनाम्‌ आश्रितेषु कतिपयस्थलेषु अपि युक्तिमत्तां प्रतिपादयति।
द्यूतक्रीडा का दुष्परिणाम ही लोक में जुए में आसक्त मनुष्य को निन्दा प्राप्त होती है।
द्यूतक्रीडायाः दुष्परिणामो हि लोके द्यूतासक्तः जनः निन्द्यः ।
वह स्वयं को स्थूल देह के रूप में मानने लगता है।
स्वयं स्थूलदेहः इति मनुते।
स्वप्न में सूक्ष्मशरीर का भान स्पष्ट होता है।
स्वप्ने सूक्ष्मशरीरस्य भानञ्च स्पष्टमस्ति।
उसकी विशिष्टता प्रदर्शन के लिए 'रहस्यब्राह्मण' इस नाम से भी जाना जाता है।
तस्य विशिष्टताप्रदर्शनाय “रहस्यब्राह्मणम्‌' इति नाम अपि प्रसृतम्‌ अस्ति।
(प.द.1.53) अब कहते है की तात्पर्यनिर्णायक लिङ्ग क्या होते हैं?
(प.द्‌.१.५३) ननु किं वै तात्पर्यनिर्णायकलिङ्गम्‌।
पुंस्‌-शब्द का ब्राह्मण आदि गण में पाठ केसे हैं?
पुंस्‌-शब्दस्य कथं ब्राह्मणादिगणे पाठः?
ज्नित्यादिर्नित्यम्‌ इस सूत्र को व्याख्या कोीजिए।
ज्नित्यादिर्नित्यम्‌ इति सूत्रं व्याख्यात।
जो मन्द दुर्वासना वासित अन्तः करण वाले होते हैं वे वैराग्य के अभाव से श्रवणादिसाधनों से हीन होने पर निर्विशेष पर ब्रह्म का साक्षात्कार करने में अक्षम होते है।
ये मन्दाः दुर्वासनावासितान्तःकरणाः वैराग्यद्यभवात्‌ श्रवणादिसाधनहीना निर्विशेषं परं ब्रह्म साक्षात्कर्तुम्‌ अनीश्वरा अक्षमाः ।
जब तक रागादि के द्वारा कलुषित चित्त रागादिवासनाक्षय सहित नहीं हो तब तक उसको अपने स्थान से विचलित नहीं करना चाहिए।
यावन्न रागादिकलुषितं चित्तं रागादिवासनाक्षयसहितं न भवेत्‌ तावत्‌ तच्चित्तं न स्वस्थानात्‌ चालयेत्‌।
“ वष्टि भागुरिरल्लोपमवाप्योरुपसर्गयोः' इस न्याय से अपीति उपसर्ग के अकार का लोप विकल्प से होता है।
"वष्टि भागुरिरल्लोपमवाप्योरुपसर्गयोः" इति न्यायेन अपीति उपसर्गस्य अकारलोपः विकल्पेन भवति।
अव्ययीभाव समास का विवेचन करो।
अव्ययीभावसमासं विवृणुत।
नित्य सुख ही मोक्ष कहलाता है।
नित्यसुखं हि मोक्षः कथ्यते।
वस्तुतः अज्ञान एक ही होता है।
वस्तुतः अज्ञानमेकं भवति।
लौकिक के और वैदिक के शास्त्रों के लिए यह शिक्षा नितान्त उपयोगी होने से अधिक महत्त्वपूर्ण है।
लौकिकानां वैदिकानाञ्च शास्त्राणां कृते इयं शिक्षा नितान्तम्‌ उपयोगित्वेन अधिकमहत्त्वपूर्णा अस्ति।
पतञ्जलि ने यद्यपि इस वेद की नौ शाखा का उल्लेख किया फिर भी वर्त्तमान में पैप्पलाद, और शौनक संज्ञा की दो शाखा ही प्राप्त होती हैं।
पतञ्जलिः यद्यपि अस्य वेदस्य नवशाखाः इति समुल्लिखति, तथापि इदानीं तु पैप्पलाद-शौनकसंज्ञके द्वे एव शाखे लभ्येते।
समय पर मनु ने एक नाव का निर्माण करके समुद्रतट पर मछली की प्रतीक्षा करते हुए बैठा गये।
यथाकालं मनुः नावमेकां निर्माय समुद्रतटे मत्स्यस्य प्रतीक्षां कुर्वन्‌ तस्थौ।
भूत अम्‌ पूर्व सु इस स्थिति में “कृत्तद्वितसमासाश्च'' इस सूत्र से समास की प्रातिपदिक संज्ञा होती है।
भूत अम्‌ पूर्व सु इति स्थिते "कृत्तद्धितसमासाश्च" इत्यनेन समासस्य प्रातिपदिकसंज्ञा भवति।
अथवा श्रवणादिसंस्कृतमनोनिबन्ध होता है।
अथवा श्रवणादिसंस्कृतमनोनिबन्धनम्‌।
और द्वितीय भाग में आठ अष्टक, चौसठ अध्याय और एक हजार सत्रह सूक्त हैं।
द्वितीये च भागे अष्टौ अष्टकानि, चतुष्षष्टिरध्यायाः, सप्तदशोत्तरसहस्राणि च सूक्तानि च सन्ति।
तब वास्तविक रस्सी पदार्थ का ज्ञान उत्पन्न होता है।
तदा वास्तविकस्य रज्जुपदार्थस्य ज्ञानमुदेति।
रुद्र के धनुष सम्बन्धि आयुध किस प्रकार के है?
रुद्रस्य धनुःसम्बन्धि आयुधं कीदृशम्‌?
शार्ङ्गरवाद्यञ: यह पञ्चम्येकवचनान्त पद हैं।
शार्ङ्गरवाद्यञ: इति पञ्चम्येकवचनान्तं पदम्‌।
हिंसा जिसमें नहीं है, वह अध्वर है।
ध्वरणं ध्वरो हिंसा यस्मिन्नास्ति सः अध्वरः।
शतुरनुमो नद्यजादी इस सूत्र से नद्यजादी इस प्रथमान्त पद की यहाँ अनुवृति आ रही है।
शतुरनुमो नद्यजादी इति सूत्रात्‌ नद्यजादी इति प्रथमान्तं पदम्‌ अनुवर्तते।
प्रश्‍न क्रम सही है अथवा नहीं।
प्रश्नक्रमः सम्यग्‌ न वा।
वह ही इन्द्र अग्निमित्रवरुण आदि को धारण करती है।
सैव इन्द्राग्निमित्रावरुणादीनां धारयित्री।
विषयों का भोग होने पर शीघ्र ही विषय का क्षय हो जाता है।
विषयोपभोगे सति शीघ्रमेव विषयस्य क्षयो भवतीति।
अनुदात्तस्य च यत्रोदात्तलोपः' इस सूत्र का उदाहरण में समन्वय कीजिए।
'अनुदात्तस्य च यत्रोदात्तलोपः' इति सूत्रस्य उदाहरणे समन्वयं कुरुत।
अर्थात्‌ “सोऽयं देवदत्तः” यहाँ पर त्यक्त विरुद्ध सः शब्द तथा अयं शब्दों के अर्थो का लक्षणत्व होता है।
अर्थात्‌ “सोऽयं देवदत्तः” इत्यत्र त्यक्तयोः विरुद्धयोः सशब्दायंशब्दयोः तदर्थयोः च लक्षणत्वम्‌।
चौ इस सूत्र में चौ इस पद का क्या अर्थ है?
चौ इत्यस्मिन्‌ सूत्रे चौ इति पदस्य कः अर्थः?
अन्वचरन्‌ - अनु उपपदचर्‌-धातु से लङ प्रथमपुरुषबहुवचन में।
अन्वचरन्‌- अनूपपदात्‌ चर्‌-धातोः लङि प्रथमपुरुषबहुवचने।
यहाँ समानाधिकरण तत्पुरुष का वर्णन किया जा रहा है।
ततः समानाधिकरणस्य तत्पुरुषस्य वर्णनमत्र विधीयते।