Hindi
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Sanskrit
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नित्य वस्तु ज्ञान के द्वारा तथा कर्म के द्वारा प्राप्त नहीं की जाती है।
न हि नित्यं वस्तु कर्मणा ज्ञानेन वा क्रियते।
गार्हपत्य आदि को कहा गया है।
गार्हपत्यादिः।
वहाँ पर शरीर एक उपाधि होता है।
शरीरं तत्र एक उपाधिः।
इस कर्म को विशेष रूप से जानते है।
इदन्तो मसिः।
17. नियम कितने हैं?
१७. नियमाः के?
शरीर तीन प्रकार होता है।
शरीरञ्च त्रिविधम्‌।
अध्यायः-4 अद्वैतवेदान्ते अपवादः- 90 36 पाठः-17 अवस्थात्रयविवेक:-जाग्रत्स्वप्नसुषुप्तयः।
अध्यायः- ४ अद्वैतवेदान्ते अपवादः- ९० ३६पाठः - १७ अवस्थात्रयविवेकः-जाग्रत्स्वप्नसुषुप्तयः।
फल स्वरूप विविध विधि ही ब्राह्मण ग्रन्थों का मुख्य विषय है।
फलतः विविधाः विधयः एव ब्राह्मणग्रन्थानां मुख्यविषयाः सन्ति।
तब अन्तःकरण प्रकाश होता हुआ अज्ञान का नाश करता है।
तदा अन्तःकरणं प्रकाशशीलं सत्‌ अज्ञानं नाशयति।
तथा अधिकार प्राप्त करने पर करने योग्य श्रवणादि साधन अन्तरङ्ग साधन कहलाते हैं।
लब्धे चाधिकारे ऊर्ध्वं कर्तव्यानि श्रवणादिसाधनानि अन्तरङ्गसाधनानि कथ्यन्ते।
(सू.भ.-3.2.3) इसलिए वहाँ पर क्रियमाण पुण्य तथा पाप के द्वारा जीव का सम्बन्ध ही नहीं होता है।
(सू भ.-३.२.३) अतः तत्र क्रियमाणेन पुण्येन पापेन वा जीवस्य सन्बन्ध एव नास्ति।
इस मन्त्र की ऋषिका श्रद्धा है, जो कामगोत्र में उत्पन्न हुई।
अस्य मन्त्रस्य ऋषिका श्रद्धा अस्ति, या कामगोत्रजा अस्ति।
यास्क ने भी कहा है - “तिस्त्र एवं देवता इति नैरुक्ता अग्निः पृथ्वी स्थानो वायुर्वेन्द्रो वाऽन्तरिक्षस्थानः सूर्यो द्युस्थानः'” इति।
यास्केनापि उक्तम्‌- "तिस्र एव देवता इति नैरुक्ता अग्निः पृथिवीस्थानो वायुर्वेन्द्रो वाऽन्तरिक्षस्थानः सूर्यो द्युस्थानः" इति।
इस प्रकार अग्नि की तीन रूपों से कल्पना की गई है।
एवमग्निस्त्रिधामूर्त्तिः सञ्जातः।
इसी प्रकार अग्नि-यहाँ पर अकार अनुदात्त, इकार उदात्त ये सिद्ध होते है।
एवम्‌ अग्नि-इत्यत्र अकारः अनुदात्तः इकारः उदात्तः इति सिध्यति।
सूत्र का अर्थ- चादय निपात अनुदात्त हो।
सूत्रार्थः- चादयः निपाताः अनुदात्ताः स्युः।
सामान्य रूप से सभी प्रत्ययों का आदि स्वर उदात्त होता है।
सामान्यतः सर्वेषां प्रत्ययानां आदिः स्वरः उदात्तो भवति।
इस वार्तिक से षष्ठीतत्पुरुषसमास का निषेध होता है।
अनेन वार्तिकेन षष्ठीतत्पुरुषसमासनिषेधो विधीयते।
हेतुपद से उनके कारणों का निर्देश होता है, जो कर्मकाण्ड विधि को सही रूप से सम्पन्न करते हैं।
हेतुपदेन च तेषां कारणानां निर्देशः भवति येः कर्मकाण्डविधयः सुष्टु सम्पद्यन्ते।
व्याख्या - जो यह वर्तमान जगत्‌ है वह पुरुष ही है।
व्याख्या- यत्‌ इदं वर्तमानं जगत्‌ तत्‌ पुरुष एव।
अनुदात्ते च इसका क्या अर्थ है?
अनुदात्ते च इत्यस्य कोऽर्थ?
दोनों ही यत शब्द से परे है।
उभयमपि यच्छब्दात्‌ परम्‌ अस्ति।
सूत्र अर्थ का समन्वय- इस उदाहरण में देवी: यह पद सम्बोधन विभक्ति अन्त वाला है।
सूत्रार्थसमन्वयः- अस्मिन्‌ उदाहरणे देवीः इति पदं सम्बोधनविभक्त्यन्तं वर्तते।
ब्राह्मण के समान ग्रन्थ अनुब्राह्मण।
ब्राह्मणसदृशो ग्रन्थः अनुब्राह्मणम्‌
रुद्राध्याय में काव्यरूप से यह मन्त्र काव्यकल्पना का और अलंकार से अलंकृत है।
रुद्राध्याये काव्यरूपेण एतानि मन्त्राणि काव्यकल्पनया अलंकारेण च अलंकृतानि सन्ति इति।
48. अर्थ अभाव अर्थ में अव्ययीभाव समास का क्या उदाहरण है?
४८. अर्थाभावार्थ अव्ययीभावसमासस्य किम्‌ उदाहरणम्‌?
वहाँ न यह अव्यय पद है, गोश्वन्साववर्णराडङक्रुङकृद्भ्यः यह समस्त पद पञ्चमी बहुवचनान्त है।
तत्र न इति अव्ययपदम्‌, गोश्वन्साववर्णराडङ्क्रुङ्कुद्भ्यः इति च समस्तं पञ्चमीबहुवचनान्तं पदम्‌।
समास वृत्तियों में अन्यतम होता है।
वृत्तिषु अन्यतमः भवति समासः।
वहाँ पर स्थूलभुक वैश्वानर ही प्रमाण होता है।
स्थूलभुक्‌ वैश्वानर इति तत्र प्रमाणम्‌।
एकवर्जम्‌ इस पद का “एक को छोड़कर' यह अर्थ है।
एकवर्जम्‌ इति पदस्य एकं वर्जयित्वा इत्यर्थः अस्ति।
इस सूत्र का अर्थ है'' तृतीयान्त सुबन्त को तृतीयान्तर्थकृत गुणवचन और अर्थशब्द के साथ विकल्प से तत्पुरुष समास संज्ञा होती है।
अस्य सूत्रस्यार्थः- "तृतीयान्तं सुबन्तं तृतीयान्तार्थकृत गुणवचनेन अर्थशब्देन च सह विकल्पेन तत्पुरुषसमाससंज्ञं भवति" इति।
और उसका विभक्ति विपरिणाम से व्याघ्र आदि विशेषण से समानाधिकरणैः होता है।
तच्च विभक्तिविपरिणामेन व्याघ्रादिभिः इत्यस्य विशेषणत्वात्‌ समानाधिकरणैः इति भवति।
कुतत्पुरुष, गतितत्पुरुषः और प्रादितत्पुरुषः “कुगतिप्रादयः' सूत्र से विधान होता है।
कुतत्पुरुषः, गतितत्पुरुषः, प्रादितत्पुरुषश्च "कुगतिप्रादयः" इति सूत्रेण विधीयते।
रहस्य शब्द से किस विद्या का मुख्य रूप से प्रतिपादन करते है?
रहस्यशब्देन कस्याः विद्यायाः मुख्यतया प्रतिपादनं क्रियते?
इस शब्द का प्रयोग भूट भास्कर ने तैत्तिरीय संहिता की भाष्यभूमिका में किया है।
अस्य शब्दस्य प्रयोगः भट्टभास्करेण तैत्तिरीयसंहितायाः भाष्यभूमिकायां कृतः।
और अन्यत्र वेद में भी कहा गया है - “न वै वातात्किञ्चिनाशीयोस्ति न मनसः किञ्चनाशीयोस्ति'' इति।
तदन्यत्रापि आम्नातं -"न वै वातात्किञ्चिनाशीयोस्ति न मनसः किञ्चनाशीयोस्ति" इति।
च यह भी अव्ययपद है।
च इत्यपि अव्ययपदम्‌।
दोनों अश्विन कुमारों को भी मैं धारण करता हूँ।
उभा उभौ अश्विना अश्विनावपि अहम्‌ एव धारयामि।
यह न तो समष्टिरूप होता है और न ही व्यष्टिरूप होता है।
न अयं समष्टिरूपः न अयं व्यष्टिरूपः।
इसी प्रकार अन्य जगह भी इस का बोध होता है।
एवमेवान्यत्रापि बोध्यम्‌।
इस वेदाङ्ग का प्रतिनिधि-ग्रन्थ है पिङ्गल आचार्य द्वारा “छन्द:सूत्रम्‌'।
अस्य वेदाङ्गस्य प्रतिनिधि-ग्रन्थः अस्ति पिङ्गलाचार्यकृतं 'छन्दःसूत्रम्‌।
अप्रसूत फल का पूर्वकृत दुःख का क्षय उपपद्य नहीं होता है।
अप्रसूतफलस्य हि पूर्वकृतदुरितस्य क्षयः न उपपद्यत इति प्रकृतम्‌।
“रसं ह्येवायं लब्ध्वानन्दी भवति” इत्यादि श्रुति में रस इसको द्वितीयान्त पद के द्वारा तथा अयम्‌ इसमें प्रथमान्त पद के द्वारा जीव तथा ब्रह्म के लब्ध लब्धव्यभाव के द्वारा दिशा निर्देश किये गये।
“रसं ह्येवायं लब्ध्वानन्दी भवति” इत्यस्यां श्रुतौ रसमिति द्वितीयान्तपदेन, अयमिति प्रथमान्तपदेन जीवब्रह्मणोः लब्धृलब्धव्यभावेन भेदनिर्देशः निगदितः।
“उस काल से विशिष्ट वह यह है ” यहाँ पर यह अर्थात्‌ एतत्कालविशिष्ट देवदत्तरूप पिण्ड से तथा सः (वह) अर्थात्‌ तत्काल विशिष्ट देवदत्तरूप पिण्ड से अभिन्न जब प्रतीत होता है तब तत्कालविशिष्ट देवदत्तरूप पिण्ड अभिन्न इसप्रकार से जब प्रतीत होता है तब तत्कालदेशविशिष्ट देवदत्तरूपपिण्ड का एतत्‌ काल एतत्‌ देश विशिष्ट देवदत्तरूप पिण्ड से भेद व्यावृत होता है।
“तत्कालतद्वेशविशिष्टः सः अयम्‌” इत्यत्र अयम्‌ अर्थात्‌ एतत्कालैतद्वेशविशिष्टात्‌ देवदत्तरूपपिण्डात्‌ सः अर्थात्‌ तत्कालतद्वेशविशिष्टः देवदत्तरूपपिण्डः अभिन्नः इति यदा प्रतीयते तदा तत्कालतद्देशविशिष्टस्य देवदत्तरूपपिण्डस्य एतत्कालैतद्वेशविशिष्टात्‌ देवदत्तरूपपिण्डात्‌ भेदः व्यावृत्तः।
यह शास्त्र प्रसिद्ध है।
इति शास्त्रप्रसिद्धम्‌।
उससे युवन्‌ ति यह स्थिति होती है।
तेन युवन्‌ ति इति स्थितिः भवति।
पुन रु गतौ इस धातु से गत्यर्थकअथवा ज्ञानार्थकधातु से रुद्रशब्द निष्पन्न होता है।
पुनः रु गतौ इतिधातोः गत्यर्थकाद्‌ ज्ञानार्थकाद्वाधातोः रुद्रशब्दो निष्पद्यते।
“नामन्त्रिते समानाधिकरणे सामान्यवचनम्‌ इस सूत्र से समानाधिकरणे आमन्त्रिते इस सप्तमी एकवचनान्त दो पद की अनुवृति आती है।
"नामन्त्रिते समानाधिकरणे सामान्यवचनम्‌' इति सूत्रात्‌ समानाधिकरणे आमन्त्रिते इति सप्तम्येकवचनान्तं पदद्वयम्‌ अनुवर्तते।
जो तीनों, प्राचीनकाल में, वर्तमानकाल में तथा भविष्यत्काल में विद्यमान है।
यः प्राचीनकाले वर्तमानकाले भविष्यत्काले च विद्यमानः।
उसके द्वारा अखिल कार्यों के विनाश को प्राप्त करता है।
तेन च अखिलकार्याणि विनाशम्‌ आप्नुवन्ति।
लेकिन जीवन्मुक्त तो यह जानता है की इस जगत में विद्यमान वस्तु प्रातिभासिक मिथ्यारूप में ही होती है।
परन्तु जीवन्मुक्तः जानाति एतत्‌ जगति विद्यमानं वस्तु प्रातिभासिकं मिथ्या इति।
जैसे - ` अधस्विदासीदुपरिस्विदासीत्‌' (ऋग्वेद १०-१२९-५) अर्थात्‌ वह नीचे भी था, और ऊपर भी था।
यथा - 'अधस्विदासीदुपरिस्विदीसीत्‌' (ऋग्वेदः १०-१२९-५) अर्थात्‌ सः अधः अपि आसीत्‌ उपरि अपि आसीत्‌ इति।
सूत्र का अवतरण- जिस शतृ प्रत्यय को नुम आगम नहीं होता है, तदन्त अन्तोदात्त से परे जो नदी प्रत्यय और अजादि शस आदि विभक्ति उसको उदात्त विधान के लिए इस सूत्र की रचना की है महर्षि पाणिनि ।
सूत्रावतरणम्‌- यस्य शतृप्रत्ययस्य नुमागमः न भवति तदन्तात्‌ अन्तोदात्तात्‌ परा या नदी अजादिश्च शसादिः विभक्तिः तस्य उदात्तत्वविधानार्थं सूत्रमिदं प्रणीतं महर्षिणा पाणिनिना।
उनका चारों योगों का समन्वय बहुत ही प्रसिद्ध है।
तस्य चतुर्णां योगानां समन्वयः अतीव प्रसिद्धः।
फिषोऽन्त उदात्तः इस सूत्र से यहाँ उदात्तः इस विधेय स्वर बोध क प्रथमा एकवचनान्त पद की यहाँ अनुवृति आ रही है।
फिषोऽन्त उदात्तः इति सूत्रात्‌ अत्र उदात्तः इति विधेयस्वरबोधकं प्रथमैकवचनान्तं पदम्‌ अनुवर्तते।
60. यौगपद्य अर्थ में अव्ययीभाव समास का क्या उदाहरण है?
६०. यौगपद्यार्थ अव्ययीभावसमासस्य किम्‌ उदाहरणम्‌?
सरलार्थ - देवों ने यज्ञ द्वारा यज्ञस्वरूप प्रजापति को पूजा।
सरलार्थः- देवाः यज्ञेन यज्ञस्वरूपं प्रजापतिं पूजितवन्तः।
देवतावाची का द्वन्द्व समास में एक साथ दोनों को प्रकृत्ति स्वर होता है।
देवताद्वन्द्वे युगपत्‌ उभे प्रकृत्या भवतः इत्यर्थः।
“नञस्तत्पुरुषात्‌”' इस सूत्र का क्या उदाहरण है?
"नञस्तत्पुरुषात्‌" इति सूत्रस्य किमुदाहरणम्‌?
अतः यह विशिष्ट अर्थ समास अवयवपदों के अर्थों से अलग अर्थ से है।
अतः अयं विशिष्टः अर्थः समासावयवपदानाम्‌ अर्थभ्यः परः भिन्नः।
इसके द्वारा ही अन्तरिक्ष आश्रित तीनो लोक की रचना की।
अनेन अन्तरिक्षाश्रितं लोकत्रयमपि सृष्टवानित्युक्तं भवति।
निषिद्धकर्मानुष्ठान से विषयासक्ति के कारण चित्त में अशुभ भावनाएँ भर जाती हैं अर्थात्‌ चित्त मलिन हो जाता है।
निषिद्धकर्मानुष्ठानाद्‌ विषयासक्त्या चित्तगताशुभवासनाभिश्च। अर्थात्‌ चित्ते मलिनत्वम्‌ अनुमीयते।
” (10/129/1) इति।
(१०/१२९/१) इति।
वहाँ द्वितीय मन्त्र में कहा गया की अग्नि की किनके द्वारा स्तुति करनी चाहिए।
ततः द्वितीये मन्त्रे उक्तं यत्‌ अग्निः कैः स्तुत्यः।
देवीसूक्त में अहंपद से कौन परामर्श देता है?
देवीसूक्ते अहंपदेन कः परामृश्यते।
त्वष्टा एक सहस्र सुवर्ण वज्रों को बनाकर उसको समर्पित करता है।
त्वष्टा एकसहस्रं सुवर्णान्‌ वज्रान्‌ निर्माय तस्मै समर्पितवान्‌।
फिर भी उनका समग्र जीवन श्रीराम कृष्ण के जीवन से प्रेरित था।
तथापि तस्य समग्रं जीवनं श्रीरामकृष्णजीवन-वचन-प्रचाराय एव विनिवेदितम्‌ आसीत्‌।
इस प्रकार से पाँच कर्मेन्द्रियाँ होती है- वाक्‌, पाणि, पाद, पायु तथा उपस्थ।
एवं कर्मेन्द्रियाणि पञ्च वाक्‌ पाणि पाद पायु उपस्थभेदेन।
अतः आध्यात्मिक जीवन में शक्तिसञ्चारण से ही इन जनों की फिर अभ्युन्नति तथा नया जीवन संचार हो।
आध्यात्मिकजीवने शक्तिसञ्चारेण एव अस्याः जातेः पुनरभ्युन्नतिः नवजीवनलाभः च स्याताम्‌।
व्याख्या - हे अग्नि वह तुम हमारे लिए अच्छी प्रकार से अर्थात आसानी से पहुँचने योग्य हो।
व्याख्या- हे अग्ने सः त्वं नः अस्मदर्थं सूपायनः शोभनप्राप्तियुक्तः भव।
उन वज्र राशि से उसने असुरों का नाश किया।
तेन वज्रराशिना स असुरान्‌ अनाशयत्‌।
इसके बाद अकः सवर्णे दीर्घः इस सूत्र से दीर्घ होने पर आजा रूप सिद्ध होता है। और इसके बाद स्वादिप्रत्यय प्रयोग से प्रथमा एकवचन में अजा सुबन्त पद सिद्ध होता है।
ततः परम्‌ "अकः सर्वर्ण दीर्घः" इति सूत्रेण दीर्घे कृते सति अजा इति रूपं सिद्ध्यति। ततश्च स्वादिप्रत्यययोगेन प्रथमैकवचने अजा इति सुबन्तं पदं सिध्यति।
6. ये जगत्‌ ब्रह्मस्वरूप की अपेक्षा अल्प होने से।
6. जगदिदं ब्रह्मस्वरूपापेक्षयाल्पमिति विवक्षितत्वात्‌ ।
विराट से भिन्न देवतिर्यङ्‌ मनुष्यादिरूप में हुआ।
विराड्व्यतिरिक्तो देवतिर्यङ्गनुष्यादिरूपोऽभूत्‌।
वेद में कहा गया है - अहं रुद्राय धनुरातनोमि।
तदाम्नातम्‌- अहं रुद्राय धनुरातनोमि।
सुषुप्ति अवस्था में विद्यमान आत्मा प्राज्ञ होती है, सुषुप्तिकाल में स्थूल विषय तथा सूक्ष्म विषय नहीं होते हैं।
सुषुप्त्यवस्थायां विद्यमानः आत्मा प्राज्ञः भवति। सुषुप्तिकाले स्थूलविषयाः सूक्ष्मविषयाः वा न सन्ति।
श्री शोभानुरूप होती है।
श्रीः शोभानुरूपा।
सरलार्थ - प्राणियों की रक्षा के लिए स्थिर किया गया तथा मन के कम्पायमान होने पर द्युलोक और पृथिवी लोक जिसको देखते हैं।
सरलार्थः- प्राणिनां रक्षणानार्थं स्थिरीकृतं तथा मनसि कम्पमाने सति द्युलोकः पृथिवीलोकश्च यं पश्यति।
इसलिए कहते है की नित्यकर्मानुष्ठानायासदु:ख पूर्वकृतदुरुतकर्मफल ही होता है।
अप्रकृतं च इदम्‌ उच्यते - नित्यकर्मानुष्ठानायासदुःखं पूर्वकृतदुरितकर्मफलम्‌ इति।
केवल प्रतिप्रस्थाता के अलावा सभी यजमान और पुरोहित समर्पित पुरोडाश के अवशेष को खाते हैं।
केवलं प्रतिप्रस्थातारं विना सर्वे यजमानाः पुरोहिताः च समर्पितपुरोडाशस्य अवशेषान्‌ भुञ्जते।
और इस प्रकार सम्पूर्ण सूत्र का अर्थ होता है की दो कहे हुए शब्दों के मध्य में जो पर है, उसको अनुदात्त हो।
एवञ्च साकल्येन सूत्रार्थो भवति द्विः उक्तयोः शब्दयोः मध्ये यः परः, तस्य अनुदात्तं स्यात्‌ इति।
उस पूजन से वो पुरुष प्रसिद्ध धर्म अर्थात जगद्रुप विकारों का धारक प्रथमया मुख्य है।
तस्मात्‌ पूजनात्‌ तानि प्रसिद्धानि धर्माणि जगद्रुपविकाराणां धारकाणि प्रथमानि मुख्यानि आसन्‌।
जीवन्मुक्त लोक संग्रह के लिए मुक्ति के बाद भी कर्म करता है इस प्रकार से गीता में कहा है।
जीवन्मुक्तः लोकसंग्रहार्थं मुक्तेः परमपि कर्म करोति इति गीतासु निगदितम्‌।
इस प्रकार हे मरुत तुम अन्तरिक्ष से हमारी और अभिमुख करके आओ।
इत्थं हे मरुतः यूयम्‌ अन्तरिक्षसकाशात्‌ अस्मदभिमुखम्‌ आगच्छ।
देवशब्द का द्वितीयाबहुवचन में यह रूप बनता है।
देवशब्दस्य द्वितीयाबहुवचने रूपमिदम्‌।
प्रतिपादित किया जाता है।
प्रतिपाद्यते।
यास्ककृत निरुक्त तो निघण्टु ग्रन्थ की व्याख्या है।
यास्ककृतं निरुक्तं तु निघण्टुग्रन्थस्य व्याख्या अस्ति।
उसी को पुरोडाशादि हवि के रूप में सङ्कल्पित किया।
तामेव पुरोडाशादिहविष्त्वेन सङ्कल्पितवन्त इत्यर्थः।
श्रुति में भी कहा है कि - अग्नेर्वा आदित्यो जायते' इति।
श्रुतौ अपि आम्नातम्‌- ’अग्नेर्वा आदित्यो जायते' इति।
शीतोष्णद्वन्दवसहिष्णुता ही तितिक्षा है।
शीतोष्णादिद्वन्द्वसहिष्णुता एव तितिक्षा ।
साम में प्रतिष्ठित है।
सामानि प्रतिष्ठितानि।
उनका जीव बोधकत्व किस प्रकार से होता है इस प्रकार की शङ्का होती है।
तेषां जीवबोधकत्वं कथमिति शङ्का स्यात्‌।
जीव तथा ब्रह्म का ऐक्य।
जीवब्रह्मणोरेक्यम्‌ ।
क्योंकि वेद में अचेतनों की भी स्तुति विहित है।
यतो हि वेदे अचेतनानाम्‌ अपि स्तुतिर्विहिता।
जैमिनीय शाखा का श्रौतसूत्र, जैमिनि गृह्यसूत्र, गोभिल गृह्यसूत्र, और खादिर गृह्यसूत्र है।
जैमिनीयशाखायाः श्रौतसूत्रम्‌, जैमिनिगृह्यसूत्रम्‌, गोभिलगृह्यसूत्रम्‌, खादिरगृह्यसूत्रञ्चेति।
उससे ही प्रातः, मध्याह्न, और सायंकाल अग्नि में हवन होता है।
तेन हि प्रातः, मध्याह्ने, सायंकाले चाग्नौ हवनं भवति।
राजकर्म विषय सूक्त राजा से सम्बद्ध बहुत सूक्त अथर्ववेद में प्राप्त होते है।
राजकर्मविषयकसूक्तानि राजभिः सम्बद्धानि बहूनि सूक्तानि अथर्ववेदे समुपलब्धानि सन्ति।
जगत्‌ को रोग से मुक्त करने के लिए और कल्याण प्रदान करने के लिए।
जगत्‌ अयक्ष्मं तथा शोभनमनस्कं करणाय।
उसका ज्ञान क्या है?
तज्ज्ञानं किम्‌।
जो भी कर्म किये जाते है उनके कुछ फल तो तुरन्त प्राप्त हो जाते हैं।
यदपि कर्म क्रियते तस्य किमपि फलं सद्यः लभ्यते।