Chapter
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61
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76
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890
| Mesra
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2
| Text
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34
|
---|---|---|---|---|
61 | 16 | 6 | 1 | به تیزی ازو چشم خود برمدار |
61 | 16 | 6 | 2 | که با او دگرگونه سازیم کار |
61 | 16 | 7 | 1 | چو برسام چینی درفشش بدید |
61 | 16 | 7 | 2 | سپه را ز لشکر به یکسو کشید |
61 | 16 | 8 | 1 | همیتاخت تا پیش ریگ فرب |
61 | 16 | 8 | 2 | پرآژنگ رخ پر ز دشنام لب |
61 | 16 | 9 | 1 | مر او را بریگ فرب دربیافت |
61 | 16 | 9 | 2 | رکابش گران کرد و اندر شتافت |
61 | 16 | 10 | 1 | چو نزدیک ماهو برابر ببود |
61 | 16 | 10 | 2 | نزد خنجر او را دلیری نمود |
61 | 16 | 11 | 1 | کمربند بگرفت و او را ز زین |
61 | 16 | 11 | 2 | برآورد و آسان بزد بر زمین |
61 | 16 | 12 | 1 | فرود آمد و دست او را ببست |
61 | 16 | 12 | 2 | به پیش اندر افگند و خود برنشست |
61 | 16 | 13 | 1 | همانگه رسیدند یاران اوی |
61 | 16 | 13 | 2 | همه دشت ازو شد پر از گفتوگوی |
61 | 16 | 14 | 1 | ببرسام گفتند کاین را مبر |
61 | 16 | 14 | 2 | بباید زدن گردنش را تبر |
61 | 16 | 15 | 1 | چنین داد پاسخ که این راه نیست |
61 | 16 | 15 | 2 | نه زین تاختن بیژن آگاه نیست |
61 | 16 | 16 | 1 | همانگه به بیژن رسید آگهی |
61 | 16 | 16 | 2 | که آمد بدست آن نهانی رهی |
61 | 16 | 17 | 1 | جهانجوی ماهوی شوریدههُش |
61 | 16 | 17 | 2 | پرآزار و بیدین خداوندکش |
61 | 16 | 18 | 1 | چو بشنید بیژن از آن شاد شد |
61 | 16 | 18 | 2 | ببالید و ز اندیشه آزاد شد |
61 | 16 | 19 | 1 | شراعی زدند از بر ریگ نرم |
61 | 16 | 19 | 2 | همیرفت ماهوی چون باد گرم |
61 | 16 | 20 | 1 | گنهکار چون روی بیژن بدید |
61 | 16 | 20 | 2 | خرد شد ز مغز سرش ناپدید |
61 | 16 | 21 | 1 | شد از بیم همچون تن بیروان |
61 | 16 | 21 | 2 | به سر بر پراگند ریگ روان |
61 | 16 | 22 | 1 | بدو گفت بیژن که ای بدنژاد |
61 | 16 | 22 | 2 | که چون تو پرستار کس را مباد |
61 | 16 | 23 | 1 | چرا کشتی آن دادگر شاه را |
61 | 16 | 23 | 2 | خداوند پیروزی و گاه را |
61 | 16 | 24 | 1 | پدر بر پدر شاه و خود شهریار |
61 | 16 | 24 | 2 | ز نوشینروان در جهان یادگار |
61 | 16 | 25 | 1 | چنین داد پاسخ که از بدکنش |
61 | 16 | 25 | 2 | نیاید مگر کشتن و سرزنش |
61 | 16 | 26 | 1 | بدین بد کنون گردن من بزن |
61 | 16 | 26 | 2 | بینداز در پیش این انجمن |
61 | 16 | 27 | 1 | بترسید کش پوست بیرون کشد |
61 | 16 | 27 | 2 | تنش را بدان کینه در خون کشد |
61 | 16 | 28 | 1 | نهانش بدانست مرد دلیر |
61 | 16 | 28 | 2 | به پاسخ زمانی همیبود دیر |
61 | 16 | 29 | 1 | چنین داد پاسخ که ایدون کنم |
61 | 16 | 29 | 2 | که کین از دل خویش بیرون کنم |
61 | 16 | 30 | 1 | بدین مردی و دانش و رای و خوی |
61 | 16 | 30 | 2 | همی تاج و تخت آمدت آرزوی |
61 | 16 | 31 | 1 | به شمشیر دستش ببرید و گفت |
61 | 16 | 31 | 2 | که این دست را در بدی نیست جفت |
61 | 16 | 32 | 1 | چو دستش ببرید گفتا دو پا |
61 | 16 | 32 | 2 | ببرید تا ماند ایدر بجا |
61 | 16 | 33 | 1 | بفرمود تا گوش و بینیش پست |
61 | 16 | 33 | 2 | بریدند و خود بارگی برنشست |
61 | 16 | 34 | 1 | بفرمود کاین را برین ریگ گرم |
61 | 16 | 34 | 2 | بدارید تا خوابش آید ز شرم |
61 | 16 | 35 | 1 | منادیگری گرد لشکر بگشت |
61 | 16 | 35 | 2 | به درگاه هر خیمهای برگذشت |
61 | 16 | 36 | 1 | که ای بندگان خداوندکش |
61 | 16 | 36 | 2 | مشورید بیهوده هر جای هش |
61 | 16 | 37 | 1 | چو ماهوی باد آنکه بر جان شاه |
61 | 16 | 37 | 2 | نبخشود هرگز مبیناد گاه |
61 | 16 | 38 | 1 | سه پور جوانش به لشکر بدند |
61 | 16 | 38 | 2 | همان هر سه با تخت و افسر بدند |
61 | 16 | 39 | 1 | همان جایگه آتشی بر فروخت |
61 | 16 | 39 | 2 | پدر را و هر سه پسر را بسوخت |
61 | 16 | 40 | 1 | از آن تخمه کس در زمانه نماند |
61 | 16 | 40 | 2 | و گر ماند هرکو بدیدش براند |
61 | 16 | 41 | 1 | بزرگان بر آن دوده نفرین کنند |
61 | 16 | 41 | 2 | سر از کشتن شاه پرکین کنند |
61 | 16 | 42 | 1 | که نفرین برو باد و هرگز مباد |
61 | 16 | 42 | 2 | که او را نه نفرین فرستد بداد |
61 | 16 | 43 | 1 | کنون زین سپس دور عمّر بود |
61 | 16 | 43 | 2 | چو دین آورد تخت منبر بود |
61 | 17 | 1 | 1 | چو بگذشت سال از برم شست و پنج |
61 | 17 | 1 | 2 | فزون کردم اندیشهٔ درد و رنج |
61 | 17 | 2 | 1 | به تاریخ شاهان نیاز آمدم |
61 | 17 | 2 | 2 | به پیش اختر دیرساز آمدم |
61 | 17 | 3 | 1 | بزرگان و بادانش آزادگان |
61 | 17 | 3 | 2 | نبشتند یکسر همه رایگان |
61 | 17 | 4 | 1 | نشسته نظاره من از دورشان |
61 | 17 | 4 | 2 | تو گفتی بدم پیش مزدورشان |
61 | 17 | 5 | 1 | جز احسنت از ایشان نبُد بهرهام |
61 | 17 | 5 | 2 | بکفت اندر احسنتشان زهرهام |
61 | 17 | 6 | 1 | سر بدرههای کهن بسته شد |
61 | 17 | 6 | 2 | وزان بند روشن دلم خسته شد |
61 | 17 | 7 | 1 | ازین نامور نامداران شهر |
61 | 17 | 7 | 2 | علی دیلمی بود کو راست بهر |
61 | 17 | 8 | 1 | که همواره کارش بخوبی روان |
61 | 17 | 8 | 2 | به نزد بزرگان روشنروان |
61 | 17 | 9 | 1 | حسین قتیب است از آزادگان |
61 | 17 | 9 | 2 | که از من نخواهد سخن رایگان |
61 | 17 | 10 | 1 | ازویم خور و پوشش و سیم و زر |
61 | 17 | 10 | 2 | وزو یافتم جنبش و پای و پر |
61 | 17 | 11 | 1 | نیَم آگه از اصل و فرع خراج |
61 | 17 | 11 | 2 | همیغلتم اندر میان دواج |
61 | 17 | 12 | 1 | جهاندار اگر نیستی تنگدست |
61 | 17 | 12 | 2 | مرا بر سر گاه بودی نشست |
Subsets and Splits