Hindi
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वह शुक्ति गुणरूप स्वार्थ अन्तर्भाव्य ही शुक्ल शब्द तथा शुक्लगुणविशिष्ट द्रव्य मे लक्षणा के द्वारा ही रहता है। | तं शुक्लगुणरूपं स्वार्थम् अन्तर्भाव्य एव शुक्लशब्दः शुक्लगुणविशिष्टे द्रव्ये लक्षणया तिष्ठति। |
अथवा खुले हुए वक्ष स्थल को देखकर कौन मनुष्य प्रेरणा को प्राप्त नहीं करता है। | अनावृतं वक्षःस्थलं दृष्ट्वा कः वा मानवः प्रेरणां न प्राप्नोति। |
इस संहिता में चार काण्ड है। | अस्यां संहितायां चत्वारः काण्डाः सन्ति। |
यहाँ शेष क्या है? | ननु अत्र कः शेषः ? |
अथवा तरुण के लिए। | तारुणाय वा। |
मनन तर्कात्मक होता है। | मननं हि तर्कात्मकम्। |
यहाँ प्रजापतिसर्वात्मा आदित्य पुरुष है,जो माया से प्रपञ्चरूप से उत्पन्न हुआ है। | प्रजापतिरत्र सर्वात्मा आदित्यः पुरुषः, यो मायया प्रपञ्चरूपेण उत्पद्यते। |
समवायी तथा असमवायी कारण के अभाव से तो उसका अनुग्रहप्रवृत्त निमित्तकारण दूरापेत ही आकाश का होत है। | समवाय्यसमवायिकारणाभावात्तु तदनुग्रहप्रवृत्तं निमित्तकारणं दूरापेतमेव आकाशस्य भवति। |
अन्य अलङ्कारों में भी अतिशयोक्ति अलङ्कार का, व्यतिरेक अलङ्कार का और समासोक्ति अलङ्कार का प्रयोग यहाँ दिखाई देता है। | अन्येषु अलङ्कारेषु अतिशयोक्त्यलङ्कारस्य व्यतिरेकालङ्कारस्य समासोक्त्यलङ्कारस्य च प्रयोगः अत्र दृश्यते। |
वो पुरुष भूमि अर्थात ब्रह्माण्डगोलक रूप को विश्वत अर्थात सभी और से वृत्वा-व्याप्त होकर दशाङऱगुल अर्थात् दशाङगुल के परिमाण देश के बाहर भी बैठा है या अवस्थित है। | सः पुरुषः भूमिं ब्रह्माण्डगोलकरूपां विश्वतः सर्वतः वृत्वा परिवेष्ट्य दशाङ्कुलं दशाङ्गुलपरिमितं देशम् अत्यतिष्ठत् अतिक्रम्य व्यवस्थितः। |
और उससे खट्व टाप् होता है। | तेन च खट्व टाप् इति स्थितिः भवति। |
प्रत्येक जन्म में मानव जो कर्म करता है। | प्रति जन्म मानवः यत् कर्म करोति। |
अखण्ड ब्रह्मज्ञान के द्वारा ब्रह्मविषयक अज्ञान का नाश होता है। | अखण्डब्रह्मज्ञानेन ब्रहमविषयकम् अज्ञानं नश्यति। |
इस क्रम साधन में बहुत दोषो को दिखाकर डॉ० बेलवेलकर, राणाडे महोदय ने एक नई योजना प्रस्तुत की। | अस्मिन् क्रमसाधने बहून् दोषान् दर्शयित्वा डॉ० बेल-वेलकर-राणाडेमहोदयाभ्याम् एकाम् अभिनवयोजनां प्रस्तुतवान्। |
यहाँ पर अग्नि की स्तुति की गई है। | अत्र अग्नेः स्तुतिः विद्यते। |
यहाँ पर पदों का अन्वय - छन्दसि एकश्रुतिः विभाषा है। | अत्र पदयोजना - छन्दसि एकश्रुतिः विभाषा इति। |
क्षेप नाम निन्दा का है। | क्षेपो नाम निन्दा। |
और उस पद को पञ्चमी में विपरिणत गो: से विशेषण है। | तच्च पदं पञ्चम्यां विपरिणतं गोः इत्यनेन विशिष्यते । |
व्यवहार समर्थ पाँच सूक्ष्मभूतों के परस्पर समिश्रण के द्वारा व्यवहार योग्य स्थूल भूतोत्पत्ति प्रक्रिया ही पञ्चीकरण है। | व्यवहारासमर्थानां पञ्च सूक्ष्मभूतानां परस्परसंमिश्रणेन व्यवहारयोग्य-स्थूलभूतोत्पत्तिप्रक्रिया एव पञ्चीकरणम्। |
केवल चित्त का लालन तथा कौतुहल से वेदान्तत्व के आलोचन से मन का तृप्ति लाभ समाधान नहीं होता है। | तु किन्तु चित्तस्य लालनम् कौतुहलात् वेदान्ततत्त्वस्य आलोचनेन मनसः तृप्तिलाभः न समाधानम् इत्यर्थः। |
आस्-धातु से आत्मनेपद लट्-लकार मध्यमपुरुषद्विवचन में। | आस्-धातोः आत्मनेपदे लट्-लकारे मध्यमपुरुषद्विवचने। |
वह सुख तो आत्म स्वभाव से ही उत्पन्न होता है। | तत् सुखम् तु आत्मस्वभावः एव। |
आहुः - ब्रू-धातु से लट्लकार प्रथमपुरुषबहुवचन में आहु: रूप बनता है। | आहुः- ब्रू-धातोः लटि प्रथमपुरुषबहुवचने आहुः इति रूपम्। |
व्याख्या - जो प्रजापति आत्मदा अर्थात आत्मा का प्रदाता है। | व्याख्या- यः प्रजापतिः आत्मदाः आत्मनां दाता। |
1 मनन ही श्रुत अद्वितीय वस्तु की वेदान्तगुण युक्ततियों के द्वारा अनवरत अनुचिन्तन होता है। | ६०. मननं हि श्रुतस्य अद्वितीयवस्तुनः वेदान्तानुगुणयुक्तिभिः अनवरतम् अनुचिन्तनम्। |
या इष आभीक्ष्ण्ये ऋयादि यहाँ पर इच्छार्थक है। | यद्वा इष आभीक्ष्ण्ये ऋयादिः अत्र इच्छार्थः। |
वेद के प्रमाण को नित्य अपौरुषेय इत्यादि गूढ तत्त्व महर्षि जैमिनि ने उनके पूर्वमीमांसा ग्रन्थ में प्रस्तुत किया। | वेदस्य प्रामाण्यं नित्यत्वम् अपौरुषेयत्वम् इत्यादीनि गूढतत्त्वानि महर्षिः जैमिनिः तस्य पूर्वमीमांसाग्रन्थे उपस्थापितवान्। |
जानीमः - ज्ञा-धातु से लट् उत्तमपुरुषबहुवचन में। | जानीमः - ज्ञा - धातोः लटि उत्तमपुरुषबहुवचने । |
देवो में से एकदेव की श्रेष्ठमूर्ति को मै देखता हूँ। | देवानाम् एकां श्रेष्ठमूर्तिम् अहं पश्यामि। |
जहाँ समाधि में विकल्प भान सत्य होने पर चित्तज्ञेयब्रह्मविषय में एकाग्र होता है वह सविकल्प समाधि होती है। | यत्र समाधौ विकल्पभाने सत्यपि चित्तं ज्ञेयब्रह्मविषये एकाग्रं भवति सः सविकल्पकः समाधिः। |
घनश्यामः रूप को सिद्ध कोजिये । | घनश्यामः इति रूपं साधयत । |
इस सूक्त में पांच मन्त्र विद्यमान है। | अस्मिन् सूक्ते पञ्च मन्त्राः विद्यन्ते। |
इस शिवसङ्कल्पसूक्त में मन की अनेक प्रकार से व्याख्या की है। | अस्मिन् शिवसङ्कल्पसूक्ते मनः विविधप्रकारेण व्याख्यातम्। |
5. पत्सुतःशी इस रूप कोसिद्ध करो? | 5. पत्सुतःशी इति रूपं साधयत। |
“निदिध्यासन अनादि दुर्वासना के द्वारा विषयों में आकृष्यमाण चित्त का विषयों से अपकर्षण करके आत्म विषयकस्थैर्य के अनुकूल मानस व्यापर करना निदिध्यासन होता है” इस प्रकार से श्रवण, मनन तथा निदिध्यासनों के अनुष्ठान से मुक्ति होती है। | “निदिध्यासनं नाम अनादिदुर्वासनया विषयेष्वाकृष्यमाणस्य चित्तस्य विषयेभ्योऽपकृष्य आत्मविषयकस्थैर्यानुकूलो मानसव्यापारः” इति। एवं श्रवण-मनन-निदिध्यासनानाम् अनुष्ठानेन मुक्तिः भवतीति । |
मुमुक्षुओं को काम्यादिकर्मों का त्याग किस प्रकार से करना चाहिए? | काम्यादिकर्मणां त्यागः केन क्रमेण कर्तव्यः मुमुक्षुणा। |
तथा मनन के द्वारा किसकी निवृत्ति होती है? | मननेन कस्य निवृत्तिः भवति। |
सूत्र अर्थ का समन्वय- इस उदाहरण में पचति यह तिङन्त पद है। | सूत्रार्थसमन्वयः- अस्मिन् उदाहरणे पचति इति तिङन्तं पदम् अस्ति। |
समुदायशक्ति नाम एकार्थीभाव सामर्थ्यम् है। | समुदायशक्तिर्नाम एकार्थीभावसामर्थ्यम्। |
इस याग में सोलह पुरोहित अर्थात् सभी अपेक्षित हैं। | अस्मिन् यागे षोडश पुरोहिताः अर्थात् सर्वे अपेक्षिताः। |
व्याकरण ज्ञान शून्य साधु शब्दों का प्रयोग चाहते है। | न हि व्याकरणज्ञानशून्यः साधून् शब्दान् प्रयोक्तुम् ईशः। |
वहाँ अव्ययीभाव होने से सप्तमी एकवचनान्त और शरद आदि तक पञ्चमी बहुवचनान्त पद है। | तत्र अव्ययीभावे इति सप्तम्येकवचनान्तं शरत्प्रभृतिभ्यः इति पञ्चमीबहुवचनान्तं पदम्। |
उससे रुद्रदेव का प्रतीक वज्र है। | तस्मात् रुद्रदेवस्य प्रतीकं वज्र इति। |
7 क्रियमाण कर्म का क्षय किस प्रकार से होता है? | ७.क्रियमाणकर्मणः क्षयं कथं भवति? |
इसलिए अवयवों में आत्मबुद्ध भ्रान्ति मात्र है। | अतः अवयवेषु आत्मत्वबुद्धिः भ्रान्तिमात्रा एव। |
वेद ही यज्ञ अर्थ को बताते है .......इत्यादि। | वेदा हि यज्ञार्थम् अभिप्रवृत्ताः..इत्यादिः। |
जागरण किसे कहते हैं? | जागरणं किम्? |
जो अपनी बुद्धि के द्वारा परमात्मा को जानना चाहता है वह भी अज्ञान में ही डूबता रहता है। | स्वबुद्ध्या परमात्मानं यः ज्ञातुम् इच्छति स अज्ञाने निमज्जति। |
सौन्दर्य ही काव्य का “रस' ऐसा विद्वान भी स्वीकार करते हैं। | सौन्दर्यम् एव काव्यस्य 'रस' इति विद्वांसः अपि स्वीकुर्वन्ति। |
उदाहरण -शार्ङ्गरवी । | उदाहरणम् - शार्ङ्गरवी । |
तीन आहुतियाँ किनको दी जाती हैं? | तिस्रः आहुतयः केभ्यः प्रदीयते? |
स्वर सहित वेदों का अध्ययन करना चाहिए। | स्वरसहिततया वेदाः अध्येतव्याः। |
न अश्व: इस लौकिक विग्रह में न अश्व सु इस अलौकिक विग्रह में “नज्' इस सूत्र से नञ् समास होने पर प्रक्रियाकार्य में न अश्व इस स्थिति में नज् के नकार का लोप होने पर अ अश्व रूप होता है। | न अश्वः इति लौकिकविग्रहे न अश्व सु इत्यलौकिकविग्रहे " नञ् " इत्यनेन सूत्रेण नञ्समासे प्रक्रियाकार्य न अश्व इति स्थिते नञः नकारस्य लोपे अ अश्व इति भवति । |
तब प्रजापति ने कहा - तुमको अपनी विशालता प्रदान करने से मै कौन हूँ। | तदा प्रजापतिः अपृच्छत् - तुभ्यं स्वमाहात्म्यप्रदानेन अहं कः स्याम् इति। |
उषा विषयक मन्त्रों के अनुशीलन से हम वैदिक ऋषियों की प्रकृति के प्रति उदार भावना को जान सकते हैं। | उषाविषयकमन्त्राणाम् अनुशीलनेन वयं वैदिकानाम् ऋषीणां प्रकृतिं प्रति उदात्तभावनां ज्ञातुं शक्नुमः। |
आरभमाणा - आपूर्वक रभ्-धातु से शानच्प्रत्ययऔर टाप्प्रत्यय करने पर प्रथमा एकवचन में आरभमाणा रूप बना। | आरभमाणा- आपूर्वकात् रभ्-धातोः शानच्प्रत्यये टाप्प्रत्यये च प्रथमैकवचने आरभमाणा इति रूपम्। |
उस क्रम को जाने बिना ही जो असम्यक् रूप से कर्मों का त्याग कर देता है वह मोक्ष प्राप्त नहीं होता है। | तं क्रममबुद्ध्वा असन्नद्धः कर्मत्यागं करोति चेद् मोक्षं न भजेत। |
प्रारब्ध कर्मो के क्षय होने पर जीवन्मुक्त पुरुष के कोई भी कर्म नहीं रुकते है। | प्रारब्धकर्मणां क्षये सति जीवन्मुक्तस्य पुरुषस्य न किमपि कर्म तिष्ठति । |
संहिता ब्राह्मण का प्रधान भेद क्या है? | संहिताब्राह्मणयोः प्रधानं पार्थक्यं किम्? |
( च ) अस्वपद विग्रह-समाज के पदों के अवयवों को बिना ग्रहण किये या बिना प्रयोग किये किया गया विग्रह अस्वपद विग्रहः होता है। | (च) अस्वपदविग्रहः - समासस्य पदात्मकान् अवयवान् अनादाय कृतः विग्रहः अस्वपदविग्रहः। |
इन सूत्रों की व्याख्या कीजिए - तत्पुरुषे तुल्यार्थतृतीयासप्तम्युपमानाव्ययद्वितीयाकृत्याः, आचार्योपसर्जनश्चाऽन्तेवासिनि, समास का अन्त उदात्त होता है। | इमानि सूत्राणि व्याख्यात- तत्पुरुषे तुल्यार्थतृतीयासप्तम्युपमानाव्ययद्वितीयाकृत्याः, आचार्योपसर्जनश्चाऽन्तेवासिनि, समासस्य अन्तः उदात्तः भवति? |
किस प्रकार से। | कीदृशम्। |
सूत्र अर्थ का समन्वय- पुसः कर्म इस अर्थ में 'गुणवचनब्राह्मणादिभ्य: ष्यञ्कर्मणि च' इससे पुंस-शब्द से ष्यञ् प्रत्यय करने पर “पौंसानि' यह पद निष्पन्न होता है। | सूत्रार्थसमन्वयः- पुंसः कर्माणि इत्यर्थ गुणवचनब्राह्मणादिभ्यः ष्यञ्कर्मणि च इत्यनेन पुंस्- शब्दात् ष्यञ्प्रत्यये पौँसानि इति पदं निष्पद्यते। |
सन्धि स्वर वर्ण आदि के। | सन्धिस्वरवर्णादीनाम्। |
आपात काल में जो जड को उस प्रकार के पदार्थ का यदि कोई भी सम्बोधन करता है, तब यह जानना होता है की उस पदार्थ में वर्तमान चेतन सत्ता का सम्बोधन होता है। | आपातदृष्टौ यत् जडं तादृशस्य पदार्थस्य यदि कोऽपि सम्बोधनं करोति, तदा इदं ज्ञातव्यं भवति यत् तस्मिन् पदार्थे वर्तमानायाः चित्सत्तायाः सम्बोधनं भवति। |
महावाक्य से तात्पर्य है अखण्डार्थ प्रतिपादक वाक्य। | महावाक्यं नाम अखण्डार्थप्रतिपादकं वाक्यम्। |
सभी दर्शनों के समान ही अद्वैत वेदान्तियों का सृष्टिक्रम भी जानना चाहिए। | सर्वेषां दर्शनानामिव अद्वैतवेदान्तिनां सृष्टिक्रमः इति वेदितव्यः। |
उदात्तेन यह तृतीया एकवचनान्त पद है। | उदात्तेन इति तृतीयैकवचनान्तं पदम्। |
श्री रामकृष्णदेव ने निम्नस्तरीय क्रिया बहुल मूर्ति पूजार्चना आदि के द्वारा उच्चस्तरी हवैतसाधन करके सभी प्रकर के आध्यात्मिक तत्वों को उपलब्ध करवाया। | श्रीरामकृष्णदेवो निम्नस्तरीयक्रियाबहुलमूर्तिपूजार्चनादिभ्यः उच्चैस्तरीयाद्वैतसाधनं कृत्वा सर्वप्रकारकम् आध्यात्मिकं तत्त्वम् उपलब्धवान्। |
वाज्य अक्ष - वाजी+अक्ष, क्षेप्रसन्धि। | वाज्य अक्षः - वाजी + अक्षः , क्षैप्रसन्धिः । |
अर्थात् किए गए कर्म का फल तो होता ही है जबतक उसके परिहार का उपाय कल्पित नहीं किया जाए। | अर्थात् कृतस्य कर्मणः फलं भवति एव यावत् तत्परिहारोपायो न कल्प्यते। |
यह हेतु त्रय जिस पुरुष के होते हैं। | एतत् हेतुत्रयं यस्य पुरुषस्य अस्ति । |
अनोबहुव्रीहेः इस सम्पूर्ण सूत्र की अनुवृत्ति आती है। | अनो बहुव्रीहेः इति सम्पूर्णमपि सूत्रम् अनुवर्तते। |
इसलिए ब्रह्मविषयी निरन्तरचित्तवृत्ति ही निदिध्यासन कहलाती है। | अतः ब्रह्मविषयिणी निरन्तरचित्तवृत्तिरेव निदिध्यासनम्। |
निर्विकल्पक समाधि में ही अखण्डाकारा चित्तवृत्ति होती है। | निर्विकल्पकसमाधौ हि अखण्डब्रह्माकारा चित्तवृत्तिस्तिष्ठति । |
इन दोनों उदात्त अनुदात्त के स्थान में यहाँ एकादेश हुआ है। | एतयोः उदात्तानुदात्तयोः स्थाने अत्र एकादेशः जातः। |
अधिष्ठान रज्जु अंश का अज्ञान ही सर्प प्रतीति का कारण होता है। | अधिष्ठानस्य रज्ज्वंशस्य अज्ञानमेव सर्पप्रतीतेः कारणम्। |
3. समृद्ध्यर्थक 4. वृद्ध्यर्थकम् 5. अर्थभावअर्थक 6. अव्ययार्थक 7. असम्प्रत्ति अर्थक 8. शब्दप्रादुर्भावार्थक 9. पश्चादर्थक 10. य़थार्थकम् 11.आनपूव्यर्थक 12. यौगयद्यार्थकम् 13. सादृश्यार्थक 14. सम्पत्त्यर्थक 15. साकल्यार्थक 16. अन्तार्थकम् अव्यय का सुबन्त के समर्थन सुबन्त के साथ समास संज्ञा होती है। | ३) समृद्ध्यर्थकं ४) वृद्ध्यर्थकम् ५) अर्थाभावार्थकम् ६) अत्ययार्थकम् ७) असम्प्रत्यर्थकम् ८) शब्दप्रादुर्भावार्थकं ९) पश्चादर्थकं १०) यथार्थकम् ११) आनपूर्व्यर्थकम् १२) यौगपद्यार्थकं १३) सादृश्यार्थकं १४) सम्पत्त्यर्थके १५) साकल्यार्थकम् १६) अन्तार्थकम् अव्ययं सुबन्तं समर्थन सुबन्तेन सह समाससंज्ञं भवति। |
क्रिया प्रश्ने यह सप्तम्यन्त पद है। | क्रियाप्रश्ने इति सप्तम्यन्तं पदम्। |
स्वर वर्ण आदि के उच्चारण किस प्रकार से करने चाहिए इस विषय में उपदेश शिक्षा शास्त्र देते हैं। | स्वरवर्णादीनाम् उच्चारणानि केन प्रकारेण कर्तव्यानि इति अस्मिन् विषये उपदिशति शिक्षा! |
अधिकरण शब्द द्रव्य परक है। | अधिकरणशब्दश्चात्र द्रव्यपरकः। |
सूर्यास्तचल समय में सूर्यदेव का अथवा रुद्रदेव की लालिमा को गोपालक और गांव की रमनिया रुद्रदेव की लीला को देखते हैं। | सूर्यास्तचलसमये सूर्यदेवस्य रुद्रदेवस्य वा लीललायां महितं भूत्वा गोपालकाः ग्राम्यरमण्यः च रुद्रदेवस्य लीलां पश्यन्ति इति। |
इस सूत्र में अव्ययीभाव यह प्रथमा विभक्ति का एकवचनान्त पद है। | अस्मिन् सूत्रे अव्ययीभावः इति प्रथमैकवचनान्तम् पदम्। |
जो प्रत्युपकार की उपेक्षा नहीं करता है तथा स्नेहवान मित्र होता है। | प्रत्युपकारम् अनपेक्ष्य उपकर्ता सुहृद् भवति। स्नेहवान् मित्रं भवति। |
इस समास का सुप्सुपासमास यह नामान्तरण है। | अस्य समासस्य सुप्सुपासमास इति नामान्तरम्। |
यद्वा अस्तेः व्यत्यस्ताक्षरयोगात् आसीत् पुरा पूर्वमेव ऐसा विग्रह करके पुरुष शब्द बना। | यद्वा अस्तेः व्यत्यस्ताक्षरयोगात् आसीत् पुरा पूर्वमेवेति विग्रहं कृत्वा व्युत्पादितः पुरुष इति। |
साधक योगारूढ हुआ अथवा नहीं यह कैसे समझा जाता है। | साधको योगारूढो न वेति कथं बोद्धव्यम्। |
मघवा - मघः अस्य अस्तीति वतुप करने पर मघवत् इसका प्रथमा एकवचन में मघवा यह रूप है। | मघवा - मघः अस्य अस्तीति वतुपि मघवत् इत्यस्य प्रथमैकवचने मघवा इति रूपम्। |
तथा गुहा पञ्चकोशों के द्वारा निर्मित होती है। | गुहा च पञ्चकोशैः निर्मिता। |
वि इससे परे अचक्षयत्स्व इस तिङन्त की तिङ इससे निघात है। | वि इत्यतः परम् अचक्षयदिति तिङन्तस्य तिङः इत्यनेन निघातः। |
बाह्यविषयों में ही इसकी प्रज्ञा अवभासित होती है। | बाह्यविषयेषु एव अस्य प्रज्ञा अवभासते। |
ब्राह्मणों में मन्त्र-कर्म-विनियोग की व्याख्या है। | ब्राह्मणेषु मन्त्र-कर्म-विनियोगानां व्याख्या अस्ति। |
यहाँ वृन्दारकनागकुञ्जरैः इस इतरेतरद्वन्दसमासनिष्पन्न तृतीया बहुवचनान्त पद है और पूज्यमानम् प्रथमैकवचनान्त पद है। | अत्र वृन्दारकनागकुञ्जरैः इति इतरेतरद्वन्द्वसमासनिष्पन्नं तृतीयाबहुवचनान्तं, पूज्यमानम् इति प्रथमैकवचनान्तं पदम् । |
अन्य रूपों की सिद्धि प्रक्रिया अजन्त स्त्रीलिङ्ग रमाशब्द के समान हैं। | अन्येषां रूपाणां सिद्धिप्रक्रिया अजन्तस्त्रीलिङ्गप्रकरणे रमाशब्दवत् वर्तते। |
प्रपाठक सामान्य रूप से किस नाम से जाने जाते है? | प्रपाठकः सामान्यतया केन नाम्ना ज्ञायते? |
त्रिकालसम्बन्धी वस्तुओं में मन प्रवृत्त करता है। | त्रिकालसम्बन्धिवस्तुषु मनः प्रवर्तते। |
यहाँ रोचते असौ इति रुचः, रुचशब्द का अर्थ दीप्यमान या शोभायमान है। | इत्यत्र रोचते असौ इति रुचः, दीप्यमानः इति रुचशब्दार्थः। |
इस प्रकार से विषय कर्मों में अनुषङ्गहीन सर्वसंकल्पसन्यासी, जितेन्द्रिय, जितात्मा, प्रशान्त, समाहित, शीतोष्णादिबाह्य द्वन्दों में सम, मानोपमानादि मानस द्वद्वों में सम ज्ञानविज्ञानतृप्तात्मा, कूटस्थ, समलोष्टाश्माकाञ्चन ही योगरूढ़ कहलाता है। | इत्थम् विषयेषु कर्मसु अनुषङ्गहीनः, सर्वसंकल्पसंन्यासी, जितेन्द्रियः, जितात्मा, प्रशान्तः, समाहितः, शीतादिबाह्यद्वन्द्रेषु समः, मानापमानादि-मानसद्वन्द्वेषु समः, ज्ञानविज्ञानतृप्तात्मा, कूटस्थः, समलोष्टाश्मकाञ्चनः एव योगारूढः इति लक्ष्यते। |
उसका चतुर्थी में दाशुषे यह रूप बनता है। | तस्य चतुर्थी दाशुषे इति। |
इसलिए जैमिनि मुनि के अनुसार अर्थवाद ही अभिप्रैत है। | अतः अर्थवादे अन्तर्भवति इति अभिप्रैति जैमिनिमुनिः। |
Subsets and Splits