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ी, वत्से ? कहने-सुनने से हृदय का भार हल्का हो जाता है. ' कुछ क्षण सिर झुका रहा, मुख पर कुछ भाव आये-गये, जैसे स्वयं में कुछ समेट रही हो. बोली उत्तरा,' हाँ, मुझे लगा अचानक एक भयंकर ताप मेरे उदर को दग्ध करने लगा, इतनी व्याकुल हो गई. . . हाथ उदर पर धर लिया, मुख से चीत्कार निकल गया तभी जैसे किसी ने कहा हो, चेत मत खोना वधू, परीक्षा का समय है, अचेत हुईं कि गर्भस्थ पुत्र गया. . ' और मैं दूसरे हाथ से अपनी देह नखों से खरोंचने लगी कि इस पीड़ा के आगे वह ताप ध्यान न आये,. ' मुझे याद आ गया, माँ की अनजाने में उस निद्रा से कितना बड़ा अनर्थ हो गया था. ' दृष्टियाँ सुभद्रा की ओर चली गईं. उन्होंने ने सिर हिलाया. विशाल कक्ष. अपार जन-समुदाय. वधू का मृदुल-सा स्वर एक सीमा तक ही पहुँच रहा था, पर विलक्षण शान्ति. स्तंभित से हो गये थे सब. 'ओह, कैसे बीता वह समय? जैसे क्षण-क्षण कोई शत-शत अग्नियों से दहा रहा हो. जैसे पल भर में वाष्प में बदल जाऊँगी. कैसा दारुण, विष-बुझे सैकड़ों तीरों के चुभन की पीड़ा. असह्य! ओह. ' स्मृति-मात्र से वह कंपित हो उठी थी. 'बस, बस, अब कुछ मत बोलो,' 'मत याद दिलाओ उन्हें उस दारुण क्षण की. अंत भला सो सब भला! नारियाँ चर्चा कर रहीं थीं, 'चेत बनाये रखा फिर भी. . ' कोई कह रहा था. . 'सुख और आनन्द के सब भागीदार, दारुण पीड़ा और जतन केवल माँ का भोग. ' वह फिर भी कहती रही, कुछ क्षण और, कुछ क्षण और. पर मुझे लगता पता नहीं समय कितना लंबा खिंच रहा है. और फिर, मैं एकाग्र होने लगी. ध्यान केन्द्रित हो गया . ताप का भान भूल गई. उन्होंने कहा ', बस, शान्त हो,सो जाओ पुत्री. ' और मैं विचित्र निद्रा में लीन हो गई. लगता रहा अमिय-कणों की फुहार रह-रह कर दग्ध तन को शीतल कर रही है. . ' 'जब जागी तो उदर पर एक ऐसा ही नील-लोहित व्रण था जो बाद में चिह्न शेष रह गया. . ' सुभद्रा बोलीं, उनकी अभिभूत दृष्टि वधू के सुकुमार मुख पर. पांचाली करुणा से भरी चुप देखती रहीं. पार्थ की नेह-भीगी दृष्टि का अनुभव हो रहा है उसे. उनके शब्द शीतलता का प्रलेप करते हैं. . 'उत्तरे, मैने प्रारंभ से तुम्हें पुत्रीवत् माना. तुम्हें नृत्य की शिक्षा देने में उसी वत्सल-आनन्द का अनुभव किया. वैसा ही स्नेह बहिन दुःशला के लिये मेरे हृदय में था. ' तभी तो मुझे अपने पुत्र के लिये स्वीकारा सोच कर तप्त हृदय शीतल हो गया. जनार्दन की भागिनेय-वधू, उत्तरा के नैन भर आये. उस विशाल सभागार में कितने नेत्र सजल हो उठे थे. पांचाली भी जानती है, दुःशला के प्रति कितना ममत्व था पार्थ के हृदय में - और वह भी इन पर अपना विशेष अधिकार समझती थी. तभी वन में जब जयद्रथ ने उसका हरण किया तो उसे जीवित छोड़ दिया कि बहिन विधवा न हो जाय. भावाकुल होकर श्वसुर के हृदय से आ लगी उत्तरा. ' इस घोर दुख में आप दोनों का ही सहारा. नहीं तो कौन बचा है मेरा!' कृष्ण-भगिनी सुभद्रा सामने खड़ी हैं, भाई का मुख झलकता है व्यवहार झलकता है उनके हर विन्यास में. 'ऐसा न कहो पुत्री,' पांचाली ने शीष पर हाथ धर दिया, ' यह सभी तुम्हारा है!'. बीच-बीच में होनेवाला ऐसा कथान्तर व्यास की कथा में व्यवधान नहीं, उसका प्रत्यक्षीकरण लगता है. अतिप्राकृतिक अस्त्रों का प्रयोग धरती का अंतस्थल दहला गये, उर्वरता रूखी रेत बन गई. महा-समर का अपशिष्ट सरस्वती और उसकी सहयोगिनी सरिताओं में विसर्जित कर दिया गया था, पोषण के स्थान पर दूषणदायी हो गया सारा जल!' कोई बोल उठा, 'अब कहाँ जल? संपूर्ण वैदिक संस्कृति को जन्म से पोषण देने वाली सदानीरा सरस्वती में जल बचा ही कहाँ!' 'जल कहाँ, अब केवल कीच और विषम गंध!' दूसरा स्वर, 'पशु-पक्षी आते हैं, बिना पिये लौट जाते हैं. ' कहाँ हो रे, अश्वत्थामा! आओ देखो. ये परिणाम कहाँ तक चला आया. और आगे कहाँ तक पहुँचेगा! शताब्दियों की अनवरत साधना ने जो उपलब्ध किया था, उत्तेजना के एक पल ने चौपट कर दिया! कैसे आदिबद्री समीपस्थ हिमनद से प्रारंभ नदीतमा की प्रभास क्षेत्र तक की अथाह जल-यात्रा इसी अहंकारी अतिचार के महादानव ने पी डाली. विस्तीर्ण, वनस्पति-सघन, खग-मृगाकीर्ण प्रदेश रुक्ष मरुथल बन कर रह गया. तटवर्ती आश्रम ध्वस्त, निर्जन पड़े हैं- ज्ञान का प्रसार कहाँ से हो? चिन्तक मनीषियों और तपस्वियों के बिना वैदिक संस्कृति और सभ्यता लुप्त प्राय है. ज्ञान-विज्ञान की धारायें सूखी जा रही हैं ' आँखों देखा सच है -लोग सिर हिलाते हैं. 'सब इस युद्ध के कारण, जो हम पर थोपा गया. ' 'अति हो गई थी,' सबको लगता है. परित्राण के लिये जो हुआ, वह होना ही था. उसी का तो परिणाम है - यज्ञों की व्यवस्था विस्मृत हो गई. लोग वेदों का शुद्ध उच्चारण भूल गये, मंत्रों का दिव्य प्रभाव क्षीण हो गया. केवल दक्षिणा का लोभ रह गया. दयनीय अर्थ-व्यवस्था एवं आर्थिक और सामरिक दृष्टि से दुर्बल आर्यावर्त को विदेशी आँखें टटोलन
े लगीं. आदर्शों के भव्य-प्रासाद ढह गये थे. उतार पर आ था गया सब. एक संपूर्ण सभ्यता-संस्कृति को निरंतर जीवन-ऊर्जा से सींचती सरस्वती अब कहां है? उन्नति के शीर्ष पर पहुँची वैदिक संस्कृति के पतन का काल बन गया यह युग, जिसमें दुष्कृतियों को हत करने के लिये कितनी सीमायें पार करनी पड़ीं. ' वर्तमान सम्राट् ने भावी सम्राट् से कहा, 'वत्स, सत्य को जान लो, जनार्दन की छाया में रहे हो. . . तुमसे बहुत आशायें हैं जन को. ' 'मामामह ने मेरे बोधों को जाग्रत कर दिया है, पूज्य. अश्वारोहण द्वारा विविध स्थानों का भ्रमण करवाते थे वे, कि अपनी आँखों से देख लूँ. ' पार्थ ने कृतज्ञ दृष्टि सुभद्रा पर डाली, 'सुभद्रे, तुम्हारे भ्राता बड़े नीतिज्ञ थे. कितने आगे तक की सोच गये. ' 'दाऊ जितने सहज विश्वासी रहे, मोहन भैया को कोई चरा नहीं सका,' उसने अपना अनुभव कह डाला. . परीक्षित बोल उठा,' 'महान् नीतिज्ञ माना है, तो फिर उनके दृष्टान्त ही आगे मार्ग दिखायेंगे. ' युधिष्ठिर का विश्वास मुखर हुआ,' मुझे विश्वास हो गया वत्स, तुम इस राज्य के योग्य उत्तराधिकारी हो. ' 'तात, आपका मार्ग-दर्शन और आशीष पाता रहूँ. प्रयत्नशील रहूँगा. ' सुभद्रा पुलक उठी. सब ने संतोष से देखा. ऐसा लगता था जैसे श्रीमद्भागवत का साक्षात निरूपण हो रहा हो. 'वे स्वर्णिम दिवस सदा को लुप्त हो गये ? ' एक चिन्तित स्वर उठा. 'सदा को कुछ लुप्त नहीं होता, वत्स. समय का चक्र, और कर्म तुम्हारे!' आरती हेतु, रजत पात्र में पातों का द्रोण धर कर कर्पूर की जोत जगाने लगे थे महर्षि द्वैपायन. सुगंधों से गमकते प्रसाद के बड़े-बड़े गंगाल सेवकों ने लाकर रख रख दिये- साम्राज्ञी के करों से निर्मित भोग! सब की उत्सुक दृष्टियाँ उधर घूम गईँ. कहते हैं - जिस मानसिकता से पाक हो, भोक्ता में तदनुकूल भाव का परिपाक अनायास हो जाता है! सात दिन की भागवत-कथा. सात दिन आचार-विचार से शुद्ध रहने का संकल्प! हृदयों का संस्कार हो रहा है. ये सात दिवस, वर्ष भर अपना शुभ-प्रभाव बना रखेंगे. सात्विकता आंशिक स्वभाव बन जायेगी. इतने समय पुनीत मनोमयता की यह डूब, कितनी दूषित भावनाओं का शमन करेगी, धीरे-धीरे वही सात्विकता, स्वभाव में परिणत होने लगेगी. 'सारे जीवन तपे थे वे, संसार को सुन्दरतर बनाने के लिये. उनके संदेश हम जीवन में उतार लें तो विश्व का कल्याण संभव है!' अभिभूत है नर-नारी. जैसे भागवत के अध्यायों का साक्षात् प्रत्यक्षीकरण देख रहे हों! सकारात्मक ऊर्जायें जन-मानस में नव-चेतना संचरित करने लगीं थीं. परीक्षित का राज्याभिषेक धूम-धाम से संपन्न हो गया. मणिपुर नरेश और कौरव्य नाग के परिवारों का समर्थन था ही, उलूपी और चित्रांगदा के साथ सभी पांडव-बंधुओं की अन्य पत्नियों के परिवार भी सादर आमंत्रित थे. सबका समुचित सत्कार किया था पांचाली ने. पौत्र को निर्देश दिया था इस विस्तृत परिवार की शाखायें अलग जा कर भी परस्पर जुड़ी रहें, अपने मूल से संबद्ध रहें. एक दूसरे की संपद्-विपद् में सहयोगी बनी रहें. आस-विश्वास का संबंध कभी न टूटे. परीक्षा की घड़ियों में एक दूसरे को साध कर ही वे अपना अस्तित्व बनाये रख सकते हैं. पितामही के रूप में सभी संततियों को नेह से सींचती रही थी वह. पर भीतर ही भीतर एक विरक्ति घेरती जा रही थी. कभी जब अकेली होती, चुपचाप बैठी कुछ सोचती रह जाती. परम मीत चला गया,मन उमड़ आता है किससे कुछ कहे. बार-बार उसके शब्द कानों में झंकारने लगते हैं. वह उपस्थित हो कर भी वर्तमान में नहीं रह जाती. ऐसी अन्यमनस्कता देख, पार्थ ने पूछा था, ' प्रिये, सबसे तटस्थ होती जा रही हो, सबसे विच्छिन्न- सी. क्या हुआ तुम्हें ? ' 'पार्थ, अब मन उचाट हो गया. कितना लंबा जीवन जी लिया, कैसी-कैसी विचित्र स्थितियाँ घेरती रहीं. . . ' 'जो बीत गया सो गया उस पर क्या सोचना. ' आगे भी क्या है- कहना चाहती थी पर कहते-कहते रुक गई. समारोह समाप्ति के पश्चात् एक खालीपन पसर गया था, जैसे खुमार उतर जाने के बाद अवसन्न-सी विरक्ति तन-मन को घेर ले. आगे कुछ करने को नहीं रहा. प्रिय सखा के प्रस्थान के बाद पार्थ का व्यक्तित्व भी बदला-बदला लगता है. तेजस्वी धनंजयका वह सव्यसाची रूप उदासीनता के आवरण से ढँक गया. युद्ध के बाद के घटना-क्रम ने हृदय में स्थाई ग्लानि-भाव की छाया डाल दी. नकुल-सहदेव के लिये कोई क्षेत्र नहीं बचा, हाँ अपने को लगा सकें. अवस्था में छोटे होने पर भी वार्धक्य का प्रभाव उन पर कम नहीं था. नित्यसुन्दरी, चिर-यौवना, पांचाली अपने आप में सिमटी हुई - जीवन की सारी रुचियाँ, सारे चाव हवा हो गये. उसे देख कर लगता जैसे कोई मनोरम चित्र मन को भाये पर थिरता में थम जीवन्तता का बोध गुम जाये. ' भीम का वेग शान्त पड़ गया, युधिष्ठिर की धर्म और नीति की दमक को तो तभी से ग्रहण लग गया था जब बर्बरीक ने औचित्य पर प्रश्न उठाया था. रही-सही कमी कर
्ण के वृत्तान्त ने पूरी कर दी. पांडव -बंधुओं को लगने लगा कि अब यहाँ उनका कोई काम नहीं. योग्य उत्तराधिकारी सब सँभाल लेगा. युगान्तर के आचार-विचार में आया परिवर्तन कभी-कभी उनके वार्तालाप का विषय बन जाता था. 'आगे क्या' का प्रश्न सिर उठाने लगा. वेदव्यास के शब्द याद आये, 'हमारी नीति-अनीति हमारे साथ! अब नई पीढ़ी को अपने समय के साथ जीने दो. काल-कथा की नई भूमिकाओं में नये पात्रों का आगमन, पुरानों का पृष्ठभूमि में पदार्पण; यही जीवन का क्रम है. . . ' सब गहन सोच में पड़े रहे, किन्तु समाधान खोजना ही था. और उन्होंने निश्चय किया कि अब यहाँ से प्रस्थान करना ही उचित है, पूरा प्रबंध करने के पश्चात् परीक्षित को समझा-बुझा कर उन्होने सुभद्रा और उत्तरा को प्रबोधित किया, पुत्र के गृहस्थाश्रम में प्रवेश हेतु परामर्श दिया. पांचाली ने उत्तर नरेश की पुत्री इरावती के साथ पौत्र के विवाह हेतु अपना मत प्रकट कर दिया. प्रस्थान की पूर्व-संध्या वे प्रणाम करने महर्षि व्यास के आश्रम गये. स्नेह से आसन दे समुचित सत्कार किया उन्होंने. प्रस्थान की बात जान कर बोले,' उचित है. सारे कार्य संपन्न कर चुके, तुम्हारा निर्णय सर्वथा उचित है. ' कुछ रुक कर उन्होंने कहा, ' अब तक के सांसारिक संबंध अब नहीं, सब समानरूपेण स्वतंत्र हैं. किसी पर किसी का अधिकार नहीं. ' उन्होंने युधिष्ठिर की ओर देखा था. 'सब अपने निजत्व में रमें, सबका व्यक्तित्व अपने ही स्व के अधीन रहे. ' बिदा समय साथ हो लिये थे वे, आश्रम-द्वार पर रुक कर खड़े हो गये. 'जाओ वत्स, पंथ कल्याणमय हो तुम्हारा! अब पीछे लौट कर मत देखना. ' पीछे खड़े वे उन्हें जाते हुये निहारते रहे. श्वेत श्मश्रुओं और रजत भौंहों के नीचे किंचित ढके नेत्र अर्ध निमीलित हो उठे थे. और फिर प्रस्थान की बेला आ गई. नगर-सीमा के आगे, जहाँ तक संभव हो सके, रथारूढ़ रहें - परीक्षित का अनुरोध था. प्रजाजनों और परिजनो के उद्गारों से, चलते समय व्यवधान न पड़े, वे शान्ति से गृह त्याग सकें इसलिये रात्रि की सुनसान, अंतिम बेला में पाँचो पांडव द्रौपदी के साथ उत्तर- यात्रा पर चल पड़े. जीवन भर संघर्ष से थके प्राणी! अंत में विजय मिली, पर उसके लिये क्या-क्या मूल्य चुकाना पड़ा! अपने दुष्कृतों के प्रायश्चित हेतु हिमालय की देव-धरा पर जा कर साधना करने का विचार मन में पाले, वे निरंतर बढ़ते गये. जीवन में दीर्घकाल तक वनवासी रहे उन छः जनों के लिये पर्वत के तल-तक चलते जाना कोई बड़ी बात नहीं थी. गिरि पर आरोहण का श्रम या अपने आप में डूबे, वे अधिक तर मौन ही चलते जा रहे थे. बीच-बीच में कुछ वार्तालाप हो जाता था. 'कितना गहन वन. 'पांचाली बोल उठी, ' यहाँ तो वन्य-जीव रहते होंगे?" अर्जुन आगे बढ़ आये, 'हाँ छोटे-बड़े सब. यहीं तो वन-शूकर के कारण भगवान पशुपति से झड़प हुई थी मेरी, और फिर पाशुपत अस्त्र की प्राप्ति.' पार्थ के चले हुये रास्ते हैं ये, इधर ही तपस्या करने इन्द्रकील पर्वत पर आये थे. अपने अनुभव बताने लगते है. दोनों छोटे, कुछ कह-सुन कर परस्पर मन बहला लेते हैं. वे भी चर्चा में सम्मिलित हो गये. हिमालय के भव्य और दिव्य परिवेश में आगे और आगे, ऊँचाइयों पर चढने लगे वे. पर्वत के शिखरों का विस्तृत क्रम प्रारंभ हो चुका था. युधिष्ठिर चुप चल रहे हैं, यों भी मौन ही रहते आये थे, उनकी विचार-लीनता स्वाभाविक लग रही है. वेद व्यास के कथन बार-बार स्मरण हो आते हैं. 'यह मात्र बाहरी यात्रा नहीं, एकान्त अंतर-यात्रा भी हो, जो मन के गहन से परिचित कराये!' आशीष था, या वानप्रस्थ के लिये संदेश? उन्होंने कहा था -' किसी का किसी पर अधिकार नहीं ' युधिष्ठिर को लग रहा है उन्हीं के लिये कहा. और तो किसी ने किसी को कहीं अटकाया नहीं...मैंने ही कितनी बार...और द्यूत में. भी...सोचा था केवल क्रीड़ा है, पर कहाँ रहा था वहाँ मनोरंजन! एक दुरभिसंधि थी जैसे.., मनोमालिन्य ही बढ़ा, एक बार नहीं बार-बार...' पश्चाताप से भर उठे. 'स्वयं को धिक्कारते-से पग बढ़ाये जा रहे हैं. अनुज-वधू थी. कैसे प्रस्तुत किया मैंने, माँ का उत्तर जानता था, ओह, मन का सच! मुझे लगता था सबसे बड़ा हूँ, सब नीतिज्ञ मानते हैं मुझे! जो करूँगा परिस्थितियों के अनुसार उचित कहलायेगा. उस दिन बर्बरीक ने झटक दिये सारे आवरण! और अब स्वयं से सामना! 'बहुत अकार्य कर डाले हैं, तब विचार नहीं किया... अब पश्चाताप ही शेष रहा..' 'जीवन भर जो करना पड़ा, अपनी समझ भर किया, अब सारी गठरी ही सौंप आई तो अपना क्या? रिक्त हूँ! उस सबसे मुक्त हूँ...' धर्मराज क्या कहें! वही कहती रही. 'देख रही हूँ चारों ओर का असीम विस्तार, डूब जाती हूँ इस में..' 'तुम नारी हो सहज समर्पित हो सकती हो. हमारा अहं, हमारा कर्तृ-भाव हमें जगाये रखता है.' 'हर पुरुष में एक नारी निहित है, उससे बचता रहता है, पर, उससे भिन्न हो कर वह रिक्त र
ह जाता है, बस अपने भीतर उसे जगा रहा हूँ. उससे समन्वित हो कर संभव है यह कोलाहल शान्त हो जाये, अंतर की उद्विग्नता से मुक्ति मिल जाये. अब तक उसे दबाता रहा अपने अहं में उसे सुना नहीं. पर अब उसके बिना निस्तार नहीं. साधना के पथ में केवल पुरुष होना पर्याप्त नहीं. यह पुरुष-भाव कहीं समर्पित होने नहीं देगा. .उस निष्ठा, उस विश्वास और समर्पण के बिना अध्यात्म का मार्ग खुलेगा नहीं.' सब मौन सुनते रहे. 'आज मैं समझ पाया, सारे संबंध सामाजिकता और सांसारिकता के निर्वाह हेतु जुड़ते हैं प्रत्येक का व्यक्तित्व अक्षुण्ण रहे यही उचित है.' 'संबंधों को भावना मधुर बनाती है बुद्धि या तर्क तो.., ' सबको अपनी ओर देखते पा सहदेव सकुचा कर बीच में ही चुप हो गये. नकुल ने जोड़ा, 'बौद्धिकता से पूरा नहीं पड़ता, भावना की फुहार बिना लगाव कैसे विकसे! और कहते हैं, सात जनम का बंधन होता है...' भीम, चुप न रह सके, '.हे भगवान, सात जनम ! एक को ही ईमानदारी से निभा दे....' पांचाली कैसे चुप रहती, ' सात जनम वही सारे पति..नहीं रे, नहीं, सोच कर ही जान सूख जाती है.' फिर स्पष्ट करने लगी -'नहीं, ऐसा नहीं, जनार्दन ने कहा था, ये नहीं होता कि पति, पति ही हो या पुत्र, पुत्र ही हो., बंधु, भगिनी पिता कुछ भी. जन्म लेंगे, मिलेंगे संस्कारवश.' सहदेव ने एक और मोड़ दिया, ' सात जन्मों की बात है तो ऐसा होता होगा कि इस जन्म में जो पति बन कर सेवा-समर्पण ले, अगले में वह उसी की पत्नी बन कर उसका उधार चुकाये.' सब हँस पड़े. 'तुम भी इतने ज्ञानी नहीं रहोगे.' 'पांचाली, तुमसे कब जीता मैं?' भीम का प्रश्न, 'फिर सात जनम क्यों?' 'जिसमें तुम जैसे लोग एक दूसरे के अनुकूल होने के प्रयास करते रहें, विमुख न हों.' चैन की सांस ली भीम ने, 'वही तो मैं कहूँ..' 'क्यों हिडिंबा भाभी का ध्यान आ गया?' सबकी विनोदभरी दृष्टियाँ भीम पर. 'वे अगले जनम में नया रूप लेंगी, अपने संस्कारों के अनुरूप. क्यों भीम के पीछे पड़े हो! तुम भी नकुल, आवश्यक नहीं कि इतने सुन्दर ही बने आओ. सदा करेणुका से तुलना करते रहते हो.' कुछ खिसियाता सा बोला, 'तुमसे तो नहीं करता न!' युधिष्ठिर सुन रहे थे अब तक, बोल उठे, 'अब यहाँ वे सब चर्चायें नहीं करनी चाहियें.' 'भइया, हम तो केवल हँस बोल रहे हैं, मन से कोई लिप्त नहीं.' आरोहण का क्रम जारी रहा. भयंकर शीत, पग-पग पर धमकाती उद्दंड हवायें, पल-पल विचलित करती, जीवनी-शक्ति खींचे ले रही हैं. लड़खड़ाते, एक दूसरे को सहारा देते बढ़े जा रहे हैं धीरे-धीरे! सर्वप्रथम द्रौपदी की सहनशक्ति ने जवाब दे दिया. अग्नि-संभवा पांचाली जीवन भर ताप झेलती रही. उसके जीवन का उपसंहार हो रहा था, चिर-शीतल हिम-शिखरों के बीच. गिर पड़ी द्रौपदी. द्रुत गति से अर्जुन आगे बढ़े. वही लाए थे उसे, कितने चाव से भरे, अपने पौरुष की परीक्षा देकर. प्रिया को अंतिम क्षणों में बाँहों का सहारा देने आगे आए. "नहीं.' युधिष्ठिर ने रोक दिया. 'अब उसे किसी की आवश्यकता नहीं बंधु, उस ओर अकेले ही जाना है.' जिस नारी ने जीवन भर हमारा साथ दिया आज हम उसके लिए कुछ नहीं कर पा रहे हैं. क्या कभी कुछ कर पाए? आज भी इतने विवश क्यों हैं- पार्थ का हृदय विकल हो उठा. द्रौपदी ने क्षण भर को नेत्र खोले. पाँचो पर दृष्टिपात किया, अर्जुन पर आँख कुछ टिकी - जैसे बिदा मांग रही हो. बहुत धीमें बोल फूटे, ' हे कृष्ण, गोविंद, माधव, मुरारे... ' जाने कहाँ से एक मोरपंख याज्ञसेनी के समीप आ गिरा. देखा उसने, ईषत् हास्य अधरों पर खेला और जीवन भर जलनेवाली वह वर्तिका शान्त हो गई. भीम के आगे बढते पग थम गए, धम्म से वहीं बैठ गए. नकुल, सहदेव स्तब्ध. अर्जुन ने आँसू छिपा लिए. युधिष्ठिर स्थिर हैं. कुछ क्षण देखते रहे एकदम चुप, अगम से. फिर बोले, ' कहीं रुकना नहीं है अब कुछ नहीं है यहाँ, बस, चलो आगे!' अर्जुन कह रहे थे, '..अब तक उसमें प्राण थे, वह सबका हिस्सा थी. अब निर्जीव है किसी की नहीं रही. अब केवल मेरी, ' व्याकुल हृदय आज हर मर्यादा भूल गया, ' नित्ययौवना, याज्ञसेनी, छोड़ कर अभी मत जाओ.. मैं जीवन भर भटकता रहा...कहाँ रह पाया तुम्हारे साथ. रुक जाओ, पांचाली मत जाओ..! ' देखते रहे उस निष्चेष्ट देह को. झुक आये उसकी ओर, 'ओ पांचाली, थक गई तू, नहीं झेल पाई, चली गई तू..' वहीं बैठे रहे अर्जुन, पांचाली के शान्त निर्विकार श्यामल मुख को निष्पलक ताकते. 'वह किसी की नहीं. केवल मेरी. सब जाओ अब. मैं देख लूँगा..' सारे भाई शोकाकुल विमूढ़! युधिष्ठिर आगे बढ़े, 'अब कुछ देखने को नहीं बचा. पागल हुये हो बंधु, अब पांचाली कहाँ! मृत देह, माटी,. मोह छोड़ो, उठो.' अर्जुन ने सुना कि नहीं सुना? 'वह सौभाग्यशालिनी थी, चली गई.' कुछ रुक कर बोले युधिष्ठिर, 'हमें भी उसी राह जाना है. रुकना नहीं है अब, उठो बंधु, उठो.' भीम को संकेत किया, वे अनुज को हाथ पकड़ उठाने लगे.
अर्जुन विवश यंत्र-चालित-से उठे. भीम और युधिष्ठिर ने बीच में ले लिया. युधिष्ठिर ने कुछ विचार कर सीधे आगे न बढ़ कर, चढ़ाव के घूम पर मोड़ की ओर पग बढ़ाये, बंधु साथ देते रहे, अचानक लौट पड़े अर्जुन. बड़े पांडव ने टेरा, ' कहाँ, कहाँ जा रहे हो, बंधु?.' कोई उत्तर नहीं. पार्थ बिना कुछ बोले चलते रहे. पांचाली की देह के निकट पहुँचे. जा कर अर्जुन ने अपना उत्तरीय उतारा और झुक कर पत्नी की देह आवरित करने लगे. 'बंधु, अब उसे शीत-ताप कुछ नहीं व्यापेगा.' युधिष्ठिर पीछे चले आये थे. पार्थ नहीं मान सके अग्रज का तर्क, जीवन भर पाले गये अनुशासन भंग हो गये, 'उत्तरदायी मैं हूँ, पितृगृह से उसे अर्धांगिनी बनाने को मैं लाया था, दायित्व मेरा था. क्या किया मैंने उसके साथ? जब वह पूछेगी, मुझे अनावृत्त कैसे भेज दिया तुमने? मैं क्या कहूँगा...' युधिष्ठिर ने कुछ कहा. शब्द उनके कानों तक नहीं पहुँचे. उनके हाथ ठिठक गये, दृष्टि उस चिर -परिचित मुख पर टिक गई, नील-कमल की सुपरिचित गंध कुछ देर चतुर्दिक मँडरा कर वायु-मंडल में विलीन हो गई. 'पांचाली, तुम समर्पित रहीं. जीवन भर किसी को अपना माध्यम नही बनाया. अंत में स्वयं को विसर्जित कर दिया. मैं अधिकार-भावना से ग्रस्त रहा, पांचाली ने निःस्व-भाव में स्वयं को ढाल लिया था. तुम्हारी साधना तक हम कहाँ पहुँचे? हमारी यात्रा अभी शेष है.' भाइयों से बोले 'माधव की शरण में रही, उसकी मुक्ति सर्व प्रथम होनी ही थी.' बहुत अस्पष्ट थे स्वर - 'और मेरी, संभवतः सबसे बाद!' किरीटी ने वह देह यत्न-पूर्वक ढाँक दी. 'वह जीवित थी तब तक सबका अधिकार था. अब वह नहीं है, यह देह-मात्र, वह केवल मेरी. कोई लज्जा नहीं अब. अंतिम बिदा लेने में कोई आड़े नहीं आ सकता.' 'जाता हूँ प्रिये, जीवन भर भागता रहा, तुम्हें पाने को व्याकुल. आज तुम चली गई हो. मैं यहीं रह गया. अब भटकने को है ही क्या? हर तरह से निभा गईं तुम. हम स्वार्थी तुम्हें कुछ न दे सके....' कंठ वाष्पित हो रहा था. आगे पार्थ क्या बोल रहे हैं, कोई समझ नहीं पा रहा था. कुछ क्षण खड़े रहे अर्जुन टक लगाये, भीम ने आगे बढ़ हाथ पकड़ा. वे विवश से पलटे और चलने लगे, भयंकर शीत भरी हवायें अबाध चली आ रही हैं. रह-रह कर तुषार-कणों की वर्षा, वनस्पतिविहीन दुर्गम प्रदेश, हिम-चट्टानें रोर करती फिसल रही हैं, एक-एक पग दूभर, विषम झोंके झेलते लड़खड़ाते किसी तरह बढ़ रहे हैं, एक दूसरे को साधते -सँभालते. आगे पंचचूली शिखर तक जाने को राह पर्वत के किनारे घूम जाती है. उसी ओर जाना है, मोड़ आ गया था. कुछ आगे बढ़े वे, मुड़ने से पहले अर्जुन ठिठके, पलट गये. उनके साथ शेष चारों भी देखने लगे उस ओर, जहाँ पांचाली को छोड़ आये थे. तल की हिमशिला पर वह श्यामल देह एकदम शान्त. उद्दाम हवाएँ उत्तरीय का छोर बार-बार उड़ा रहीं थीं. सघन केश-राशि की कुछ बिखरी लटें उस अनिन्द्य मुख पर आ पड़ी थीं. हिमालय की उठती हुई धवल श्रेणियाँ, मंदिर के भव्य शिखरों सी दिशा व्याप्त करती हुई. वहीं नीचे हिमाच्छादन युक्त तल पर निश्चल पड़ी याज्ञसेनी की देह, ज्यों शुभ्र वेदिका पर अर्पित, जल से विच्छिन्न नीलोत्पल! आगे मोड़ था. युधिष्ठिर ने कंधे पर हाथ रखा, भीम बाँह से सहारा दिये आगे बढ़े. सब पीछे छूट गया. हिमपात से धुँधलाते परिवेश में दूर जाती, प्रचंड पवन झोंकों में हिलती -डोलती वे पाँच आकृतियाँ दृष्टि-पथ से ओझल हो गईं!
कल इस पर वापस काम करना। हे भगवान। हर्ड। उन्हें लहूलुहान कर दो! वह ठीक हो जाना चाहिए लुटेरे! भागो! नहीं! रुक जाओ! उसे मारो। शाबाश, लड़के। तुमने हर्ड का सिर गर्व से ऊँचा किया। नाम से डरना सिखाओ। कोई पहरेदार नहीं है। कोई हरकत नहीं हो रही। जो तुमने सपने में देखी थी? कई बार प्रदर्शन किया है। पर पुराने गानों के दीवाने होते हैं। स्कैनलैन। ध्यान दो। ठीक है। ग्रॉग जैसे विशालकाय से घिरा दिखाया था। मतलब, सामान्य ग्रॉग जैसे। दस्ताने पहन रखे थे, जो चमक रहे थे। अवशेष। लगता है कि वे लोग आगे बढ़ गए। कि हम कहाँ हैं, हमें वापस चलना चाहिए। ज़रूरत हो सकती है। रहम करो! मुझे जाने दो! कुछ नहीं बचा! फिर तो तुम बेकार हो, है न? हाँ, मैं बेकार हूँ। तो मेरी नज़रों के सामने से दफ़ा हो जाओ। और उम्मीद है कि तुम्हारी किस्मत चमके। शुक्रिया। कंकड़, पत्थर, भाले! मत जाओ! क्या? बस दो हैं। उन्हें आसानी से मार देंगे। अगर वे हर्ड के साथ हैं तो नहीं। उनसे लड़ना आसान नहीं है। बढ़िया तरह से फेंका। लगता है कि इसकी किस्मत नहीं चमकी। केवडैक वहाँ पर है। फिर से बताना, यह केवडैक कौन है? उनका सरदार। मेरे चाचा। मेरे और केवडैक के बीच ज़ाती दुश्मनी है। और उसके पास एक असली अवशेष है। हाँ, पर मुझे नहीं पता था कि वे अवशेष थे। वह उन्हें अपने टाइटनस्टोन पोर बुलाते थे। वह दस्ताना पहने रहते हैं। और वे उन्हें बेहद ताक़तवर बनाते हैं। हर्ड में लगभग कितने लोग होंगे? मुझे नहीं पता, किसी ने गिना नहीं था। किसी को "सैकड़ों" कहते सुना था। क्या यह बहुत ज़्यादा है? अच्छा। चीरकर निकालना होगा। थोड़ी पैमाइश करनी चाहिए। नहीं। मुझे इस हाल में देखने देना चाहूँगा, समझे? इंतज़ार नहीं कर सकते? अच्छा। हम तुम्हारा क्या करें? उठा ही सकते हो, है न? यह यकीन से नहीं कह पाऊँगा। अच्छा, तुम्हारा क्या, स्कैनलैन? जब चाहो चिकनीचुपड़ी बातें बोल लेते हो। शायद तुम्हें आगे जाना चाहिए। तो क्या तुम प्रभावित होगी? सबसे बहादुरी वाला कारनामा होगा। फिर तो यह करके दिखाऊँगा। तो वादा करो कि दोबारा प्रेम करोगी। मैं पूरी कोशिश करूँगी। हर्ड से तुम्हें इतना डर लगता है। मुझे डर नहीं लगता। शर्मिंदगी होती है। मेरी ज़िंदगी काफ़ी कि उसके बारे में पूछना ठीक नहीं होगा। तो कुछ बताने की ज़रूरत नहीं है। पर ऐसा करके शायद बेहतर महसूस करो। तो मैंने कुछ काम किए। बहुत बुरे काम। चलो! मुझे नहीं लगता कि तुम मुझे तब पसंद करती। हमारे लिए केवल मारकाट अहम थी। जो चाहे वह ले लेता था। मुझे रोक नहीं सकता था। फिर एक दिन मैं उनसे मिला। नहीं। जो चाहो, वह ले जाओ! रहम करके मुझे बख्श दो। मेरा एक परिवार है! विल्हैंड दादा जी? उस ड्रैगन ने इस जगह की ऐसी की तैसी कर दी। पर अंब्रसिल का नामोनिशान नहीं। लूट कम हो गई है। तो हमारे सिर कलम होंगे। यह दल नहीं चुना था। तुम क्या कहते हो, ज़ैन्रोर? और इस हर्ड को वापस पहले जैसा बनाना होगा। कोई चूहा होगा। यह क्या क्या तुम उनमें से एक हो? काफ़ी नाटा हूँ। तुम लोग कौन हो? बदकिस्मत लोग। किसान। दुकानदार। और उसके बीतने का इंतज़ार किया। ये कमबख़्त लुटेरे आ धमके। धत् तेरे की। कब से? एक हफ़्ते से। शायद दो हफ़्ते से। मौके का इंतज़ार कर रहे थे, पर तुम इस नर्क में कैसे आए? मैं कारनामों का शौकीन हूँ। एक विद्रोही नेता हूँ। संगीतकार हूँ। कुछ लोग मुझे दार्शनिक भी कहते हैं। नाम है स्कैनलैन। मतलब, स्कैनलैन शॉर्टहॉल्ट? मैं उन्हें मार सकता था। पर जब तुम्हारे परपरपरपरपर बस दो बार। तो पता नहीं। सब कुछ बदल गया। यहाँ क्या हो रहा है, ग्रॉग? तुम्हें कोई पालतू मिल गया? ज़ैन्रोर, रुको। यह कोई लड़ने वाले नहीं हैं। यह बस एक बूढ़े इंसान हैं। ए। यूँ नरमी दिखाते हुए मत पकड़ने देना। उन्हें इन बूढ़ों को मारना पसंद है। कहते हैं कि इन पर एहसान कर रहे हैं। यह क्या माफ़ करना, कज़िन। सुनिए। यहाँ से चलिए। इससे पहले कि वे देख लें। शुक्रिया, बेटा। तुम्हारी दया का कर्ज़ चुका पाऊँगा। स्ट्रॉन्गजॉ! अपने चचेरे भाई को धोखा दोगे? वरना मैं तुम्हारा सिर कलम कर दूँगा। नहीं। भागिए! गद्दार! हमारा नाम ख़राब किया। छापा मारने की ताक़त नहीं है। तुम भी अपने बाप की तरह बुज़दिल हो। यह ग़ुरूर। तुम मेरे जैसे योद्धा कभी नहीं बन पाओगे। हर्ड ऑफ़ स्टॉर्म्स से बेदखल किया जाता है। इसे गिद्धों के नोचने लिए छोड़ दो। मुझे उस दिन मर जाना चाहिए था। जल्दी से! इसे ठीक करने की कोशिश करो। एवरलाइट, मदद कीजिए। मेरे दादा जी को बचाने के लिए शुक्रिया। तुमने बहुत बहादुरी का काम किया। मैं ही हूँ। चलो, बेटा। तुम्हें किसी गर्म जगह पर ले चलते हैं। इतने सालों तक मुझे कुछ पता ही नहीं था। कभीकभी बिना किसी वजह के। और मैं उसे रोकने के लिए बहुत कमज़ोर था। ग्रॉग, हम अतीत में अटके नहीं रह सकते। तुम अब वैसे नहीं हो। तुम अलग हो। त
ुम मेरे सबसे जिगरी दोस्त हो। हाँ, वह तो है। फ़र्क नहीं पड़ता, जिन्हें मैंने मरने दिया। वह यहाँ क्यों आया है? क्या हमारा पीछा कर रहा है? रुको। यह स्कैनलैन कहाँ है? कि तुमने मेरे बारे में सुना है? बेशक सुना है। दरअसल, केली मेरी मंडली का हिस्सा है। आपकी सेवा में हाज़िर है। हम तो यहाँ से हैं भी नहीं। बस ग़लत वक़्त पर ग़लत जगह पर थे। पर हाँ, तुम्हारे बारे में सुना है। जादुई संगीत के किस्से दूरदूर तक फैले हैं। रुको। मैं मशहूर हूँ? किसी को ऑटोग्राफ़ नहीं चाहिए। और पानी भी ख़त्म हो रहा है। वफ़ादारी और सोने की माँग कर रहा है। अगर कम पड़ जाए, तो बदले में मौत मिलती है। और वह ड्रैगन? उनके साथ काम कर रहा है? तुम्हें हमें यहाँ से निकालना होगा। फ़ौरन। क्या? रुक जाओ। मैं बस मुआयना करने आया हूँ। मेरे पास मेरी सारंगी भी नहीं है। संपर्क कर पाता, तो शायद वे दोस्तों से? तुम्हारे "दोस्त" यहाँ नहीं हैं। तुम हो। कोई तुम्हें बचाने वापस नहीं आता। क्या कर गुज़रने के लिए तैयार हो? चौक को खाली करो! वह लौट आया। वह वापस लौट आया! केवडैक को बुलाओ! केवडैक! सामने आओ, केवडैक। तुम्हारे एकदसवीं पेशगी बकाया है। मिथकार्वर। या फिर पेशगी वाकई कम होती जा रही है? तुलना में तो कुछ भी फीका पड़ जाता है। कसम से मुझे यह आवाज़ पता है। इसके अवशेष से मुक्त क्यों नहीं किया है? ये मुर्दाखोर अब भी काम के हैं। जबकि तुम्हारे पास वह है, जो मुझे चाहिए। हमारा सौदा पक्का है। हम सोना लाकर देंगे। भले ही हमें और मेहनत करनी पड़े। देखना कि ऐसा ही हो। मुफ़्त में वेस्ट्रन नहीं दे रहा है। मैं नाख़ुश हूँ। मैं दिन दिन में वापस आऊँगा, केवडैक। तो भुगतान के बदले तुम्हारे हाथ ले जाऊँगा। दुबकना बंद करो। हर एक पाई ढूँढ निकालो। केवल उस ड्रैगन की चिंता नहीं करनी होगी। हम यह और कब तक सहेंगे, पिता जी? हम नौकर बनकर रह गए हैं। ज़बान को संभालो। यह गठबंधन हमें शहर पर शासन करने देता है। हमारा ज़िंदा रहना इसे जीना नहीं कहते हैं! उन्हें हमसे डरना सिखाना चाहिए। हम गिड़गिड़ा रहे तुम्हारे मिमियाने से तंग आ चुका हूँ। तुम इस हर्ड का नेतृत्व कर सकते हो, लड़के? मुझे यकीन है कि मैं कर सकता हूँ। हमें उससे वे अवशेष तो मिलने से रहे। तुम में से कोई मेरे बेटे से सहमत है? नहीं, थंडरलॉर्ड। और हम वेस्ट्रन पर शासन करते हैं। और उनका सब कुछ ले लो। फैल जाओ। हमें जाना होगा। फ़ौरन। स्कैनलैन मुसीबत में हो सकता है। चलो। तुम पागल हो क्या? मुझे देखा, मैं कैसे सिकुड़ा हुआ हूँ। मेरे पास अब क्रेवन एज भी नहीं है। मतलब, अगर केवडैक ने ठीक है। हमारे दोस्त को लेकर चुपके से निकल जाएँगे। कैसे? तुम्हारा कवच काफ़ी शोर करता है। और मुझे वे एक मील दूर से पहचान लेंगे। भेंट के साथ वहाँ जाना होगा। कंकड़, पत्थर, भाले! भाड़ में जाए। तो मुझे ख़ुद से इसे पकड़कर लाना पड़ा। क्या मैं तुम्हें जानता हूँ, पतलू? बेहतर होगा कि जान लो। मैं केवडैक का रिश्तेदार हूँ। पसंद नहीं है, मुच्छड़। यह बढ़िया तरकीब थी, पाइकी। मुझे निखट्टू क्यों बुलाया? माफ़ करना। मैं तो बस नाटक कर रहा था। मज़ाक था। तुमने बहुत ख़ूब किया, दोस्त। बेहोश हो जाऊँ, चलो स्कैनलैन को ढूँढ़ें। धत्, वह मेरी ग़लती थी। मेरी आँख में सूअर का खून चला गया था। वे सड़कों पर फैले हुए हैं। और एक बचाव दल लेकर आता हूँ। अरे। मेरे पास कई तरकीब हैं। मुझे तुम्हारी चिंता नहीं है, धोखेबाज़। जितना मैंने सुना है, तुम भाग निकलोगे। ठीक है। सभी चल सकते हैं। लेकिन बाहर बहुत ख़तरा होगा। तो मुझे तुमसे एक चीज़ चाहिए होगी। तुम्हारी बाँसुरी। जल्दी करो। ठीक है। ढेर के लिए और सोना। पास रहना! बाप रे, तुम्हें तो वाकई तरकीबें आती हैं। अभी तो बस शुरुआत है। स्कैनलैन! हमें बहुत चिंता हो रही थी। ए, तुम्हारी झप्पी से दर्द हुआ! थोड़ाबहुत। बढ़िया, दोस्त! मुझे देखकर ख़ुश हो, हाँ? मेरा मतलब, नहीं तो। दखल देने के लिए माफ़ी चाहूँगी। अच्छा। चिंता मत करो, दोस्तो। असल में हमारी तरफ़ है। तंदरुस्त वाला नहीं मिल पाया था। मुझे ठेस पहुँची। इसकी बात का बुरा मत मानो, यार। एक ड्रैगन से मिल गया है। क्या हो गया? क्या हम यहाँ से बाहर निकलें? जिस रास्ते से हम आए थे। केवडैक हर्ड को इकट्ठा कर रहा है। चलो। बढ़िया, अब हमारा मौका है। ग्रॉग के पीछे जाना, ठीक? पेड़ों की पंक्ति की ओर जाना। चलो। तो ठीक है। पहले हम जाते हैं। ग्रॉग, तुम पीछेपीछे आना। मैं नहीं जा रहा। क्या मतलब? क्या यह गंभीर है? रास्ता साफ़ है। केली। तुम इन्हें ले जाओ। हम आते हैं। मैं वादा करता हूँ। पर तुम क्या कर रहे हो? वे मुझसे डरते हैं। मेरे जैसों से डरते हैं। ख़त्म नहीं करता, तब तक यह नहीं बदलेगा। या फिर मैं ही केवडैक का ख़ात्मा न कर दूँ। केवडैक का? इस हाल में? उस बेल्ट ने तुम्हें पहना है। दोस्त, हमें एकदूसर
े के साथ रहना होगा। इस बार नहीं। मुझे यह काम अकेले ही करना होगा। ग्रॉग, मेरी बात सुनो। यह ख़ुदकुशी होगी। क्या तुम यही चाहते हो? तुमने कहा था कि अब मैं बदल गया हूँ। जितना वह कहते थे। कोई ताक़तवर नहीं बनता। छोटे लोगों के लिए खड़े होने से होता है। मुझे यही चीज़ उनसे अलग बनाती है। अगर मुझे तुम्हारी ज़रूरत पड़ी तो? एक नियम के हिसाब से चलता है। सत्ता के बूते पर बलशाली बनना। तो उस चुनौती का जवाब देना होगा। भले ही वह मेरा बेटा क्यों न हो। वापस जंगल जाना चाहते हैं। मैं तुम सब से कहता हूँ, शौक़ से जाओ। गुस्ताखी को मैं बर्दाश्त नहीं कर सकता। तो सामने आओ। इसी वक़्त। थंडरलॉर्ड को चुनौती देना चाहेगा? मुझे लगा भी नहीं था। केवडैक! मुझे पहचाना? कल इस पर वापस काम करना। हे भगवान। हर्ड। उन्हें लहूलुहान कर दो! वह ठीक हो जाना चाहिए... लुटेरे! भागो! नहीं! रुक जाओ! उसे मारो। शाबाश, लड़के। तुमने हर्ड का सिर गर्व से ऊँचा किया। तुम्हें जो चाहिए वह ले लो, और उन्हें ग्रॉग स्ट्रॉन्गजॉ के नाम से डरना सिखाओ। द लेजेंड ऑफ़ वॉक्स माकिना कोई पहरेदार नहीं है। कोई हरकत नहीं हो रही। पक्का यही वह जगह थी, जो तुमने सपने में देखी थी? सौ फ़ीसदी। मैंने वेस्ट्रन में कई बार प्रदर्शन किया है। बख्शीश देने में कंजूस, पर पुराने गानों के दीवाने होते हैं। मेरा सबसे लोकप्रिय गाना था, "जब कोई बात..." स्कैनलैन। ध्यान दो। ठीक है। मिथकार्वर ने मुझे शहर को ग्रॉग जैसे विशालकाय से घिरा दिखाया था। मतलब, सामान्य ग्रॉग जैसे। और एक बेहद गबरू आदमी ने रत्नों के दस्ताने पहन रखे थे, जो चमक रहे थे। अवशेष। लगता है कि वे लोग आगे बढ़ गए। इससे पहले विल्हैंड को चिंता हो कि हम कहाँ हैं, हमें वापस चलना चाहिए। इन लोगों को हमारी मदद की ज़रूरत हो सकती है। रहम करो! मुझे जाने दो! कसम से, मेरे पास जो था मैंने दे दिया, कुछ नहीं बचा! ख़ैर, नन्हे दोस्त, अगर तुम्हारे पास देने के लिए कुछ नहीं है, फिर तो तुम बेकार हो, है न? हाँ, मैं बेकार हूँ। तो मेरी नज़रों के सामने से दफ़ा हो जाओ। और उम्मीद है कि तुम्हारी किस्मत चमके। शुक्रिया। कंकड़, पत्थर, भाले! मत जाओ! क्या? बस दो हैं। उन्हें आसानी से मार देंगे। अगर वे हर्ड के साथ हैं तो नहीं। उनसे लड़ना आसान नहीं है। बढ़िया तरह से फेंका। लगता है कि इसकी किस्मत नहीं चमकी। केवडैक वहाँ पर है। फिर से बताना, यह केवडैक कौन है? उनका सरदार। मेरे चाचा। मेरे और केवडैक के बीच ज़ाती दुश्मनी है। और उसके पास एक असली अवशेष है। हाँ, पर मुझे नहीं पता था कि वे अवशेष थे। वह उन्हें अपने टाइटनस्टोन पोर बुलाते थे। वह दस्ताना पहने रहते हैं। और वे उन्हें बेहद ताक़तवर बनाते हैं। हर्ड में लगभग कितने लोग होंगे? मुझे नहीं पता, किसी ने गिना नहीं था। मैंने पहले एक बार किसी को "सैकड़ों" कहते सुना था। क्या यह बहुत ज़्यादा है? अच्छा। अगर हमें वे दस्ताने चाहिए, तो हमें सामान्य ग्रॉग के झुंड से लड़ना होगा, फिर उन्हें महाविशालग्रॉग के हाथों से चीरकर निकालना होगा। थोड़ी पैमाइश करनी चाहिए। नहीं। मुझे नहीं लगता कि मैं हर्ड को मुझे इस हाल में देखने देना चाहूँगा, समझे? क्या हम अपने दोस्तों का इंतज़ार नहीं कर सकते? अच्छा। हम तुम्हारा क्या करें? पर चलो भी, तुम एक फ़रसा तो उठा ही सकते हो, है न? यह यकीन से नहीं कह पाऊँगा। अच्छा, तुम्हारा क्या, स्कैनलैन? जब चाहो चिकनीचुपड़ी बातें बोल लेते हो। शायद तुम्हें आगे जाना चाहिए। दरअसल, पाइक, अगर मैं अपने दम पर वेस्ट्रन में घुसपैठ करके वह अवशेष लेकर आता हूँ, तो क्या तुम प्रभावित होगी? यह तुम्हारा आज तक का सबसे बहादुरी वाला कारनामा होगा। फिर तो यह करके दिखाऊँगा। अगर क्रांतिकारी स्कैनलैन एक घंटे के अंदर वापस नहीं लौटा, तो वादा करो कि दोबारा प्रेम करोगी। मैं पूरी कोशिश करूँगी। मुझे पता नहीं था कि तुम्हारे पुराने हर्ड से तुम्हें इतना डर लगता है। मुझे डर नहीं लगता। शर्मिंदगी होती है। तुम्हारे मुझे अपनाने से पहले, मेरी ज़िंदगी काफ़ी... विल्हैंड को एहसास था कि उसके बारे में पूछना ठीक नहीं होगा। अगर तुम नहीं चाहते, तो कुछ बताने की ज़रूरत नहीं है। पर ऐसा करके शायद बेहतर महसूस करो। जब मैं हर्ड के साथ था, तो मैंने कुछ काम किए। बहुत बुरे काम। चलो! मुझे नहीं लगता कि तुम मुझे तब पसंद करती। हमारे लिए केवल मारकाट अहम थी। मैं बिना कुछ सोचेसमझे, जो चाहे वह ले लेता था। कोई भी चीज़ या इंसान मुझे रोक नहीं सकता था। फिर एक दिन मैं उनसे मिला। नहीं। जो चाहो, वह ले जाओ! रहम करके मुझे बख्श दो। मेरा एक परिवार है! विल्हैंड दादा जी? उस ड्रैगन ने इस जगह की ऐसी की तैसी कर दी। पर अंब्रसिल का नामोनिशान नहीं। लूट कम हो गई है। अगर हमारी पेशकश में कमी हुई, तो हमारे सिर कलम होंगे। मैंने किसी ड्रैगन से आदेश
लेने के लिए यह दल नहीं चुना था। तुम क्या कहते हो, ज़ैन्रोर? मैं कहता हूँ कि किसी को मेरे पिता का सामना करना होगा और इस हर्ड को वापस पहले जैसा बनाना होगा। कोई चूहा होगा। यह क्या... क्या तुम उनमें से एक हो? मैं "उनमें से एक" होने के लिए काफ़ी नाटा हूँ। तुम लोग कौन हो? बदकिस्मत लोग। किसान। दुकानदार। जब ड्रैगन ने हमला किया, हम सब छिप गए और उसके बीतने का इंतज़ार किया। और जिस दिन वह ड्रैगन गया, उसके अगले ही दिन ये कमबख़्त लुटेरे आ धमके। धत् तेरे की। कब से? एक हफ़्ते से। शायद दो हफ़्ते से। हम बचकर भागने के मौके का इंतज़ार कर रहे थे, पर... तुम इस नर्क में कैसे आए? मैं कारनामों का शौकीन हूँ। एक विद्रोही नेता हूँ। संगीतकार हूँ। कुछ लोग मुझे दार्शनिक भी कहते हैं। नाम है स्कैनलैन। मतलब, स्कैनलैन शॉर्टहॉल्ट? मैं उन्हें मार सकता था। पर जब तुम्हारे परपरपरपरपर... बस दो बार। ...दादा ने मुझे देखा, तो पता नहीं। सब कुछ बदल गया। यहाँ क्या हो रहा है, ग्रॉग? तुम्हें कोई पालतू मिल गया? ज़ैन्रोर, रुको। यह कोई लड़ने वाले नहीं हैं। यह बस एक बूढ़े इंसान हैं। ए। मेरे पिता को तुम्हें यूँ नरमी दिखाते हुए मत पकड़ने देना। उन्हें इन बूढ़ों को मारना पसंद है। कहते हैं कि इन पर एहसान कर रहे हैं। यह क्या... माफ़ करना, कज़िन। सुनिए। यहाँ से चलिए। इससे पहले कि वे देख लें। शुक्रिया, बेटा। उम्मीद है एक दिन तुम्हारी दया का कर्ज़ चुका पाऊँगा। स्ट्रॉन्गजॉ! तुम उसके पीछे मेरे बेटे, अपने चचेरे भाई को धोखा दोगे? मुझे उस बौने का सिर काटकर दो, वरना मैं तुम्हारा सिर कलम कर दूँगा। नहीं। भागिए! गद्दार! तुम दोनों ने अपनी कमज़ोरी से हमारा नाम ख़राब किया। मुझे पता होना चाहिए था कि तुममें छापा मारने की ताक़त नहीं है। तुम भी अपने बाप की तरह बुज़दिल हो। यह ग़ुरूर। तुम मेरे जैसे योद्धा कभी नहीं बन पाओगे। ग्रॉग स्ट्रॉन्गजॉ, आज से तुम्हें हर्ड ऑफ़ स्टॉर्म्स से बेदखल किया जाता है। इसे गिद्धों के नोचने लिए छोड़ दो। मुझे उस दिन मर जाना चाहिए था। जल्दी से! इसे ठीक करने की कोशिश करो। एवरलाइट, मदद कीजिए। मेरे दादा जी को बचाने के लिए शुक्रिया। तुमने बहुत बहादुरी का काम किया। हाँ। "बहादुर।" मैं ही हूँ। चलो, बेटा। तुम्हें किसी गर्म जगह पर ले चलते हैं। इतने सालों तक मुझे कुछ पता ही नहीं था। और हम लोगों की जान लेते, कभीकभी बिना किसी वजह के। और मैं उसे रोकने के लिए बहुत कमज़ोर था। ग्रॉग, हम अतीत में अटके नहीं रह सकते। तुम अब वैसे नहीं हो। तुम अलग हो। तुम मेरे सबसे जिगरी दोस्त हो। हाँ, वह तो है। पर उन लोगों को इससे फ़र्क नहीं पड़ता, जिन्हें मैंने मरने दिया। वह यहाँ क्यों आया है? क्या हमारा पीछा कर रहा है? रुको। यह स्कैनलैन कहाँ है? तो, तुम कह रही हो कि तुमने मेरे बारे में सुना है? बेशक सुना है। दरअसल, केली मेरी मंडली का हिस्सा है। डॉ. ड्रैन्ज़ल की यात्रा मंडली, आपकी सेवा में हाज़िर है। हम तो यहाँ से हैं भी नहीं। बस ग़लत वक़्त पर ग़लत जगह पर थे। पर हाँ, तुम्हारे बारे में सुना है। स्कैनलैन शॉर्टहॉल्ट के जादुई संगीत के किस्से दूरदूर तक फैले हैं। रुको। मैं मशहूर हूँ? किसी को ऑटोग्राफ़ नहीं चाहिए। इन लोगों के पास खाना नहीं है और पानी भी ख़त्म हो रहा है। हर्ड घरघर जाकर वफ़ादारी और सोने की माँग कर रहा है। अगर कम पड़ जाए, तो बदले में मौत मिलती है। और वह ड्रैगन? उनके साथ काम कर रहा है? तुम्हें हमें यहाँ से निकालना होगा। फ़ौरन। क्या? रुक जाओ। मैं बस मुआयना करने आया हूँ। मेरे पास मेरी सारंगी भी नहीं है। अगर दोस्तों से संपर्क कर पाता, तो शायद वे... दोस्तों से? तुम्हारे "दोस्त" यहाँ नहीं हैं। तुम हो। मैंने ज़िंदगी में एक चीज़ सीखी है, कोई तुम्हें बचाने वापस नहीं आता। तो स्कैनलैन शॉर्टहॉल्ट, क्या कर गुज़रने के लिए तैयार हो? चौक को खाली करो! वह लौट आया। वह वापस लौट आया! केवडैक को बुलाओ! केवडैक! सामने आओ, केवडैक। तुम्हारे एकदसवीं पेशगी बकाया है। मिथकार्वर। क्या मुझे ही ऐसा लगता है या फिर पेशगी वाकई कम होती जा रही है? बेशक, एक अवशेष की ताक़त की तुलना में तो कुछ भी फीका पड़ जाता है। कसम से मुझे यह आवाज़ पता है। मुझे बताओ कि तुमने अब तक इसे इसके अवशेष से मुक्त क्यों नहीं किया है? ये मुर्दाखोर अब भी काम के हैं। तुच्छ चीज़ों से समय ज़ाया कर रहे हैं, जबकि तुम्हारे पास वह है, जो मुझे चाहिए। हमारा सौदा पक्का है। इस शहर से दिनबदिन कम पेशगी मिल रही है, पर तुम्हारे प्रिय कॉन्क्लेव के लिए हम सोना लाकर देंगे। भले ही हमें और मेहनत करनी पड़े। देखना कि ऐसा ही हो। आशा का भक्षक तुम्हें मुफ़्त में वेस्ट्रन नहीं दे रहा है। मैं नाख़ुश हूँ। मैं दिन दिन में वापस आऊँगा, केवडैक। अगर तुमने मुझे थोरडैक का सोना लाकर न दिया, तो भुगतान
के बदले तुम्हारे हाथ ले जाऊँगा। दुबकना बंद करो। खोजी दलों को इकट्ठा करो और इस शहर से दौलत की हर एक पाई ढूँढ निकालो। कोई कसर मत छोड़ना, वरना तुम्हें केवल उस ड्रैगन की चिंता नहीं करनी होगी। हम यह और कब तक सहेंगे, पिता जी? हम नौकर बनकर रह गए हैं। ज़बान को संभालो। यह गठबंधन हमें शहर पर शासन करने देता है। हमारा ज़िंदा रहना... इसे जीना नहीं कहते हैं! हमें उन ड्रैगन का शिकार करना चाहिए, उन्हें हमसे डरना सिखाना चाहिए। उसके बजाय, आपकी कमज़ोरी के कारण हम गिड़गिड़ा रहे... तुम्हारे मिमियाने से तंग आ चुका हूँ। तुम इस हर्ड का नेतृत्व कर सकते हो, लड़के? मुझे यकीन है कि मैं कर सकता हूँ। हमें उससे वे अवशेष तो मिलने से रहे। तुम में से कोई मेरे बेटे से सहमत है? नहीं, थंडरलॉर्ड। मैं इस हर्ड पर शासन करता हूँ, और हम वेस्ट्रन पर शासन करते हैं। अब जाओ। स्थानीय लोगों को मार डालो और उनका सब कुछ ले लो। फैल जाओ। जैसा कि मैंने कहा था, हमें जाना होगा। फ़ौरन। स्कैनलैन मुसीबत में हो सकता है। चलो। तुम पागल हो क्या? मुझे देखा, मैं कैसे सिकुड़ा हुआ हूँ। मेरे पास अब क्रेवन एज भी नहीं है। मतलब, अगर केवडैक ने... ठीक है। तो हम चुपके से जाएँगे, हमारे दोस्त को लेकर चुपके से निकल जाएँगे। कैसे? तुम्हारा कवच काफ़ी शोर करता है। और मुझे वे एक मील दूर से पहचान लेंगे। फिर तो हमें एक बढ़िया सी भेंट के साथ वहाँ जाना होगा। कंकड़, पत्थर, भाले! भाड़ में जाए। हाँ, इस निखट्टू बौनी ने केवडैक से कुछ चुराया था, तो मुझे ख़ुद से इसे पकड़कर लाना पड़ा। क्या मैं तुम्हें जानता हूँ, पतलू? बेहतर होगा कि जान लो। मैं केवडैक का रिश्तेदार हूँ। और उन्हें इंतज़ार करना पसंद नहीं है, मुच्छड़। यह बढ़िया तरकीब थी, पाइकी। मुझे निखट्टू क्यों बुलाया? माफ़ करना। मैं तो बस नाटक कर रहा था। मज़ाक था। तुमने बहुत ख़ूब किया, दोस्त। इससे पहले कि उल्टा लटककर बेहोश हो जाऊँ, चलो स्कैनलैन को ढूँढ़ें। धत्, वह मेरी ग़लती थी। मेरी आँख में सूअर का खून चला गया था। वे सड़कों पर फैले हुए हैं। सुनो, मैं अकेले जाता हूँ और एक बचाव दल लेकर आता हूँ। अरे। मेरी चिंता मत करो, मोहतरमा, मेरे पास कई तरकीब हैं। मुझे तुम्हारी चिंता नहीं है, धोखेबाज़। जितना मैंने सुना है, तुम भाग निकलोगे। ठीक है। सभी चल सकते हैं। लेकिन बाहर बहुत ख़तरा होगा। और अगर मुझे कामयाब होना है, तो मुझे तुमसे एक चीज़ चाहिए होगी। तुम्हारी बाँसुरी। जल्दी करो। ठीक है। ढेर के लिए और सोना। पास रहना! बाप रे, तुम्हें तो वाकई तरकीबें आती हैं। अभी तो बस शुरुआत है। स्कैनलैन! हमें बहुत चिंता हो रही थी। ए, तुम्हारी झप्पी से दर्द हुआ! थोड़ाबहुत। बढ़िया, दोस्त! मुझे देखकर ख़ुश हो, हाँ? मेरा मतलब, नहीं तो। दखल देने के लिए माफ़ी चाहूँगी। अच्छा। चिंता मत करो, दोस्तो। यह कातिलाना विशालकाय असल में हमारी तरफ़ है। कमाल है, तुम्हें इससे तंदरुस्त वाला नहीं मिल पाया था। मुझे ठेस पहुँची। इसकी बात का बुरा मत मानो, यार। यह डरी हुई है क्योंकि तुम्हारा चाचा एक ड्रैगन से मिल गया है। क्या हो गया? क्या हम यहाँ से बाहर निकलें? जिस रास्ते से हम आए थे। केवडैक हर्ड को इकट्ठा कर रहा है। चलो। बढ़िया, अब हमारा मौका है। ग्रॉग के पीछे जाना, ठीक? फाटक से बाहर निकलने के बाद, पेड़ों की पंक्ति की ओर जाना। चलो। तो ठीक है। पहले हम जाते हैं। ग्रॉग, तुम पीछेपीछे आना। मैं नहीं जा रहा। क्या मतलब? क्या यह गंभीर है? रास्ता साफ़ है। केली। तुम इन्हें ले जाओ। हम आते हैं। मैं वादा करता हूँ। ग्रॉग, तुमसे प्यार करती हूँ, पर तुम क्या कर रहे हो? वे मुझसे डरते हैं। मेरे जैसों से डरते हैं। और जब तक कोई हर्ड को ख़त्म नहीं करता, तब तक यह नहीं बदलेगा। या फिर मैं ही केवडैक का ख़ात्मा न कर दूँ। केवडैक का? इस हाल में? ऐसे लग रहा है उस बेल्ट ने तुम्हें पहना है। दोस्त, हमें एकदूसरे के साथ रहना होगा। इस बार नहीं। मुझे यह काम अकेले ही करना होगा। ग्रॉग, मेरी बात सुनो। यह ख़ुदकुशी होगी। क्या तुम यही चाहते हो? तुमने कहा था कि अब मैं बदल गया हूँ। लेकिन अगर मैं गया, तो उतना ही कमज़ोर हूँ जितना वह कहते थे। नहीं। ज़ोर से मारने से या बड़ा होने से कोई ताक़तवर नहीं बनता। छोटे लोगों के लिए खड़े होने से होता है। मुझे यही चीज़ उनसे अलग बनाती है। लेकिन, अगर मुझे तुम्हारी ज़रूरत पड़ी तो? वेस्ट्रन हर्ड ऑफ़ स्टॉर्म्स एक नियम के हिसाब से चलता है। बल के बूते पर जीना, सत्ता के बूते पर बलशाली बनना। अगर उस सत्ता को कोई चुनौती देता है, तो उस चुनौती का जवाब देना होगा। भले ही वह मेरा बेटा क्यों न हो। इसने बताया कि तुममें से कुछ लोग वापस जंगल जाना चाहते हैं। मैं तुम सब से कहता हूँ, शौक़ से जाओ। पर मेरे नेतृत्व पर सवाल उठाने की गुस्ताखी को मैं बर्दाश्त
नहीं कर सकता। अगर यहाँ कोई सोचता है कि वह मुझसे बेहतर नेतृत्व कर सकता है, तो सामने आओ। इसी वक़्त। क्या कोई भी थंडरलॉर्ड को चुनौती देना चाहेगा? मुझे लगा भी नहीं था। केवडैक! मुझे पहचाना? संवाद अनुवादक श्रुति शुक्ला रचनात्मक पर्यवेक्षकअशोक बक्षी
‪तुम कब्रिस्तान नहीं गई। ‪नहीं, मुझे पता है। माफ़ करना। ‪क्या तुम मुझे बताओगी क्या चल रहा है? ‪आपने क्विनतानिया को ना क्यों कहा? ‪तुम्हें कैसे पता? ‪उन्होंने मुझे बताया। ‪खैर, मुझे उनके ऑफ़िस में अँगूठी मिली। ‪तुमने कुछ क्यों नहीं कहा? ‪आपने मेरे सवाल का जवाब नहीं दिया। ‪मैंने मना कर दिया और यह मेरा फैसला था। ‪यह मेरी वजह से था? ‪को समझाने की ज़रूरत नहीं है। ‪और पता है क्या? ‪अब से चीज़ें बदलने वाली हैं। ‪तुम स्कूल से सीधे घर आओगी। ‪तो मुझे सज़ा दी जा रही है? ‪अगर तुम इसे ऐसे देखना चाहती हो, तो हाँ। ‪आपने मुझे कभी सज़ा नहीं दी। ‪मुझे लुईस से मिलने अस्पताल जाना है। ‪और स्कूल से सीधे घर। ‪चार सौ छब्बीस। ‪तुम यहाँ क्या कर रहे हो? ‪क्या तुम उन चीज़ों का मतलब नहीं निकलोगी? ‪तो तुम अंदर क्यों नहीं जाते? ‪मैं क्या कर सकता हूँ? ‪मैं चीज़ों को ठीक नहीं कर सकता। ‪मैं कसम खाता हूँ मैं वह सारी बेवकूफ़ियाँ ‪की हैं, लेकिन मैं नहीं कर सकता। ‪मैं कुछ नहीं कर सकता। ‪मैं यहाँ रहने के अलावा कुछ नहीं कर सकता। ‪खैर, हाँ। तुम इंतज़ार कर सकते हो। ‪तुम्हें पता है यह कौन था? ‪तो मुझे बताना। मैं उस हरामी को मार दूँगा। ‪तुम कुछ नहीं सीखे, जैरी। ‪वह कैसा है? ‪बहुत बुरा। ‪दोस्त हो जब तुम मेरे घर आई थी। ‪मैंने उसकी कई बार मदद की। ‪कभी नहीं किया, सच कहूँ तो। ‪करती हूँ, मैं ऐसा कह सकती हूँ। ‪मुझे समझ नहीं आता उसने ऐसा क्यों किया। ‪हाई स्कूल में यह मेरा पहला दिन है। ‪तुम सच में यह करना चाहती हो? ‪यह मेरा विचार था। ‪बेहतर होगा तुम करो। ‪वरना तुम्हें तकलीफ़ होगी। ‪तुम यहाँ क्यों आई हो? ‪हमें बात करनी होगी। ‪जैसा दिखता है। मैं समझा सकता हूँ। ‪हम ब्रूनो के बारे में बात करना चाहते हैं। ‪प्रिंसिपल। ‪हाँ। ‪हाँ, चलो चलें। ‪मारिया। ‪क्या हाल है? ‪ठीक हूँ। ‪मुझे चिंता हो रही थी। ‪तुमने जवाब ही नहीं दिया। ‪आने लगे और मैं सो गई। लेकिन मैं ठीक हूँ। ‪मुझे एक संदेश आया। ‪यह नतालिया है, है ना? ‪मुझे नहीं पता। ‪मुझे नहीं लगता। ‪बचाने की ज़रूरत नहीं है। ‪नहीं। ‪का तुमसे कोई लेनादेना नहीं है। ‪ओह, देखो। ‪तुम्हारे लिए कुछ लाई हूँ। ‪मेरे लिए? ‪मुझे पता है तुम्हें ये कितने पसंद हैं। ‪शुक्रिया। ‪नहीं, इसे यहीं होना चाहिए। ‪हम क्या करने वाले है? ‪करने के लिए किसी को ढूँढना होगा। ‪यह अभी ज़रूरी नहीं है, लुलु। ‪क्या तुमने उसे फ़ोन किया था? ‪लेकिन वॉइसमेल पर चला जाता है। ‪लेकिन उसे न मिलने की वजह से एक चिन्ह है। ‪वह वापस नहीं आ रहा है। ‪और तुम्हें इतना यकीन कैसे है? ‪वह अपना सारा निजी सामान ले गया है। ‪मैंने भी गौर किया। ‪हैकर से सहमत है। मैंने गौर किया होता। ‪खैर, आप कम से कम छानबीन कर सकते हैं। ‪समझाने की किसी को ज़रूरत नहीं है। ‪बात कर रहा हूँ। मेरी तरफ देखो। ‪क्या हम आपके साथ एक तस्वीर ले सकते हैं? ‪ठीक है। ‪शुक्रिया। ‪क्यों नहीं, लड़कियों। ‪दोस्तों, बहुत हुआ। बस। ‪वर्ग के लिए। डेमियन विलियम्स। ‪मैं ‪मैं तुमसे मिलने के लिए बहुत उत्सुक था। ‪हावी। ‪वह एक विजेता है। एक विजेता। ‪क्या तुम यहाँ...? ‪मातापिता की मीटिंग के लिए? ‪असल में, हमने पहले बात की थी। ‪यह क्या है? ‪पैसा। ‪तुम्हें कहाँ से मिला? ‪कहा था यह पड़ा है। ‪खैर, शुक्रिया, बेब। ‪मुझे आशा है तुमने इसे चुराया नहीं है। ‪बहुत हुआ, रोसिता। ‪और मैं कुछ और सहन नहीं करूँगी। ‪ठीक है, लड़की, चिंता मत करो। ‪अलविदा। ‪वह क्या था? ‪कागज़ का एक टुकड़ा। ‪उस पर क्या था? ‪क्या बकवास है, क्या यह एक पूछताछ है? ‪मैं आज सुबह लुईस से मिलने गई थी। ‪और वह कैसा रहा? बढ़िया? ‪तुम अकेले गई थी या राउल के साथ? ‪मेरी तरफ से हैलो कहा? ‪वजह से अस्पताल में है, है ना? ‪इतना कर सकता हूँ, है ना? ‪पर प्रतिबंध लगाना। ‪हम इस साल नोने रद्द कर रहे हैं। ‪क्या? ‪यह नैशनल की रात है, स्कूल की परंपरा। ‪बेशक, टिकट का पैसा वापस कर दिया जाएगा। ‪सारी चीज़ों के लिए ज़िम्मेदार है। ‪मैं सहमत हूँ। मुझे पता है आप चिंतित हैं। ‪के जवाब देते हैं। ठीक है, सर। ‪प्रौद्योगिकी के रूप में भी जाना जाता है। ‪इसका क्या उपयोग है? ‪उदाहरण के लिए, कपड़े का उद्योग। ‪और जैव ईंधन। ‪और मैं ‪तो हमें भी पता चले? ‪हम अब नोने रद्द नहीं कर सकते। ‪ज़रूरी है, लेकिन हम सच में नहीं कर सकते। ‪सोफ़िया, अब क्या? ‪क्या मैं बाथरूम जा सकती हूँ? ‪ठीक है। ‪चलो कक्षा फिर से शुरू करें। ‪सफेद जैव प्रौद्योगिकी। ‪यह क्या है, इसके उपयोग, इसके उद्देश्य ‪कपड़े के उद्योग में किया जाता है। ‪क्या तुमने गाब्रीएला से नाता तोड़ लिया? ‪बेशक तुम पहले से ही जानती थी। ‪इसलिए मैं उसे नज़रअंदाज़ कर रही हूँ। ‪तुम्हें पता हैं? ‪मैं इस स्कूल से पूरी तरह से थक गई हूँ। ‪मुझे बहुत अकेलापन लगता है। ‪मेरा मतलब ‪कम से कम तुम्हारे पास हाविएर है।
‪और मैं दिल से माफ़ी माँगता हूँ। ‪आने के लिए शुक्रिया। ‪शुक्रिया। ‪जाओ। ‪हाँ। ‪शुक्रिया। ‪मिगैल। ‪हम बात कर सकते हैं? ‪यह स्कूल के बारे में है? ‪तुमने एक भी संदेश का जवाब नहीं दिया। ‪में एक हज़ार चीज़ें चल रही हैं। ‪जिसके बारे में सोचना चाहता हूँ। ‪तुम सच कह रहे हो? ‪सुनो। ‪तुम्हें इसमें दिलचस्पी होगी। ‪ये हाविएर के दो सबसे अच्छे दोस्त हैं। ‪और दूसरे ने उसे ब्लॉक कर दिया। ‪के आखिर में स्कूल क्यों शुरू किया? ‪नहीं, मैंने कभी नहीं पूछा। ‪यह अजीब है, है ना? ‪क्या तुम क्लास छोड़ना चाहते हो? ‪हैलो। ‪क्या तुमने मारिया को देखा है? ‪नहीं। ‪तुम चाहो तो यहाँ बैठ सकती हो। ‪शुक्रिया। ‪सुनो। ‪मैंने बहुत बुरा बर्ताव किया तुम्हारे साथ। ‪लेकिन तुम किस समय की बात कर रही हो? ‪साथ देने की कोशिश की। ‪तुम सही थी। ‪तुम्हें खुद सामना करना सीखना होगा। ‪खैर, हाँ। ‪मैं किसी पर भरोसा नहीं कर सकती। ‪यह असहनीय स्कूल है। ‪यह है। ‪यह स्वादिष्ट है। ‪तुम खा सकते हो। ताकि तुम और दुखी न हो। ‪मुझे मशहूर बना दो! ‪वे तीनों यहाँ खेलते थे। ‪इसे पास करो, यार। ‪एक साथी की मौत का उल्लेख नहीं किया। ‪क्या वह संदेहपूर्ण नहीं है? ‪वह इसका उल्लेख क्यों नहीं करेगा? ‪मुझे नहीं पता। ‪चलो उसके दोस्त से पूछते हैं। ‪मैं ‪तो मैं जानना चाहती थी यह कैसी रही। ‪तुम कह सकती हो यह अच्छी रही। ‪मैं बच गया। ‪खैर, हाँ। बेशक तुम बच गए। मैंने कहा था। ‪तुम अच्छी तरह से जानते हो तुम बढ़िया हो। ‪है ना? ‪मैंने यह कई बार कहा है। ‪और ‪के साथ क्या हुआ था? नोरा के साथ? ‪देखो, सुसाना, तुम शादीशुदा हो। ‪हाँ, मैं जानती हूँ। ‪के साथ मेरा रिश्ता थोड़ा उलझा हुआ है। ‪वह बल्कि फुटबॉल देखना चाहेगा ‪सहकर्मी, पेशेवर ‪और मुझे नोरा से प्यार है। ‪मैं ‪प्रिंसिपल? ‪मैं ‪ग्रेड? ‪मैं आपके साथ एक तस्वीर ले सकती हूँ? ‪विजेता! ‪शुक्रिया। ‪वे खेल की जगह देखना चाहते हैं। ‪हाँ, ज़रूर। हाँ। ‪वह देखना चाहते हैं। हाँ। चलो चलते हैं। ‪हाँ? ‪मैं साथ चलता हूँ। ‪शुक्रिया। ‪तुम्हारा स्वागत है। ‪हैलो। ‪क्या चल रहा है? ‪हैलो। ‪तुम कबसे चोर बनना बंद करके व्यापारी बन गई? ‪तुम पक्का एक उद्यमी हो। ‪मेरे पास वह है जो तुम लेते हो। ‪और जो मेरे पास है, वह सस्ता नहीं है। ‪अरे, बस अपने बॉस से सावधान रहना। ‪सच, में। ‪ध्यान रहे। ‪सच में। ‪सुनो! ‪तुम यहाँ नहीं आ सकती। ‪मैं उस मस्से की जाँच करवाती, भाई। ‪क्या तुम जा रहे हो? ‪माफ़ करना? ‪क्या तुम जल्दी में हो? तुम नहाओगे नहीं? ‪तुम कौन हो? ‪जो यहाँ खेला करता था। ‪कौन? ‪गीएर्मो गर्रिबे। ‪तुम्हें जाना चाहिए। ‪हम बस जानना चाहते हैं क्या हुआ था। ‪वह मर चुका है। तुम और क्या जानना चाहते हो? ‪तुम कसूरवार महसूस करते हो। ‪इसीलिए तुम घर जाकर नहाना पसंद करते हो? ‪तुम अपने टीम के साथियों को पसंद नहीं करते। ‪क्या कह रही है। हाँ, नहीं ‪चिंता मत करो। ‪लेकिन उन्होंने हमें कुछ नहीं बताया। ‪ख्याल रखना! ‪लेकिन उन्होंने हमें कुछ नहीं बताया। ‪हावि! ‪हम तुम्हारा इंतज़ार कर रहे थे। ‪मैं अपने दोस्त क्विनताना को बता रहा था ‪क्विनतानिया। ‪हाँ। ‪तुम फुटबॉल टीम में ज़रूर खेलोगे, है ना? ‪खैर, केवल अगर तुम चाहते हो। ‪कोई दबाव महसूस करो, ठीक है? ‪खैर, क्विनताना सही है, बेटा। तुम तय करें। ‪लेकिन याद रखना, फुटबॉल हमारे खून में है। ‪को गंवा नहीं सकते, ठीक है, बेटा? ‪हाविएर। विजेता, भाई। ‪देखे जब तुमने उनसे वह पूछा? ‪वे कुछ कहने वाले नहीं थे। ‪क्या तुम सच में मेमो के दोस्त हो? ‪हाँ। ‪और हमें विश्वास नहीं होता कि वह कूदा था। ‪यह सच नहीं है। ‪हाविएर विलियम्स ने उसे मार डाला। ‪बस इतना ही! ध्यान लगाओ! ‪पास करो, हावी! ‪यहाँ! ‪हम विलियम्स हैं, बेटा। ‪उसे पैरों में लात मारो, सर! ‪इसे यहाँ पास करें! ‪हावी, यहाँ पर! ‪सिखाओ! ‪मैं यहाँ हूँ, लानत है! ‪वह टीम का कप्तान था। ‪की शुरुआत के लिए ज़िम्मेदार था। ‪यह धार्मिक संस्कार के जैसा है। ‪टीम समूह में विडियो बाँटें। ‪उन्हें यह मज़ाकिया लगा। ‪कल मिलते हैं, यार। ‪फिर मिलते हैं! ‪मुझे इस बारे में बात नहीं करनी चाहिए। ‪करता है और सब मान लेते हैं। ‪लेकिन अंदर से, वह एक धौँसिया है। ‪चलो भी, बेटा! करो! ‪बस इतना ही! जाओ! ‪दिखाओ इन्हें विलियम्स क्या हैं! ‪हावी! ‪ध्यान लगाओ! ‪उसे पैरों में लात मारो! ‪उसे हराओ! ‪क्या बकवास है, यार? ‪माजरा क्या है, हाविएर? ‪अरे! ‪हाविएर, यह क्या है? ‪बहुत हुआ! ‪अरे! ‪क्या हुआ तुम्हें? ‪आराम से। ‪यह एक दोस्ताना मैच है। ‪चलो भी, बेटा। शांत हो जाओ। ‪पापा! ‪तुमने इसकी रिपोर्ट क्यों नहीं की? ‪उसके पिता की वजह से। ‪टीम से निकाल देने के लिए मना लिया। ‪को मिटाने के लिए बाकियों को पैसे दिए। ‪ठीक है, कमीने। ‪कि तुम्हें कौन मुसीबत से बाहर निकालता है। ‪के साथ किया, उससे मुझे गुस्सा आता ह
ै। ‪उन्हें लोगों को ब्लैकमेल करने के लिए रखे? ‪यह वही है जो हैकर कर रहा है। ‪उसे ढूँढने में मदद कर रहा था। ‪हाँ, सही कहा। ‪ताकि तुम उस तक कभी न पहुँचो। ‪यह स्वीकार करना बहुत कठिन है ‪जो तुमने सोचा था कि वे थे। ‪कौन थे जब तक मैंने खबर नहीं देखी। ‪और फिर भी, मुझे उनकी याद आती है। ‪हैलो। ‪तुम्हें क्या चाहिए, मारिया? ‪बस बात करनी है। ‪इसाबेला को लगता है तुम बनी हो। ‪क्या? ‪मुझे पता है। ‪वह क्यों सोचती है वह मैं हूँ? ‪और इसके अलावा, मैं कुलटा नहीं हूँ। ‪मारिया, क्या तुम ठीक हो? तुमने क्या खाया? ‪इसाबेला ने मुझे कुछ ब्राउनी बनाकर दी थी। ‪खैर, अलविदा, ब्राउनी। ‪नहीं, मैं कल से बीमार महसूस कर रही हूँ। ‪असल में, मैं सो नहीं पाई। ‪तनाव से दर्द कर रहे हैं। ‪कि इसका कारण तनाव है। ‪यह क्या हो सकता है? ‪शायद तुम गर्भवती हो। ‪यह तुम्हारे पास था? ‪हैकर ने इसे मुझसे लिया था। ‪और यह तुम्हारे लॉकर में था। ‪तुम गंभीर नहीं हो। ‪विलियम्स। ‪हमने विडियो देखा। ‪कौन सा विडियो? ‪गीएर्मो गर्रिबे का विडियो। ‪हमने देखा जब वह कूदा था। ‪या जब तुमने उसे कूदने पर मजबूर किया। ‪मजबूर नहीं किया था। ‪सोफ़िया, यह मैं नहीं था। ‪मेरा मतलब ‪किसी को लग सकता है ‪हावी, रुको। ‪हाविएर। रुको। ‪रुको। ‪सोफ़ी, इधर आओ। ‪मेरी बात सुनो। ‪आओ। ‪तुम मेरा विश्वास नहीं करोगी? ‪सोफ़िया, तुम मुझे जानती हो। ‪तुम जानती हो मैं कौन हूँ। ‪मैं नहीं जानती। ‪क्या? ‪नहीं। मैं नहीं जानती तुम कौन हो। ‪तो? ‪क्या तुम ठीक रहोगी? ‪हाँ। ‪तुम चाहो तो मैं थोड़ी देर रुक सकता हूँ। ‪तकनीकी रूप से, मुझे सज़ा मिली है। ‪कि हम इस कमीने को रोक सकते हैं। ‪किसी राज़ का खुलासा नहीं किया है। ‪हाँ, लेकिन हमारे पास कोई सबूत नहीं है। ‪यह वह नहीं था, है ना? ‪मुझे नहीं पता। ‪मुझे नहीं पता। ‪थोड़ा आराम करो। ‪ठीक है? ‪की ज़रूरत हो, तो मुझे फ़ोन करना। ‪ठीक है? ‪ठीक है। ‪ख्याल रखना। ‪हाँ। ‪ठीक है। ‪कि तुम क्यों आते रहते हो। ‪वह तुम्हारी वजह से यहाँ है। ‪उसके जागने की संभावना कम होती रहती है। ‪नहीं, लुईस ‪उससे ज़्यादा मज़बूत है। ‪लुईस जाग जाएगा। ‪जैरी, बंद करो! ‪मैं भी सच में नहीं जानता। ‪तुम चाहो तो रुक सकते हो। ‪मैं इन तस्वीरों को देख रही थी ‪देखो। ‪यहाँ तुम अपने पिता के साथ हो। ‪क्या तुम्हें यह जन्मदिन याद है? ‪याद है? ‪हाँ। ‪मुझे तुम्हारे लंबे बाल बहुत पसंद थे। ‪सुंदर। ‪नोरा, क्या सब ठीक है? ‪मोटरसाइकिल पर स्कूल से निकल रही थी। ‪नोरा, यह वैसा नहीं है जैसा दिखता है। ‪जैसा दिखता है वैसा नहीं है? तो यह क्या है? ‪आप मुझ से क्या कहलवाना चाहती हैं? ‪सच, प्रिय! ‪तुम आजकल बहुत अजीब बर्ताव कर रही हो। ‪तुम मुझे अब कुछ नहीं बताती। ‪तुम उस दिन नशे में थी। ‪यह कुछ भी नहीं है। ‪तुम स्कूल से निकल जाती हो। ‪मैं तुम्हें जवाब देती हूँ और तुम ‪कुछ नहीं हो रहा। ‪क्या मतलब? ‪कुछ गड़बड़ है! ‪ठीक है, रुको! ‪बंद करो, माँ! ‪में इतनी चिंता करना बंद कर सकती हो? ‪तो मुझे किसकी चिंता करनी चाहिए? ‪मुझे नहीं पता। ‪आप खुद से शुरुआत कर सकती हो। ‪आप खुश रहना शुरू कर सकती हो, ठीक है? ‪आपने मेरी वजह से क्विनतानिया को मना किया! ‪क्योंकि आपने सोचा मुझे दुख होगा! ‪सोचती हैं, मैं उससे ज़्यादा मज़बूत हूँ। ‪"मैं क्या सोच रहा था? ‪कहाँ थे आप इतने दिनों से? ‪मैंने खत्म कर दी। ‪आ रहा हूँ! ‪NETFLIX ओरिजिनल सीरीज़ ‪"सोफ़िया।" ‪"सच में?" ‪"एक मुखौटा?" ‪"मुझे लगा तुम कुछ अनोखा करोगे।" ‪"मेरा मतलब, तुम्हारे अहंकार के कारण।" ‪"क्या तुम मुझे जानती हो?" ‪"यह सच नहीं है।" ‪"क्या तुम पता लगाने से डरती हो?" ‪"नहीं, मैं तुम्हें नहीं जानती।" ‪"मैं तुम्हें नहीं ढूँढ पा रही।" ‪"हम इतने करीब रहे हैं।" ‪"नहीं, यह सच नहीं है।" ‪"मैं तुम्हारे बहुत करीब रहा हूँ।" ‪"तुम इसकी पुष्टि करने से डरती हो।" ‪तुम कब्रिस्तान नहीं गई। ‪नहीं, मुझे पता है। माफ़ करना। ‪क्या तुम मुझे बताओगी क्या चल रहा है? ‪क्या आप मुझे बताएँगी ‪आपने क्विनतानिया को ना क्यों कहा? ‪तुम्हें कैसे पता? ‪उन्होंने मुझे बताया। ‪खैर, मुझे उनके ऑफ़िस में अँगूठी मिली। ‪तुमने कुछ क्यों नहीं कहा? ‪आपने मेरे सवाल का जवाब नहीं दिया। ‪मैंने मना कर दिया और यह मेरा फैसला था। ‪यह मेरी वजह से था? ‪सोफ़ी, मुझे खुद ‪को समझाने की ज़रूरत नहीं है। ‪और पता है क्या? ‪अब से चीज़ें बदलने वाली हैं। ‪तुम स्कूल से सीधे घर आओगी। ‪तो मुझे सज़ा दी जा रही है? ‪अगर तुम इसे ऐसे देखना चाहती हो, तो हाँ। ‪आपने मुझे कभी सज़ा नहीं दी। ‪मुझे लुईस से मिलने अस्पताल जाना है। ‪अस्पताल से सीधे स्कूल, ‪और स्कूल से सीधे घर। ‪चार सौ छब्बीस। ‪तुम यहाँ क्या कर रहे हो? ‪क्या तुम उन चीज़ों का मतलब नहीं निकलोगी? ‪अगर तुम लुईस से मिलने आए हो, ‪तो तुम अंदर क्यों नहीं जाते? ‪म
ैं क्या कर सकता हूँ? ‪मैं चीज़ों को ठीक नहीं कर सकता। ‪मैं कसम खाता हूँ मैं वह सारी बेवकूफ़ियाँ... ‪बदलना चाहता हूँ जो मैंने ‪की हैं, लेकिन मैं नहीं कर सकता। ‪मैं कुछ नहीं कर सकता। ‪मैं यहाँ रहने के अलावा कुछ नहीं कर सकता। ‪खैर, हाँ। तुम इंतज़ार कर सकते हो। ‪तुम्हें पता है यह कौन था? ‪जब तुम्हें पता चले, ‪तो मुझे बताना। मैं उस हरामी को मार दूँगा। ‪तुम कुछ नहीं सीखे, जैरी। ‪वह कैसा है? ‪बहुत बुरा। ‪तुमने कहा था तुम उसकी ‪दोस्त हो जब तुम मेरे घर आई थी। ‪मैंने उसकी कई बार मदद की। ‪भले ही यह जानबूझकर ‪कभी नहीं किया, सच कहूँ तो। ‪मैं उसे कईयों से ज़्यादा पसंद ‪करती हूँ, मैं ऐसा कह सकती हूँ। ‪मुझे समझ नहीं आता उसने ऐसा क्यों किया। ‪ऐसा लगता है ‪हाई स्कूल में यह मेरा पहला दिन है। ‪तुम सच में यह करना चाहती हो? ‪यह मेरा विचार था। ‪बेहतर होगा तुम करो। ‪वरना तुम्हें तकलीफ़ होगी। ‪तुम यहाँ क्यों आई हो? ‪हमें बात करनी होगी। ‪नहीं, यह ऐसा नहीं है ‪जैसा दिखता है। मैं समझा सकता हूँ। ‪हम ब्रूनो के बारे में बात करना चाहते हैं। ‪प्रिंसिपल। ‪हाँ। ‪हाँ, चलो चलें। ‪मारिया। ‪क्या हाल है? ‪ठीक हूँ। ‪मुझे चिंता हो रही थी। ‪तुमने जवाब ही नहीं दिया। ‪माफ़ करना, घर पहुँचने पर मुझे बहुत चक्कर ‪आने लगे और मैं सो गई। लेकिन मैं ठीक हूँ। ‪मुझे एक संदेश आया। ‪"बनी तुम्हारे बहुत करीब है।" ‪यह नतालिया है, है ना? ‪मुझे नहीं पता। ‪मुझे नहीं लगता। ‪मारिया, तुम्हें उसे ‪बचाने की ज़रूरत नहीं है। ‪नहीं। ‪उसके साथ मेरी समस्याओं ‪का तुमसे कोई लेनादेना नहीं है। ‪ओह, देखो। ‪तुम्हारे लिए कुछ लाई हूँ। ‪मेरे लिए? ‪मुझे पता है तुम्हें ये कितने पसंद हैं। ‪शुक्रिया। ‪नहीं, इसे यहीं होना चाहिए। ‪हम क्या करने वाले है? ‪हमें प्रोजेक्टर स्थापित ‪करने के लिए किसी को ढूँढना होगा। ‪यह अभी ज़रूरी नहीं है, लुलु। ‪क्या तुमने उसे फ़ोन किया था? ‪हाँ, किया था, ‪लेकिन वॉइसमेल पर चला जाता है। ‪और मैंने संदेश भेजने की कोशिश की, ‪लेकिन उसे न मिलने की वजह से एक चिन्ह है। ‪वह वापस नहीं आ रहा है। ‪और तुम्हें इतना यकीन कैसे है? ‪वह अपना सारा निजी सामान ले गया है। ‪मैंने भी गौर किया। ‪लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि वह ‪हैकर से सहमत है। मैंने गौर किया होता। ‪खैर, आप कम से कम छानबीन कर सकते हैं। ‪सोफ़िया, मुझे मेरा काम ‪समझाने की किसी को ज़रूरत नहीं है। ‪अरे, मैं तुमसे ‪बात कर रहा हूँ। मेरी तरफ देखो। ‪क्या हम आपके साथ एक तस्वीर ले सकते हैं? ‪ठीक है। ‪शुक्रिया। ‪क्यों नहीं, लड़कियों। ‪दोस्तों, बहुत हुआ। बस। ‪वर्ग के लिए। डेमियन विलियम्स। ‪मैं... ‪मैं तुमसे मिलने के लिए बहुत उत्सुक था। ‪हावी। ‪वह एक विजेता है। एक विजेता। ‪क्या तुम यहाँ...? ‪मातापिता की मीटिंग के लिए? ‪असल में, हमने पहले बात की थी। ‪यह क्या है? ‪पैसा। ‪तुम्हें कहाँ से मिला? ‪वही खाता जहाँ मैंने ‪कहा था यह पड़ा है। ‪खैर, शुक्रिया, बेब। ‪मुझे आशा है तुमने इसे चुराया नहीं है। ‪बहुत हुआ, रोसिता। ‪मैंने तुम्हें पैसे दे दिए ‪और मैं कुछ और सहन नहीं करूँगी। ‪ठीक है, लड़की, चिंता मत करो। ‪अलविदा। ‪वह क्या था? ‪कागज़ का एक टुकड़ा। ‪उस पर क्या था? ‪क्या बकवास है, क्या यह एक पूछताछ है? ‪मैं आज सुबह लुईस से मिलने गई थी। ‪और वह कैसा रहा? बढ़िया? ‪तुम अकेले गई थी या राउल के साथ? ‪मेरी तरफ से हैलो कहा? ‪क्योंकि वह मेरी ‪वजह से अस्पताल में है, है ना? ‪कम से कम मैं ‪इतना कर सकता हूँ, है ना? ‪उस स्थिति के कारण ‪जिसका हम सामना कर रहे हैं, ‪मुझे कठोर कदम लेने की जरूरत महसूस हुई, ‪जैसे स्कूल परिसर में मोबाइल के इस्तेमाल ‪पर प्रतिबंध लगाना। ‪इसके अलावा, एहतियाती उपाय के रूप में, ‪हम इस साल नोने रद्द कर रहे हैं। ‪क्या? ‪यह नैशनल की रात है, स्कूल की परंपरा। ‪बेशक, टिकट का पैसा वापस कर दिया जाएगा। ‪और अंत में, मैं बताना चाहता था ‪कि हम उस व्यक्ति या लोगों को पकड़ने के लिए ‪बहुत व्यापक छानबीन करेंगे, ‪जो हाल ही में हुई ‪सारी चीज़ों के लिए ज़िम्मेदार है। ‪मैं सहमत हूँ। मुझे पता है आप चिंतित हैं। ‪शांति। आइए कुछ सवालों ‪के जवाब देते हैं। ठीक है, सर। ‪सफेद जैव प्रौद्योगिकी को औद्योगिक जैव ‪प्रौद्योगिकी के रूप में भी जाना जाता है। ‪इसका क्या उपयोग है? ‪उदाहरण के लिए, कपड़े का उद्योग। ‪नई सामग्री बनाई जाती है, ‪जैसे सड़नशील प्लास्टिक, ‪और जैव ईंधन। ‪और मैं... ‪रोसिता, क्या तुम पूरी कक्षा ‪को बताओगी तुम क्या बात कर रही हो ‪तो हमें भी पता चले? ‪हम अब नोने रद्द नहीं कर सकते। ‪दोस्तों, मुझे पता है यह तुम्हारे लिए ‪ज़रूरी है, लेकिन हम सच में नहीं कर सकते। ‪सोफ़िया, अब क्या? ‪क्या मैं बाथरूम जा सकती हूँ? ‪ठीक है। ‪चलो कक्षा फिर से शुरू करें। ‪सफेद जैव प्रौद्योगिकी। ‪यह क्या ह
ै, इसके उपयोग, इसके उद्देश्य... ‪इसका उपयोग ‪कपड़े के उद्योग में किया जाता है। ‪क्या तुमने गाब्रीएला से नाता तोड़ लिया? ‪बेशक तुम पहले से ही जानती थी। ‪इसलिए मैं उसे नज़रअंदाज़ कर रही हूँ। ‪तुम्हें पता हैं? ‪मैं इस स्कूल से पूरी तरह से थक गई हूँ। ‪मुझे बहुत अकेलापन लगता है। ‪मेरा मतलब... ‪कम से कम तुम्हारे पास हाविएर है। ‪खैर, मैं आपके आने की सराहना ‪करता हूँ, और अगर कोई और सवाल न हो, ‪मैं आपकी सेवा में हूँ ‪और मैं दिल से माफ़ी माँगता हूँ। ‪आने के लिए शुक्रिया। ‪शुक्रिया। ‪जाओ। ‪हाँ। ‪शुक्रिया। ‪मिगैल। ‪हम बात कर सकते हैं? ‪यह स्कूल के बारे में है? ‪तुमने एक भी संदेश का जवाब नहीं दिया। ‪नोरा, मेरे दिमाग ‪में एक हज़ार चीज़ें चल रही हैं। ‪तुम आखिरी चीज़ हो ‪जिसके बारे में सोचना चाहता हूँ। ‪तुम सच कह रहे हो? ‪सुनो। ‪तुम्हें इसमें दिलचस्पी होगी। ‪ये हाविएर के दो सबसे अच्छे दोस्त हैं। ‪उनमें से एक की मौत हो गई ‪और दूसरे ने उसे ब्लॉक कर दिया। ‪क्या तुम जानती हो हाविएर ने साल ‪के आखिर में स्कूल क्यों शुरू किया? ‪नहीं, मैंने कभी नहीं पूछा। ‪यह अजीब है, है ना? ‪क्या तुम क्लास छोड़ना चाहते हो? ‪हैलो। ‪क्या तुमने मारिया को देखा है? ‪नहीं। ‪तुम चाहो तो यहाँ बैठ सकती हो। ‪शुक्रिया। ‪सुनो। ‪मैंने बहुत बुरा बर्ताव किया तुम्हारे साथ। ‪लेकिन तुम किस समय की बात कर रही हो? ‪जब तुमने बाथरूम में मेरा ‪साथ देने की कोशिश की। ‪तुम सही थी। ‪तुम्हें खुद सामना करना सीखना होगा। ‪खैर, हाँ। ‪मैं किसी पर भरोसा नहीं कर सकती। ‪यह असहनीय स्कूल है। ‪यह है। ‪यह स्वादिष्ट है। ‪तुम खा सकते हो। ताकि तुम और दुखी न हो। ‪उच्च प्रदर्शन केंद्र ‪"हाविएर इस टीम का कप्तान था।" ‪मुझे मशहूर बना दो! ‪वे तीनों यहाँ खेलते थे। ‪इसे पास करो, यार। ‪और हाविएर ने कभी भी अपने ‪एक साथी की मौत का उल्लेख नहीं किया। ‪क्या वह संदेहपूर्ण नहीं है? ‪वह इसका उल्लेख क्यों नहीं करेगा? ‪मुझे नहीं पता। ‪चलो उसके दोस्त से पूछते हैं। ‪मैं... ‪मुझे मातापिता की मीटिंग की चिंता थी ‪तो मैं जानना चाहती थी यह कैसी रही। ‪तुम कह सकती हो यह अच्छी रही। ‪मैं बच गया। ‪खैर, हाँ। बेशक तुम बच गए। मैंने कहा था। ‪इसके अलावा, ‪तुम अच्छी तरह से जानते हो तुम बढ़िया हो। ‪है ना? ‪मैंने यह कई बार कहा है। ‪और... ‪सोफ़िया की माँ ‪के साथ क्या हुआ था? नोरा के साथ? ‪देखो, सुसाना, तुम शादीशुदा हो। ‪हाँ, मैं जानती हूँ। ‪लेकिन मान लेते हैं कि गुएरो ‪के साथ मेरा रिश्ता थोड़ा उलझा हुआ है। ‪वह बल्कि फुटबॉल देखना चाहेगा... ‪देखो, तुम और मैं सहकर्मी हैं, ‪सहकर्मी, पेशेवर... ‪और मुझे नोरा से प्यार है। ‪मैं... ‪प्रिंसिपल? ‪मैं... ‪ग्रेड? ‪मैं आपके साथ एक तस्वीर ले सकती हूँ? ‪विजेता! ‪शुक्रिया। ‪वे खेल की जगह देखना चाहते हैं। ‪हाँ, ज़रूर। हाँ। ‪वह देखना चाहते हैं। हाँ। चलो चलते हैं। ‪हाँ? ‪मैं साथ चलता हूँ। ‪शुक्रिया। ‪तुम्हारा स्वागत है। ‪हैलो। ‪क्या चल रहा है? ‪हैलो। ‪तुम कबसे चोर बनना बंद करके व्यापारी बन गई? ‪तुम पक्का एक उद्यमी हो। ‪हाँ, पर सच कहूँ, मुझे नहीं लगता ‪मेरे पास वह है जो तुम लेते हो। ‪और जो मेरे पास है, वह सस्ता नहीं है। ‪अरे, बस अपने बॉस से सावधान रहना। ‪सच, में। ‪ध्यान रहे। ‪सच में। ‪सुनो! ‪तुम यहाँ नहीं आ सकती। ‪अगर मैं तुम होती, ‪मैं उस मस्से की जाँच करवाती, भाई। ‪क्या तुम जा रहे हो? ‪माफ़ करना? ‪क्या तुम जल्दी में हो? तुम नहाओगे नहीं? ‪तुम कौन हो? ‪हम उस लड़के के दोस्त हैं ‪जो यहाँ खेला करता था। ‪कौन? ‪गीएर्मो गर्रिबे। ‪तुम्हें जाना चाहिए। ‪हम बस जानना चाहते हैं क्या हुआ था। ‪वह मर चुका है। तुम और क्या जानना चाहते हो? ‪तुम कसूरवार महसूस करते हो। ‪इसीलिए तुम घर जाकर नहाना पसंद करते हो? ‪तुम अपने टीम के साथियों को पसंद नहीं करते। ‪वह नहीं जानती वह ‪क्या कह रही है। हाँ, नहीं... ‪चिंता मत करो। ‪लेकिन उन्होंने हमें कुछ नहीं बताया। ‪ख्याल रखना! ‪लेकिन उन्होंने हमें कुछ नहीं बताया। ‪हावि! ‪हम तुम्हारा इंतज़ार कर रहे थे। ‪मैं अपने दोस्त क्विनताना को बता रहा था... ‪क्विनतानिया। ‪हाँ। ‪मैं उससे कह रहा था ‪तुम फुटबॉल टीम में ज़रूर खेलोगे, है ना? ‪खैर, केवल अगर तुम चाहते हो। ‪मैं नहीं चाहता तुम ‪कोई दबाव महसूस करो, ठीक है? ‪खैर, क्विनताना सही है, बेटा। तुम तय करें। ‪लेकिन याद रखना, फुटबॉल हमारे खून में है। ‪यह वही है जो हमें ख़ास बनाता है ‪और तुम उस मौके ‪को गंवा नहीं सकते, ठीक है, बेटा? ‪हाविएर। विजेता, भाई। ‪तुमने उनके चेहरे ‪देखे जब तुमने उनसे वह पूछा? ‪वे कुछ कहने वाले नहीं थे। ‪क्या तुम सच में मेमो के दोस्त हो? ‪हाँ। ‪और हमें विश्वास नहीं होता कि वह कूदा था। ‪यह सच नहीं है। ‪हाविएर विलियम्स ने उसे मार डाला। ‪बस इतना ही! ध
्यान लगाओ! ‪पास करो, हावी! ‪यहाँ! ‪हम विलियम्स हैं, बेटा। ‪उसे पैरों में लात मारो, सर! ‪इसे यहाँ पास करें! ‪हावी, यहाँ पर! ‪सिखाओ! ‪मैं यहाँ हूँ, लानत है! ‪वह टीम का कप्तान था। ‪और वह नौसिखियों ‪की शुरुआत के लिए ज़िम्मेदार था। ‪यह धार्मिक संस्कार के जैसा है। ‪हाविएर को विचार आए, ‪उन्होंने उनको रिकॉर्ड किया, ‪और फिर उन्होंने ‪टीम समूह में विडियो बाँटें। ‪उन्हें यह मज़ाकिया लगा। ‪कल मिलते हैं, यार। ‪फिर मिलते हैं! ‪मुझे इस बारे में बात नहीं करनी चाहिए। ‪"कूद! कूदो, कमीने!" ‪देखो, हाविएर अच्छा बर्ताव ‪करता है और सब मान लेते हैं। ‪लेकिन अंदर से, वह एक धौँसिया है। ‪चलो भी, बेटा! करो! ‪बस इतना ही! जाओ! ‪दिखाओ इन्हें विलियम्स क्या हैं! ‪हावी! ‪ध्यान लगाओ! ‪उसे पैरों में लात मारो! ‪उसे हराओ! ‪क्या बकवास है, यार? ‪माजरा क्या है, हाविएर? ‪अरे! ‪हाविएर, यह क्या है? ‪बहुत हुआ! ‪अरे! ‪क्या हुआ तुम्हें? ‪आराम से। ‪यह एक दोस्ताना मैच है। ‪चलो भी, बेटा। शांत हो जाओ। ‪पापा! ‪तुमने इसकी रिपोर्ट क्यों नहीं की? ‪उसके पिता की वजह से। ‪उन्होंने बिना मानहानि के उसे ‪टीम से निकाल देने के लिए मना लिया। ‪और उन्होंने विडियो ‪को मिटाने के लिए बाकियों को पैसे दिए। ‪ठीक है, कमीने। ‪यह मत भूलो ‪कि तुम्हें कौन मुसीबत से बाहर निकालता है। ‪जो हाविएर ने विडियो ‪के साथ किया, उससे मुझे गुस्सा आता है। ‪उन्हें लोगों को ब्लैकमेल करने के लिए रखे? ‪यह वही है जो हैकर कर रहा है। ‪लेकिन वह मुझे ‪उसे ढूँढने में मदद कर रहा था। ‪हाँ, सही कहा। ‪ताकि तुम उस तक कभी न पहुँचो। ‪देखो, सोफ़िया, मुझे पता है ‪यह स्वीकार करना बहुत कठिन है... ‪कि कोई वह नहीं है ‪जो तुमने सोचा था कि वे थे। ‪मुझे नहीं पता था कि मेरे पिताजी ‪कौन थे जब तक मैंने खबर नहीं देखी। ‪और फिर भी, मुझे उनकी याद आती है। ‪हैलो। ‪तुम्हें क्या चाहिए, मारिया? ‪बस बात करनी है। ‪इसाबेला को लगता है तुम बनी हो। ‪क्या? ‪मुझे पता है। ‪वह क्यों सोचती है वह मैं हूँ? ‪वह मेरी सबसे अच्छी दोस्त थी ‪और इसके अलावा, मैं कुलटा नहीं हूँ। ‪मारिया, क्या तुम ठीक हो? तुमने क्या खाया? ‪इसाबेला ने मुझे कुछ ब्राउनी बनाकर दी थी। ‪खैर, अलविदा, ब्राउनी। ‪नहीं, मैं कल से बीमार महसूस कर रही हूँ। ‪असल में, मैं सो नहीं पाई। ‪यहाँ तक कि मेरे स्तन ‪तनाव से दर्द कर रहे हैं। ‪मुझे सच में शक है ‪कि इसका कारण तनाव है। ‪यह क्या हो सकता है? ‪शायद तुम गर्भवती हो। ‪माइनर लीग में दुखद दुर्घटना ‪यह तुम्हारे पास था? ‪हैकर ने इसे मुझसे लिया था। ‪और यह तुम्हारे लॉकर में था। ‪तुम गंभीर नहीं हो। ‪देखो, हम जानते हैं तुमने क्या किया, ‪विलियम्स। ‪हमने विडियो देखा। ‪कौन सा विडियो? ‪गीएर्मो गर्रिबे का विडियो। ‪हमने देखा जब वह कूदा था। ‪या जब तुमने उसे कूदने पर मजबूर किया। ‪मैंने उसे कूदने के लिए ‪मजबूर नहीं किया था। ‪सोफ़िया, यह मैं नहीं था। ‪मेरा मतलब... ‪किसी को लग सकता है... ‪हावी, रुको। ‪हाविएर। रुको। ‪रुको। ‪सोफ़ी, इधर आओ। ‪मेरी बात सुनो। ‪आओ। ‪तुम मेरा विश्वास नहीं करोगी? ‪सोफ़िया, तुम मुझे जानती हो। ‪तुम जानती हो मैं कौन हूँ। ‪मैं नहीं जानती। ‪क्या? ‪नहीं। मैं नहीं जानती तुम कौन हो। ‪तो? ‪क्या तुम ठीक रहोगी? ‪हाँ। ‪तुम चाहो तो मैं थोड़ी देर रुक सकता हूँ। ‪तकनीकी रूप से, मुझे सज़ा मिली है। ‪खैर, मैं बस तुम्हें बताना चाहता हूँ ‪कि हम इस कमीने को रोक सकते हैं। ‪उसने अभी तक ‪किसी राज़ का खुलासा नहीं किया है। ‪हाँ, लेकिन हमारे पास कोई सबूत नहीं है। ‪तुम्हें अभी भी लगता है ‪यह वह नहीं था, है ना? ‪मुझे नहीं पता। ‪मुझे नहीं पता। ‪थोड़ा आराम करो। ‪ठीक है? ‪अगर तुम्हें कभी भी, किसी भी चीज़ ‪की ज़रूरत हो, तो मुझे फ़ोन करना। ‪ठीक है? ‪ठीक है। ‪ख्याल रखना। ‪हाँ। ‪ठीक है। ‪मुझे समझ नहीं आता ‪कि तुम क्यों आते रहते हो। ‪वह तुम्हारी वजह से यहाँ है। ‪हर बीतते दिन के साथ, ‪उसके जागने की संभावना कम होती रहती है। ‪नहीं, लुईस... ‪वह जितना दिखता है, ‪उससे ज़्यादा मज़बूत है। ‪लुईस जाग जाएगा। ‪जैरी, बंद करो! ‪मैं भी सच में नहीं जानता। ‪तुम चाहो तो रुक सकते हो। ‪मैं इन तस्वीरों को देख रही थी... ‪देखो। ‪यहाँ तुम अपने पिता के साथ हो। ‪क्या तुम्हें यह जन्मदिन याद है? ‪याद है? ‪हाँ। ‪मुझे तुम्हारे लंबे बाल बहुत पसंद थे। ‪सुंदर। ‪नोरा, क्या सब ठीक है? ‪मैंने देखा तुम एक लड़के के साथ ‪मोटरसाइकिल पर स्कूल से निकल रही थी। ‪नोरा, यह वैसा नहीं है जैसा दिखता है। ‪जैसा दिखता है वैसा नहीं है? तो यह क्या है? ‪आप मुझ से क्या कहलवाना चाहती हैं? ‪सच, प्रिय! ‪तुम आजकल बहुत अजीब बर्ताव कर रही हो। ‪मुझे ऐसा लगता है ‪तुम मुझे अब कुछ नहीं बताती। ‪तुम उस दिन नशे में थी। ‪यह कुछ भी नहीं है। ‪तुम स्कूल से निकल जात
ी हो। ‪मैं तुम्हें जवाब देती हूँ और तुम... ‪कुछ नहीं हो रहा। ‪क्या मतलब? ‪कुछ गड़बड़ है! ‪ठीक है, रुको! ‪बंद करो, माँ! ‪क्या आप एक बार के लिए मेरे बारे ‪में इतनी चिंता करना बंद कर सकती हो? ‪तो मुझे किसकी चिंता करनी चाहिए? ‪मुझे नहीं पता। ‪आप खुद से शुरुआत कर सकती हो। ‪आप खुश रहना शुरू कर सकती हो, ठीक है? ‪आपने मेरी वजह से क्विनतानिया को मना किया! ‪क्योंकि आपने सोचा मुझे दुख होगा! ‪और पता है क्या? आप जितना ‪सोचती हैं, मैं उससे ज़्यादा मज़बूत हूँ। ‪"तुम्हारे पापा ने जो किया..." ‪"मैं क्या सोच रहा था?" ‪"मैं क्या सोच रहा था? ‪क्या तुम जानती हो...?" ‪"क्या तुम जानती हो क्या हो सकता है?" ‪"क्या तुम्हारी ‪अपने पिता से अच्छी बनती थी?" ‪"समय बीतता है और फिर भी दर्द होता है।" ‪"अगर तुम्हारे पापा..." ‪"मैं जेल चला जाऊँगा।" ‪"अगर तुम्हारे पिताजी देख सकते..." ‪"मैं जेल चला जाऊँगा।" ‪"मैं क्या सोच रहा था?" ‪"मेरे पापा मर चुके हैं।" ‪"समय बीतता है और फिर भी दर्द होता है।" ‪कहाँ थे आप इतने दिनों से? ‪"मेरे पापा कहते थे ‪कि ये छोटी चीज़ें जादुई हैं।" ‪"इसलिए तुम बोर नहीं होती।" ‪मैंने खत्म कर दी। ‪"तुम्हारे पापा की पसंदीदा किताब।" ‪वहाँ पहुँचकर मैं खबर कर दूँगी। " ‪"कितना कमीना है।" ‪"क्या तुम जानती हो ‪इसका खुलासा होने पर क्या होगा, सोफ़ी?" ‪"हाँ, मैं जानती हूँ।" ‪"अगर तुम्हारी माँ को पता चल गया, ‪तो वह तुम्हें कभी माफ़ नहीं करेगी।" ‪@_ऑलयौरसीक्रेट्स ‪मैं तुम्हारा राज़ जानता हूँ ‪"मैं क्या सोच रहा था? मूर्ख!" ‪"मैं जेल चला जाऊँगा।" ‪आ रहा हूँ! ‪संवाद अनुवादक: नीना किस
और फिर नैना अविनाश के पास आकर बोलती हैं, " हां अवि, अब बोलो क्या हुआ, कुछ काम था क्या तुम्हें" , अविनाश उसकी बात सुनकर हंसता हैं और फिर उससे बोलता हैं, " काम और मुझे , नहीं तो मैं तो यहां पर तुम्हें तुम्हारे काम से ही बुलाया था" , " मेरे काम से लेकिन मेरा कौन सा काम हैं जिसके लिए तुमने मुझे ही बुलाया हैं यहां पर" , नैना ने चौंकते हुए पूछा, " लगता हैं तुम भूल गई नैना, कल तुमने ही तो कहा था की तुम्हें उस सुपर हीरो कश्यप से मिलना हैं, और आज तुम अपनी ही बोली गई बात को भूल गई हो, क्या नैना तुम भी ना" , सूरज ने नैना से कहा, " अरे हां मैं तो भूल ही गई थी उस बारे में, लेकिन तुम दोनों ने तो कहा था की तुम पहले उस आदमी से बात करोगे उसके बाद ही तुम लोग मुझे उस सुपर हीरो कश्यप से मिलवाओगे" , नैना ने कहा, " हां उस आदमी ने बोल दिया हैं और वो उस सुपर हीरो से तुम्हें आज ही मिलवा देगा" , अविनाश ने कहा, " क्या सच में उसने मुझसे मिलने के लिए हां बोल दिया हैं" , नैना ने जोर से चिल्लाते हुए क्लास रूम में सबके सामने कहा, " तुम क्या कर रही हो नैना, इसमें इतना चिल्लाने की क्या जरूरत हैं, तुम ये बात धीरे से भी तो बोल सकती हो ना" , अविनाश ने कहा, " हां, वही तो, इतना चिल्लाने की क्या जरूरत हैं" , सूरज ने कहा, उसके बाद नैना अपने आस पास क्लास रूम में देखती हैं, जहां पर बाकी के स्टूडेंट भी उसे ही देख रहे थे, क्योंकि नैना ने इतनी जोर से चिल्लाते हुए जो बोला था, और फिर वो धीरे से बोलती हैं, " सॉरी वो मैं कुछ ज्यादा ही एक्साइटेड हो गई थी, इसलिए अपनी खुशी को कंट्रोल नहीं कर पाई" , " अब मेरी बात ध्यान से सुनो, तुम्हें वो सुपर हीरो कश्यप आज शाम को उसी स्कूल में मिलेगा जिसमें कुछ दिनों पहले उन अपराधियों ने उन छोटे बच्चों को कैद करके रखा हुआ था, और तुम वहां पर शाम को ठीक पांच बजे उस स्कूल में पहुंच जाना, और हां ये बात किसी और को बिलकुल भी मत बताना की तुम आज उस सुपर हीरो कश्यप से मिलने वाली हो, ठीक हैं " , अविनाश ने कहा, " हां मैं किसी को भी नहीं बताऊंगी, लेकिन वो स्कूल तो चार बजे के बाद बंद हो जाता हैं, तो फिर मैं अंदर कैसे जाउंगी" , नैना ने कहा, " तुम उसकी चिंता मत करो सूरज तुम्हें वहां पर अंदर लेकर चला जायेगा, बस तुम दोनों टाइम से वहां पर पहुंच जाना" , अविनाश ने कहा, " ठीक हैं मैं वहां पर पहुंच जाऊंगी, लेकिन तुम दोनों मेरे साथ कोई मजाक तो नहीं कर रहे हो ना, क्योंकि मुझे मज़ाक बिलकुल भी पसंद नहीं हैं" , नैना ने कहा, " मज़ाक, तुम्हें ये सब मजाक लग रहा हैं, एक तो हम दोनों इतनी मेहनत करके उस सुपर हीरो को तुमसे मिलने के लिए मना रहे हैं और एक तुम हो की तुम्हें हम दोनों की मेहनत मजाक लग रही हैं, ठीक हैं अगर तुम्हें हम दोनों पर अब भी भरोसा नहीं हैं तो तुम हम दोनों से अभी इसी वक्त दोस्ती तोड़ कर यहां से जा सकती हो, हम तुम्हें बिलकुल भी नहीं रोकेंगे", अविनाश ने थोड़े गुस्से में आकर कहा, " नहीं ऐसी बात नहीं हैं अवि, मुझे तुम दोनों पर पूरा भरोसा हैं, लेकिन वो क्या हैं न की मुझे अभी भी विश्वास नहीं हो रहा हैं,की सुपर हीरो कश्यप मुझसे मिलने के लिए तैयार हो गया हैं, इसलिए मैंने ऐसा बोल दिया" , नैना ने कहा, " चलो ठीक हैं अब तुम अपनी सीट पर जाकर बैठो, और जब कॉलेज की छुट्टी हो जायेगी तब तुम सूरज के साथ वहां पर उस स्कूल में पहुंच जाना" , अविनाश ने कहा, " ठीक हैं अवि मैं वहां पर टाइम से पहुंच जाऊंगी, और तुम दोनों ने मेरे लिए इतना सब किया उसके लिए थैंक्स", नैना के कहा और फिर अपने सीट पर जाकर बैठ गई, उसके थोड़ी देर के बाद क्लास रूम में प्रोफेसर आ जाते हैं और फिर वो सभी स्टूडेंट्स की अटेंडेंस लेने लगते हैं, और इधर कैप्टेन स्पाइक अपने उस न्यूज चैनल के ऑफिस में मौजूद हैं और फिर अपने उस नए शो के बारे में सोच रहा हैं, जिसमें गेस्ट के तौर पर उस सुपर हीरो कश्यप को रखने वाले थे लेकिन अब तक उस सुपर हीरो कश्यप का कुछ पता नहीं चला था और कैप्टेन स्पाइक अपने केबिन में बैठ कर उसी के बारे में सोच रहा था, की तभी उसके केबिन में एक चपरासी अंदर आता हैं, और उससे बोलता हैं, " सर आपको मनीष सर ने अपने केबिन में बुलाया हैं" , " ठीक हैं, तुम जाओ और उनको बोल दो की मैं आ रहा हूं," कैप्टेन स्पाइक ने उस चपरासी से कहा, उसके बाद कैप्टेन स्पाइक यानी की सतीश चैनल हेड मनीष कुमार के केबिन में जाता हैं, और वहां जाकर वो देखता हैं कि वहां पर पहले से ही रिपोर्टर रिमा मौजूद थी, और फिर वहां पर जाते ही सतीश मनीष से पूछता हैं, " आपने मुझे बुलाया , कुछ जरूरी काम था क्या" , " हां, वो उस सुपर हीरो कश्यप का कुछ पता चला की नहीं" , मनीष ने कहा, "नहीं सर, अभी तक तो उसका कुछ पता नहीं चला" , सतीश ने कहा, " क्या, तुम्हें अभी तक वो सुपर
हीरो कश्यप नहीं मिला, अब उस कंपनी के हेड अवधेश सिंह से मैं क्या बोलूंगा, जिसने हमारे चैनल के नए शो को स्पॉन्सर करने के लिए उतने पैसे दिए थे,और उन्होंने तो हमारे चैनल के साथ डील भी साइन कर लिया हैं, अब हम क्या करे" , मनीष ने कहा, मनीष की बात सुनकर कैप्टेन स्पाइक यानी की सतीश और रिपोर्टर रिमा उदास होकर वहीं पर खड़े रहते हैं, और अपनी नज़रें नीचे झुकाए हुए रहते हैं क्योंकि उनके पास और कोई चारा नहीं था, की तभी रिपोर्टर रिमा अपने दिमाग में कुछ सोचने लगती हैं, और फिर मुस्कुराते हुए मनीष से बोलती हैं, " सर क्या आप कभी उस सुपर हीरो कश्यप से मिले हैं", " नहीं", मनीष ने कहा उदास होकर कहा, " क्या आपने उससे बातें की हैं" , रिपोर्टर रिमा ने कहा, " जब मैं उससे कभी मिला नहीं तो उससे बात कैसे कर सकता हूं, और तुम भी क्या बकवास की बातें कर रही हो, क्या हो गया हैं तुम्हें" , मनीष ने कहा, " एक मिनट सर" , रिपोर्टर रिमा ने कहा, मनीष उसकी बात सुनकर चुप हो जाता हैं, क्योंकि उसके पास अभी कोई आइडिया नहीं आ रहा था, इसलिए वो चुप हो जाता हैं, " क्या तुमने उस सुपर हीरो कश्यप को देखा हैं, सतीश" , रिमा ने सतीश से पूछा, " नहीं, क्योंकि वो अपने चेहरे पर मास्क लगा कर रखता हैं" , सतीश यानी की कैप्टेन स्पाइक ने दबी हुई आवाज में रिमा से कहा, वैसे तो कैप्टेन स्पाइक ने उस सुपर हीरो कश्यप यानी की अविनाश को अपने इसी ऑफिस में देखा था, लेकिन उसने रिमा को झूठ बोल दिया, क्योंकि अगर वो बोल देता की उसने देखा हैं, तो सब लोग उसके पीछे पड़ जाते, और उसे अपने चैनल के शो में लाने के लिए बोलते, " बिलकुल सही कहा तुमने, किसी ने भी उसे नहीं देखा हैं,और ना ही किसी ने उससे बात की हैं क्योंकि वो सभी लोगों की मदद करने के बाद वहां से चला जाता हैं, तो फिर हमें इस बात का एडवांटेज लेना चाहिए" , रिपोर्टर रिमा ने कहा, मनीष उसकी बात ध्यान से सुनता रहता हैं और फिर उससे बोलता हैं, " एडवांटेज, लेकिन कैसा एडवांटेज" , " अगर हम असली सुपर हीरो कश्यप की जगह पर किसी और को मास्क लगा कर अपने शो में चीफ गेस्ट बनाकर ले आए तो उस कंपनी के हेड अवधेश सिंह जिसने हमारे शो को स्पॉन्सर कर रहा हैं, उसको थोड़े ही पता चलेगा की मास्क के पीछे कौन हैं, अपने ऑफिस में से ही किसी को बना देते हैं" , रिपोर्टर रिमा ने कहा, " लेकिन हमारे ऑफिस में कौन होगा जिसको हम सब सुपर हीरो कश्यप बना सके" , मनीष ने कहा, " वो तो हमारे सामने ही हैं, सर " , रिपोर्टर रिमा ने कहा, " सामने, लेकिन कौन रिमा?" , मनीष ने पूछा, " सतीश, और कौन?" , रिपोर्टर रिमा ने कहा, रिमा की बात सुनकर सतीश चौंक जाता हैं, और बोलता हैं, " क्या , मैं...., लेकिन मैं कैसे बन सकता हूं" , " हां, तुम सतीश और तुम्हारी तो हाइट भी उसके जितनी ही हैं, तो तुम ही बन जाओ ना" , रिमा ने कहा, ये बात सुनकर सतीश यानी की कैप्टेन स्पाइक अपने मन में सोचने लगता हैं, " ये कहा आकर फंस गया हूं मैं, मैं जिसे खोजने और फिर उस इंद्र कवच को उससे छीनने के लिए यहां पर आया था, मुझे उसके ही तरह के कपड़े पहनकर उसकी एक्टिंग करनी पड़ रही हैं" , " क्या सोच रहे हो सतीश, रिमा जो कह रही हैं वो बिल्कुल सही कह रही हैं, नकली ही सही तुम उसकी जगह पर रहकर आम जनता के सारे सवालों के जवाब दे सकते हो" , मनीष ने कहा, " अगर आपको ये सब सही लग रहा हैं तो ठीक हैं, ऐसा ही सही, मैं उस सुपर हीरो कश्यप की जगह पर मास्क लगा उस शो में चीफ गेस्ट बनकर बैठ जाऊंगा" , सतीश यानी की कैप्टेन स्पाइक ने कहा, उधर कैप्टेन स्पाइक अपने चैनल के उस नए शो में उस सुपर हीरो कश्यप बनकर उसकी जगह पर मास्क लगा कर बैठने को तैयार था और इधर अविनाश के कॉलेज की सारी क्लासेस खत्म हो चुकी हैं और कॉलेज में छुट्टी हो चुकी हैं और सारे स्टूडेंट्स अपने घर पर जा रहे हैं,और अविनाश अपने कॉलेज के गेट से बाहर निकल रहा हैं और उसके साथ उसका दोस्त सूरज भी होता हैं, और दोनों आपस में कुछ बात कर रहे होते हैं की तभी उसको नैना सामने से आती हुई दिखाई देती हैं, और फिर अविनाश सूरज से बोलता हैं, " चुप हो जा, वो देख नैना आ रही हैं, उसके सामने इस बात का जिक्र मत करना", " ठीक हैं" , सूरज ने कहा, " मैं रेडी हूं, अब चले, वरना देर हो गई और वो वहां पर आकर चला गया तो फिर मैं उससे कैसे मिलूंगी", नैना ने कहा, " हीरो अभी वहां पर गया ही नहीं हैं तो फिर भागेगा कैसे" , सूरज ने फुसफुसाते हुए कहा, " क्या....., तुमने कुछ कहा क्या सूरज" , नैना ने कहा, "कुछ नहीं नैना, अब चलो वरना लेट हो जायेंगे, क्योंकि आज बस की स्ट्राइक भी हैं, तो हम दोनों को वहां पर पैदल ही जाना पड़ेगा, ना" , सूरज ने नैना से कहा, " उससे मुझे क्या, मेरे पास तो मेरी कार हैं न, हम लोग उस स्कूल में मेरी कार से ही चले जायेंगे" , नैना ने कह
ा, " क्या तुम्हारे पास अपनी पर्सनल कार हैं, लेकिन तुम तो रोज बस से आती थी ना कॉलेज", अविनाश ने कहा, " बस से, नहीं तो मैं तो रोज अपनी कार से ही आती जाती हूं, हां वो कभी कभार दोस्तों के साथ कहीं आस पास किसी रेस्टोरेंट में जाना होता हैं तो उसके लिए टैक्सी या फिर बस से उन लोगों के साथ चली जाती हूं" , नैना ने कहा, " लेकिन उस दिन जब उस स्कूल में उन अपराधियों ने उन बच्चों को कैद करके रखा था और तुमने मुझे बताया था की तुमने उस स्कूल के बाहर भीड़ को देखा था तब तो तुम अपनी दोस्त के साथ पैदल ही जा रही थी" , अविनाश ने कहा, " अच्छा उस दिन , उस दिन तो मेरी कार खराब थी इसलिए मैं कॉलेज में बिना कार के ही पहुंच गई थी, और फिर छुट्टी में मेरी एक दोस्त ने कहा था की उसके साथ चलकर कुछ शॉपिंग करने के लिए चलने के लिए इसलिए मैं उसके साथ पैदल जा रही थी, लेकिन मैं उस दिन पैदल जा रही थी ये तुम्हें कैसे पता चला, हमम क्या तुम मुझ पे नजर रखे हुए थे क्या" , नैना ने कहा, " नहीं वो तो मैं बस ऐसे ही सूरज के साथ बात करते हुए जा रहा था की तभी तुम्हें कॉलेज से जाते हुए देखा था, बस और कुछ नहीं" , अविनाश ने कहा, " अरे अवि मैं तो बस ऐसे ही बोल रही थी, और तुमने सीरियस ले लिया" , नैना ने कहा, उसके बाद सूरज ने देखा की माहौल कुछ ठीक नहीं लग रहीं हैं तो उसने बात बदलते हुए कहा, " अरे अब बातें ही करते रहोगे या फिर उस स्कूल में चलोगे भी" , " हां रुको मैं यहीं पर ड्राइवर को बुला लेती हूं कार लेकर" , नैना ने कहा और फिर अपने जींस से अपना मोबाइल निकाल कर कॉल करने लगी, थोड़ी देर के बाद ड्राइवर कार लेकर आ जाता हैं और फिर नैना अपने कार का गेट खोलते हुए बोलती हैं, " चलो अवि, सूरज जल्दी से आ जाओ" , उसके बाद सूरज अंदर कार में बैठ जाता हैं और फिर नैना अविनाश की तरफ देखते हुए बोलती हैं, " चलो अवि आओ जल्दी से" , फिर सूरज नैना से बोलता हैं, " अरे नैना वो नहीं आएगा हम लोगों के साथ" " क्यों, वो क्यों नहीं आएगा, वो नहीं मिलेगा क्या उस सुपर हीरो कश्यप से" , नैना ने कहा, " उसे मिलने की क्या जरूरत हैं, वो खुद से कैसे मिलेगा" , सूरज ने फुसफुसाते हुए कहा, " तुमने कुछ कहा क्या सूरज" , नैना ने कहा, " अरे नैना उसे उस आदमी से काम हैं जिसने उस सुपर हीरो से तुम्हें मिलवाने के लिए बोला था , इसलिए वो अभी उसी के पास जायेगा, तुम उसे छोड़ो और हम दोनों जल्दी से चलो उस स्कूल में" , सूरज ने कहा, " अच्छा ठीक हैं, हम चलते हैं, अच्छा अवि जब तुम्हारा काम हो जाए तो तुम वहां पर उस स्कूल में जरूर आना, उस सुपर हीरो कश्यप से मिलने के लिए" , " ठीक हैं नैना मैं अपना काम खत्म करके वहां पर आ जाऊंगा, अब तुम लोग जाओ" , अविनाश ने कहा, " ठीक हैं हम लोग अब जाते हैं, ड्राइवर गाड़ी स्टार्ट कीजिए और यहां से चलिए जहां पर मैं बताती हूं" , नैना ने कहा और फिर उसकी गाड़ी वहां से चली जाती हैं, उसके बाद अविनाश थोड़ी दूर तक ऐसे ही पैदल चलने लगता हैं, और फिर एक सुनसान सी जगह देख कर वहां पर जाकर अपने बैग से उस सूट और मास्क को बाहर निकाल लेता हैं और फिर अपने कपड़े उतार कर उन सब को उसी बैग में रख देता हैं और फिर उस सुपर हीरो कश्यप वाले उस सूट और मास्क को अपने शरीर और चेहरे पर पहन लेता हैं, और फिर अपने बैग का चैन बंद करके उसे अपनी पीठ पर टांग लेता हैं और फिर उस सुनसान जगह से उपर हवा में उड़ते हुए उस जगह से स्कूल की तरफ जाने लगता हैं, और फिर थोड़ी देर के बाद अविनाश उस स्कूल की बिल्डिंग के सबसे ऊपर वाली मंजिल के छत पर उतर जाता हैं और सूरज और नैना के वहां पर आने का इंतजार करने लगता हैं, और फिर दस मिनट के बाद नैना की कार उस स्कूल के पास आकर रुकती हैं, और फिर वापस से वो कार चलने लगती हैं और फिर वो कार उस स्कूल के पीछे जाकर रुकती हैं, और फिर उस कार से नैना और सूरज बाहर निकलते हैं, और ये सारा नजारा अविनाश उस स्कूल की चार मंजिला इमारत के उपर की छत से देख रहा था, जैसे ही नैना उस स्कूल के पीछे पहुंच कर अपने कार से बाहर आती हैं तो सूरज से पूछती हैं, " सूरज तुमने मुझे स्कूल के पीछे क्यों लेकर आए हो, हम लोग स्कूल के मेन गेट से भी तो अंदर जा सकते थे न" , " हां जा तो सकते थे लेकिन चार बजे तक ही, क्योंकि ये स्कूल चार बजे तक ही खुला रहता हैं, उसके बाद स्कूल के बच्चों की छुट्टी हो जाती हैं और फिर ये स्कूल का गेट बंद हो जाता हैं, और अभी चार बजके तीस मिनट हो रहे हैं, इसलिए हम दोनों को पीछे के रास्ते से ही अंदर जाना पड़ेगा, सो चलो अब", सूरज ने कहा, " ये दीवार तो ऊंची हैं, मैं कैसे जा पाऊंगी यहां से अंदर" , नैना ने कहा, " हमें यहीं से अंदर जाना पड़ेगा नैना, क्योंकि वो देखो, सिर्फ इसी जगह पर दीवार टूटी हुई हैं और बाकी की दीवार तो उससे भी ऊंची हैं, एक काम करो तुम मेरी
पीठ पर अपना पैर रखकर अंदर कूद जाओ" , सूरज ने कहा, " और फिर तुम अंदर कैसे आओगे, जब मैं अंदर चली जाऊंगी तब" , नैना ने कहा, " उसकी चिंता तुम मत करो नैना , हम लड़के तो इससे भी ऊंची ऊंची दीवारों को लांघ कर अपने स्कूल से भाग जाते हैं, और फिर उन सब के मुकाबले तो ये दीवार छोटी हैं," , सूरज ने कहा, " अच्छा ऐसा क्या, मुझे तो ये सारी बातें पता ही नहीं थी", नैना ने कहा, " अच्छा वो सब छोड़ो अब मैं नीचे झुक रहा हूं , अब तुम मेरी पीठ के उपर चढकर दीवार को फांद कर दूसरी तरफ चली जाओ" , इतना बोलते ही सूरज जमीन पर झुक जाता हैं, और फिर नैना उसकी पीठ पर चढ़ कर स्कूल की दीवार के दूसरी तरफ चली जाती हैं, और फिर उसके जाने के बाद सूरज भी उस दीवार को फांद कर उस तरफ चला जाता हैं, उसके बाद सूरज और नैना दोनों उस स्कूल की बिल्डिंग के अंदर जाने लगते हैं, उस स्कूल के अंदर की बिल्डिंग में ग्राउंड फ्लोर पर कोई भी गेट नहीं लगा हुआ था , क्योंकि गेट सिर्फ स्कूल की मेन गेट पर ही लगा था, और फिर दोनों उस स्कूल के अंदर जाने लगते हैं, और फिर अंदर जाने के बाद जब सूरज उपर सीढ़ियों की तरफ जाने लगता हैं तो नैना उससे पूछती हैं, " अरे सूरज उपर कहां पर जा रहे हो, क्या हम दोनों को उपर जाना हैं" , " हां नैना , हमें उपर इस बिल्डिंग की छत पर जाना हैं, क्योंकि सुपर हीरो कश्यप वहीं पर आने वाला हैं तुमसे मिलने के लिए" , " अच्छा ऐसी बात हैं क्या, तो फिर चलो" , नैना ने कहा और फिर सूरज और नैना उपर छत पर जाने लगते हैं, और फिर जब दोनों उपर चढकर छत पर जाते हैं तो देखते हैं की वहां पर सुपर हीरो कश्यप यानी की अविनाश सूट पहन कर वहां पर पहले से ही खड़ा था, नैना सुपर हीरो कश्यप को देख कर खुश हो जाती हैं, और फिर सुपर हीरो कश्यप के पास जाकर बोलती हैं, " ओह माय गॉड, क्या सच में ये तुम हो, सुपर हीरो कश्यप", और उधर नैना को उपर छत पर छोड़ कर सूरज वहां से वापस नीचे जाने लगता हैं, " हां मैं ही हूं सुपर हीरो कश्यप, तुम सब का हीरो" , अविनाश ने कहा, " लेकिन मुझे तुम्हारे ऊपर शक हो रहा हैं, क्योंकि सुपर हीरो तो कहीं भी अपना काम करने के बाद रुकता नहीं हैं, और वो तो उड़ भी सकता हैं" , नैना ने कहा, " अच्छा तो तुम्हें लगता हैं की मैं असली नहीं नकली सुपर हीरो कश्यप हूं, तो फिर ठीक हैं मैं यहां से चलता हूं" , इतना बोलते ही अविनाश वहां से हवा में धीरे धीरे उपर उड़ने लगता हैं, और फिर उस छत से दस पंद्रह फिट ऊपर हवा में उड़ने लगता हैं, " नहीं मत जाओ सुपर हीरो, मुझे तुम पर विश्वास हो गया हैं की तुम ही असली वाले सुपर हीरो कश्यप हो , कोई नकली वाले नहीं" , नैना ने कहा, " लेकिन तुम सच में मुझ से मिलने के लिए यहां पर आ गए, मुझे तो अभी भी विश्वास नहीं हो रहा हैं, सच में अविनाश ने सच ही कहा था, लेकिन तुम अविनाश को कैसे जानते हो, और तुम दोनों की दोस्ती कैसे हुई थी", नैना ने कहा, अविनाश नैना के इस सवाल पूछने पर सोच में पड़ गया और फिर नैना से झूठ बोलते हुए कहता हैं, " मैं उसे पर्सनली तो नहीं जानता हूं लेकिन उस दिन जब उस दानव ने शहर में आतंक मचा रखा था, तभी मैंने उसे पहली बार देखा था जब वो वहां उस मार्केट में फंसे हुए लोगों की उस दानव से दूर भागने में मदद कर रहा था, तभी मैं समझ गया था की वो दिल का नेक इंसान हैं और लोगों की मदद करने के लिए हमेशा तैयार रहता हैं, और जब वो दानव से लोगों को बचा रहा था तभी उस दानव ने उस पर हमला करने की कोशिश की थी , तभी मैंने उसे बचाया था और तभी से मैं उसे जानता हूं " , अविनाश ने कहा, " ओ अच्छा ऐसी बात हैं, वैसे सच में वो नेक और सच्चे दिल का इंसान हैं" , नैना ने कहा, अविनाश अपनी तारीफ नैना के मुंह से सुनते हुए अपने मास्क के अंदर ही मुस्कुरा रहा था , लेकिन चेहरे पर मास्क लगे होने के कारण नैना को उसकी मुस्कान दिखाई नहीं दी, " वैसे क्या मैं आपसे एक पर्सनल बात पूछ सकती हूं अगर आप बुरा न मानो तो" , नैना ने कहा, " हां हां पूछो, मुझे क्यों बुरा लगेगा" , अविनाश ने कहा, " क्या आपकी कोई गर्ल फ्रेंड हैं" , नैना ने कहा, " नहीं तो मेरी कोई गर्लफ्रेंड नहीं हैं, लेकिन तुम ये बात क्यों पूछ रहीं हो" , अविनाश ने कहा, " नहीं कुछ खास नहीं, वो बस कैजुअली पूछ लिया था मैंने" , नैना ने कहा, उसके बाद अविनाश ने सोचा की यही मौका हैं की नैना से उसके दिल की बात जानने का, उसके बाद अविनाश ने नैना से पूछा, " तुम उस लड़के क्या नाम था उसका...... हां, अविनाश उसको कैसे जानती हो" , " अविनाश...., वो तो मेरे ही कॉलेज में मेरे साथ पढ़ता हैं, और तो और हम दोनों ने एक ही स्ट्रीम में एडमिशन लिया हैं, यानी की साइंस, और तो और हम दोनों एक ही क्लास रूम भी सेम ही हैं" , नैना ने कहा, " उसके बारे में इतने डिटेल्स में बता रहीं हो, और उसने भी मुझे तुम
से मिलने के लिए इतनी रिक्वेस्ट की थी की मत पूछो क्या बताऊं , मैं तो उसे मना करता रहा, लेकिन उसने आखिरी में मुझे तुमसे मिलने के लिए मना ही लिया था तभी मुझे लगा था की कहीं तुम्हारे और उसके बीच में कुछ......" , इतना बोलकर अविनाश रुक जाता हैं, और फिर नैना की तरफ उसके फेस का एक्सप्रेशन देखने लगता हैं, " , अविनाश ने कहा, " नहीं नहीं आप गलत समझ रहे हैं, हम दोनों के बीच अभी तक तो ऐसा कुछ नहीं हैं, और लेकिन,क्या सच में उसने आपको मुझसे मिलने के लिए रिक्वेस्ट किया था" , नैना ने कहा, " हां किया था, और तुम अभी कुछ बोल रही थी लेकिन...., लेकिन क्या इसके आगे भी तो कुछ बोलो" , अविनाश ने कहा, " एक्चुअली मैं तो उसे लाइक करती हूं लेकिन वो मुझे लाइक करता हैं की नहीं ये मुझे नहीं पता हैं, इसलिए अभी तक मैं थोड़ी टेंशन में हूं, और मुझे तो डर भी लगता हैं की अगर मैंने उसे अपने दिल की बात बता दूंगी, और उसे ये बात अच्छी नहीं लगी और उसने मुझसे दोस्ती भी तोड़ दी तो फिर मैं क्या करूंगी, बस इसी बात को सोच कर मैं थोड़ी टेंशन में रहती हूं" , नैना ने कहा, अविनाश ने जैसे ही सुना की नैना भी उसे पसंद करती हैं तो उसके मन में लड्डू फ़ूटने लगते हैं, और वो अपने मन ने सोचने लगता हैं, " अरे यार मैं तो बेकार में ही टेंशन ले रहा था की नैना मुझसे प्यार नहीं करती हैं, अरे इधर तो सेम टू सेम कहानी हैं, ये भी मुझसे प्यार करती हैं लेकिन मुझसे कहने से डरती हैं क्योंकि इसे भी लगता हैं की कहीं मैं इसकी बात सुनकर नाराज न हो जाऊं और इससे दोस्ती न तोड़ दूं" , की तभी नैना उसे चुप चाप खड़े देख कर अविनाश से बोलती हैं, " आप क्या सोचने लगे" , " कुछ नहीं मैं बस यहीं सोच रहा था की जो लड़का तुम्हें मुझसे मिलवाने के लिए मुझसे इतनी शिफारिश कर सकता हैं, उसके दिल में भी तुम्हारे लिए कुछ न कुछ फीलिंग्स तो जरूर होंगी, अब तुम ही मुझे सोच कर बताओ की क्या उसने तुम्हारे लिए इससे पहले भी कुछ काम किया हैं, जिससे ये पता चले की वो तुम्हारी केयर करता हैं, ज़रा अच्छे से सोच कर मुझे बताना" , अविनाश ने कहा, " उसके बाद नैना अविनाश के बारे में सोचने लगती हैं, जब अविनाश ने उसके लिए कुछ काम किया हो, पर फिर वो अपने मन में सोचने लगती हैं कि कैसे उसने उस सीनियर से बचाया था जब उस सीनियर ने उसे धक्का देकर गिराने की कोशिश की थी, और फिर वो रात के आठ बजे उससे मिलने के लिए उस चटकारा रेस्टोरेंट में आया था और फिर उसके साथ पैदल ही उसके घर तक छोड़ने के लिए गया था, और फिर आज उसने उसका सपना यानी की उस सुपर हीरो कश्यप से मिलने का सपना भी उसके एक बार बोलने पर ही पूरा कर दिया और सुपर हीरो कश्यप से उसके लिए रिक्वेस्ट भी की थी, इतनी सारी बातें सोचने के बाद नैना के चेहरे पर एक मुस्कान आ जाती हैं और फिर वो उस सुपर हीरो कश्यप यानी की अविनाश से बोलती हैं, " हां वो केयर तो करता हैं मेरी और जब जब मैंने उससे मदद मांगी हैं, उसने मेरी मदद की हैं" , " हां, इसका साफ मतलब हैं की वो भी तुम्हें लाइक करता हैं, और तुमसे प्यार भी करता हैं" , अविनाश ने कहा, " लेकिन उसने ये बात मुझसे क्यों नहीं कही, की वो मुझे पसंद करता हैं, वो भी तो बोल सकता था ना ये बात मुझसे" , नैना ने कहा, फिर अविनाश ने सिचुएशन को संभालते हुए कहा, " जिस तरह से तुम उसे खोने से डरती हो और उससे ये बात नहीं बोल सकी ठीक उसी तरह से शायद वो भी ये बात बोलने से डरता होगा, और उसे भी लगता होगा की अगर उसने तुमसे अपने दिल की बात बोल दी तो शायद तुम उससे बात करना छोड़ दोगी और उससे दोस्ती भी तोड़ दोगी" , " लेकिन आप ये बात इतने श्योर होकर कैसे बोल सकते हैं की वो भी मुझसे प्यार करता होगा" , नैना ने कहा, " जिस तरह से तुम लड़कियां दूसरी लड़कियों के मन की बात जान लेती हो ठीक उसी तरह से हम लड़के भी एक दूसरे की मन की बात जान लेते हैं, और मैं पूरे दावे के साथ ये कह सकता हूं की वो भी तुमसे प्यार करता हैं, बस तुम्हें उसे इस बात का एहसास दिलाना होगा, या फिर तुम्हें किसी भी तरह से उसके मुंह से उसके दिल की बात उससे बुलवानी पड़ेगी, समझी अब ये काम तुम कैसे करोगी ये तो तुम ही जानो" , अविनाश ने कहा, उसके बाद नैना अविनाश के बारे सोचने लगती हैं, और फिर अविनाश उसे इस तरह से सोचते हुए देख कर उससे बोलता हैं, " देखो अब मैं चलता हूं , क्योंकि मुझे लेट हो रहा हैं, अब मैं यहां से जाऊंगा" , उसके बाद नैना अपने ध्यान से बाहर आती हैं और बोलती हैं, " ठीक हैं अब मुझे भी अपने घर चलना चाहिए ,आप मुझसे मिलने के लिए यहां पर आए उसके लिए थैंक यू वेरी मच, और क्या मैं आपको गले लगा सकती हूं सिर्फ एक बार प्लीज...." , " ठीक हैं" , अविनाश ने कहा और फिर नैना उसके पास आती हैं और अविनाश यानी की सुपर हीरो कश्यप के गले लग जाती हैं, " अच्छा जाने
से पहले क्या एक बार मैं आपके साथ एक सेल्फी ले सकती हूं, सिर्फ एक ही लूंगी" , नैना ने कहा, " अच्छा ठीक हैं ले लो लेकिन ये फोटो किसी को दिखाना मत, और कहीं तुमने इस पिक्चर को कहीं सोशल मीडिया में पोस्ट कर दिया और कोई बदमाश तुम्हारे पीछे पड़ गया तो फिर तुम्हारे लिए मुसीबत हो हो जायेगा, इसलिए इस पिक्चर को न ही किसी को दिखाना और न ही कहीं पर पोस्ट करना समझी" , अविनाश ने कहा, " हां हां आपने सही कहा, मैं इसे किसी को नहीं दिखाऊंगी, अब मैं सेल्फी ले लूं" , नैना ने कहा, " हां ठीक हैं, ले लो" , अविनाश ने कहा और उसके इतना बोलते ही नैना सुपर हीरो कश्यप यानी की अविनाश के साथ सेल्फी लेने लगती हैं, और फिर सेल्फी लेने के बाद नैना अपने आस पास सूरज को खोजने लगती हैं, लेकिन सूरज वहां पर मौजूद नहीं होता हैं, वो तो वहां पर नीचे उस स्कूल की बाउंड्री के पास खड़ा होता हैं, " क्या हुआ, तुम किसी को खोज रही हो" , अविनाश ने कहा, " हां, वो मेरे साथ मेरा एक फ्रेंड यहां उपर छत पर आया था लेकिन वो अब यहां पर नहीं हैं शायद वो नीचे चला गया हैं" , नैना ने कहा, " कहीं वो तो नहीं" , अविनाश ने अपने हांथ से सूरज की तरफ इशारा करते हुए बोला, फिर नैना ने नीचे सूरज को देख कर बोला , " हां वही हैं", " देखो वो तो नीचे भी चला गया हैं, और अब तुम सीढ़ियों से नीचे उतर कर जाओगी, अगर तुम्हें बुरा न लगे तो मैं तुम्हें अपने साथ हवा में उड़ा कर ले जा सकता हूं" , अविनाश ने कहा, " हां ज़रूर, मुझे इसमें बुरा क्यों लगेगा" , नैना ने कहा, " तो ठीक हैं मेरे पास आओ और मुझे कस के गले लग जाओ" , अविनाश ने कहा, उसके बाद नैना अविनाश को कस के गले लगा लेती हैं और फिर अविनाश उसे अपने बाहों में कस के पकड़ लेता हैं और फिर उस छत से उड़ते हुए नीचे आने लगता हैं और फिर सूरज के पास जाकर उतर जाता हैं, नैना ने डर के कारण अपनी आंखे बंद कर रखी थी,और फिर अविनाश ने जमीन पर उतरकर नैना से कहा, " हम लोग नीचे आ चुके हैं" , इतना सुनते ही नैना अपनी आंखें खोलती हैं, और फिर अविनाश से दूर होते हुए बोलती हैं, " थैंक्स" , उसके बाद अविनाश उससे बोलता हैं ," यू आर वेलकम" , और फिर इतना बोलते ही अविनाश वहां से उड़ते हुए वहां से अपने घर चला जाता हैं क्योंकि उसे घर पर भी तो जाना था, जहां पर लेट से पहुंचने पर उसकी सौतेली मां उसे ताने मारने लगती हैं, इसलिए वो उस बिल्डिंग में वापस जाकर अपने सुपर हीरो वाले कपड़े खोल देता हैं और फिर अपने नॉर्मल कपड़े पहन कर वापस अपने घर जाने लगता हैं, और दूसरी तरफ सूरज नैना को जल्दी से उस स्कूल से जाने के लिए बोलने लगता हैं, " नैना यहां से जल्दी से चलो अगर उस स्कूल के चपरासी ने देख लिया तो फिर हम दोनों के लिए दिक्कत हो सकती हैं, इसलिए हम दोनों को जल्दी से यहां से चलना चाहिए" , " लेकिन अविनाश ने मुझे यहां पर मिलने के लिए बोला था, तो मैं उससे बिना मिले कैसे चली जाऊं" , नैना ने कहा, " दरअसल वो तो कब का अपने घर पर पहुंच चुका होगा, उसने मुझे थोड़ी देर पहले ही कॉल करके बोला था की वो जिस आदमी से मिलने वाला था, और जिसने तुम्हें उस सुपर हीरो कश्यप से मिलने दिया था, वो उस आदमी से मिलने के बाद अपने घर पर चला गया था और उसने मुझे तुम्हें ये बात बताने के लिए भी बोला था, और सॉरी भी बोला था, की उसने तुमसे वादा किया था यहां पर मिलने के लिए लेकिन मिल नहीं सका" , सूरज ने कहा, "अच्छा, उसने ऐसा बोला था, लेकिन उसने मुझे कॉल करके क्यों नहीं बोला, उसके पास मेरा नंबर भी तो था ना, वो ये बात मुझे भी तो बोल सकता था कॉल करके" , नैना ने कहा, " हां कर तो सकता था, और उसके पास तुम्हारा नंबर भी था लेकिन उसने ये भी बोला था की वो तुम्हें और उस सुपर हीरो कश्यप से मिलने के दौरान डिस्टर्ब नहीं करना चाहता था इसलिए" , सूरज ने कहा, " अच्छा ठीक हैं अब चलो जल्दी से वरना कोई आ जायेगा " , नैना ने कहा और फिर सूरज की पीठ पर चढ़ कर बाउंड्री पार करके वो दोनों उस स्कूल से बाहर चले जाते हैं और फिर नैना सूरज को अपने कार से ही उसके घर तक उसे छोड़ कर अपने घर पर चली जाती हैं,
amera TerBall de Model Rai anno fa ar MukandminSEMIndant UmdatLundellHukum घर पहुँचकर पता लगा मेरे पतिदेव प्रयाग नहीं आये हैं। दादा आशंका से बेचैन हो गये । सबसे अधिक खतरा लड़ाई के रँगरूटोंमें शामिल हो जाने का था। मेरी सास बीच-बीच में छिप-छिप कर रोया करती थीं। मैं उन्हें समझाती पर उनकी समझ में कैसे आता । बुढ़ापे की इकलौती सन्तान की सुधि की आहट से ही उनकी आखें गीली होने लगती थीं । दादा ने गाँव के लोगों को पत्र लिखेइधर-उधर जो रिश्तेदार थे उन्हें सूचनायें दीं और पता लगाया । आठ-दस दिन के बाद नागपुरसे : सूचना मिली कि वे वहाँ हैं और भाराम से हैं । उन्हें प्रयाग वापस भेजने की चेष्टा की जा रही है। समझाया, बुझाया जा रहा है पर दादा के कारण उनकी लौटने की इच्छा नहीं हो रही । मुझे आश्चर्य हुआ -- दादा को जो संतोष और निश्चिन्तता यह खबर पाकर होनी चाहिए थी वह नहीं हुई । चिट्ठी पाकर वह उल्टे और आग-बबूला हो गये । तरहतरह की उल्टी-सीधी गालियाँ पतिदेव को दे रहे थे और बार-बार अपनी नाक के कट जाने की घोषणा भी कर देते थे। मुझे बाद में सांस से पिता जी का था । वहाँ किसी मिल में 'लेबर श्राफ़ीसर' थे । दादा उनसे बिल्कुल दूर रहना चाहते थे उसी विरोधी और खानदानी प्रतिद्वन्द्वी के घर जाकर उनका लड़का पड़ा रोटियाँ तोड़ रहा है। दिल दुखने की बात थी । पत्र में यह भी लिखा था कि यदि वह अकेले आने को तैयार न हुए तो प्रकाश के साथ उन्हें भेज दिया जायगा । दादा निश्चित रहें - वे बम्बई जाने का हठ अवश्य कर रहे हैं पर बम्बई जाने न पायेंगे !! मेरे ससुर के लिये यह सब असह्य था । न जाने कौन सा मर्मान्तक आक्रोश उन के भीतर वेग से छलछला उठा था । क्या करना चाहिये - क्या नहीं यह वे तय न कर पा रहे थे । मेरी सास से पूछने लगे - 'अब ! अब क्या करना चाहिये । भाग कर गया भी तो कहाँ और किसके यहाँ ! फेल हर साल हुआ करता था । क्या मैं खा जाता ? जिनका अहसान मैं कभी नहीं लेना चाहता उन्हीं शत्रुओं के घर जाकर पड़ा है। और कोई ठौर न मिला । सास को अपार निश्चिन्तता हो रही थी यद्यपि अन्धा आँख पा लेने तक एतवार नहीं कर पाता । उनकी गीली आँखें और रोते हुए उच्छ्वास अब सूख चले थे । बोलीं- 'काहे का अपमान ! वे लोग कोई दूसरे हैं ! अपना ही खून मांस हैं। उनसे पूछ कर जो रुपया उनका किशोर ने खर्च कराया हो वह दे देना। इसमें कंजूसी न करना । प्रकाश बड़। चतुर है । वह जरूर किशोर को लाकर यहाँ छोड़ जायगा । उसके बाप को छुट्टी मिले न मिले पर उसकी छुट्टियाँ होंगी । तुम एक तार दे दो कि वे लोग किशोर को अकेला न छोड़ें । इधर उधर हो गया तो जिन्दगी भर का रोना हो जायगा। मैं मन ही मन फिक्र से मरी जा रही थी । भगवान् ने रक्षा कर ली । अब तुम न बिगाड़ना । दादा ने कहा - 'वह यहाँ आ जाय । मैं कुछ न बोलूँगा। नहीं पढ़ना चाहता न पढ़े, पर घर पर रहे। खाने का बहुत है । बहू पढ़ी-लिखी है । हिसाब-किताब रक्खेगी। मैं ताली ताला सब सौंप कर इन्हीं लोगों पर छोड़ दूँगा । मुझे कुछ कहना सुनना नहीं ।' जानती थी पतिदेव के लौट आने दादा कितनी फजीहत करेंगे । वे अपनो आदत से लाचार थे । मेरा जी हल्का-फुल्का-सा चारों ओर कूद रहा था। एक बार उनके दर्शन होंगे। दादा की कोर भी कहाँ जाकर दवी ! अब देखती हूँ प्रकाश के साथ किस तरह पेश आयेंगे। मैं रोज उनकी बाट जोहने लगी । पति की मुझे चिन्ता न थी । मैं जानती थी वे केवल दादा के भय से भाग निकले हैं। उनमें पौरुष और साहस नाम मात्र को नहीं । इतना बल उनमें नहीं कि आत्महत्या या अन्य किसी असाधारण काम की आशंका उनकी ओर से की जा सके । मैं कभी यह न सोचती थी कि वह नागपुर भाग जा सकेंगे । लेकिन दादा के भय और नवविवाहिता पत्नी के सामने गाली- अपमान की मर्म-व्यथा से बचने के लिये वह न जाने किस प्रकार भागते हुए नागपुर पहुँच गये थे । संभव है प्रकाश की ओर से अब दादा का भाव बदल जाय । वे न आये । दादा का तार पाकर उनके पिता स्वयं मेरे पति को लेकर आ पहुँचे। मैं जानती थी कितना प्रचण्ड अभिमान उनमें हैं । यदि उतना बड़ा अहं उनमें न होता तो वे इतने ऊँचे कवि न हो पाते । उनके पिता सीधे और लम्बे क़द वाले गैर वर्ण के गठे हुए एक अति विनम्र व्यक्ति ज्ञात हुए । लखनऊ से आने के बाद इस बार भोजन मैं बनाया करती थी, क्योंकि सास को पुत्र की चिन्ता में रोने-धोने से फुर्सत न थी । आने के दिन जब उन्होंने खाना खाया तो थाली के पास दस रुपये रखते हुए बोले- 'बहू ! तुम्हारा नेग है यह । मैंने आज पहले पहल तुम्हारे हाथ की रसोई खाई है ।" बगल में दादा बैठे भोजन कर रहे थे। उन्होंने एक दो बार रोका पर मेरी सास ने दादा को ही रोकते हुए कहा - 'क्या हुआ ? ले लेने दो । छोटे भाई की बहू को दिया जाता है । पर अभी तुमने ( प्रकाश के पिता ) बहू का मुँह नहीं देखा । देखकर देना - जल्दी क्या है। दो चार दिन रहोगे न
।' 'नहीं काकी ! मैं कल मेल से लौट जाऊँगा । प्रकाश से बार-चार कहा ---- 'तू चला जा ! मैं बूढ़ा आदमी काहे को इतनी लम्बी यात्रा करूं ।' पर आज-कल के लड़कों को तुम जानती हो । यों महीनों घूमता रहेगा पर मेरे कहने से एक बार प्रयाग न आ सकेगा। तुम लोगों की घबड़ाहट और चिन्ता का ख्याल था । किशोर वहाँ से कहीं और चला जाता तो तुम मुझे कभी क्षमा न करते । मैं किसी न किसी प्रकार उसे तुम्हारे घर पहुँचाकर अपने कर्तव्य से उऋण होना चाहता था। अब ऐसा करना कि कहीं जाने न पाये । आज कल के लड़की-लड़कों से डर कर चलने में कल्याण है । आठ साल से प्रकाश की शादी के लिये झोंख रहा हूँ पर नहीं करता। कहता है आजीवन अविवाहित रहूँगा - विवाह करूँगा ही नहीं। छोटे लड़के कहते हैं- जब तक बड़े भाई की शादी न होगी हम शादी न करेंगे । इतना बड़ा घर भाँय-भाँय किया करता है । आज-कल छुट्टियों में सब इधर-उधर घूमने चले गये हैं । हम दो प्राणी पड़े-पड़े भाग्य को रोया करते हैं। बहू आती - नाती-पोतों से घर भरता तो हमारी आत्मा ठंडी होती । मेरा कल जाना जरूरी है। प्रकाश की माँ बिल्कुल अकेली है। रुपये उठा ले बहू ! तेरा मुँह देखने की क्या जल्दी है ? जब घर में व्याह कर आई है तब कभी न कभी देख लूँगा ।' दादा ने अपने जनेऊ में बँधी चाँदी की दँतखोदनी से दाँत खोदते हुए कहा -- प्रकाश की शादी अब कर लेनी चाहिये । उमर बढ़ रही है। बाद में मुश्किल पड़ सकती है। कारण कुछ बतलाता है ? तीसपैंतीस वर्ष का होने आया । अच्छी-खासी नौकरी है। कोई कमी नहीं । किताबों और रेडियो वगैरह से हज़ारों रुपये साल में कमाता है ! चालचलन ठीक है न ! तुम्हें कोई शिकायत तो नहीं मिली ।' 'यही शनीमत है। कालेज के बीसों लड़के-लड़कियाँ दिन भर घर घेरे रहते हैं । कभी-कभी मैं परेशान हो जाता हूँ, लेकिन क्या बोलूँ । नाराज़ होकर दूसरा बँगला ले ले और रहने लगे - यह भी सहन नहीं। सारा शहर उसकी तारीफ करता है--कालेज के प्रिन्सिपल और अन्य प्रोफेसर भी । किसी प्रकार का स्केण्डल वहाँ नहीं। उधर के लोग यहाँ वालों की तरह परछिद्रान्वेषण नहीं करते फिरते । प्रकाश कहता है- जिस दिन मन में दुर्बलता अनुभव करूंगा विवाह कर लूँगा । देखना चाहता हूँ कत्र तक अपनी रक्षा कर सकता हूँ ।' मैं बैठी-बैठी सव सुन रही थी। मेरी पीठ उनकी ओर थी - मुँह चौके की थोर ! पतिदेव बाहर गये थे। मैं अपनी सास के साथ जब खाने बैठी तो बोली- 'ये बड़े भले और अपनत्व मानने वाले हैं । कैसे तुम लोग इनकी और इनके लड़कों की इतनी निन्दा करते रहते हो । बेचारे उतनी दूर से तुम्हारे लड़के को यहाँ पहुँचाने आये हैं। तुम लोग कल उनके जाने के बाद फिर उनकी निन्दा शुरू कर दोगे । भगवान् को किसी की अकारण निन्दा और प्रपंच बुरा लगता है। दादा को दूसरों के लड़कों का वैभव और यश भाता नहीं । बेचारे अपनी हीनता में ही सदैव बँधे रहते हैं। पर तुम माँ की जाति की हं । तुम किसी के लड़के की अकारण निन्दा न किया करो.........' प्रकाश के पिता में मुझे असाधारण सौकुमार्य और सुरुचि के दर्शन हुए । पुत्र के सारे संस्कारों का बीज मुझे उनमें दिखाई दिया । कोमल और सुन्दर ललाट पर प्रतिभा की रेखा शोभा पा रही थी । मुद्रा में, चाल-ढाल में सारे व्यक्तित्व में चारित्र्य और गाम्भीर्य का प्रवाह दीखता था जो वाचालता को सुघरता प्रदान करता था। प्रकाश के चेहरे जैसी सुसंस्कृत चंचलता उनमें न थी पर एक जीवन्त आलोक था जो उन्हें शक्तिशाली बताता था । भाव के आवेश में आकर वे बात करते-करते गद्गद् हो जाते थे । उनके हृदय की अव्यावहारिक निर्मलता के फूट-फूट कर बाहर आने लगती थी । बड़ी-बड़ी श्वेत मूछों के बीच से होकर आदर्शोपासना की चन्द्र-लेखा बीच-बीच में झलक जाती थी । रात को मैंने पतिदेव से पूछा- 'दादा ने कुछ कहा नहीं ?' पतिदेव ने उसी अर्ध- विकसित चतुरता का भाव प्रकट करते हुए कहा - 'भैया से मैंने यहाँ कह दिया था। उन्होंने जब वायदा कर दिया कि दादा तुम्हें कुछ न कहने पायेंगे- मैं उनसे लौटते समय वचन ले लूँगा कि मेरे आने के बाद तुम्हें कुछ न कहेंगे तब वहाँ से चला हूँ । बेवकूफ नहीं हूँ ।' सचमुच उनकी बुद्धिमानी सराहनीय थी। पर जिसको उस दिन इस प्रकार भला-बुरा कह रहे थे और जिसने मिलने-जुलने और बात करने के लिये मुझे इस प्रकार प्रताड़ित कर रहे थे उसी के पिता के पास आत्मरक्षा की फरियाद लेकर जाना उनकी बुद्धिमानी का परिचायक था । दादा का यह विश्वास कि उनकी सन्तान संसार की सब सन्तानों से गई बीती है निराधार न था । दादा में जो एक अक्खड़पन - संघर्षों के बीच अपने उद्यमी व्यक्तित्व को लेकर उग आने का जातीय अभिमान था वह भी उनके लड़के से दूर था । मैंने पूछा-- 'प्रकाश तुम्हें लेकर आने वाले थे । वे क्यों न आये ? क्या तुम अकेले न आ सकते थे ! ब्यर्थ में...... पतिदेव ने कहा - 'प्रकाश की तुम्हें बड़ी फिक्र
रहती है । वह आता सो तुम खुश होती क्यों न ? मेरी फिक्र काहे को रही होगी ?' मैंने कहा- यों ही पूछा । दादाजी ( सास की आज्ञानुसार प्रकाश के पिता को भी मैंने दादाजी कहना शुरू कर दिया था ) की चिट्ठी पहले इसी तरह की आई थी ।की बात उन्होंने लिखी न थी । आपको अब उन लोगों के प्रति बुरी भावना मन में न लानी चाहिये । आप लोगों के हितचिन्तक न होते तो क्यों साथ में लेकर यहाँ दौड़े आते। मेरे चाहने की बात क्या ? मैं जरूर चाहती थी वे यहाँ आपके साथ आते । आपसे मैं बयान नहीं कर सकती, उन्हें देखकर - उनके पास बैठकर मुझे कितनी खुशी होती है। उसे उन पर भखंड श्रद्धा है................ . कहते-कहते मुझे लगा जैसे दिलकी सूनी अँधियारी कोठरी के पर्दे को उठाता हुआ कोई सिर लटकाये बाहर निकला और ऊपर सितारों के घने आँचल की ओट ओझल हो गया । सहसा पति ने मेरी बाहों में बाहें डाल दीं। मैं अलग जाकर मुन्डेर के पास खड़ी हो गई । नीचे मंजिल की छत पर सब लोग थे । दोनों में बातें चल रहीं थी। गाँव और रिश्तेदारों की चर्चा थी । मेरी सास को इन बातों में दिलचस्पी थी । वे पास जमीन पर बैठी सब सुन रही थीं। पतिदेव का यह हाल था कि मुझे देखते ही उनका तन और मन शारीरिक बुभुक्षाओं का घर बन जाता था । पुरुष की कामुकता की बातें इधर-उधर किताबों में पढ़ी थों पर पता न था - उसके आततायीपन में आजीवन मुझे पिसना होगा। ऐसे पशु-प्रवृत्ति वाले पति की पालतू पत्रि का अभिनय मुझे करना होगा। उनके पास रहने की कल्पना मुझे पतित बनाने लगती थी । इतने बड़े हो जाने पर भी उन्हें पत्नी के मानोभावों की कोमलता का कभी कोई ध्यान न आता था । उठते-बैठते वे मुझे काम-वासना चरितार्थ करने की मशीन बना देना चाहते थे । मैं यह भी जानती थी वे कितने 'टिमिड' और बुली' टाइप के हैं। मेरे पीछे आकर फिर एक पाशव ऊत्तेजना लिये खड़े हो गये । मैं सामने दूर तक फैली छात की कतारें देख रही थी जहाँ की शान्ति और सुख का ओर-छोर न था। जहाँ सौख्य, सुभावना, सुकुमारता और सहवास की आनन्ददायिनी लहरें उठ रही थीं। कहीं रेडिओ बज रहा था, कहीं ग्रामोफोन । कहीं बच्चे बैठे खेल रहे थे और कहीं पति-पत्नी आनन्द से दिन भर के कार्यभार से थक निशीथ की नीरवता का सुख लूट रहे थे । मैंने पीछे मुड़ कर कहा- 'आप मेरा कहना न सुनेंगे तो मैं कल से कह कर कमरे के अन्दर अपनी चारपाई ले जाऊँगी। मुझे क्या आपने भोग की गुड़िया समझ रक्खा है कि जब मन में आया पीट चले। यह सब नहीं होने का । मैं इन सब बातों से दूर रहना चाहती हूँ। मुझे यह सब बेमानी लगता है।' पति के लिए अपनी वासना का बाँध रोकना असम्भव था। मेरे लिये इस प्रकार के वात्म-समर्पण दुःखद ओर भयकारी थे। मैं चुपचाप नीचे उतर आई और कमरे में जाकर जमीन पर लेट गई । पतिदेव की हिम्मत नीचे सबके सामने से होकर मेरे पास आने की न हुई । पड़े-पड़े पछताते रहे होंगे। क्यों न तत्काल बलात्कार कर काबू में कर लिया। सब लोग बातचीत में लगे थे मुझे किसी ने देखा भी नहीं । मैंने चुपचाप भीतर से सिटकनी चढ़ा ली । खिड़कियाँ खोलकर रात भर गर्मी के कारण आधी नींद सोती आधी नोंद जागती रही । न जाने कैसी भर्त्सना की चमक मेरे कन्धों से चलकर बाहों और पीठ को कँपाती हुई पैरों तक चली जाती थी। मैंने तयकर लिया मैं कमरे में सोऊँगी - भले मुझे पूरी रात पंखे झलकर काटनी पड़े । तब रोज-रोज के अनाचार से जान छूटेगी । दूसरे दिन दादा जी चले गये । जाते-जाते वे मेरे ससुर को पति के साथ धीरज और विवेक से काम लेने का निर्देश दे गये । पति को अलग बुलाकर बहुत समझाते बुझाते रहे और हर प्रकार दादा को संतुष्ट रखने का आग्रह करते गये । उनके जाने के बाद दो-चार दिन शान्ति रही। मैं देखती थी, पिता-पुत्र की मूक पारस्परिक उदासीनता में घृणा की लपट और विकराल होती जाती थी। कभी-कभी यदि पतिदेव दादा के सामने पड़ जाते थे तो उनके चेहरे पर अकारण कर्कशता फूट पड़ती थी । यह उबाल कब तक भीतर दबा रहता ? इस बीच एक और . बात हो रही थी ? दादा मेरे पति से बिलकुल बोलते न थे । मेरे पति उनसे बोलना चाहते थे पर हिम्मत न पड़ती थी । बेचारे मन ही मन सकुच कर रह जाते थे । कहीं दादा बरस न पड़े। पन्द्रह-बीस दिन बीतते-बीतते गाँव में बिरादरी से एक लड़के के जनेऊ का निमंत्रण आ गया । दादा मुझे गाँव के असभ्य वातावरण में न ले जाना चाहते थे । घर पर एक न एक व्यक्ति का रहना जरूरी था। रेहन रखने वालों का पचीसों हजार का जेवर पड़ा था । साथ ही निमन्त्रण में किसी न किसी का जाना जरूरी था । अन्त में मेरी साँस को लेकर पतिदेव चले गये। मैं निश्चिन्तता की साँस छोड़ कर घर पर अकेली रह गई । मन ही मन डर रही थी कहीं दादा का मत न बदल जाय और पतिदेव के साथ मुझे न भेजने लगें ! मैं उस दशा में साफ इन्कार कर देती । पति के साथ यात्रा करने की अपेक्षा इन्कारी की वेशर्मी मुझे पसन्द थीं । इस
बीच एक नई घटना हो गई। दादा के पैर में कहीं मामूली सी चोट लग गई जो लापरवाही से बढ़ गई। धीरे-धीरे उसका जख्म बढ़ गया । एक दिन जब डाक्टर ने आकर उसे 'कारबंकिलडिक्लेयर' किया और दूसरे दिन पेशाब की जाँच कर दादा को गहरी अपने 'ढायवेडीज' से ग्रस्त पाया गया तो चिन्ता बढ़ गई । दादा जीवन से भी निराश होने लगे। मैं उन्हें बराबर समझाती बुझाती और उनके पास बैठकर उन्हें रामायण, महाभारत, गीता सुनाती रहती । गाँव खबर भेज दी गई थी। मेरी साँस लड़के के साथ चौथे दिन आ गई । दादा की दशा खतरे से बाहर न थी और बराबर उन्हें 'इन्जेक्शन' लग रहे थे । पतिदेव भी आकर उनकी सेवा-सुश्रुषा में लग गये । परिवार का ध्यान चारों ओर से सिमट कर उन पर केंद्रित हो गया । वे लगभग एक सप्ताह दादा की खतरे की अवस्था रही । अब धीरे-धीरे खतरे से बाहर हो रहे थे। जख्म धीरे-धीरे भर रहा था । पर इतने ही बीच में वे कृशकाय रह गये थे और सूख कर कौंटा जैसे निकल आये थे । मृत्यु की निदारुण यातना और भविष्य की काली, कुरूप चिन्तना ने उन्हें इस बिमारी की दशा में, जीवित ही कुम्भीपाक में पकाया था। भयंकर चिड़चिड़ापन और स्वार्थपरता उनमें आ गई थी । मेरी ओर से उनकी विरक्ति और घृणा का पारावार न था । जो कोई उनके पास आता उससे मेरा रोना रोते । 'जब से यह कुलच्छनी बहू आई तब से एक दिन शान्ति न मिलो । इसके आते ही दो-दो बार लड़का 'फर्स्ट इयर' में फेल हुआ। हजारों रुपयों का कर्ज और सूद का सैकड़ों रुपया डूब गया अब 'कारबंकिल' हुआ है। बीच में लड़का घर से भाग गया सो अलग। भगवान ही रक्षा करें। यह आपत्ति कटे तो आगे का उपाय सोचें ।' मैं भीतर कमरे में बैठी सब सुना करती और से अपने भाग्य को कोसती । आजकल पुत्र के ऊपर वे आंशिक रूप से संतुष्ट थे । सारे दोषों की जड़ और दुर्भाग्य का कारण मैं समझी जाती थी । मुझे इस सबकी चिन्ता न थी । इसी समय दूसरा और कदाचित् जीवन की सबसे बड़ा आघात लगा । मुझे गर्भ के लक्षण जान पड़ने लगे। मैं कैसे इसे प्रकट करूँ या कैसे इतने बड़े दंश को भीतर भीतर सहती रहूँ- समझ न पाती थी । भगवान ने मेरे किस अपराध का दण्ड दिया। विवाह को अभी एक साल से कुछ ऊपर हुआ था । यह कहाँ का अभिशाप मेरे सिर पर टूट पड़ा ! संसार में बालिकायें ऐसे अवसरों पर प्रतिक्षण असंख्य गुने हो होकर बढ़ने वाले सुख से भर जाती हैं। अपने सौभाग्य पर फूली नहीं समातीं - इतराती घूमती हैं। मैं अभागिन यह आग अपने भीतर छिपाये तिल-तिल कर भस्म हो रही थी। कैसे यह अनाहूत अंगार मेरे भीतर आ गया ! कभी कभी अपने अधोभाग को कुल्हाड़ी से टुकड़े-टुकड़े कर फेंक देने की इच्छा होती थी और मेरा जी भयानक वेग से मिचला उठता था । मेरी देह का एक-एक तार अस्त-व्यस्त होकर विखर जाता । न जाने कहाँ-कहाँ की बौखलाहट भरी बातें सोचने लगती । मुझे मालूम पड़ता - मेरे पेट के रन्ध्र-रन्ध्र से धुएँ के लच्छे निकल रहे हैं । जंगली दरिन्दे की तरह हूँ हूँ हूँ करती कोई चीज मेरी कोख में हलचल कर रही है । ikut Un katt. Ihled With Band Burea Straata. Iya, condam and a mu शाम को पाँच बजे होंगे । दादा बैठकखाने में पड़े रहते थे। उन्हें देखने दिन भर लोग आतेजाते रहते थे। मेरे कारण यह भीतर के कमरे में न हो सकता था । मैं बगल के कमरे में बैठी 'क्रोशिया' बिन रही थी । एक पूर्व परिचित और स्थिर, अपलक स्तव्ध सुख में लहरा देने वाली कंठ ध्वनि सुनकर चौंक पड़ी। किवाड़ों की साँस से झाँक कर देखा - प्रकाश थे । पर कैसे आये वे और क्यों ? दादा के पैर छूकर कुर्सी पर बैठ गये। दादा ने आशीर्वाद देते हुए अपने की गाथा सुनानो आरम्भ की। उन्होंने बताया- 'देहली रेडिओ पर 'टॉक' देकर लौट रहे थे । यहाँ दो कल शाम को चौंक में किशोर से भेंट हुई और आपकी इस बीमारी का पता चला । आप बिल्कुल दुबले हो गये हैं। मैं बाहर देखता तो पहचान न पाता !' दादा ने कहा- अब पहले से अच्छा हूँ । प्राणों की आशा न रह गई थी। जब से किशोरो की शादी हुई तब से मेरी शान्ति जाती रही । ऐसी कुलच्छनी बहू भाई है...... प्रकाश ने फौरन बात काट कर कहा - 'यह व्यर्थ की बात आप कर रहे हैं। मैं उसे जानता हूँ । बहुत अच्छी और भाग्यवती लड़की है। यह संयोग की बातें हैं दुर्भाग्य भी मैं इसे न मानूँगा । आप उसे कुछ न कहें ।' दादा एक अनभ्यस्त विस्मय में हूबे चुप पड़े रहे। मैं गर्व और गौरव से फूल उठी। संसार में चाँद भैया के बाद कोई और है जो मेरी निन्दा और अवमानना नहीं सहन कर सकता । भूल गई मैं आने वाले संताप को - दादा के भीतर का विद्रूप कितना भयानक विस्फोट करेगा ? दादा ने कहा- 'तुम पिछली बार लखनऊ में जब उससे मिले थे तब मैं वहाँ था । मुझे बड़ा बुरा लगा था यह जान कर कि तुम जान-बूझ कर मुझसे बिना मिले लौट गये - विशेष कर जब तुम्हें यह मालूम हो गया था - उसी के द्वारा कि मैं वहाँ हूँ । एक मसल है - चोर नहीं पर चो
र जैसी बातें । तुम्हारा यह व्यवहार मुझे वैसा ही लगा था ।... तुम्हें यह न करना था । मेरे गोपन अन्तःपुर में उस दिन की याद जाग उठी । किवाड़े की सन्धियों से मैं सांस रोके देख रही थी। वे कुछ बोलते न थे । शायद और कटु सत्य वे जबान पर न लाना चाहते थे। वे केवल मनुष्यत्व सांसारिकता के कारण दादा की ऐसी कड़ी बीमारी का समाचार सुनकर उन्हें देखने आये थे । किसी प्रकार का आरोप प्रतिरोप करने और कोई अप्रिय चर्चा छेड़ने की उनकी इच्छा न थी । दादा को उनका चुप रहना बदमाशी और अपराध की स्वीकृति जान पड़ी। मैं भीतर से देख रही थी उनके चेहरे पर कैसी भींगी वेदना सिमटी पड़ी है। जिस प्रसंग से बचने के लिए यह यहाँ आते समय प्रार्थना करते रहे होंगे वह इतनी जल्द - बैठते हो इस रूप में शुरू हो जायगा यह उन्होंने स्वप्न में न सोचा था । मैं बैठी देख रही थी - एक व्यापक उत्तेजना उनकी नसों में भर-भर आती थी पर वैसी ही ज्यों की त्यों सूख जाती थी। दादा कहा -'तुम उसे जानते हो - वह बड़ी अच्छी लड़की है यह मैंने लिया । पर मेरी बातें तो पूरी सुन लेते। मैं इस बार मरते-मरते बचा हूँ । जब से यह आयी है मेरी अशान्ति और चिन्ता का ओर छोर नहीं ! मैं किशोर का यह विवाह कर अब पछता रहा हूँ। टीकमगढ़ से एक शादी आई थी । पाँच हजार रुपये वे लोग केवल फलदान में दे रहे थे पर मैंने न किया । सोचा ग़रीब घर की लड़की है तो पढ़ी-लिखी सदाचारिणी, सुशील और पुन्यवती होगी। शादी में मिले रुपये से क्या किसीका गुजारा होता है । लेकिन इसके मिजाज रानियों महारानियों से बढ़ कर हैं। न किशोर को कुछ समझती है न मुझे । जिस बात के लिये मना किया जाता है वही करती है और शेखी दिखाती है...' उन्होंने कहा - 'श्राप कोई और बात करें । क्यों उसकी निन्दा तब से कर रहे हैं । आपको पता नहीं । वह मेरे बड़े प्यारे दोस्त की मुँहबोली बहन है । मुझे उस पर उतनी श्रद्धा है जितनी सगी बहन पर होती है। यहाँ के सम्बन्ध से भी वह मेरी काकी लगती है। श्राप बराबर उसकी बातें कर रहे हैं। एक निवेदन मुझे करना है । चाँद मुझे जाते-जाते उसे सौंप गया है । आप मेरे दादा हैं । आप से मेरा कुछ भी कहना अनुचित न होगा । उसे अधिक से अधिक सुखी बनाने का यत्न करें । भावुक और तीव्र बुद्धिवाली लड़की है । चाँद के साथ-साथ लिखते-पढ़ते वह इतनी होशियार और ज्ञानवती हो गई है कि ग्रेजुएट लड़कियों को पढ़ा सकती हैं। किशोर मूर्ख है पर आप इस 'मणि' का मूल्य सहज ही जान सकते हैं। उसे उठते-बैठते हर व्यक्ति से किसी प्रकार की ठेस न लगने दे । उसकी निन्दा और कलंक कहते होंगे उसे छोड़ दें । वह सुनती होगीउसे पीड़ा पहुँचती होगी।' छः सात महीने बाद उन्हें देख रही थी। उनके चेहरे पर एक एक नवप्रभा - एक नया आकर्षण लहरा रहा था । मैं उन्हें निकट से देख चुकी थी और उनसे घण्टों बहस कर उस समय उनके प्रति विरक्त हो उठी थी । पर उनकी महानता से परिचित थी । जानती थी उनकी व्यक्तित्व में कौन-सी दैवी मोहिनी है जो मुझे नीम के नये बौर की सुगन्धि जैसी बेहोश और बेहवास बना देती है। मैं मानवता का अपवाद बन जाती हूँ- झंकारहीन पाषाणी जैसी निस्पन्द और कंपनशून्य ! मैं दीवार की आड़ से लगी किवाड़े की सांसों से उन्हें देख रही थी पर जी न भरने आता था । एक कोने में सिमटी स्तब्ध अधीरता और अतृप्ति की सजीव मूर्ति बनी बैठी थी । दादा ने उनकी बात को सुनकर कहा- 'इस सम्बन्ध में तुम्हारा कुछ कहना अनाधिकार चेष्टा है प्रकाश ! वह मेरा पुत्रवधू है । मैं उसके प्रति अपना कर्तव्य जानता हूँ। तुमसे मुझे कुछ सोखने को शेष नहीं । दफ्तर में मेरे नोचे तुम्हारे जैसे पचीसों लौण्डे काम किया करते थे । तुम आज बढ़े आदमी हो गये ! मेरी प्राइवेट बातों दखल देने का तुम्हें अधिकार नहीं । मैं नहीं जानता वह बदमाश चाँद कौन है जो तुम्हें यह काम सौंप गया है । इस नाम का एक कालेजी छोकरा शुक्लजी के यहाँ आया करता था । पर बात यहाँ तक बढ़ गई है यह मुझे न मालूम था । मुझे पता न था तुम उसका पक्ष लेकर मुझसे बहस करोगे - लड़ोगे और बाद में उपदेश देने लगोगे । चाँद पक्का पाजी है - एक नम्बर..... 'मुझे कल ही संवाद मिला है कि लन्दन में उनको मृत्यु हो गई है - एक मोटर एक्सीडेन्ट में यह समाचार मैं मंजु को सुनाना चाहता था । कल मुझे उसके बड़े भाई का तार मिला है । आज उसे दूसरा अशब्द न कहें वर्ना मैं एक मिनट न रुकूँगा ।' मेरे सिर पर गाज गिर पड़ी। इतना बड़ा दर्द छाती में भरे ये इतने गंभीर बैठे हैं। मैं सब कुछ भूल कर पागल हो उठी । बोच का खुला दरवाजा झट से खोल कर सामने आ खड़ी हो गई । दादा हकबका कर उठ बैठे । मेरी मुखमुद्रा देखकर वे हैरत में आगये । प्रकाश ने दोनों हाथ जोड़ कर नमस्ते किया ।...... मैंने उन्मादग्रस्त स्वर में पूछा'चाँद भैया ! चाँद भैया !! उन्हें क्या हुआ है ? आप अभी दादा से क्या कह रहे थे......
...बोलिये.... बोलिये.........जल्दी बोलिये ?' उन्होंने जेब से तार निकाल कर मेरे सामने फेंक दिया। शोकविह्वल, करुण, कातर दृष्टि से मेरी ओर देखने लगे तार बड़े भैया का था । चाँद भैया - मेरे चाँद भैया उठी.........................वहीं खड़ी खड़ी कुछ मिनटों के बाद पछाड़ खाकर गिर पड़ी यह क्या हो गया - कैसे हो गया. - कैसे हो गया कितनी सहजता से हो गया...... बाद में जब होश आया तब मैं अपने कमरे में चारपाई पर अकेली पड़ी था । प्रकाश जा चुके थे पर मैं कहाँ जाती ? मुझे कहाँ ठिकाना था ? रात में मैं बराबर फूट-फूट कर घाड़ मार-मार कर रोती रही । मेरी सास ने तरह-तरह से धीरज दिया। पतिदेव दो एक बार पास आये पर मेरी उन्मादग्रस्त दशा को देखकर अधिक समझा न सके । रात के बारह बजे के लगभग मेरे कान में दादा की आवाज पड़ी । वे सास से कह रहे थे - 'जाकर उस कुलच्छिनी से कह दो - रो-रो कर मेरी जान का अमंगल न करे । भगवान की कृपा से मैं बच गया हूँ, मेरा नया जन्म हुआ इस प्रकार अगर रोयेगी और विलाप करेगी तो यह मेरा अशुभ चेतना होगा। इससे मेरा अकल्याण होगा । जाओ उससे कह दो - शोक सभा अब बरखास्त करे और चुपचाप सोये । दुनिया ऐसे ही रोती-धोती रहती है । जिसको जाना है वह चला जाता है। कौन सगा था - अपनी जात बिरादरी, कुटुम्ब कबीले का भी न था । यह सब लगा रहता है। अगर मेरी मृत्यु मनाती हो और सर्वनाश चाहती हो तो बात दूसरी है । मैं जानता हूँ उसे गैरों की जितनी परवाह है उतनी घर के आदमियों की नहीं । उनके साथ मजे उड़ाती रही है.. लेकिन अब कुछ न हो सकेगा ।' मैंने किसी भाँति भैया की स्मृति को हाथ जोड़ कर अधूरा प्रणाम करते हुए कहा- तुम इनकी कुत्सित बातें सुन रहे हो तो कानों में उगली लगा लेना । 'मुझे लगता था जैसे मेरा कंठ-स्वर किसी दूसरे लोक से आ रहा...... मुझे स्वयं उसे सुनकर डर मालूम हो रहा है। हाँ ! डर ही तो है...... जैसा बालक को किसी विक्षिप्त का प्रलाप सुनकर होता है...... जैसा बिल्ली के मुँह में दबे और कड़कड़ होते हुए अस्थिखंड को देखकर बिल के भीतर से झाँकते हुए छोटे चंचल चूहे को होता है । हे मेरे भगवान ! हे मेरे स्वामी ! मेरे देवता - मेरे महादेवता ! किन पापों का दण्ड तुमने मेरे ऊपर डाल दिया। मेरे भैया ! मेरे - केवल मेरे ! किसी के नहीं वरन् मेरे...... उठते बैठते, चलते-फिरते, सोते-जागते. दिन, दोपहर, गत, साँझ, सबेरे जो मेरे ही होकर रहे और चले गये.... मेरे ही होकर एक युग तक जला किये...... दूर बड़ी दूर जाकर बुझ गये । जिस काल के गर्भ से इतना विस्फोट होने वाला था - शाम को इतना भयानक गोला जिसके तलातल से इस विदारक गति से फूटने वाला था वह ऊपर से देखने में कितना शान्त था ! और प्रकाश ! उनके मुख पर विवश भावों की जो चमक थी उसके भीतर एक इंगित पर बड़े-बड़े अङ्गार बरसाने की विदारक क्षमता है, यह मैं केवल दरवाजे का सन्धियों से देखकर कैसे जानती !! मैं केसे शान्त रहूँ ! दादा नहीं चाहते मैं जोर से रोऊँ !! मैं कोशिश करूंगी मैं इस दारुण जगद्दहन में शान्त रहूँ......गले पर धीरे-धीरे यह आरी चलने दूँ । पर भीतर के दबे आवेगों को उबल कर फूटने से कैसे रोकूँगी ? मेरे श्रहंकार और इस शरवेधक वेदना के द्वेन्द्र का अन्त कहाँ जाकर होगा ! मैं रात भर रोती रही। दादा की बात के बाद यह यत्न करती रही कि मेरी आहे मेरे गले में घुल जायें । सुबकते सुबकते जब गला बिलकुल बेबश हो जाता था तब मेरे चीत्कार बाहर निकल एक घुमड़न बन उस कमरे में फैल जाते थे । सुबह सूजी-सूजी लाल आँखों के भीतर से फटी पड़ रही मेरी प्रमत्तता को देखकर सास ने मुझे छाती से लगा लिया और बोली'रो मत बहू ! जो चला गया वह क्या रोने से कभी वापस मिला है । आज उसकी माँ पर क्या बीतती होगी ? भगवान से विनती कर कि उसकी आत्मा को शान्ति दें । 'भगवान पर उनका दृढ़ विश्वास था माँ !'- मैंने सास के आँचल में अपना फफकता मुँह ढाँप कर कहा-जाने के पहले मुझसे कह गये थे
पता नहीं था। आप वापस नहीं लौट सकते परन्तुआप कुछ समय के लिए वर्तमान भूल सकते हैं और अपनी स्मृति, अपने मनमें ही अतीत को पुनः जी सकते हैं आदमी पशुत्व के तल पर गिर सकता है। वह आनंदपूर्ण होगा, किन्तु अस्थायीयही कारण है कि नशीले पदार्थ, शराब आदि का इतना आकर्षण है। जब आपकिसी मादक द्रव्य के कारण बेहोशा हो जाते हैं तो थोडी देर के लिए आप पीछे गिर जाते हैं। थीड़े समय के लिए आप आदमी नहीं रह जाते, आप एक समस्या नहीं होते। आप फिर से पशुओं के जगत के हिस्से हो गये, अचेतन अस्तित्व के हिस्से हो गये। तब आप आदमी नहीं हैं। इसलिए फिर वहां कोई समस्याभी नहीं हैं। मनुष्यतासदा से कुछ-न-कुछ खोज़करती रही है - सोमरस से लेकर एल. एस. डी. तक ताकि वह भूल सके, पीछे लौट सके, बच्चों जैसा हो सके, पशुओं की निर्दोषिताको फिर से पा सके, बिना समस्या के हो सके, यानी बिना मनुष्यता के हो सके, क्योंकि-मनुष्यता का मेरे लिए अर्थ होता है एक समस्या। यह पीछे लोट जाना, यह गिर जाना संभव है लेकिन केवल अस्थायी रूप् से। तुम फिर लौट आओगे, तुम फिर से आदमी हो जाओगे और वहीसमस्याएँ तुम्हारे सामने खडी हुई होंगी, तुम्हारी प्रतीक्षा कर रही होंगी। बल्कि पहले से भी ज्यादा गहरी होंगी। तुम्हारीअनुपस्थिति से ये विलीन होने वाली नहीं, वरन वे और भी जटिल हो जायेंगीऔर तब एक दुष्टचक्र का निर्माण होगा जब तुम लौटकर आओगे और जागोगे तो तुम पाओगे कि तुम्हारी गैरहाजिरीके कारण समस्याएँ और भी अधिक जटिल हो गई। वे बढ़गईं और तब तुम्हेंबार-बार स्वयं को विस्मृत करना पड़ेगा और जितनी बार तुम भूलोगे और पीछेपिरोने, तुंम्हारी समस्याएं बढ़ती जायेंगी। तुम्हें अपनी मनुष्यता का बार-बार सामनाकरना पड़ेगा। कोई इस तरह बच नहीं सकता। कोई चाहे तो स्वयं को धोखादे सकता है, किन्तु इस तरह बच नहीं दूसरा विकल्प अति कठिन है - विकसित होना; अपने चैतन्य को, बीइंग कोपा लेना। जब मैं कहता हूँ पीछे लौटना तो मेरा मतलब है बेहोशा होना; जो थोडीबहुत सजगता भी है उसे थी खो देना। जब मैं कहता हूँ होनाबीइंग तो मैरामलतब है बेहोशी को छोड़समग्र-सजगता को, पूर्ण चैतन्य को उपलब्ध होना। जैसे हम हैं, हमारा केवल एक ही हिस्सा चेतन है। हमारे अस्तित्व का छोटा-सा द्वीप चेतन है, और पूरा प्रायःद्वीप, पूरी मुख्यभूमि अचेतन है। जब यह छोटा-सा हिस्सा भी मूच्छित हो जाता है तो तुम पीछे लौट गये, तुम पीछे गिर गयेयह अज्ञान की अवस्था आनन्दपूर्ण है क्योंकि अब तुम समस्याओं से दूर हट गयेसमस्याएँ तो वहाँ अभी भी मौजूद हैं किन्तु तुम अब उनके प्रति सजग नहीं हो। इसलिए तुम्हारे लिए तुम्हें ऐसा लगता है कि जैसे वे समस्याएं नहीं हैं। यह शुतुरमुर्गकी विधि है, अपनी आँखें बंद कर लो ओर तुम्हारा शत्रु दिखाई नहीं पड़ता क्योंकि-अब तुम उसे नहीं देख सकते--... यही बचकानी बुद्धि का तर्क कहता है कि जबतुम किसी वस्तु को नहीं देख सकते तो वह नहीं है। जब तक कि कोई चीज़तुम्हें दिखलाई नहीं पड़ती वह नहीं है। इसलिए यदि तुम्हें समस्याएँ महसूस नहीं होतीं तो वे नहीं हैं। जब मैं कहता हूँ "स्वयं का होना", मनुष्यता का अतिक्रमण कर जाता, दिव्यता को उपलब्ध हो जाना तो मेरा मतलब है पूर्ण चेतन हो जाना- एक द्वीपनहीं होना, बल्कि पूरा प्रायःद्वीप हो जाना। यह पूर्ण चेतनता भी तुम्हें सब समस्याओं के पार ले जायेगी क्योंकि समस्याएँ वस्तुतः हैं ही तुम्हारे कारण समस्याएँ वस्तुगतसत्य नहीं हैं; वे विषयगत घटनाएँ हैं। तुम ही तुम्हारी समस्याओं के निर्माता हीतुम एक समस्या को सुलझाते हो और उसे सुलझाने में दूसरो बहुत-सी समस्याओंको पैदा कर देते हो क्योंकि तुम तो वही हो। समस्याएँ वस्तुगत नहीं हैं। वे तुम्हारेही हिस्से हैं। तुम ऐसे हो इसलिए तुम ऐसी समस्याएँ उत्पन्न करते हो। बिज्ञान समस्याओ को वस्तु की तरह सुलझाने का प्रयत्न करता है । औरविज्ञान सोचता है कि यदि समस्याएँ नहीं होंगी तो मनुष्य सुखी हो सकेगा। समस्याएँवस्तु की तरह सुलझाई जा सकती हैं, परन्तु मनुष्य सुखी नहीं होगा। क्योंकि मनुष्यस्वयं एक समस्या है। यदि वह एक समस्या का सामाधान खोजता है तो वह दूसरीपैदा कर देता है। वही उनका स्रष्टा है । यदि तुम एक इससे अच्छे समाज कानिर्माण कर लो तो समस्याएँ बदल जायेंगी किन्तु समस्याएँ तो रहेंगी। यदि अच्छास्वास्थ्य, अच्छी दवा प्रदान कर दो, तो समस्याएँ बदल जायेंगी, किन्तु समस्यायेंतो रहेंगी। समस्याओँ का अनुपात सदा उतना ही रहेगा जितना पहले था क्योंकि आदमीवही का वही है; केवल परिस्थिति बदल देते है। आप परिस्थिति बदल देते हैं; पुरानी समस्याएँ नहीं होंगी, किन्तु तब नई समस्याएँ होंगी। और नई समस्याएँ औरभी जटिल होंगी बजाय पुरानी समस्याओं के। क्योंकि तुम पुरानी समस्याओं सेपरिचित हो चुके हो। नई समस्याओं के साथ तुम्हें और भी अधिक तकलीफ होगी। इसलिए यद्यपि हमारे समय में ह
मने सारी परिस्थिति बदल डाली है, परन्तु समस्याएँतो है - और भी अधिक घातक, और थी अधिक चिन्ताजनक। विज्ञान और धर्म में यही भेद है। विज्ञान सोचता है कि समस्याएँ वस्तुगत है, कहींबाहर हैं, तुम्हें रूपान्तरित किये बिना उन्हें बदला जा सकता है। धर्मसोचता है कि समस्याएँ यहीँ कहीं भीतर ही मौजूद हैं, मुझ में ही... बल्कि मैंही एक समस्या हूँ। जब तक मैं नहीं बदलता, कुछ भी भेद पड़ने वाला नहीं। रूप बदल सकता है, नाम दूसरा हो सकता है, किन्तु मुख्य वस्तु तो वही रहेगी। मैं समस्याओ का दूसरा संसार खड़ाकर दूंगा, मैं नई-नई समस्याओं को उत्पन्तकर दूँगा। यह आदमी जो कि स्वयं के प्रति ही मूंच्छित है, जिसे स्वयं का कोई भीफ्ता नहीं है, यही सारी समस्याओं का स्रष्टा है। वह कौन है, वया है इन सबसेअनभिज्ञ, स्वयं से अपरिचित रहकर वह समस्याओं को सृजन करता चला जाताहै। क्योंकि जब तक तुम स्वयं को ही नहीं जानते तुम यह नहीं जान सकते कितुम क्यों हो और किसलिए जी रहे ही; तुम नहीं जान सकते कि तुम्हें कहाँ जाना है, तुम अनुभव नहींकर सकते कि तुम्हारी नियति क्या है। और तब हर बाततुम्हें विषाद की और धकेलती जायेगी। क्योंकि यदि तुम कुछ भी करो बिना यहजाने कि तुम क्यों हो और तुम क्या हो तो तुम्हें वह कभी भी गहरी तृप्ति नहीं दे पायेगी। यह असंगत है। मुख्य बिन्दु ही खो गया, तुम्हारा प्रयत्न विफल हो गया। और अन्ततः प्रत्येक व्यक्ति विषाद को उपलब्ध होता है। क्योंकि जो सफलनहीं होते उन्हें अभी भी सफलता की आशा होती है, लेकिन जो सफल हो जाते हैं वे अब आशा भी नहीं कर सकते। उनकी दशा बडी निराशाजनक हो जाती है। इसलिए मैं कहता हूँ कि सफलता से बडी विफलता खोजनी मुश्किल है। धर्म विषयगत विचार करता है, विज्ञान वस्तुगत सोचता है। वह कहता हैकि परिस्थिति कोबदल दो, आदमी को स्पर्श न करो। धर्म कहता है कि आदमीको रूपान्तरित करो, परिस्थिति असंगत है। कोई भी परिस्थिति क्यों न हो एकभिन्न मन, एक रूपान्तरित व्यक्ति सब समस्याओं के पार होगा। इसीलिए एकबुद्ध भिखारी होकर भी पूर्ण शान्ति में जी सके, और एक मिडास भारी परेशानीसे घिरा है जबकि उसके पास चमत्कारी शक्ति है। वह जो भी छूता है, सोना हो जाता है। मिडास की परिस्थिति स्वर्णिम हो गई है। उसके स्पर्श करते-ही वस्तु सोना हो जाती है। किन्तु इससे कुछ भी हल नहीं होता, बल्कि मिडास और भीअधिक जटिल समस्यापूर्ण परिस्थिति में पड़ गया। आंज हमारे जगत ने विज्ञान की मदद से एक मिडास की परिस्थिति उपस्थित कर दी है। अब हम कुछ भी छुए और वह सोने का हो जाता है। एक बुद्धभिखारी की तरह रहते हुए भी इतनी शान्ति और नीरवता मेँ जीते हैं कि सम्राटों को भी ईंष्यों होती है। वया है रहस्य? मनुष्य का अन्तरतम अधिक महत्त्वपूर्ण है, बाह्य परिस्थिति नहीं। इसलिए तुम्हें मनुष्य की आंतरिक अवस्था बदलनी होगी। और बदलाहट केवल एक हैः यदि तुम अपनी सजगता में बढ़ सकों तो तुम बदलते हो, तुम रूपान्तरित होते हो। यदि तुम अपनी सजगता में पीछे गिरे, तब भी तुमबदलते हो, रूपान्तरित होते हो परन्तु जब तुम्हारी चेतना कम हो जाती है तो तुमपशुतल पर गिर जाते हो। यदि तुम्हारी चेतना बढ़ जाती है तो तुम देवताओं की ओर बढ़ जाते हो। धर्म के लिए यही एक मात्र कठिनाई है कि अपनी सजगता को केसे बढाएँइसलिए धर्म सदैव से ही मादक पदार्थों के विरुद्ध रहा है। उसका कारण नैतिकनहीं है, और तथाकथित नैतिक लोगों ने सारी ज्ञात को ही एक बड़ा गलत रंगदे दिया। धर्मं के लिए यह कोई नैतिकता का प्रश्न नहीं है कि कोई शराब पीता है। यह कोई नैतिकता का सवाल नहीं है क्योंकि नैतिकत्ता का प्रारम्भ ही तबहोता है जब कि मैं किसी और से संबंधित होता हूँ। यदि मैं शराब पीता हूँ औरबेहोश हो जाता हूँ तो इसका किसी से कुछ लेना देना नहीं । मैं जो कुछ कररहा हूँ स्वयं के साथ कर रहा हूँ। हिंसा नैतिकता के लिए एक प्रश्न है, न कि शराब। यहाँ तक कि यदि मैंआपको किसी विशेष समय पर मिलने को समय दूँ और नहीं मिलूँतो वह अनैतिकताकी बात हुई क्योंकि कोई और संबंधित है। शराब नैतिकता का एक प्रश्न हो सकताहै यदि उसमें दूसरा भी संलग्न हो, अन्यथा वह नैतिक सवाल बिल्कुल नहींयह तुम अपने साथ करते हो। धर्म के लिए यह कोई नैतिक सवाल नहीं हैधर्म के लिए यह और भी गहरा सवाल है। यह चेतना को कम करने और बढानेका सवाल है। एक बार तुम्हारी आदत पीछे गिर कर अचेतन होने कोपड़ जाती है, तोतुम्हारी चेतना कोबढाना और भी कठिन हो जाता है। यह और भी मुश्किल होजाएगा क्योंकि तुम्हारा शरीर बढ़ती हुई सजगता में साथ नहीं देगा। वह तुम्हारीघटती हुई सजगता में साथ देगा। तुम्हारे शरीर की संरचनां तुम्हें अचेतन होने में सहायता देगी। वह तुम्हें सजग होने में सहायक नहीं होगी। और कोई भी चीजजो अघिक सजग होने में बाधा बनती हो वह धार्मिक समस्या है। वह कोई नैतिकसमस्या नहीं है। इस
लिए कभी-कभी एक शराबी अधिक नैतिक व्यक्ति हो सकता है बजायउसके जो कि शराब नहींपीता, किन्तु वह अधिक धार्मिक कभी भी नहींहोसकता। एक शराब पीने वाला व्यक्ति ज्यादा सहानुभूतिपूर्ण हो सकता है बजायराराब नहीं पीने वाले व्यक्ति के । वह ज्यादा प्रेम-पूर्ण, ज्यादा ईमानदार हो सकताहै लेकिन ज्यादा धार्मिक कभी भी नहीं हो सकता। और जब मैं कहता हूँ घार्मिकतो मेरा मतलब होता है कि वह कभी भी अधिक सज़ग, अधिक सचेतन व्यक्तिनहीं हो सकता। सजगता में विकसित होना संताप पैदा करता है। आदम ओर ईव की बाइबिल की पुरानी कहानी को समझना अच्छा होगाउन्हें स्वर्ग से निकाल दिया गया था, उन्हें ईडन के बाग से निष्कासित कर दिया गया था। यह एक बहुत गहरी मनोवैज्ञानिक कहानी है। परमात्मा ने उन्हें सिर्फएक फल को छोड़सारे फल खाने के लिए इजाजत दे दी थी। केवल एक वृक्षको नहीं छूना था और वह वृक्ष ज्ञान का वृक्ष था। यह बडी अजीब बात है किईश्वर अपने बच्चों को ज्ञान का फल खाने के लिए मना करे। यह बड़ा विरोधाभासी लगता है। यह कैसा ईश्वर है? और यह केसा पिता है जो कि अपने ही बच्चोंके और अधिक बुद्धिमान व ज्ञानी होने के खिलाफ है। परमात्मा क्यों ज्ञान के लिए निषेध कर रहा है? हम तो ज्ञान को बहुत मूल्य देते हैं। परंतु उन्हें मनाकर दिया गया। आदम व ईव पशु जगत में विचरण कर रहे थे। वे आनंद में थे, किन्तुउन्हें इसका कोई पता नहीं था। बच्चे बड़े आनंद में होते हैं किन्तु वे भी अनभिज्ञहोते हैं। और यदि बच्चों को विकसित होना हो तो उनके ज्ञान की वृद्धि होनीचाहिए। दूसरा कोई विकास का मार्ग नहीं है। यदि आप अज्ञानी हैं तो आप आनन्दपूर्णहो सकते हैं, परंन्तु आप अपने आनंद के प्रति सजग नहीं हो सकते इसे समझ लेना चाहिएः तुम आनंदित हो सकते हो यदि तुम अज्ञान में हो, किन्तु तुम्हें अपने आनंद का कोई पता नहीं होगा। जैसे ही तुम्हें अपने आनन्दका अनुभव होना प्रारंभ होगा, तुम अज्ञान से बाहर होने लगो। ज्ञान ने प्रवेश किया, तुम एक जानने वाले बने। अतः आदम और ईव बिल्कुल पशुओं की भांति रहतेथे-समग्ररूपेण अज्ञानी तथा, आनंदपूर्ण किन्तु यह स्मरण रखें कि इस आनन्दका उन्हें कोई पता नहीं था। वे केवल आनन्दमन थे बिना उसे जाने। कहानी कहती है कि शैतान ने ईव को फल खाने के लिए ललचाया औरउसका कारया यह था कि उसने ईव से कहा कि यदि तुमने यह फल खा लियातो तुम देवताओं के समान हो जाओगी। यह बहुत अर्थपूर्ण बात है। जब तकतुम ज्ञान का यह फल नहीं खाते हो तुम देवताओं के जैसे कभी भी नहीं होसकते। तुम पशु ही रहोगे। और इसीलिए परमात्मा ने उन्हें मना कर दिया था, निषेध कर दिया था कि उस वृक्ष को न छूएं, परन्तु फिर भी वे उसकी ओर आकर्षितहुए बिना नहीं रह सके। यह शब्द "डेविल" (शैतान ) बड़ा सुन्दर है और विशेषज्ञः भारतीयों के लिएइसका ईसाइयों से भिन्न ही महत्त्व है क्योंकि "डेविल" भी उसी शब्द से, उसीस्रोत से आया है जिससे कि "देव" या "देवता" बना है। दोनों उसी स्रोत से आयेहैं इसलिए ऐसा लगता है कि ईसाई कहानी ठीक बातन कह सकी, कहीं अधूरीरह गई। एक बात ज्ञात है कि "डेविल" स्वयं भी एक विद्रोही देवता था-एकविद्रोही देवदूत जिसने ईश्वर के विरुद्ध विद्रोह किया था। परन्तु वह स्वयं भीदेवता था। में यह क्यों कह रहा दूँ? क्योंकि मेरे लिए इस संसार में शैतान और देवताजैसी दोशक्तियाँ नहीं हैं। यह द्वैत झूठा है। केवल एक ही शक्ति है। और द्वैतदो दुश्मनों की तरह नहीं है बल्कि दोदुश्मनोंकी तरह काम कर रहा है क्योंकिजब तक शवित्त दोध्रवों की तरह काम न करेगी तब तक वह काम ही नहींकर सकती। इसलिए मेरे लिए यह कहानी एक नया ही अर्थ रखती है। पत्मात्मा वे निषेधइसलिए किया क्योंकि आप आकर्षित तभी हो सकते हैं जब कि मना करें। यदिज्ञान के वृक्ष की चर्चा ही न की जाती तो यह संभव प्रतीत नहीं होता कि आदमऔर ईव ने उस विशेष वृक्ष के फल खाने की कल्पना भी की होती । ईडन काबाग एक बहुत बड़ा बाग था। वहाँ अनगिनत वृक्ष थे; यहाँ तक कि हम उन वृक्षोंके नाम भी नहीं जानते हैं। यह वृक्ष महत्त्वपूर्ण हो गया क्योंकि इसके लिए निषेध कर दिया गया। यहनिषेध ही निमंत्रण बन गया; यह मना ही आकर्षण का कारण बन गया। वस्तुतः कोई शैतान नहीं था जिसने कि उन्हें ललचाया। सर्वप्रथम ईश्वर ने उन्हें आकर्षितकिया। यह एक "मारी आकर्षण था- ज्ञान के वृक्ष के निकट भी मत जाना, उसकाफल मत खाना। केवल एक वृक्ष का निषेध है, अन्यथा तुम्हें स्वतन्त्रता है। "अचानकयह एक वृक्ष सारे बाग में महत्त्वपूर्ण हो गया और मैरे लिए "डेविल" (शैतान) दिव्यता का केवल दूसरा नाम है-दूसरा छोर, और उस डेविल ने ईव को प्रलोभितकिया क्योंकि तब वह देवताओं जैसी हो सकती थी। यह वादा था। और कौनदेवताओं जेसा नहीं होना चाहेगा? कौन नहीं चाहेगा कि वह देवता हो जाये? आदम और ईव लोभ में आ गये और तब वे स्वर्ग री निकाल दिए गये
। परन्तु यह निष्कासन प्रक्रिया का एक हिस्सा है। वस्तुतः यह स्वर्ग एक पशुवतअस्तित्व था जो कि आनन्दपूर्ण था किन्तु अनजाना। क्योंकि ज्ञान के वृक्ष केइस फल को खाने के बाद आदम और ईव मनुष्य हो गये। उसके पहले वे मनुष्यकतई नहींथे। वे अब मनुष्य हो गये और साथ ही समस्या भी। ऐसा कहा जाता है कि पहले शब्द जो आदम ने स्वर्ग के दरवाजे से निकलनेपर कहे वे थे "कि हम एक बहुत ही क्रान्तिकारी समय से गुजर रहे हैं।" वहसचमुच एक क्रान्ति का काल था। मनुष्य का मन कभी भी इससे अधिक क्रान्तिसे नहीं गुजरेगा जैसा कि यह पशु जगत से उसका निकाले जाना था, आनन्द कीदुनिया से, अज्ञात अस्तित्व से निष्कासन । वह समय वास्तव में, बड़ा क्रान्ति कासमय था। दूसरी सारी क्रान्तियाँ उसके सामने कुछ भी नहीं हैं। वह एक सर्वाधिकबडी क्रान्ति थी - स्वर्ग से निष्कासन। लेकिन उनको निकाला क्यों गया? जिस क्षण भी तुम जान लेते हो, जिस क्षण भी सजग होते हो, तो फिर तुम आनन्द में नहीं रह सकते। समस्याएँ उठेगी । और यदि तुम आनन्द में भी हो तो ये समस्याएँ तुम्हारे मन में आयेंगी कि मैंआनन्द में क्यों हूँ? क्यों? और तुम्हें सुख का कोई फ्ता नहीं चल सकता जब तक कि तुम्हें दुख का पता न चले क्योंकि हर एक प्रतीति बिना उसके विपरीतके संभव नहीं । तुम्हें सुख का पता भी तभी चलेगा जबकि तुम्हें दुख अनुभवमें आता हो; तुम स्वास्थ्य से तभी परिचित हो सकते हो जबकि तुम्हें बीमारी काअनुभव ही; तुम जीवन के प्रति सजग नहीं हो सकते जबतक कि तुम मृत्यु रोभयभीत न हो। पशु भी जीते हैं किन्तु उन्हें इसका कोई पता नहीं है कि वे जीवित हैं क्योंकिउन्हें मृत्यु का कोई पता नहीं। मृत्यु की कोई समस्या उनके लिए नहीं है, इसलिए वे चुपचाप जीवन से गुजर जाते हैं। परन्तु वे इसी भाँति जीवित नहीं हैं जिस तरह कि आदमी । मनुष्य जीता है और उसे होश है कि वह जीवित है क्योंकिवह जानता है फि मृत्यु है। ज्ञान के साथ विपरीत का एहसास होता है और समस्याओं का आविर्भाव होता है। तब फिर हर पल द्वन्द्व का होता है। तब तुम हर क्षणदो में बंटे हुए लटके हो । तब फिर तुम कभी एक न हो सकोगे। तुम लगातारद्वन्द्धों में बंटे हुए आंतरिक उलझनों में फंसे हुए रहोगे। इसलिए सचमुच वह एक बडी क्रान्ति थी-महान क्रान्ति आदम और ईवको निष्कासित कर दिया गया। सच ही यह कहानी बडी सुन्दर है। किसी ने उनकोनहीं निकाला किसी ने उन्हें बाहर जाने की आज्ञा नहीं दी। किसी ने नहीं कहाकि जाओ बाहर वे बाहर हो गये। जिस क्षण ही वे होश से भरे कि वे फिरबाग में होकर भी नहीं थे। यह यंत्रवत होगया। इस पर जरा विचार करें - एककुत्ता जो कि यहाँ बैठा हो, अचानक वह होश में आ जाये। तो वह बाहर हो गया। कोई उसे बाहर नहीं निकालता । परन्तु अब वह कुत्ता नहीं रहा। वह अपनीपशुस्थिति से बाहर चला गया और अब वह वापस वहीं नहीं हो सकता। आदम और ईव ने भी पुनः प्रवेश करने को कोशिश की, परन्तु उन्हें वह दस्वाजा फिर नहीं मिला। वे चारों ओर चक्कर लगाते रहे परन्तु सदैव ही द्वार चूक जाते। कहीं कोई दरवाजा ही नहीं है। निष्कासन समग्र है और अन्तिम है, वे पुनः प्रवेश नहीं कर सकते क्योंकि ज्ञान एक मीठा और कड़वा फल दोनो है। मीठा है क्योंकि वह तुम्हें शक्ति देता है, और कड़वा है क्योंकि उसके कारण समस्याएँ खडी होती हैं। मीठा है क्योंकि पहली बार तुम एक अहंकार की स्थिति में होते हो और कड़वा, क्योंकि अहंकार के साथ दूसरी सारी बीमारियाँ भी तुम्हारी होंगी। यह एक दुधारी तलवार जैसा है। आदम आकर्षित हुआ क्योंकि शैतान ने उससे कहा कि तुम देवताओं की तरह हो जाओगे। तुम शक्तिशाली हो जाओगे। ज्ञान भी एक शक्ति है, परन्तु यहतुम जानते हो तो तुम्हें सिक्के के दोनों पहलूजानने पड़ेंगे। तुम्हें जीवन की अधिकप्रतीति होगी, तुम अधिक आनन्दपूर्ण हो सकोगे किन्तु तुम मृत्यु के प्रति भी सजग हो जाओगे। तुमअधिक आनन्द का अनुभव करोगे, परन्तु तुम उसी अनुपात में अधिक संताप को भी अनुभव करोगे। यही एक समस्या है। यही है आदमी-एकगहरा संताप, एक गहरी खाईं दो विरोधी ध्रुवों के बीच। तुम्हें जीवन की प्रतीति होगी, परन्तु जब मृत्यु सामने हो तो सबकुछ विषाक्त हो जाता है। जब मृत्यु है तो फिर हर क्षण हर चीज़ विषाक्त हो गई। तुम जीकैसे सकोगे जब कि मृत्यु सामने हो। तुम आनन्दित कैसे रहोगे जबकि पीड़ा भीघिरी हो। और यदि आनन्द का एक पल आता भी है तो वह भी भागता हुआ होता है। और जब वह क्या होता है तब भी तुम्हें पता ही हैं कि कहीं पीछेदुख खडा हैं, पीड़ा छिपी है। वह जल्दी ही प्रकट होगी। अतः एक आनन्द काक्षण भी आपकी सजगता के कारण विषेला हो जाता है कि कहीं-न-कहीं दुखछिपा हुआ है, वह आता ही होगा। वह यहीं कहीं आसपास ही होगा, और तुम्हेंउससे साक्षात्कार करना पड़ेगा। आदमी भविष्य के प्रति जाग जाता है, अतीत के प्रति सजग हो जाता है, जीवन के प्रत
ि, भृत्यु के प्रति सचेतन हो जाता है। किर्किगार्ड ने इसे ही "संताप" कहा है - इस जानने को ही। तुम पीछे गिर सकते हो, परन्तु वह अस्थायी रूप से होगा। फिर तुम वापस लौट आओगे। इसलिए एक ही संभावना है कि तुमबढ़ो-ज्ञान में आगे बढ़ो। उस बिन्दु तक, जहाँ से कि तुम उसके भी बाहर छलांगलगा सको, क्योंकि छलांग केवल अन्तिम छोर से ही संभव है। एक छोर हमारेपास हैं कि वापस गिर जाओ। हम वह कर सकते हैं परन्तु वह असंभव है क्योंकि हम सदैव के लिए उसमें नहीं रह सकते। हमें बार-बार आगे की ओर फेंक दियाजाता है। दूसरी संभावना यह है कि हम हमारी चेतना में बढ़ते चले जायें। एकबिन्दु ऐसा आता है कि तुम पूर्ण सजग हो जाते हो और जहां से कि तुम अतिक्रमणकर सकते हो। हमने जान लिया है, अब हमें इस जानने के, इस ज्ञान के भी पार जाना होगा। हम बाग के बाहर आ गये हैं ज्ञान के कारण और हम इस बाग में वापसप्रवेश कर सकते हैं जब हम ज्ञान को फेंक देंगे। परन्तु यह फेंकना पीछे गिरने से संभव नहीं है। जिस द्वार से आदम को बाहर निकाला गया था वह द्वार अब फिर से नहीं मिल सकता। हमेँ दूसरा द्धार मिल सकता है जिससे कि क्राइस्ट को, बुद्ध को निमंत्रण मिला था। हम इस ज्ञान को फेंक सकते हैं, हम इस सजगताको फेंक सकते हैं, किन्तु केवल उस चरम बिन्दु से जहाँ कि हम पूर्ण सजग हो जायें। जब कोई पूर्णरूप से जागरूक हो जाए, जब यह भाव भी नहीं रहे कि मैंसजगहूँ जब कोईबिल्कुल पशु की तरह हो जाए प्रसन्न और आनन्दित। उन्हेंयह पता नहीं है कि जब तुम पूर्णरूप से सजग रहोगे या हो तो देवता हो जाते होयदि यह सजगता समग्र है तो तुम सजग होत बिना यह जाने कि तुम सजग होतब यह साधारण सजंगता ही प्रवेश की शुरुआत हो जाएगी-यही प्रवेश बन जायेगी। तुम पुनः बाग में होओगे-पशुओं की भाँति नहीं, किन्तु देवताओं की भांति । और यह एक अनिवार्य प्रक्रिया है। यह आदम का निष्कासन ओर जीसस का प्रवेश एक अनिवार्य प्रकिया है। अपने अज्ञान में से बाहर निकलना ही होता है, यह प्रथम चरण है। और फिर अपने ज्ञान से भी बाहर निकलना होता है, वह दूसरा चरण है। यह सूत्र सजगता से संबंधित हैः "स्वयं में सजगता की अग्नि को जलाना ही धूप है । " स्वयं के भीतर होश की आग पैदा करना । पहली बात तो यह ठीक रो समझ लें कि होश से, सजगता से क्या मतलब है। तुम चल रहे हो; तुम बहुत-सी चीजोंके प्रति सजग हो-दूकानें हैं, लोग हैं जो पास से गुज़र रहे हैं, भीड़ है आदि । तुम ऐसी बहुत सी चीजों के प्रति सजग हो, केवल एक ही चीज के प्रति तुम्हारा ध्यान नहीं हैतुम्हारे अपने प्रति। तुम सड़क पर चल रहे हौः तुम्हारा ध्यानबहुत-सी चीजों के प्रति रहता है, . केवल तुम अपने ही प्रति सजग नहीं हो। यहस्वयं के प्रति होगा, इसे ही गुरजिएफ सेल्फ रिमेम्बरिग कहता है। गुरजिएफ कहताहै कि तुम कहीं पर भी होओ, सदैव, स्वयं का स्मस्या रखो। उदाहरण, के लिए, जैसे कि तुम यहाॅ मुझे सुन रहे हो, किन्तु तुम सुनने वाले के प्रति ही सजग नहीं हो। तुम्हें बोलने वाले का पता है, परन्तु तुम उस सुनने वाले के प्रति होश में नहीं हो। सुनने वाले के प्रति भी सजग रहो। स्वयंकी यहाँ उपस्थिति अनुभव करो । एक क्षण के लिए एक झलक आती है औरतुम पुनः भूल जाते हो। कोशिश करो। जो कुछ भी तुम कर रहे हो करते समय एक बात का ध्यान सतत भीतरबना रहे कि वह तुम कर रहे हो। भोजन कर रहे ही, स्वयं के प्रति सजग रहो। तुम चल रहे हो, स्वयं के प्रति सजग रहो। तुम सुन रहे हो, तुम बोल रहे हो, स्वयं के प्रति सजग रहो। जब तुमक्रोधित हो रहे हो, होश रहे कि तुम क्रोध में हो। यह स्वयं का सतत स्मस्ण एक सूक्ष्म शक्ति को निर्मित कस्ता है। एकबहुत ही सूक्ष्म ऊर्जा तुम्हारे भीतर पैदा होने लगती है। तुम घनीभूत होने लगते हो। साधारणतः तुम एक ढीलेढाले थैले की तरह होते हो, जिसमें कोई सघनता, कोई केन्द्र नहीं होता-केवल द्रव्यता होती है, खाली बहुत सी चीजों का ढीलमढालामिश्रण होता है जिसमें कोई केन्द्र नहीं होता। एक भीड़ होती है जो कि लगातारयहाँ से वहाँ डोलती रहती है; जिसका "कोई मालिक नहीं। सजगता का अर्थ होता है कि मालिक बनो। और जब मैं कहता हूँ "मालिक बनो" तो मेरा मतलब है कि उपस्थित हो जाओ-एक सतत उपस्थिति। जो कुछ भी तुम कर रहे हो, या नहीं कर रहे हो, एक बात तुम्हारे ध्यान में बनी ही रहे कि तुम हो। यह साघारण स्वयं की अनुभूति कि कोई है, यह एक केन्द्र क्रो निर्मित करतीहै-एक थिरता का केन्द्र, एक मौन का केन्द्र, एक आंतरिक मालकियत का केन्द्र एक भीतरी शक्ति और जब मैं कहता हूँ कि एक भीतरी शक्तितो में शब्दशः कह रहा हूँ-है। इसीलिए यह सूत्र कहता है कि सजगता की अग्नि। यह एक आग है, एक अग्नि है। यदि तुम सजग होना शुरू करो तो तुम अपने भीतर एक नई ऊर्जा को अनुभव करोगे-एक नई आग, एक नया जीवन। और इस नई अग्निये जीवन, नई ऊर्जा के कारण बहुत सी चीजें
जो कि तुम्हारे ऊपर अधिकार जमाये हुए हैं वे सब विलीन हो जाएंगी। तुम्हें उनसे लड़ना नहींपड़ेगा। तुम्हें अपने क्रोध से, तुम्हारे लोभ से, तुम्हारे काम से, लड़ना पड़ता है क्योंकि तुम कमजोर हो। वास्तव में, काम, क्रोध, लोभ कोई समस्याएं नहीं हैं। कमजोरीही एक मात्र समस्या है। एक बार भी तुम भीतर मजबूत होना शुरू करो इस अनुभूतिके साथ कि तुम हो, तो तुम्हारी शक्तियाँ सघन होने लगती हैं, संगठित होने लगतीहैं भीतर एक बिन्दु पर और एक "स्व" का उदय होने लगता है। स्मरण रहे, इगोका, अहंकार का नहीं, बल्कि "स्व" का जन्म होगा। इगो"स्व" का झूठा भाव है। बिना किसी "स्व" के तुम ऐसा मानते चले जाते हो कि तुम्हारे भीतर "स्व" है वही अहं का भाव है। अहं का अर्थ होता है एक मिथ्या स्व । तुम स्व नहींहो, और फिर भी तुम्हें प्रतीत होता है कि तुम एक "स्व" हो। मौलिकपुत्र जो कि एक सत्य का खोजी था, बुद्ध के पास आया । बुद्ध ने पूछा कि तुम क्या खोज रहे हो? मौलिकपुत्र ने कहा-मैं अपने स्व को खोजरहा हूँ। मेरी मदद करें। बुद्ध ने कहा कि तुम एक वादा करो कि जो कुछ भी तुम्हें कहा जाएगा, तुम करोगे। मौलिकपुत्र रोने लगा। उसने कहा कि मैं कैसे वादा कर सकता हूँ? मैं तो हूं ही नहीं। मैं तो अभी हूँ ही नहीं, फिर वादाकेसे करूं? मुझेतो यह भी पता नहीं कि मैं मेरा कल वया होगा। मेरे भीतर कोई स्व नहीं जो कि वादा कर सके, इसलिए मुझसे ऐसी असंभव बात के लिए मत कहें। मैं प्रयत्न करूँगा, इतना ही कह सकता हूँ कि मैं कोशिश करूँगा, परन्तुमैं ऐसा नहीं कह सकता कि जो कुछ आप कहेंगे, वही करूँगा, क्योंकि कौन करेगा? मैं उसे ही तो खोज रहा हूँ जो कि वादा कर सके और उसे पूरा कर सके। मैं तो अभी हूँ ही नहीं। बुद्ध ने कहा-माँ "मौलिकपुत्र यह सुनने के लिए ही मैंने तुमसे यह प्रश्न पूछा था । यदि तुमने वादा किया होता तो मैं तुम्हें यहाँ से जाहर निकाल देता। यदितुमने कहा होता कि मैं वादा करता हूँ तो मैं जान लेता कि तुम कोई"स्वं" कीखोज में नहीं आये हो क्योंकि एक खोजी को तो पता होना चाहिए कि अभीवह है ही नहीं। अन्यथा, खोज की जरूरत ही क्या है? यदि तुम हो ही, तो कोई आवश्यकत्ता नहीं है। तुम नहीं होयदि कोई इस बात को अनुभव कर सके, तो उसका अहंकार वश्प्पीभूत हो जाता है। अहंकार एक झूठा ख्याल है ऐसी वस्तु का जो है ही नहीं। "स्व" का अर्थ होता है एक केन्द्र जो कि वादाकर सके। यह केन्द्र तब निर्मित होता है जबकि कोई लगातार सजग रहे, सतत होश बनाये रखे। ध्यान रहे कि जब भी तुम कुछकर रहे हो, कि तुम बैठ रहे हो, कि अब तुम सोने जा रहे हो, कि अब तुम्हें नींद आ रही है, कि तुम अब नींद में डूब रहे हो, प्रत्येक क्षण में जागे रहनेका प्रयास करो और तब तुम्हें प्रतीत होगा कि एक केन्द्र तुम्हारे भीतर निर्मितहोने लगा, चीजें सघन होने लगी, एक केन्दीकरण होने लगा। अब प्रत्येक चीज़ केन्द्र से जुड़ने लगी। हम बिना केन्द्र के ही हैं। कभी-कभी हमें केन्द्र की प्रतीति होती है, किन्तुवे क्षण ऐसे ही होते हैं जबकि परिस्थितिवश तुम सजग हो जाते हो। यदि अचानक ऐसी परिस्थिति हो, कि कोई खतरा पैदा हो गया हो तो तुम्हें तुम्हारे भीतर केन्द्रकी प्रतीति होगी क्योंकि खतरें के समय तुम सजग ही जाते हो। यदि कोई तुम्हेंमार डालने वाला हो तो तुम उस क्षण विचार नहीं कर सकते, तुम उस क्षण ठोस हो जाते हो। तुम अतीत में नहीं गिर सकते, तुम उस क्षण ठोस हो जाते होतुम अतीत में नहीं गिर सकते, तुम भविष्य को भी नहीं विचार सकते। यह क्षणही सब कुछ हो जाता है। और तब केवल तुम घातक के प्रति ही होश से नहींमरत्ते बल्कि तुम अपने प्रति भी सजग हो जाते ही जो कि मारे जाने वाला है। उस सूक्ष्म क्षण में तुम्हें अपने भीतर एक केन्द्र को प्रतीति होती है। इसीलिएखतरनाक खेलों के प्रति इतना आकर्षण है। पूछो किसी गौरीशंकर अथवा माउंट एवरेस्ट पर चढने वाले से। जब पहली बार हिलेरी वहाँ पहुँचा, तो उसे जरूरअपने भीतर एक केन्द्र का अनुभव हुआ होगा। और जज पहली दफा कोई चन्द्रमापर उतरा, तो अचानक एक गहरे केन्द्र की प्रतीति उसे अवश्य हुई होगी। इसीलिए खतरों का इतना आकर्षण है। तुम एक कार चला रहे हो और तुम उसकी स्पीडबढाते चले जाते हो और तब एक खतरनाक गति आ जाती है। तब तुम कुछभी नहीं सोच सकते, विचार रुक जाता है। उस खतरनाक क्षण में जब मौत कमीभी घटित हो सकती है तुम अपने भीतर एक केन्द्र का अनुभव करते ही। खतराआकर्षण का कारण है क्योंकि खतरे में कभी-कभी तुम्हें अपने भीतर उस केन्द्रको प्रतीति होती है। नीत्से ने कहीं पर कहा है कि युद्ध चलते ही रहने चाहिए क्योंकि केवलयुद्ध में ही कभी-कभी "स्वं" की प्रतीति होती है-केन्द्र की प्रतीति- क्योंकि युद्ध खतरनाक है। और जब मृत्यु एक सत्य बन जाती है तो जीवन मेँ सघनता आजाती है जब मृत्यु सामने ही हो तो जीवन सघन हो जाता हें और
तुम अपने केन्द्र पर होते हो। परन्तु किसी भी क्षण जब भी तुम अपने प्रति जागे हुए हो तो तुम केन्द्र पर होते हो। परन्तु यदि वह स्थिति पर निर्भर है तो जब वह स्थिति चलीआयेगी तो वह भी चला जायेगा। वह स्थितिजन्य नहीं होना चाहिए। वह आंतरिक ही हो। इसलिए सामान्य-से-सामान्य क्षण में भी सजग रहो। जब कुर्सी पर बैठो, तो भी इस बात का ध्यान रखो-बैठनेवाले के प्रति होश रहे। खाली कुर्सी का ही नहीं कमरे का ही नहीं-चारोंओर के वातावरण का ही नहीं, वरन बैठने वाले का भी ध्यान रहे। अपनी आँखेंबन्द कर लें और स्वयं को महसूस करें, गहरे उतर जायें और स्वयं को अनुभव करें। हेरीगेल एक जेन गुरु के पास ध्यान सीख रहा था। वह तीन वर्ष तक लगातार धनुर्विद्या सीखता रहा। और गुरु सदैव कहता रहा कि ठीक है, जो भी तुम कर रहे हो टीक है, परन्तु वह पर्याप्त नहीं है । हेरीगेल स्वयं एक बहुत अच्छा घनुविद हो गया। उसके सौ फीसदी निशाने ठीक लगते थे और फिर भी गुरु यही कहताकि तुम ठीक कर रहे हो, परन्तु इतना काफी नहीं है। "जब सौ प्रतिशत निशानेठीक लगते हैं तो इससे ज्यादा और क्या चाहिए? अब मैं आगे क्या करूँ? जबसौ प्रतिशत निशाने ठोक लगते हैं तो इससे आगे मुझसे क्या आशा की जा सकती है?" कहते हैं ज़ेन गुरु ने कहा, "मुझे तुम्हारे निशानों से अथवा तुम्हारी धनुर्विद्यासे कोईमतलब नहीं। मुझें तो तुम्हारे से मतलब है। तुम एक कुशल टेक्नीशियनबन गये हो । परन्तु जब तुम्हारा बाण धनुष से छूटता है तब तुम्हें अपना होश नहीं रहता। इसलिए यह बेकार है। तीर निशाने पर लगा या नहीं इस बात सेमेरा कोई संबंध नहीं है मेरा तो संबंध तुमसे है। जब तीर धनुष पर खिंचे तोतुम्हारे भीतर भी तुम्हारी चेतना का तीर खिंच जाये। और यदि तुम निशाना चुक भी जाते तो भी उससे कोई भेद नहीं पढ़ता। परन्तु तुम्हारा भीतरी निशाना नहींचूकना चाहिए और तुम वही चूक रहे हो। तुम एक कुशल धनुबिद हो गये हो, किन्तु तुम खाली नकल करने वाले ही हो।" परन्तु पश्चिमी चित्त में था आधुनिकमन में, (और पश्चिमी चित्त ही आधुनिक चित्त है) यह बात ख्याल में आना बहुत ही कठिन है। यह उसको बकवास लगेंगी। धनुर्विद्या का संबंध ही इस बातसे है कि निशाने बिल्कुल ठीक लगते हों और उसमें एक विशेष कुशलत्ता हो । धीरे-धीरे हैरीगेल हत्ताश हो गया, और एक दिन उसने कहा, "अब मैं छोड़कर जा रहा हूँ। यह तो असंभव मालूम पड़ता है। यह संभव नहीं जब तुमकिसी चीज पर निशाना लगा रहे हो, तो तुम्हारी चेतना उस बिन्दु पर चली जातीहै; उस चीज़ पर, और यदि तुम्हें एक सफल धनुर्धर बनना है तो तुम्हें अपनेकोबिल्कुलभूल ही जाना है। केवल निशाने को ही स्मरण रखना है, उस वस्तुको ही ख्याल रखना है और बाकी सब भूल जाता है। सिर्फ निशाना ही रह जाएपरन्तु जेन गुरु लगातार उसे भीतर भी एक निशाने का बिन्दु उत्पन्न करने के लिएकह रहा था। यह तीर दो-त्तरफा होना चाहिए-बाहर तो निशान के बिन्दु परलगा हुआ और भीतर भी सतत स्वयं की ओर सधा रहे, स्व की और। हेरीगेल ने कहा, "अब मैं जाऊंगा। यह मेरे लिए असंभव है। तुम्हारी शर्तपूरी नहीं हो सकती, और जिस दिन वह जाने वाला था वह सिर्फ बैठा हुआ था। वह गुरु से छुदृटी लेने आया था, और गुरु किसी दूसरे बिन्दु पर निशाना लगा रहा था। कोई और शिष्य सीख रहा था और पहली बार हेरीगेल स्वयं इसमेंसंलग्न नहीं था। वह तो सिर्फ छुट्टी मांगने आया था और वह चुपचाप खाली बैठा था। जैसे ही गुरु खाली होगा, वह छुट्टी लेगा और चला जाएगा। पहलीबार वह उसमें संलग्न नहीं था। तब अचानक उसे गुरु का ख्याल आया और उसकी दो-तरफा चेतना समझ में आई। गुरु निशाना लगा रहा था। तीन वर्ष तक वह उसी गुरु के पास था, परन्तु वह अपने ही प्रयास में लगा हुआ था। उसने इस आदमी को देखा ही नहीं था कि वह क्या कर रहा था। पहली बार उसने उसे देखा और उसे समझ में आया, और अचानक स्वयंस्फूर्त वह उठा बिना किसी प्रयत्न के, और मास्टर के पास गया। उसके हाथ से उसने धनुष लिया, निशाना साधा और तीर छोड़ दियागुरु ने कहा-"ठीक पहली बार तुमने ठीक किया है। मैं बहुत प्रसन्न हूँ।" क्या किया उसने? पहली बार वह अपने में केन्दित हुआ था। निशाने काबिन्दु था, परन्तु अब वह भी मौजूद था वहाँ। इसलिए जो भी तुम करो, चाहेकुछ भी करो - किसी धनुर्विद्या की जरूरत नहीं जो भी तुम कर रहे हो, जब खाली बैठे भी होचेतना का तीर दो-तरफा हो-डबल-एरोड। स्मरण रहे कि बाहरक्या हो रहा है और यह भी याद रहे, कि भीतर कौन है। लींची एक दिन सुबह प्रवचन कर रहा था कि किसी ने अचानक पूछ लिया- मेरे एक प्रश्न का उतर दो"मैं कौन हूँ?" लींची उठा और उस आदमी के पास गया। सारा हाल शान्त हो गया। वह क्या करने जा रहा था? यह एक साघारण-सा प्रश्न था। वह अपनी जगह से उतर दे सकता था। वह उस आदमी के पास पहुँचा। सारे हाल में स्तब्धता छा गई। लींची उस प्ररन पूछने वाले की आँखों में आ
ँखें डाल कर देखने लगा। वह एक बड़ा गहरा क्षण था। सब कुछ ठहरगया। प्रश्नकर्ता तो पसीने-पसीने हो गया। खींची उसकी आँखों में घूरकर देख रहा था। और तब लींची ने पूछा-"मुझसे मत पूछो कि मैं कौन हूँ? भीतर जाओ और खोजो उसको जो कि पूछ रहा है। कौन हैं भीतर ये-प्रश्न पूछने बालाइस प्रश्न का स्रोत ढूंढ़ निकालो। भीतर गहरे उत्तर जाओ। और ऐसा कहा जाता है कि उस आदमी ने अपनी आँखें बन्द कर लीं, मौनहो गया, और अचानक वह आत्म-ज्ञान को उपलब्ध हो गया। उसने अपनी आँखें खोली, हँसा और लींची के पैर छुए और कहा, "आपने मुझे उतर दे दिया। यहप्रश्न मैं बहुतों से पूछता रहा हूँ और बहुत से उतर मुझे दिए गये परन्तु कोई भी उत्तर सिद्ध साबित न हुआ। परन्तु आपने उत्तर दे दिया।" "मैं कौन हूँ?" कैसे कोई इसका उत्तर दे सकता है। परन्तु उस विशेष परिस्थितिमँ-एक हजार आदमी चुप बैठे हों, सुई गिरने को भी आवाज़ जहां सुनाईं पड़ जाये-लींची अपनी आँखों को गड़ा दे और फिर वह आज्ञा दे कि अपनी आँखों को बन्द-करो, भीतर जाओ और पता लगाओ कि यह प्रश्न पूछने वाला कौन है। उत्तर की प्रतीक्षा मत करो। पता लगाओ उसका जो कि पूछ रहा है। और उसआदमी ने आंखें बन्द कीं। क्या हुआ उस क्षण? वह केन्दित हो गया। अचानक वह केन्द्र पर पहुँच गया। अचानक वह अपने अंतरतम के आखिरी बिन्दु को इसे ही खोजना है। और सजगता का अर्थ होता है-वह विधि जिससे अन्तसके इस अन्तिम छोर को खोज लेना होता है। जितने तुम मूच्छित होते हो, उतने ही तुम स्वयं से दूर होते हो। जितने अधिक चेतन, उतने ही स्वयं के निकटयदि सजगता संपूर्ण हो जाये तो तुम अपने केन्द्र पर होते हो। यदि यह चेतना थोड़ी-सी होती है, तो तुम परिधि के पास ही होते हो। जब तुम मूच्छित होतेहो, तो तुम परिधि पर ही होते हो जहाँ कि केन्द्र बिल्कुल विस्मृत हो जाता। इसलिए ये दो संभव मार्ग हैं। तुम परिधि पर आ सकते हो, त्तब तुम मूच्छित होतेहो । कोई फिल्म देखते हुए, कहीं कोई संगीत सुनते हुए तुम अपने कोभूल सकते हो। तब तुम परिधि पर हो । मुझे सुनते वक्त भी तुम स्वयं को भूल सकते होतब फिर तुम परिधि पर हो । गीत्ता कुरान या बाइबिल पढ़ते समय भी तुम अपनेको विस्मृत कर सकते हो। तब तुम परिधि पर हो । जो कुछ भी तुम कर रहे हो, यदि तुम स्वयं के प्रति सजग रह सको, तोतुम केन्द्र के निकट हो। तब अचानक कभी भी तुम अपने केन्द्र को पा लोगे। तब तुम्हारे पास ऊर्जा होगी। वह ऊर्जा यह सूत्र कहता है कि, अग्नि है। सारा जीवन, यह सारा अस्तित्व ही ऊर्जा है। अग्नि पुराना नाम है। अब उसे विद्युत कहते हैं। आदमी बहुत-बहुत नामों से उसे पुकारता रहा है, किन्तु अनि अच्छा नाम है। विद्युत कहना कुछ मृत लगता है, अग्नि ज्यादा जीवन्त प्रतीत होता है। यह अंतरकी अग्नि, यह सूत्र कहता है कि यही धूप है। जब कोई पूजा करने के लिएजाता है तो वह अपने साथ धूप लेकर जाता है। वह धूप व्यर्थ है जब तक कितुम अपनी अन्तराग्नि को धूप की तरह नहीं लाये हो । यह उपनिषद बाहरी संकेतों को उनके पीछे छिपे हुए भीतरी अर्थ दे रहा हैं। प्रत्येक संकेत का भीतरी हिस्सा भी होता है। बाह्य भी अपने में ठीक है, किन्तु वह काफी नहीं है। और वह केवल प्रतीकात्मक है, वह वास्तविक बात नहीं हैं। वह कुछ संकेत करता है, परन्तु वह वास्तविक नहीं है। तुमने धूप देखीहोगी, वह सब जगह मन्दिरों में जल रही है। वह अपने आपमें ठीक है, परन्तु यह बाहरी संकेत मात्र है। एक भीतरी अग्नि चाहिए। और जैसे घूप सुगन्ध प्रदानकरती है उसी तरह आंतरिक अग्नि हमें वह सुगन्ध देती है। ऐसा कहते हैं कि जब महावीर चलते थे तो हर एक को एक सूक्ष्म सुगन्धसे उनकी उपस्थिति का अनुभव होत्ता था। ऐसा बहुत से लोगों के लिए कहा जाता हैं। यह संभव है। जितना अधिक तुम अपने भीतर केन्दित हो जाते हो उतनीही अधिक तुम्हारी उपस्थिति एक सुगंध बन जाती है। और जिनके पास भी ग्राहकताहोती है, उन्हें उसकी प्रतीति होती है। अतः मन्दिर में बाहरी धूप लेकर प्रवेशन करें, वरन आंतरिक धूप लेकर। और यह आंतरिक धूप केवल अवेयरनेस, केवलसजगता से ही उपलब्ध होती है। दूसरा कोई मार्ग नहीं है। जो भी करें होशपूर्वक करें। यह एक लम्बी और कठिन यात्रा है। और एकक्षण के लिए भी होश रखना बड़ा कठिन है। मन सत्तत्त चलता ही रहत्ता है। परन्तु यह असंभव नहीं है। यह अति कठिन है, बहुत श्रम चाहिए, परन्तु यह संभवहै। प्रत्येक के लिए यह संभव है। केवल श्रम चाहिए समग्र रूपेणा श्रम। कुछभी बाकी नहीं छूटना चाहिए, भीतरी कुछ भी अछूता नहीं छूटना चाहिए। सजगताके लिए हर चीज़ का बलिदान देना पड़ेगा। तभी केवल उस आंतरिक ज्योति को खोजा जा सकता है। वह वहाँ है। यदि कोई सब धर्मों में, जो कि हुए हैं औरजो कभी होंगे, एक अनिवार्य एकता को दूंढ़ना चाहत्ता ही तो यहशब्द सजगतासब में मिलेगा। जीसस एक कहानी कहते हैं। एक बड़े घर का मालिक बाहर गया औरउसने
अपने घर के सारे नौकरों को लगातार सजग रहने के लिए कहा- क्योंकिकिसी भी क्या वह वापस लौट सकता है। इसलिए चौबीस घंटे उन्हें सावघानरहना पड़ता है। किसी क्षण भी मालिक लौट सकता है। कोई क्षण, कोई भी दिननिश्चित नहीं है। यदि कोई तारीख तय हो, तो तुम सो सकते हो, तब तुम जोचाहो कर सकते हो, और तुम केवल उस निश्चित तारीख को ही सचेत रह सकतेहो, क्योंकि तब मालिक आ रहा होगा। परन्तु मालिक ने कहा है, मैं किसी भी क्षण आ सकता हूँ। रात और दिन तुम्हें मेरा स्वागत करने के लिए जागते हुएरहना है। यही जीवन को कहानी है। तुम स्थपित नहीं कर सकते। किसी भी क्षणपरमात्मा आ सकता है, किसी भी क्षण मालिक लौट सकता है। सतत सजग रहने की जरूरत है। कोई तिथि निश्चित नहीं है, कुछ भी पक्का पता नहीं है कि वहअचानक घटना कब घटित होगी। केवल इतना ही कोई कर सकता है कि सजगरहे और प्रतीक्षा करे। रवीन्द्रनाथ ने एक कविता लिखी है-दि किंग आँफ दि नाइट-रात का राजायह एक बहुत गहरी प्रतीकात्मक कहानी है। एक बहुत बड़ा मन्दिर था जिसमें कई सौ पुजारी थे। एक दिन मुख्य पुजारी ने सपना देखा कि दिव्य अतिथि उसरात्रि आने वाला है-वह दिव्य अतिथि जिसके लिए वे बहुत समय से प्रतीक्षा कर रहे है। शताब्दियों से सारा मन्दिर उस राजा के लिए प्रतीक्षा कर रहा है-उस दिव्य राजा के लिए। मन्दिर का देवता आने वाला है। बहुत से लोग हंसे कियह केवल सपना है, इसलिए इस पर ध्यान देने की ज़रूरतनहीं है। मुख्य पुजारीभी सन्देह से भरा आ, कि यह सपना ही तो है। और यदि यह केवल सपना हीसाबित हुआ, तो सब लोग उस पर हंसेंगे। परन्तु कौन जाने, सच ही हो । यहसूचना सच ही निकल जाये। मुख्य पुजारी सोच में पड़ गया उसी दिन कि किसी को कहा जाये या नहीं। लेकिन फिर डर भी गया यह सच भी हो सकता है। त्तब दोपहर में उसने यहबात कह दी। उसने सारे पुजारियों को इकट्ठा किया, मन्दिर के सारे दरवाजे बन्दकिये और उसने कहा कि बाहर मत जाना और न ही किसी और से कुछ कहनायह केवल सपना भी हो सकता है, कौन जाने। परन्तु मैंने सपना देखा है, औरसपना इतना वास्तविक था। सपने में मन्दिर के देवता वे मुझे कहा था कि मैं आज रात आ रहा हूँ। तैयार रहना। इसलिए हमें सचेत रहना है। आज की रात हमसो नहीं सकते। अतः उन्होंने सारे मन्दिर को सजाया, उन्होंने सारे मन्दिर को धोया. साफकिया, और उन्होंने अतिथि के स्वागत के लिए सारी तैयारियाँ की। और त्तब वे प्रतीक्षा करने लगे। तब धीरे-धीरे सन्देह पैदा होने लगा। फिर किसी ने कहा-यह सब व्यर्थ ही बात है। आधी रात बीत गई, तब और भी सन्देह बढ़ने लगा। तब किसी ने विद्रोह से भरकर कहा, मैं तो सोने जा रहा हूँ। "यह मूर्खता है, सारादिन व्यर्थ गया और अभी भी हम प्रतीक्षा कर रहे हैं। कोई आने वाला नहीं है। तब बहुत-से-लोगों ने उसका साथ दिया । तब मुख्य पुजारी भी झुक गयाऔर उसने कहा, हो सकता है कि वह मात्र सपना ही हो। मैं कैसे कह सकता हूँ कि वह सच था? हो सकता है हम मूर्खता की बात कर रहे हो कि एक सपने की बात के पीछे चल रहे हैं। अतः उन्होंने कहा कि सिर्फ द्वार पर जोआदमी है वह जगा रहे बाकी सब सो जायें। यदि कोई आता है तो वह हमेंखबर कर देगा। निन्यानबे पुजारी सो गये और जो पुजारी इस काम के लिए नियुक्त किया गया था उसने कहा, जब निन्यानबे ऐसा सोचते हैं कि सपना था तो फिर मैं अपनीनींद खराब क्यों करूं? और यदि दिव्य अतिथि को आना ही हो तो आये। वहतो बहुत बडे रथ पर सवार होकर आयेगा, अतः उसका तो काफी शोरगुल होगाऔर सब लोग जान जायेंगे। उसने द्वार बन्द किया और वह भी सो गया। तब रथ आया और रथ के पहियों की भारी आवाज हुई। तब कोई जो नींद में था बोला, लगता है कि राजाआ गया है। ऐसा प्रतीत होता है कि रथ के पहिये भारी शोर मचा रहे हैं। कोईदूसरा जो कि सोने की तैयारी कर रहा था, उसने कहा, समय बर्बाद न करो, सो जाओ। कोई आने वाला नहीं है। यह रथ नहीं है। ये तो आकाश में धिरे बादल-है। और फिर दिव्य अतिथि द्वार पर आया और उसने दरवाजे पर दस्तक दी। फिर किसी ने नींद में ही कहा कि ऐसा लगता है कि कोई आया है और द्वार पर दस्तक दे रहा है। तब मुख्य पुजारी ने कहा कि अब सो जाओ, यारबार नींद खराब मत करो। कोई दरवाजे पर दस्तक नहीं दे रहा है, यह तो केवलहवा है । सवेरे वे लोग रो रहे ये और चिल्ला रहे थे क्योंकि रात को रथ आया था। सड़क पर उसके चिह्नथे और दिव्य अतिथि द्वार तक आया था और उसने दस्तक दी थी। धूल पर निशान बने हुए थे और सीढियों पर उसके चिह्न थे। ऐसी कितनी ही कहानियां हैं। महावीर और बुद्ध ने कितनी ही कहानियाँकही है जिसमें उन्होंने बतलाया है कि आत्म-ज्ञान कभी भी और किसी भी क्षण हो सकता हैं। यह संभव है। इसलिए बहुत सावघान सचेत और सजग रहने की आवश्यकता है। यह रात के राजा की कहानी मात्र कहानी नहीं है। यह सच है हम सभी चीजों कोइसी तरह लेते रहते हैं। और जितने भी अर
्थ हम निकालते हैं वे सभी हमारी नींद से आते हैं और नींद में ले जाने वाले होते हैं। हम कहतेहैं, यह कुछ नहीं है, सिर्फ हवा का झोंका ही है। हम कहते हैं कि वहां कुछनहीं है सिर्फ बादल की गड़गड़ाहट है। तब हम आराम से सो सकते हैं। हमधर्म को मना करते चले जाते हैं, हम उन सभी चीजों को जो कि हमारी नींद तोड़ती है, मना करते चले जाते हैं। हम तर्क करते हैं कि कोई परमात्मा नहींहै, कि कोई धर्म नहीं है कि कुछ भी नहीं है, सिर्फ हवा है, सिर्फ बादल हैतब हम बड़े मजे से सो सकते हैं। यदि परमात्मा है, यदि दिव्यता है, यदि हमसे कुछ भी उच्चतर की संभावना है तो फिर हम आराम से नहींसो सकते। त्तब हमें सजग होना पड़ेगा। जगानापड़ेगा और संघर्ष व श्रम करना पड़ेगा। तब फिर रूपान्तरण हमारी चिंता का कारणबन जाता है। सजगता ही विधि है अपने को केन्दित करने के लिए-आंतरिक अग्नि को उपलब्धि के लिए। वह वहाँ छिपी है, उसे खोजा जा सकता है। और एक जारउसे खोजने के बाद ही हम प्रभु के मन्दिर में प्रवेश कर सकते है-उसके पहलेनहीं। पहले कभी भी नहीं। परन्तु, हम अपने कोप्रतीकों से धोखा दे सकते हैं। प्रतीक हमें गहरी वास्तविकता की और इशारा करने के लिए किन्तु हम चाहें तो उनका प्रवंचनाकी तरह उपयोग कर सकते है। हम बाहरी धूप जला सकते हैं, हम बाहरी चीजोंसे पूजा कर सकते हैं, और तब हम मजे से कह सकते हैं कि हमने कुछ किया है। हम अपने को धार्मिक समझ सकते हैं बिना जरा भी धार्मिक हुए। यही हो रहा है। ऐसी ही तो मानवता हो गई है। प्रत्येक यही समझता है कि वह बड़ा घार्मिक है क्योंकि वे बाहरी प्रतीकों कोमान रहे हैं, बिना किसी आंतरिक अग्नि के। प्रयत्न करते रहें। सफल न हों तब भी । शुरू-शुरू में ऐसा होगा । तुम बार-बार असफल हो जाओगे। परन्तु तुम्हारी असफलता भी मदद करेमी । जब तुम्हेंपता चलेगा कि तुम एक क्षण के लिए भी सजग नहीं हो सकते, तब तुम्हें पहलीबार मालूम पड़ेगा कि तुम कितने मूच्छित हो । सड़क पर चलो और तुम कुछ कदम भी होशपूर्वक नहीं चल सकते। बार-बार तुम अपने को भूल जाते हो। तुम रास्ते पर लगे एक विज्ञापन कोपढ़ने लगतेहोऔर तुम अपने को भूल जाते को। कोई निकट से गुजरेगा और तुम उसे देखनेलगोगे, स्वयं को भूल जाओगे। तुम्हारी असफलताएं भी सहायक होंगी। वे तुम्हें बतलाएंगी कि तुम कितने मूच्छित हो। और यदि तुम इतना भी जान सको कि तुम मूच्छित हो तो भी तुमनेथोड़ी सजगता तोपा ली। यदि कोई पागल इतना भी जान ले कि वह पागल है तो वह ठीक होनेके मार्ग पर चल पड़ा।
श्यामलाल एक क्षण ठिठके, फिर नाले में उतर पड़े। नाले में कीचड़ नहीं था; उसमें सूखी पत्तियाँ, अद्धे, गुम्मे, चीथड़े और एक खास तरह की धूल थी जो मोहल्ले के लोगों ने अपने-अपने घरों से बुहार कर सरकारी नाली में धकेल दी थी। पायँचे चढ़ा कर, दामन समेट कर वह उठकुरवाँ बैठ गए और पुलिया के नीचे झाँकने के लिए अपना सिर नाले की उसी अज्ञात गन्दगी के इतने करीब ले आए कि विनम्रता का एक बिल्कुल नया उनुभव उन्हें हुआ। पुलिया का मोखा जितना चौड़ा नगरपालिका ने बनवाया था उतना नहीं रह गया था - कचरे ने स्वाभाविक रूप से उसमें घर कर लिया था और सिर्फ एक छोटा-सा छेद रह गया था जिसके भीतर श्यामलालजी को अँधेरा ही दिखाई दिया, क्योंकि पुलिया का दूसरा छोर तो कचरे से बिल्कुल ही ताया हुआ था। वह अपनी बिल्ली को खोज रहे थे। इतवार का दिन था। जरा देर में पटरी पर चार-छह लड़के जमा हो गए। श्यामलाल के दो लड़के जो अपने बाप को देखते खड़े थे, इसी भीड़ में मिल गए था। गए थे। एक-एक कर कई चकित सम्भ्रान्त अधेड़ लोग तरकारी का झोला लिए चकित-से उनके पास से गुजर गए : एक नौजवान, जिसका स्वास्थ्य आतंककारी और चेहरा विज्ञापनों जैसा था, अधिकारपूर्वक पास आ कर खड़ा हो गया। श्यामलाल को रँगे हाथों पकड़ने की नीयत जैसा कुछ दिखा कर उसने पूछा, क्या है? श्यामलालजी ने कहा, "बिल्ली है।" "आप की बिल्ली है?" नौजवान ने पूछा। उत्तर प्रदेश के निवासी श्यामलाल को पंजाबी लहजे में सवाल सुन कर लगा कि 'आपकी' पर इतना जोर दिया गया है कि जैसे बिल्ली का किसी-न-किसी का होना तय हो और सवाल इतना ही रह गया हो कि वाकई आप की है या किसी और की? सच पूछिए तो सवाल का इतना बारीक अर्थ न था। पंजाब में पूछा ही ऐसे जाता है और उसमें भ्रम भी ऐसा ही होता है। जैसे पूछा जाए कि "सात बजे हैं?" तो सुनाई पड़ेगा कि क्या कहते हो। अभी सात कहाँ से बज गए? श्यामलाल ने कहा, "जी हाँ, मेरी बिल्ली है।" "पुलिया के नीचे चली गई है?" श्यामलाल ने कोई जवाब न दिया। वह पंजाब के धाकड़पन से ही नहीं, विज्ञापनी चेहरेवाली कुल नई पीढ़ी के ठसपने से भी एक साथ जूझने की हिम्मत न कर सके। उन्होंने और भी झुक कर मानो नाक रगड़ते हुए कोशिश की कि पुलिया के भीतर अँधेरे में बिल्ली की चमकती आँखें दिख जाएँ और आवाज दी, "मुनमुन, मुनमुन !" नौजवान ने सोचा होगा, मुझे यकीन दिलाने के लिए बिल्ली का नाम ले कर पुकार रहे हैं। परन्तु यह सोचना भी एक निर्दय व्यंग्य होता। मुनमुन श्यामलाल से ऐसे डरती थी जैसे कुत्ते से भी न डरती होगी। वह उन्हें देखते ही भागती। मगर इस वक्त श्यामलाल ने न जाने क्यों मान लिया था कि यह रिश्ता टूट गया है। वह एक संकट में थे और उन्हें विश्वास था कि बिल्ली भी एक संकट में है। नौजवान ने एक दोस्त और बुला लिया था। अबकी उसने पूछा, "यह बाहर क्यों नहीं निकल रही?" श्यामलाल को अचानक दो चमकती हरी बिंदियाँ दिखाई दे गईं। मुनमुन की आँखों के अलावा वे और क्या हो सकती थीं? मुनमुन ऐसे देखती थी जैसे कोई बहुत गम्भीर व्यक्ति हो जबकि थी वह अपनी उम्र के हिसाब से भी अधिक गावदू। वही उजबक आँखें थीं। जरा देर में उसका सफेद थूथन भी नजर आने लगा। पर उस चेहरे पर इस वक्त वह भय न था जिसे देखने के श्यामलाल आदी थे। उस पर भरोसा था कि मैं जब तक यहाँ से न निकलूँ, सुरक्षित हूँ। जानवर इससे आगे सोच नहीं पा रहा था - कि जब कभी निकलेगी तो क्या होगा! एकाएक श्यामलाल को इतना गुस्सा आया कि उन्होंने जवाब दिया, "जब बाहर निकलेगी तो पूछ कर आपको बताऊँगा।" यह कहते ही उन्हें चेत हुआ कि उन्होंने अपने आपको उस लड़के के बराबर गिरा लिया है। इस बेवकूफ अमीर का तिरस्कार करने के लिए मुझे यह भी मंजूर है, उन्होंने सोचा। लड़के का दोस्त मामूली हैसियत का आदमी था। खुशामदाना तौर पर अपने दोस्त की आड़ करते हुए उसने पूछा, "बताती है?" श्यामलाल इतने उम्दा आदमी थे कि उन्हें तुर्की-बतुर्की नागवार न गुजरी। मगर वह इतने उथले न थे कि हर ऐसे मजाक को पसन्द करें जिसमें कोई हमदर्दी न हो। ज्यादातर मजाक आजकल इसी किस्म के होते हैं, उन्होंने अपने मन में कहा, और यह भी मेरे जैसे आदमियों के लिए आसान नहीं रह गया है कि मैं हँस सकूँ। यह खयाल आते ही वह चौकन्ने हो गए। वह अपने पर तरस खा रहे थे जो कि उन्होंने जवानी से ले कर अब तक सचेत रह कर अपने को नहीं करने दिया था। कुछ दिनों से वह देखते आ रहे थे कि वह बदल रहे हैं; चालीस पार करते-करते आदमी का गैर-मामूलीपन खत्म होने लगता है, यह उन्होंने सुन रखा था। वह अपने अन्दर ऐसा न होने देंगे। यह उनका दृढ़ निश्चय था। मगर कुछ ऐसा तो हो ही रहा था। जैसे उन्हें जानवर से प्यार हो चला था जो इस उम्र में बहुतों को अक्सर होता है। वह जानते थे कि यह उनके और उनकी पत्नी के जिन्दगी से थक चले होने का एक नतीजा है। मगर वह यह सोच कर खुश होते थे कि उनके बच्
चे जो कि वास्तव में जानवर को पालने के लिए घर लाए थे, औरों से अच्छे इंसान बनेंगे। सिर्फ उस वक्त जब उन्हें खबरों से राजनीति की निर्दयता का क्षणिक अनुभव होता वह यह सोच कर सहम जाते कि उनके बच्चे अपने प्यार-भरे दिल से, जो उन्हें जानवर की बदौलत मिलेगा, कैसे आनेवाले हकिमों का सामना करेंगे? स्वार्थ के कारण जवानी के प्रेम-व्यापारों में उन्होंने गच्चा खाया था। वही स्वार्थभाव वह अब अपने जानवर पर थोप रहे हों तो क्या अजब है! पर उनके मन को तो इसका पता भी न था - और जानवर को पता चला भी हो तो वह कर ही क्या सकता था। हाँ, बिल्ली की बात थोड़ी-सी और थी। वह आदमी को उतने ही पास आने देती है जितनी उसे जरूरत हो और कुत्ते की तरह आदमी की खुदगर्जी का शिकार बनने के लिए अपने को समर्पित नहीं करती। मुनमुन की माँ ने जब छह महीने हुए तीन बच्चे दिए थे तो घर के मानवों को एक नई परिस्थिति का अनुभव हुआ था। टीना अपने बच्चों की सुरक्षा का अपना जंगली तरीका अपनाना चाहती थी जिसे सात घर दिखाने का नाम मनुष्यों ने दिया है, मगर वह भी इतनी आश्रित हो चुकी थी कि उसके लिए सात घर का मतलब हो गया था श्यामलाल के ही घर में सात जगह। और इसका मतलब था कि बच्चों को बिलौटे से बचाने में हर आदमी को बिल्ली की मदद करनी थी। श्यामलाल के बच्चे और उनकी माँ बिल्ली के बच्चों को अलमारी में, बंद कमरे में, गोद में, बिस्तर में रह कर अपनी समझ से बिल्ली के पक्ष में अपना काम करते रहे, मगर बिल्ली के तरीकों और उनके तरीकों में लगातार एक मतभेद चलता रहा। जिसे वे सुरक्षित समझते, टीना उसे सूँघ कर नामंजूर कर देती और जिस जगह को वे बिलौटे के लिए सबसे अधिक सुगम समझते टीना उसे पसन्द करके, खँखोड़ कर उसकी शक्ल इस तरह बदलने की जिद पकड़ लेती कि जिससे वह उसे काफी प्राकृतिक मालूम हो सके। यह किस्सा चलता रहा। गर्मियों की रात में जब सारा घर बाहर सो रहा था, बिलौटे ने रोशनदान से घुस कर एक बच्चे को खत्म कर दिया। टीना की हिंसक फुँफकार से जग कर जब सारा घर भीतर आया तो लाश जमीन पर पड़ी थी और कमरा टीना और बिलौटे के पेशाब की बदबू से भरा हुआ था जो क्रोध के क्षणों में हो गया था। कुछ दिन बाद एक और बच्चे को बिलौटे ने गुसलखाने की ठंड में आराम करती माँ को लड़ने का मौका दिए बिना बिल्कुल उसके सामने खत्म किया। इस बार बच्चे को वे लोग उठा कर लाए तो उसमें जान थी। श्यामलाल की बड़ी लड़की उसे अस्पताल ले गई। शरीर पर कहीं खून न था। मगर उसकी नट्टी बिलौटे ने भीतर-ही-भीतर कुरमुरा दी थी। अस्पताल में उसने वह सब दूध और ब्रांडी उगल दी जो घर पर बच्चों ने उसे बचाने की कोशिश में पिलाई थी और मर गया। तब सारी गर्मियाँ श्यामलाल मुनमुन को बन्द टोकरी में सिरहाने रख कर सोए और सारा घर टीना से एक नई किस्म का संवाद सीखने में लगा रहा, क्योंकि टीना जब उसकी अक्ल में आता मुनमुन की टोकरी में घुस जाना चाहती और जब मन होता उसमें से निकल आना चाहती - उसको चुपचाप बैठने का हुक्म देना बेकार था - रात में कई बार उसके लिए जागना हर एक को बिलौटे के खिलाफ कार्रवाई की खातिर इतना जरूरी मालूम होने लगा कि जैसे वे सब बिल्लियाँ हों। श्यामलाल ने छेद में हाथ डाल कर मुनमुन को पकड़ने का इरादा किया। भीतर कोई कनखजूरा या बिच्छू हो सकता था, उन्होंने डर और इंसानियत के विरोधी भावों का यह अजब मिला-जुला अनुभव किया। फिर उन्होंने ऊपर देखा। वह ठस दिमाग आदमी मय अपने खुशामदी साहब के जा चुका था - छोकरे भी। सिर्फ उनके अपने दो लड़के थे। उनका तनाव जाता रहा। यदि उन पर कुछ बुरी गुजरे तो वह तमाशा तो न बनेंगे। उन्होंने निर्मल मन से हाथ भीतर कर दिया। भीतर की ठंडी नम जमीन, जो छूने से ही साफ मालूम होती थी, उनकी हथेली से लगी। तत्काल उस मिट्टी की खुशबू उन्हें आने लगी। "मुनमुन, मुनमुन," उन्होंने आवाज दी। वह अब इस तरह बैठे थे कि भीतर झाँक नहीं सकते थे, मगर समझ सकते थे कि मुनमुन उनके हाथ की पहुँच से काफी दूर है। एकाएक उन्हें गोगी की महीन आवाज सुनाई दी। वह टीना के तीन नए बच्चों में से एक और सबसे दलिद्दर थी। आवाज के सहारे उनके हाथ ने गोगी को दबोच लिया और वह लटके हुए चारों पंजों को फैलाए और उनके नाखून निकाले गर्दन से टँगी हुई बाहर आ गई। लड़कों ने चिन्ता से कुछ कहा, मगर वह आवाज उस सड़क के यातायात की तरह स्वाभाविक थी जो कि श्यामलाल से कुछ दूर थी और ज्यादा चल नहीं रही थी। वह मुड़े और उन्होंने लड़कों से एक वाक्य कहा जो कि न उपदेश था, न आदेश, वह बराबर के लोगों से बोला गया एक वाक्य था : "मुश्तू और टीमा और टीना भी इसी सुरंग में होंगे," जो कि लड़के उनसे पहले ही समझ चुके थे। मुनमुन के होने के पाँच महीने बाद टीना ने तीन बच्चे और पैदा किए थे। इस बार ये तीनों आजादी से पले और बढ़े। बिलौटा कहीं दिखाई न देता था। एक मत यह था कि वह पालतू था और अपने
मालिक के मद्रास तबादले के साथ वहीं चला गया है। टीना बच्चों को बहुत थोड़ी देर के लिए अकेला छोड़ती, जबकि उन्हें इतनी पहरेदारी की जरूरत न रह गई थी। वह सोती भी बहुत, और अपनी पहलौठी की मुनमुन को जो कि कद में लगभग उसके जितनी हो चली थी, अपना दूध बाकी तीनों के साथ पीने देती। मुनमुन टीना की गैरहाजिरी में चुपचाप आ कर बच्चों को इस तरह सूँघती जैसे वे कोई नई और विचित्र चीजें हों। एक दिन उसने उन्हें चाटना भी शुरू कर दिया और जब वह कूदने-फाँदनेवाले हुए तो उन्हें अपनी दुम भी खेलने को देने लगी। ये तीनों माँ की तरह काले और सफेद थे, मुनमुन की तरह भूरेमायल नहीं। वे इतने सुन्दर और मुलायम भी नहीं थे। मुनमुन दिन-ब-दिन खिलौने की तरह खूबसूरत और साथ ही जाहिल बनती जा रही थी। उसने एक मरतबा एक ही दिन में तीन बार घर के तीन कोनों में गंदगी करके रख दी। श्यामलाल ने सोचा, इसे सजा की जरूरत है। उन्होंने कहीं पढ़ रखा था कि बिल्ली कितने ऊँचे से भी क्यों न गिरे जमीन पर आते-आते अपनी मांसपेशियों को इस तरह ढील दे देती है कि पंजों के बल सुरक्षित ही गिरे। उन्होंने अपना गुस्सा तौला और ठंडे दिमाग से मुनमुन को उठा कर उसी के हगे के सामने पटक दिया। वह पंजों के ही बल गिरी : श्यामलाल आश्वस्त हुए कि यह सजा सफल होगी। मुनमुन सीधे घर से बाहर भागी और रात-भर नहीं आई। सवेरे वह लौटी तो पिछली दाहिनी टाँग जमीन पर रख नहीं पा रही थी। श्यामलाल के बच्चे फिर अस्पताल गए। टाँग की हड्डी बच गई थी, मगर वे तन्तु जिनके बारे में श्यामलाल ने पढ़ रखा था टूट गए थे। लम्बे इलाज के बाद वह जिस दिन पहली बार फिर से पेड़ पर चढ़ी, श्यामलाल ने उसे फिर प्यार करना चाहा। वह पकड़ में तो आ गई क्योंकि उसकी टाँग हमेशा के लिए कमजोर हो गई थी, मगर उसने प्यार ऐसे कबूल किया जैसे वह बनी ही इसलिए है और कोई एहसान नहीं मान रही है। इसके बाद वह और भी प्यारपसन्द और आरामतलब हो गई। उसने कभी न कोई चिड़िया पकड़ी, न चूहा। अधिक-से-अधिक तितली को देख कर वह उठ बैठती और कान खड़े करके अपनी नजर से उसका पीछा करती रहती। एक ही और काम था जिसमें वह फुर्ती दिखलाती थी। जैसे ही तीनों बच्चे टीना का दूध पीने जुटते, वह भी दौड़ी हुई आती और ठेलठाल कर अपने मुँह के लिए उनके बीच में जगह बना लेती। उस वक्त घर के सब लोगों को उसकी चाल पर राय देने का मौका मिलता - "मैंने देखा कि टाँग चला रही है," कोई कहता। कोई कहता, "नहीं, अभी थोड़ा-सा-बस थोड़ा सा जमीन पर छुआती है।" न जाने किस तरह वह बहस अपनी शक्ल बदलने लगी और विषय यह हो गया कि आखिर कब तक टीना और उसके बच्चे घर में पलते रहेंगे? कोई साफ-साफ यह नहीं कहता था कि इन्हें हम नहीं रखना चाहते। यह कहना कि इनके खाने पर बहुत खर्च हो रहा है, और भी अप्रिय सत्य था। टीना रहेगी, यह भी बिल्कुल निर्विवाद था। प्रश्न इतना ही था कि इन बच्चों को कोई पालने के लिए माँग क्यों नहीं ले जा रहा है। एक अजब इंसानी तर्क से श्यामलाल सोच रहे थे कि अगर ये इतने बड़े न होने पाएँ कि टीना के लिए इनसे बिछ़ड़ना बहुत दुखद हो जाए तो इन्हें किसी को दे दिया जा सकता है। इतने बड़े वह किस वक्त तक होंगे, यह जानने का कोई वैज्ञानिक आधार उनके पास न था। बस उन्होंने मान लिया था कि ऐसा कोई वक्त होता होगा। जहाँ तक टीना का सवाल था वह इतना ही जानती थी कि तीनों बच्चे इस बार बिलौटे से बच गए हैं और जिस घर में वह रहती है उसमें ये भी रह रहे हैं। एक दिन श्यामलाल ने अपने बच्चों को समझाया कि जानवर बहुत समय तक अपने बच्चों को आदमियों की तरह माँ पर निर्भर नहीं रखते, वे उन्हें आत्मनिर्भर बनने को छोड़ दिया करते हैं। बच्चों ने पूछा, "मगर मुनमुन क्यों अब तक माँ का दूध पीती है?" और यह प्रसंग वहीं समाप्त हो गया। पिछले तीन दिन से श्यामलाल के दिमाग में कई तर्क उपज रहे थे जैसे यह कि प्रकृति जानवरों की संख्या का नियन्त्रण करती है... वह नवजात शिशुओं की मृत्यु का प्रबन्ध कर देती है नहीं तो दुनिया साँपों और घड़ियालों से भर जाए... जानवर को पल कर उसे पराधीन बना देना कितना निर्दय है... उसे अपनी आजादी का कुछ हिस्सा अपने पास रखने देना चाहिए... इसके पहले कि वह बिल्कुल असहाय हो जाए उसे स्वतन्त्र कर देना चाहिए। अन्त में वह किसी नतीजे पर न आते। किसी ने जब यह सुझाव दिया कि जानवर पालने के तरीकों के अनुसार बिल्ली के फालतू बच्चों को पैदा होते ही बाल्टी में डुबो कर खत्म कर दिया जाता है तो सारे घर ने इसका घोर विरोध किया और श्यामलाल सोचने लगे कि क्या इंसान के दिमाग ने बस इतनी ही तरक्की की है जो इतना सीधा और ठोस तरीका निकाला? उन्हें एकाएक सूझा कि तीनों बच्चों को सिखाना चाहिए कि आदमी से वे सिर्फ एक हद तक रिश्ता रखें। जैसे वे रहें बाहर और घर में जितनी बार चाहें आ जाया करें। क्षण-भर के लिए इस खयाल में छिपी हुई चालाक
ी भी उन्हें दिखाई दे गई। यह प्रमाण था कि वह चालीस पार करने पर भी अपने को ईमानदारी से समझना भूले नहीं हैं। मगर मूलतः यह एक सही विचार है, उन्होंने सोचा और सीधे इस नतीजे पर आ गए कि अगर इससे मेरा जाती फायदा हो भी जाए तो भी मूलतः यह जानवर के हित में होगा। वह दरअसल चालीस के हो चुके थे। उस रात को वह मुनमुन को गोद में ले कर घर से सौ गज दूर गए। इससे ज्यादा उनकी हिम्मत न पड़ी। लँगड़ी बिल्ली को उन्होंने वहीं छोड़ दिया और वह दुम दबा कर सर्र से सबसे नजदीक की झाड़ी में गायब हो गई। आधी रात को काँपती हुई वह खिड़की से घर में दाखिल हुई। उसकी आलसी आदतों को जो जानते थे उन्हें खिड़की के जँगले से गुजरने की उसकी कोशिश देख कर इस मुसीबत में भी हँसी आती। वह घर तो आ गई थी मगर हक्की-बक्की रह गई थी। जैसे यह भाव उसके चेहरे पर छप गया और फिर जब कभी वह सामने आ पड़ती उसका हक्का-बक्कापन ही दिखाई देता। धीरे-धीरे वह अच्छा लगने लगा और घर-भर ने उसे उसकी सुन्दरता की पहचान बना लिया। अपने प्रयोग की प्रौढ़ बुद्धि से संतुष्ट होक दूसरे दिन शाम होने पर श्यामलाल अपने बच्चों से बोले, "इन तीनों को हम ले चलें और घर के सामनेवाले मैदान में छोड़ दें। यह अपने आप वापस आ जाएँगे।" बच्चे उन्हें मैदान में खेलते हुए देखने की कल्पना कर खुश हुए - उन्हें घर में ही देखते-देखते वे ऊबे जा रहे थे। वे बिलौटे को भूल चुके थे। "मगर चिट्टी के घर के सामने मत छोड़िएगा, उससे हमारी बोलचाल बन्द है," उन्होंने कहा। श्यामलालजी ने और रात होने का इंतजार किया। उन्होंने अपने को भरोसा दिलाया कि चाँदनी है, इससे जो वह करने जा रहे हैं उसमें जानवर के लिए खतरा कुछ कम हो जाता है। वह तीनों को उठा कर ले गए और सूने मैदान में उन्हें गोद से उतार दिया। मुनमुन को उन्होंने जहाँ अकेले रहने की शिक्षा दी थी, वहाँ से यह जगह उनके घर के और नजदीक थी। तब वह वहाँ से ले कर अपने घर तक चहलकदमी करने लगे। दो-तीन फेरियों तक तो उन्हें बच्चों की चीं-चीं सुनाई देती रही, उसके बाद आवाजें बन्द हो गईं। वह अगली फेरी में बच्चों के और नजदीक तक गए। दो बच्चे एक घर के बरामदे की सीढ़ियों पर गुमसुम बैठे थे, एक का पता न था। सवेरे आएगा वह भी, उन्होंने कहा और घर लौट आए। हस्बमामूल सब के सो जाने का इंतजार करते रहे, क्योंकि उनको कुछ देर अकेले जाग कर सोने की आदत थी। पर जब नींद के ठीक पहले का शून्य उनको हँस-हँस कर डुबोने लगा तो वह चौंक कर उठ बैठे और उन्होंने बच्चों को एक बार फिर देख आने का निश्चय किया। उन्होंने हर मकान के बरामदे में झाँकना शुरू किया। जाड़ा पड़ने लगा था, लोग अन्दर सो रहे थे। कोई भी जाग पड़ता तो जवाबतलब करता। वह दबे पाँव हर बरामदे में एक कदम रख कर निगाहें चारों और दौड़ाते और वही एक कदम दबे पाँव वापस ला कर अगले मकान को चल देते। आखिरकार एक बरामदे में दो बच्चे मिल गए। दोनों गहरी नींद में सिकुड़े एक-दूसरे से पैबस्त पड़े थे। उन्होंने चार कदम और बढ़ कर उन्हें उठा लिया - चाहे कोई जाग ही जाए। लौटते हुए उन्हें कहीं से तीसरे की डरी हुई धीमी-धीमी चीं-चीं सुनाई दी। इस बार सहज भाव से वह दूसरी मंजिल के एक मकान की सीढ़ियाँ चढ़ते चले गए और पहले बरामदे में उन्हें तीसरा बच्चा भी मिल गया। घर वापस आ कर वह लेटे और फौरन सो गए। अगले दिन इतवार था। उठते ही श्यामलाल के बच्चों ने टीना के पास जा कर उसके बच्चों को देखा। जब उन्हें बताया गया कि ये तीनों अपने आप नहीं आए, इन्हें लाया गया था तो उन्होंने कहा तो कुछ नहीं, मगर श्यामलाल को मालूम हो गया कि उन पर सब का विश्वास कुछ कम हो गया है। उनको कुछ बहुत दुख न हुआ। वह जानते थे कि उन्हें अपने स्वभाव की यह कीमत चुकानी ही पड़ती है। वह कोई गलत काम नहीं कर रहे थे, कोई निर्दयता, कोई क्षुद्रता नहीं कर रहे थे - वह सिर्फ एक निर्भीक प्रयोग कर रहे थे जिसमें जोखिम था तो, पर नपा-तुला। वह चाहते थे कि उन्हें बस एक और मौका दिया जाए जैसा जिन्दगी में हर बार वह उनसे माँगते आए थे जिन्होंने उन्हें प्यार दिया था। और फिर सबकी सहमति ले कर जो किसी ने उन्हें खुलेआम नहीं दी, उन्होंने बिल्ली के परिवार को एक-एक करके अपनी खचड़ा मोटरकार में भर लिया। यह निहायत मुश्किल काम था। टीना ने और उसके हर बच्चे ने विरोध किया। श्यामलाल के बच्चे पहले तो सकपकाए खड़े देखते रहे, फिर उन्होंने बिल्लियों की गिरफ्तारी में मदद की जिससे बिल्लियों को तकलीफ न हो और एक ने कहा कि आप वहाँ किसी को पटक मत दीजिएगा। जब कार चली तो टीना घबरा कर इस गद्दी से उस पर टहलने और अपने बच्चों को उसी तरह बुलाने लगी जैसे दूध पिलाने के लिए बुलाती थी। शायद वह कोई और आवाज थी जिसकी ममता में दूध पिलाने को बुलानेवाली पुकार से सूक्ष्म भेद था। श्यामलाल बाजार को मुड़नेवाली सड़क छोड़ कर सीधे बढ़ते गए। इतना घर से बहुत
दूर होगा, उन्होंने सोचा और लौट पड़े। एक जगह और रुके, पर वह भी उन्हें घर से बहुत दूर जान पड़ी। सब निर्णय उन्हीं के थे और उन्हें संतोष न मिल रहा था। आखिर बाजारवाले मोड़ पर आ कर उन्होंने सड़क के एक किनारे एक भलेमानस आदमी को पेड़ के नीचे सुस्ताते देखा। यहीं ठीक है। आदमी ने गाड़ी रुकते और बिल्लियों को दरवाजे से कूद कर बाहर आते देखा और वैसे ही बैठा रहा। मगर श्यामलाल जो कर रहे थे उसमें उसे चुपचाप अपना साझी मान चुके थे। टीना सड़क पर आते ही चारों ओर देख कर चौकन्नी हुई। फिर कान खड़े करके और दुम दबा कर सीधे सड़क के उस पार भागी। मुनमुन उसके पीछे-पीछे दौड़ गई और दोनों सड़क के पार की पटरी पर बैठ कर एक बार इधर और एक बार उधर देखने लगीं। वे सर साथ-साथ घुमातीं। उनके कान खड़े थे और मुँह खिंच कर आगे को निकल आया था। टीना के सफेद पैरों और सफेद सीनेवाला जिस्म तना हुआ था। यह देख कर श्यामलाल को धक्का-सा लगा। "टीना-टीना!" उन्होंने पुकारा। मगर टीना वापस आना नहीं अपने बाकी बच्चों को इस पार ले जाना चाहती थी। श्यामलाल ने उन्हें उठाया और टीना की तरफ ले चले। वह तेजी से आगे बढ़ी और बच्चों को पुकार कर वापस मुड़ कर वहीं जा बैठी जहाँ पहले थी। शायद यह जगह भी घर से ज्यादा दूर है। मगर नहीं। मुझे पूरी उम्मीद है कि इन्हें वह घुमा-फिरा कर यहाँ से घर की तरफ ले जाएगी... और फिर जो होगा वह स्वाभाविक तौर पर होगा। जो भी हो, हो। मैं इन्हें मारने के लिए नहीं छोड़ रहा हूँ। उनकी माँ उनके साथ है। उन्होंने कई बार हल्के से और एक बार जोर से अपने मन में कहा और वापस आ गए। किसी ने उनसे कुछ नहीं पूछा। थोड़ी देर बाद जब घर का काम खत्म हो चुका तो उनकी पत्नी आ कर कमरे में बैठीं। धीरे से बोलीं, "कहाँ छोड़ा है उनको?" श्यामलाल ने बताया कि बाजारवाले मोड़ पर। वह चुप रहीं। श्यामलाल ने कहा, "दूर नहीं है। टीना आ जाएगी।" उन्होंने बच्चों का नाम नहीं लिया। "टीना पिछवाड़े के स्कूल से आगे आज तक नहीं गई है," वह कहकर चुप हो गईं। फिर काफी देर बाद बोलीं, "टीना दो-तीन दिन के पहले नहीं आ सकती।" वह आँखें मूँदें बैठी हुई थीं। उनके चेहरे पर थकान तनी हुई थी। वह बिल्ली के साथ किए गए प्रयोग की बेदर्दी और अपना पुराना सिर-दर्द साथ-साथ सह रही थीं। थोड़ी देर बाद श्यामलाल ने पूछा, "दो-तीन दिन कहाँ रहेगी?" पत्नी ने कहा, "यह तो मैं नहीं कह सकती, परंतु वह बच्चों को अकेला छोड़ेगी नहीं, जहाँ वे रहेंगे वहीं वह रहेगी।" श्यामलाल बोले, "तो क्या यह भी हो सकता है कि वह लौट कर न आए?" पत्नी ने कहा, "यह तो मैं नहीं कह सकती। मगर वह आएगी तो दो-तीन दिन बाद ही आएगी। हफ्ते-भर बाद भी आ सकती है।" श्यामलाल ने कहा, "नहीं, इतने दिन तो बहुत होते हैं।" अपने हाथ से अपना सिर दबाते हुए पत्नी ने कहा, "तुम बाजार से खाना ले आओ। मैंने पकाया नहीं है।" श्यामलाला के साथ बाजार जाने के लिए उनके दो बच्चे फौरन तैयार हो गए। वे घर से निकले तो श्यामलाल ने कहा, "हम गली-गली जाएँगे।" एक बच्चे ने कहा, "सड़क-सड़क चलिए क्योंकि वह सीधे रास्ते से घर आ रही होगी।" श्यामलाल ने कहा, "नहीं, हो सकता है वे लोग किसी घर में दुबक गए हों, हम गलियों से हो कर जाएँगे और सड़क से हो कर आएँगे।" गलियों में उन्हें कई बिल्लियाँ मिलीं - छोटी, बड़ी, चोरों की तरह दुम दबा कर सरकती हुई और बेखबर घूरे को देख कर कुरेदती हुई। वे सब दूसरी बिल्लियाँ थीं। वे पास आते ही कितनी अजनबी लगती थीं और कितनी पराई भी। गोगी को पकड़ कर खींच निकालने के बाद श्यामलाल को विश्वास हो गया था कि टीना और उसके सब बच्चे इसी सुरंग में हैं। वह इतनी सँकरी और नीची थी कि यह विश्वास सिर्फ वही कर सकता था जो बिल्लियों की सिकुड़ सकने की क्षमता जानता हो। श्यामलाल ने वहीं जा कर पूछताछ की थी जहाँ वह सवेरे उन्हें त्याग गए थे। वह नहीं जानते थे कि जब वह अकेले घर वापस जा रहे थे तो इतवार को छज्जों पर खामख्वाह खड़े बहुत-से लोगों ने उन्हें देखा था। हर छज्जे पर बातचीत हुई थी कि यह आदमी कर क्या रहा है। निश्चय ही कुछ लोग बिल्कुल बोदे रहे होंगे। उनमें से कुछ ने श्यामलाल का बहुत राजदाँ बनते हुए कहा कि उन्होंने समझा था कि श्यामलाल अपनी बिल्लियों को छोड़ने नहीं अपनी बिल्लियों को पकड़ने आए हैं। "क्या अभी तक मिली नहीं?" उन्होंने पूछा। यह पर्दादारी लोग बिना माँगे कर रहे थे जिससे वह श्यामलाल को भय की तरह रहस्यमय लगी। उन लोगों के सामने जो उन्हें इतना गलत समझ रहे थे सच बोलना कितना निराशाजनक होता। "हाँ, मगर आप ने उन्हें जाते किधर देखा था?" उन्होंने जैसे डकैतों के सामने मीठी बोली से काम निकालना चाहा। एक बड़ी सींक-सी औरत बोली, "इधर तो वे आ ही नहीं सकतीं, हाँ। मेरा कुत्ता बिल्लियों को फाड़के रख देता है। डरिए नहीं, मैंने इसलिए उसे बाँध दिया है। वे वहीं नाले म
ें कहीं होंगीं।" सुरंग का दरवाजा उन्होंने एक गुस्से से ढाँक दिया। गोगी को गोद में ले कर वह घर की तरफ दौड़े। वह अपनी बड़ी लड़की को बुलाने जा रहे थे जिसकी आवाज सुन कर मुनमुन बोला करती थी और वह अपनी पत्नी को भी बुलाने जा रहे थे जो रोज उनके घर लौटने पर उन्हें बताया करती थी कि आज टीना ने क्या किया। सब कोई आए। लड़की ने मुनमुन को दो बार बुलकारा तो उसने सिर बाहर किया और पकड़ ली गई। मुश्तू आदतन मुनमुन के पीछे-पीछे निकल आया। मगर टीना अपनी सुरंग के दरवाजे तक आ कर फिर भीतर चली गई। उसके पास अभी शीमा थी। भीड़ लग गई थी। जैसे वे दोनों दर्शकों के लिए संवाद बोल रहे हों, श्यामलाल ने पत्नी से कहा, "तुम बुलाओ।" स्त्री ने आवाज दी, "टीना, टीना!" तब भीड़ में से एक सूखा-सा आदमी जोर से बोला, "इसके बच्चे को दिखाओ तो बाहर आएगी।" कह कर उसने गोगी को श्यामलाल के हाथ से ले लिया। श्यामलाल और उनकी पत्नी दो सिलबिल आदमियों की तरह खड़े देखते रह गए। उसने गोगी को जोर से दबाया। और वह चीख कर रोई। श्यामलाल के बच्चों ने एक स्वर से कहा, "नहीं, नहीं, क्या करते हो !" तभी टीना परेशान बाहर आ गई। बड़ी लड़की ने उसे फौरन उठा कर गोद में दबा लिया। वह भौंचक थी और उसका बदन नम हो रहा था। उसने गरदन उठा कर चारों तरफ देखा और निश्चिंत हो गई। अपने ऊपर थोपी हुई मुसीबत से उसने जो संघर्ष किया था उसका कोई घमंड उसकी आँखों में नहीं था। वह न तो कुरकुराने लगी, न उसने अपनी दुम फुलाई, न उसने ऐसी और कोई हरकत की जिनसे आदमी बिल्लियों को पहचानते हैं। बस, उसने एक बार आँखें मींच कर खोल दीं। श्यामलाल ने उसे गौर से देखा। वह समझ रहे थे कि उन्होंने उसके साथ क्या किया है और यह भी जान रहे थे कि वह नहीं समझ सकती कि खुद उनके साथ क्या हुआ है ! एकाएक वह अपनी असहायता से छटपटा उठे। हालाँकि उनके दिल में प्यार-ही-प्यार था, मगर बिल्ली को किसी तरह यह बताने का तरीका वह नहीं जानते थे। चालीस बरस तक वह हर बार एक मौका और माँग चुके हैं, मगर आज फिर माँग रहे हैं।
शेखर का जीवन बहुत सूना हो गया था, और इसीलिए जीवन में जो कुछ आता था, वह मानो उसके रस की अन्तिम बूँद तक निचोड़ लेना चाहता था। हँसी की बात होती, तो आवश्यकता से अधिक हँसता था; घूमने निकलता, तो पागल कुत्ते की तरह दौड़ता था; लड़ता, तो लड़ाई का कारण भूल जाने पर भी विरोध बनाये रखता...उसके जीवन में इससे एक झूठी तेजी आ गयी थी, गति का एक भ्रम, जबकि वास्तव में वह निश्चल खड़ा था। खंडहरों से घिरे हुए टीले की एक चोटी पर शेखर खड़ा था, और उसके पैरों के पास उसका कुत्ता। चारों ओर फैले हुए अरहर के खेत थे। कभी हवा का झोंका आता, तो अरहर के पौधों की चोटियाँ कुछ झुक जातीं और फिर सीधी हो जातीं, मानो हरी वर्दी पहने हुए बहुत से सिपाही पहरा देते-देते एक साथ ही ऊँघ गये हों, और फिर जागकर सावधान खड़े हो गये हों। कुत्ते का नाम था तैमूर। शेखर उसे विशेष प्यार नहीं करता था, किन्तु कुत्ता सदा उसके पीछे रहता था, न-जाने क्यों उसने शेखर को अपना स्वामी मान लिया था। हाथों से अरहर के पौधों में रास्ता बनाते हुए शेखर ने देखा कि तैमूर क्यों भागा आया था। बहुत-से बटेर अनेक दिशाओं में आगे जा रहे थे, और तैमूर कभी एक के पीछे, कभी दूसरे के पीछे दौड़ा फिरता था, पर पकड़ किसी को नहीं पाता था। तैमूर ने उकताकर खेल छोड़ दिया-हार मान ली। शेखर भी झख मारकर रह गया। खंडहरों के ऊपर सूर्य स्वर्ण बरसाता हुआ डूब रहा था। घर के पथ पर शेखर खून से लथपथ, थका हुआ, सिर झुकाए चला जा रहा था; और सदा आगे रहनेवाला तैमूर उसके पीछे-पीछे मुँह लटकाए आ रहा था...बटेर कोई हाथ नहीं आया था, लेकिन खेल हो गया था, दिन बीत गया था। फिर अरहर के खेत; फिर आगे-आगे शेखर और पीछे-पीछे शेखर का कुत्ता तैमूर। अब तैमूर ही शेखर का भाई है, गुरु है, साथी है और सेवक है। शेखर की माँ सरस्वती को लेकर अपने पिता के गाँव गयी हुई है, और शेखर पर किसी का नियन्त्रण नहीं है। शेखर निरुद्देश्य भटक रहा है, लेकिन उस उद्देश्यहीनता में एक प्रतीक्षा है। शेखर गनेसी की बाट देख रहा है। गनेसी जात का डोम है। शेखर के पिता की देख-रेख में कुली का काम करता है। छुट्टी के समय वह आतिशबाजी तैयार करता है। इसी नाते वह शेखर का मित्र है, क्योंकि वह बहुधा शेखर को साथ ले जाता है और उसके सामने चीजों की तैयार करता है-बारूद बनाता है, अनारों में भरता है, पटाखे लपेटता है; और साथ-साथ शेखर को बताता भी जाता है कि शोरा, गन्धक, कोयला, अलग-अलग कूटने चाहिए और मिलाते समय लकड़ी की चीजें काम में लानी चाहिए, कि आग न लग जाय; और 'छछूंदर' लपेटने के लिए कागज को शोरे और सिरके के घोल में भिगोकर सुखा लेना चाहिए...कभी वह शेखर के आग्रह करने पर उसे बारूद कूटने भी देता है, और कभी-कभी कुछ पटाखे उसे दे देता है। उनकी दोस्ती इतनी बढ़ गयी है कि कभी-कभी शेखर पिता से कहकर गनेसी को छुट्टी दिला देता है और साथ घूमने ले जाता है। आज उसकी प्रतीक्षा यों हुई कि शेखर ने एक गोह लाने के लिए भेजा था। गनेसी ने ही उसे बताया था कि गोह कैसी भी दीवार चढ़ सकती है और उससे चिपक जाती है। अगर कोई उसकी दुम पकड़कर लटक जाय तो भी नहीं छोड़ती, बल्कि पुराने जमाने में लोग उसकी दुम में रस्सी बाँधकर उसके सहारे किले की दीवारें फाँदा करते थे। यह सुनकर स्वाभाविक ही था कि शेखर गोह देखना चाहता। जब गनेसी ने बताया कि गोह जिन्दा नहीं आ सकती, क्योंकि उसका काँटा जहरीला होता है, तब शेखर की आज्ञा हुई कि गनेसी उसे मारकर ले आये। शेखर अरहर का खेत पार करके निकला तो देखा, सामने से गनेसी चला आ रहा है-दुबला-पतला, काला भूत, एक हाथ में लाठी लिए और दूसरे में दुम पकड़कर मरा हुआ गिरगिट-सा लटकाये। पास आते ही बोला, बबुआ यह लो गोह। शेखर थोड़ी देर उसकी ओर देखता रहा। उसे कुछ निराशा-सी हुई। यही है गोह! फिर वह बोला, इसकी चमड़ी उतारो, हम रखेंगे। गनेसी ने हँसकर बताया कि गोह की चमड़ी बहुत पतली होती है, खाल नहीं उतर सकती। पर शेखर उसकी बातों में आनेवाला नहीं था। खाल चीते की भी उतर सकती है, वह नित्य एक पर बैठता है, तब गोह की क्या बिसात! बोला, हम जो कहते हैं, उतारो! गनेसी ने देखा, मानना पड़ेगा। उसने एक चाकू निकाला और गोह का पेट चीर डाला। शेखर कुत्ते को पकड़कर खड़ा रहा। आधे घंटे में खाल खिंच गयी। शेखर ने कहा, इसे धूप में सूखने डाल दो; सूख जायगी तब धो लेंगे। गनेसी ने कुछ कहे बिना मुस्कराकर उसे सूखने के लिए फैला दिया। तीन दिन बाद वहाँ जो शेखर ने देखा, वह कहने की जरूरत नहीं है। जब गनेसी ने हँसते हुए पूछा, बबुआ, तुम देख आये, वह गोह की खाल सूख गयी है कि नहीं। तब उसने विस्मय दिखाते हुए कहा, कैसी खाल। कौन गोह? बुद्धिमान गनेसी मुस्कराकर चुप हो गया। शेखर ने नोट किया कि चमड़ी सभी की होती है, लेकिन चीता चीता है, और गोह गोह। जिस घर में शेखर रहता था, उसके साथ आमों का एक बगीचा था। आम
देशी थे और घटिया किस्म के; केवल वृक्ष कलमी आमों का था। एक दिन अकेले वृक्ष पर कुछ पके-से आम देखकर शेखर ने माली से कहा, हमें आम दो। लेकिन माली को सर्वथा उचित माँग से सहानुभूति नहीं हुई। बोला, बबुआ कल तोडूँगा वो आम, और डाली लगाकर साहब के पास ले जाऊँगा। साहब के पास! शेखर को यह सरासर अन्याय लगा कि आमों को चाहनेवाले शेखर से छीने जाकर वे आमों की उपेक्षा करनेवाले उसके पिता के पास जायँ। बोला, देते हो कि नहीं? शेखर स्वयं पेड़ पर चढ़ने लगा। माली दूर खड़ा हँसता रहा, क्योंकि वह जानता था कि यह लड़का पेड़ पर क्या चढ़ेगा। लेकिन शेखर के हाथों-पैरों में क्रोध का बल था। वह ऊपर पहुँचा, आराम से एक डाल पर बैठा और चुन-चुनकर पके आम खाने लगा। माली की मुस्कान चिन्ता में बदल गयी। उसे देखकर शेखर का सारे आम खा डालने का निश्चय और भी पक्का हो गया। पर पेट ने साथ नहीं दिया। तब शेखर ने कच्चे, अधकचरे, पके सब प्रकार के आम तोड़-तोड़कर मुँह से जूठे कर-करके इधर-उधर फेंकने आरम्भ किये। प्रत्येक आम फेंकते हुए वह चिल्लाकर माली से कहता जाता, यह लो! और यह लो! और यह लो! माली यह नहीं सह सका, और शेखर को पकड़ने के लिए पेड़ पर चढ़ने लगा। उसे आते देखकर शेखर ने कहा, आओ, आओ, बेशक आओ, और ऊपर चढ़कर एक डाल के बिलकुल सिरे पर ऐसा जा बैठा, कि तनिक और भार पड़ने से वह टूट जाय। माली ने पुकारा, लौट आओ, नहीं तो गिरोगे! नहीं, तुम आओ, पकड़ो, देखूँ मैं भी- और-कुछ-और आगे सरक गया। माली डर गया। बोला, बबुआ, उतर आओ, ईश्वर के वास्ते उतर आओ। तुम उतर जाओ, नहीं तो मैं और आगे जाता हूँ। माली उतर गया। वहाँ से चला गया। शेखर धीरे-धीरे नीचे उतरा। वह अभी भूमि पर पहुँचा नहीं था कि उसने देखा, माली के साथ पिता चले आ रहे हैं। वह दार्शनिक हो गया था। उसने एक बार अपने गिराए हुए आमों की ओर देखा, फिर तैयार होकर खड़ा हो गया। और मन-ही-मन गणित का एक सवाल करने लगा, कि कितने आम फी थप्पड़, या कितने थप्पड़ फी आम पड़ेंगे। पड़ेंगे या नहीं पड़ेंगे, यह सम्भावना विचार में लाने की नहीं थी। यह एक अवसर था जब कि शेखर ने मार की आशा की और हँसी पायी। प्रायः इससे उलटा ही हुआ करता था। फिर भी पिता के लिए शेखर के हृदय में अपार स्नेह था। शेखर के पिता ने नया मकान ले लिया है-पटना शहर में गंगा के किनारे पर। अब शेखर का मुख्य काम है अपने बगीचे में से केले के पेड़ काटना और उनके स्तम्भों पर लेटकर गंगा में बहना (उसे बहना ही कहना चाहिए, क्योंकि तैरना अभी तक सीखा नहीं)। कई बार स्तम्भ पर से फिसलकर उसने गोते खाये हैं, लेकिन सदा ही किसी ने उसे देखकर घसीट निकाला है। पिता के बहुत मना करने पर भी वह यह आदत नहीं छोड़ता, क्योंकि इतनी बड़ी नदी पर अकेले बिना हाथ-पाँव हिलाए बहने के विचार में सामर्थ्य का कुछ ऐसा आकर्षक अनुभव है कि शेखर उसका मोह नहीं छोड़ सकता। पर, शायद राजकन्या उसे नहीं देखेगी-वह बन्धनों के देश के एक मामूली लड़के से क्यों मिलने लगी? वहाँ और भी तो लोग होंगे और भी कन्याएँ होंगी, उस बाधाहीनता के देश में कोई भी क्यों राजकन्या से कम होगी? (मन्दगति और विशाल माँ गंगे!) जिस क्षण में शेखर को मालूम हुआ कि कविता पूरी हो गयी है, उसी क्षण में उसने यह भी अनुभव किया कि उसकी पीठ ठंड से अकड़ गयी है, और उसके हाथ सफेद, सुन्न पड़ रहे हैं। उसने जाना कि वह घर से बहुत दूर बह आया है। घबराहट यथार्थता के संसार में है, उस सूर्यास्त के सोने के टापू के पथ पर नहीं। शेखर धीरे-धीरे अनैच्छिक-सी क्रिया से अपने को किनारे की ओर खेने लगा। जब किनारे लगा, तब किसी तरह सूखी भूमि पर आया और धूप में औंधा लेट गया। जब वह नींद से उठा, तब सूर्य ढल गया था। वह उठा और थका-माँदा-सा घर की ओर चल पड़ा। जब घर के पास पहुँचा तब चाँद निकल रहा था, और घर में बिलकुल सन्नाटा था, यद्यपि बत्तियाँ जल रही थीं। घर के भीतर घुसते ही उसने देखा, बरामदे में माता-पिता खड़े हैं, स्थिर दृष्टि से बाहर देखते हुए, और मानो एकाएक बूढ़े हुए-इतनी झुर्रियाँ उनके मुँह पर पड़ी हुई थीं...शेखर को देखते ही वे खिंचे हुए चेहरे कुछ ढीले पड़े, माँ की आँखों में आँसू आ गये और पिता एकदम से लौटकर ऊपर चले गये। उनके पीछे-पीछे शेखर ने जाकर देखा, घर में कोई नहीं है। यह उसे दूसरे दिन मालूम हुआ कि उसे खोजने के लिए लोग लालटेन लेकर नदी के किनारे बहुत दूर तक गये हुए थे...घर पर किसी तरह पता लगा था कि वह अकेला केले की नाव पर बैठकर बह गया है, और घर में खलबली मच गयी थी। यह समाचार सुनकर शेखर अपने को इतना भूल गया कि उसे बहुत चेष्टा करने पर भी वह कविता याद नहीं आ सकी, जो उसने गंगा के वक्ष पर लिखी थी, केवल स्मारक-सी पहली लाइन ही उसके मन में रह गयी : O mother Ganges, vast and slow! जो बहुत दूर है, जिस तक पहुँचने में बहुत दिन लगते हैं, बहुत-से ऐसे दिन, जिनमें
पहले ही दिन में पहले ही कुछ घंटों में पीठ अकड़ जाती है और हाथ सुन्न पड़ जाते हैं; उस सूर्यास्त के सोने के टापू तक कैसे पहुँचा जाय? कैसे देखा जाय उस राजकन्या को, जो उसे सिरिस के फूलों के महल में रखेगी और अपने पास बिठाएगी? वही दशा शेखर की थी। मुक्ति की खोज में पहले वह उन वस्तुओं से उलझा, जो स्थूल थीं, जिन्हें वह देख सकता था, और उनसे हारकर वह कल्पना के क्षेत्र में गया; वहाँ से निराश होकर वह फिर यथार्थता में, स्थूल और प्रत्यक्ष में लौट आया। शेखर के पिता मियादी बुखार से बीमार पड़े थे, और ईश्वरदत्त कभी-कभी टेलीफोन पर डॉक्टर को बुलाया करता था। उसी से शेखर ने टेलीफोन के बारे में कुछ जानकारी हासिल की थी। उसे जान पड़ रहा था कि जो उसे अन्यत्र नहीं मिला, वह टेलीफोन द्वारा शायद मिल जाय-क्योंकि टेलीफोन में नयापन था, रहस्य था। पिता बीमार थे, इसलिए जब दफ्तर बन्द होता था, तब जमादार सब दरवाजे बन्द करके चाभी शेखर को दे देता था कि पिता के पास पहुँचा दे। वह चाभी दफ्तर की नहीं, शेखर के रहस्यलोक की चाभी थी। करीब पाँच बजे थे। दफ्तर बन्द हो गया था, चाभी शेखर के हाथ में थी। जमादार चला गया था। शेखर ने दफ्तर का द्वार खोला, और सीधा पिता के कमरे में गया। टेलीफोन का रिसीवर उठाकर सुनने लगा। उन दिनों वहाँ आटोमेटिक एक्सचेंज नहीं था। एक्सचेंज से स्वर आया-'नम्बर?' शेखर ने एक दवाइयों की दुकान का नम्बर दे दिया। अच्छा, और डाक्टरी दस्ताने कैसे हैं? इस प्रश्न की आशा-आशंका-शेखर को नहीं थी। उसे यह बताया गया था कि जिसे फोन किया जाय, उसे करनेवाले का नम्बर तब तक नहीं ज्ञात होता, जब तक कि स्वयं न बताया जाय, और इसी विश्वास के आधार पर उसने फोन करके का साहस किया था। यह प्रश्न सुनकर वह एकाएक घबरा गया, समझ नहीं पाया कि क्या कहे; बोला 'दफ्तर के पते पर' और रिसीवर लटकाकर भाग गया। दूसरी बार। शेखर ने फिर चाभी प्राप्त करके दफ्तर खोला और टेलीफोन पर जाकर बैठ गया। अबकी उसने फायर स्टेशन को पुकारा। वह यह देखना चाहता था कि उसके भाइयों ने जो उसे बताया था कि टेलीफोन करने के बाद पाँच मिनट के अन्दर फायर इंजन पहुँच जाता है, वह ठीक है या नहीं। एकाएक शेखर को अपनी करतूत के फल का ध्यान आया, वह डर गया। उसने रिसीवर मेज पर रक्खा और जल्दी दफ्तर का दरवाजा बन्द करके चाभी दे आया। दूसरे दिन एक्सचेंज से रिपोर्ट आयी कि फोन का दुरुपयोग किया जा रहा है। पिता ने सबसे पड़ताल की, लेकिन मौन के सिवा कोई उत्तर नहीं पाया। बात वहीं समाप्त हो गयी, उस दिन से जमादार स्वयं चाभी पिता तक पहुँचाने लगा। शेखर पतंग उड़ाने लगा। पतंग उड़ानी उसे आती नहीं थी। लेकिन यह उसके पथ में विघ्न नहीं था इससे तो उसका आकर्षण बढ़ता ही था। और फिर पतंग उड़ाने में एक दूसरा मजा भी था-कि वह शेखर को मना थी। शेखर के पिता कहते थे कि यह खरतनाक खेल है, पतंग उड़ाते-उड़ाते कई लड़के कोठे पर से गिर पड़ते हैं। शेखर का पतंग उड़ाने का ढंग यह था कि वह घर के बगीचे में किसी को बुलाकर कहता कि पतंग उड़ा दो, जब वह खूब ऊँची उड़ जाती, तब चरखड़ी अपने हाथ में ले लेता और डोर को झटकाकर, नाचती हुई पतंग को देखकर अपने को विश्वास दिला लेता कि वही उड़ा रहा है (अतः उसी ने उड़ायी है)। उसे आज्ञा थी कि पिता के पास बैठे और समय-समय पर दवा पिलाया करे। इसलिए नहीं कि वह इस काम में विशेष दक्ष था, इसलिए कि उसके पिता उसे अपने पास रखना चाहते थे। लेकिन पतंग उड़ाने में वह सब भूला हुआ था। पिता के चपरासी ने आकर विघ्न डाला। "ठहरो, हम जरा पतंग उड़ा लें," कहकर शेखर उसे भूल गया। "चलो शेखर बाबू!" मिनट-भर बाद चपरासी फिर बोला। चपरासी बार-बार कहने लगा। चपरासी चला गया और थोड़ी देर में लौट आया। चपरासी ने एक-दूसरे नौकर को बुलाकर, पतंग की डोर तोड़कर उसके हाथ में दे दी कि वह उतारे, और शेखर को उठाकर ले चला : शेखर की टाँगें ही मुक्त थीं, वह उन्हें पटकने लगा, लेकिन वे हवा से टकराकर रह गयीं। तब उसने सारा जोर लगाकर अपनी पकड़ी हुई बाँह को झटका, वह छूट गयी, और जाकर चपरासी की नाक पर लगी। और चपरासी ने उसे झट से जमीन पर रख दिया, जैसे बर्रे ने काट खाया हो, और चीखता हुआ ऊपर भागा, क्योंकि नाक से खून छूट रहा था। तभी शेखर ने देखा, उसके पिता सीढ़ियों पर उतर रहे हैं। हाथ में एक छड़ी। हाथ काँप रहा है, दीवार पर कुहनी टेककर सम्भल-सम्भलकर पैर बढ़ाते हैं और दुबले कितने हो गये हैं! और उनकी आँखें न इधर देखती हैं, न उधर, न छत की ओर, न सीढ़ी की ओर, केवल शेखर पर स्थिर हैं, और उनके पीछे सीढ़ियों के ऊपर सरस्वती खड़ी है, जिसका मुख ऐसा हो रहा है कि पहचाना नहीं जाता, और उसकी मौन, विस्फारित आँखें शेखर की आँखों पर जमी हुई कुछ कहना चाहती हैं, कुछ कह रही हैं जो, वह मुँह से नहीं निकाल सकती। शेखर ने जान लिया कि उसे वहीं खड़े रहना है, हिलना नहीं
है, सिर नहीं उठाना है, प्रतिवाद नहीं करना है, अपनी रक्षा नहीं करनी है। वह खड़ा रहा। छः बार छड़ी उठी और गिरी, छः बार शेखर के शरीर में एक रोमांच-सा हो आया, पर वह हिला नहीं। छड़ी रुक गयी। पिता ने एक तीखी दृष्टि से शेखर के मुख की ओर देखा। केवल चपरासी वहाँ खड़ा रह गया, जिसे यह घटना समझ नहीं आयी, लेकिन जो न-जाने क्यों लज्जित हो गया। शेखर को अनुमति मिली कि नाटक देख आये। गाँव की एक नाटक-मंडली है, जो साल में दो-बार खेल करती है-होली के दिनों और दशहरे के दिनों। शेखर के पिता बड़े आदमी हैं, उस गाँव के पड़ोस में रहनेवाले सबसे बड़े आदमी, इसीलिए स्वाभाविक है कि उनकी आशीर्वादपूर्ण अनुमति माँगकर खेल किया जाय। वे स्वयं तो नहीं जाते, किन्तु 'सत्य हरिश्चन्द्र' का खेल है, इसलिए लड़कों को जाना मिल गया। तितली फिर चक्कर काटने लगी...लेकिन कहाँ है वह अबाध की खिड़की, कहाँ है वह मुक्ति का मार्ग? उसने विदेशी कपड़े उतारकर रख दिये, जो दो-चार मोटे देशी कपड़े उसके पास थे, वही पहनने लगा। बाहर घूमने-मिलने जाना उसने छोड़ दिया, क्योंकि इतने देशी कपड़े उसके पास नहीं कि बाहर जा सके। प्रायः दुपहर को वह ऊपर की एक खिड़की के पास जाकर खड़ा हो जाता और बाहर देखा करता। कभी दूर से जब बहुत-से कंठों की समवेत पुकार उस तक पहुँचती; माँ के अतिरिक्त सब लोग बाहर गये हुए थे। माँ ऊपर कोठे पर बैठी हुई थी। शेखर ने घर के सब कमरों में से विदेशी कपड़े बटोरे और नीचे एक खुली जगह ढेर लगा दिया। फिर लैम्प लाकर उन पर मिट्टी का तेल उँडेला (तेल का पीपा नौकरों के पास रहता था, वहाँ जाने की हिम्मत नहीं हुई), और आग लगा दी। आग एकदम भभक उठी। शेखर का आह्लाद भी भभक उठा। वह आग के चारों ओर नाचने लगा, और गला खोलकर गाने लगा : लेकिन ढेर राख हो गया था। नाटक पूरा हो गया। शेखर ने सुन्दर देशी स्याही से उसकी प्रतिलिपि तैयार की और उसे अपनी पुस्तकों के नीचे छिपाकर रख दिया। पहले साहित्यिक प्रयत्नों की गति उसे अभी याद थी, इसलिए उसने अपना यह नाटक, यह अमूल्य रत्न किसी को नहीं दिखाया-सरस्वती को भी नही! और हर समय, जब जहाँ वह जाता, उसके मन में एक ध्वनि गूँजा करती, मैं शेखर हूँ, एक अपूर्व नाटक का लेखक चन्द्रशेखर! और मैंने अकेले ही, बिना किसी की सहायता के अपने हाथों से उसका निर्माण किया है, स्वाधीन बाधाहीन भारत के उस चित्र का, मैंने। शेखर के पिता एक दिन के दौरे पर जा रहे थे, और शेखर साथ था। बाँकीपुर स्टेशन पर सामान रखकर, पिता और पुत्र वेटिंग-रूम के बाहर टहल रहे थे-शेखर कुछ आगे, पिता पीछे-पीछे। शेखर ने सिर से पैर तक उसे देखा। लड़का एक अच्छा-सा सूट पहने था, सिर पर अँग्रेजी टोपी। और उसके स्वर में अहंकार था, शायद वह अपने अँग्रेजी-ज्ञान का परिचय देना चाहता था। शेखर को प्रश्न बुरा और अपमानजनक लगा। उसने उत्तर नहीं दिया। कुछ इस लिए भी नहीं दिया कि पीछे पिता थे, और पिता की उपस्थिति में बात करते वह झिझकता था। उस लड़के ने समझा, उसका सामना करनेवाला कोई नहीं है-यह लड़का शायद अँग्रेजी जानता ही नहीं। उसने तनिक और रोब में कहा, "My name is... Do you go to School?" (मेरा नाम है...तुम स्कूल में पढ़ते हो?) शेखर के पिता वहाँ न होते तो वह प्रश्न का उत्तर चाहे न देता पर (हिन्दी में) कुछ उत्तर अवश्य देता। उसके मन में यह सन्देह उठ भी रहा था कि वह लड़का शायद कोई पाठ ही दुहरा रहा है, अँग्रेजी उतनी जानता नहीं। पर उसने घृणा से उस लड़के की ओर देखा, उत्तर कोई नहीं दिया। तभी ट्रेन आ गयी और शेखर कुछ उत्तर देने से-या उत्तर न देने की गुस्ताखी करने से बच गया। शेखर ने सुन लिया। इसी सामर्थ्य की उपासना का एक रूप यह भी था कि उन्हें यह अनुभव करना अच्छा लगता था कि उनके पास शक्ति है। इसी भावना से वे कई बार अपने बच्चों के खेल में दखल दिया करते थे। वे यह नहीं चाहते थे कि बच्चे न खेलें या न पढ़ें, या ऐसा न करें, वैसा न करें; वे यह चाहते थे कि खेलें तो इसलिए कि उन्होंने कहा, पढ़ें तो इसलिए कि उन्होंने कहा। स्वाभाविकता-किसी बात का केवल इसीलिए होना कि वह उस समय हो रही है, या उसे करनेवाला उसे कर रहा है-के लिए उनके निकट कोई स्थान नहीं था। तभी, जब वे आते, तब बालक आतंक से एकाएक चुप हो जाते, खेल बन्द हो जाता, पुस्तक आगे से हट जाती, पैर सिमट जाते, कुर्सी या बिस्तर छूट जाता...कोई नहीं जानता था, कब किस बात की मनाही हो जाएगी। उनके जाने अच्छी या बुरी, क्योंकि उचित या अनुचित, कोई बात नहीं थी-बातें थीं दो प्रकार की, एक जिनके लिए उनकी अनुमति है, दूसरी जिनके लिए अनुमति नहीं है। बस, इसके आगे न तर्क था, न बुद्धि। माँ और पिता के विरोध का एक स्रोत यह भी था। माँ चाहती थीं कि लड़के फुर्तीले, चालाक, टिट-फिट हों, और पिता को इसमें एक ओछापन दीखता था...माँ को रुचता था कि लड़के इधर-उधर मिलें, हरेक
की बात जानें, पता रखें कि फलाने को कितनी तनखाह मिलती है, फलाने के घर में क्या पका, फलाने की भौजाई का फुफेरा भाई क्या करता है; पिता कहते थे कि तुम किसी के घर मत जाओ, किसी से बात मत करो, और इस सबसे तुमको क्या? कभी-कभी माँ किसी को चोरी से पड़ोसी के घर भेजती थी कि 'अमुक काम तो कर आ' या 'अमुक बात तो पूछ आ'; और कभी पिता को पता लग जाता, तो लम्बी-चौड़ी जिरह करते थे कि क्यों गया था? क्या करने गया था? किससे पूछकर गया था? नौकर नहीं जा सकता था? माँ उदार नहीं थीं। वे क्रोधी नहीं थीं। उन्हें आपे से बाहर किसी ने नहीं देखा, लेकिन किसी अपराध को वे कभी भूलती नहीं थीं। उनके स्वभाव में इतनी विशालता ही न थी कि बड़ा क्रोध कर सकें, इसलिए अनुकम्पा भी उनकी बड़ी नहीं थी। पिता किसी दोषी पर भी क्रुद्ध होकर बाद में 'सुलह' करते थे, माँ स्वयं गलत होने पर भी यह प्रकट नहीं होने देती थीं, और जिसे डाँटा होता था, उस पर अपनी अप्रसन्नता बनाए रखती थीं। माँ के लिए आकारों का महत्त्व बहुत था। कभी लड़कों को सन्ध्या और पूजा-पाठ की शिक्षा दी गयी थी; तब पिता ने धीरे-धीरे यह देखकर कि उस अवस्था में उनके लिए उसमें ध्यान लगाना असम्भव है, अन्त में उन्हें बाध्य करना छोड़ दिया था, बहुत क्रुद्ध होकर कहा था, 'यदि मन से नहीं कर सकते तो क्या फायदा है? मत किया करो?' और लड़कों के इस बात को मानकर पूजा छोड़ देने पर, दुबारा उनसे नहीं कहा था। तब माँ ही थीं जिन्होंने बाध्य किया था कि वे नियम से आसन लगाकर पूजा के स्थान में बैठ जाया करें और पूजा की क्रियाएँ पूरी किया करें। पिता आवेश में आततायी थे, माँ आवेश की कमी के कारण निर्दय। पिता का क्रोध जब बरस जाता था, तब शेखर जानता था, हम फिर सखा हैं; माँ जब कुछ नहीं कहती थीं, तब उसे लगता था कि वह मीठी आँच पर पकाया जा रहा है। और इन दो भिन्न प्रकृतियों के मेल और संघर्ष से उत्पन्न हुई थीं छः सन्तान-सरस्वती, ईश्वरदत्त, प्रभुदत्त, शेखर, रविदत्त और चन्द्र। ये ही उस संघर्ष के फल थे, और ये ही उसके विकास के क्रीड़ास्थल भी। जीवन वैचित्र्य का दूसरा नाम है। जिनके जीवन एकरूपता के बोझ से कुचले जाकर नष्ट हो गये हैं, उनके जीवन में भी इतनी घटनाएँ हुई होंगी कि एक सुन्दर उपन्यास बन सके। यदि प्रत्येक व्यक्ति अपनी जीवनी लिखने लगे, तो संसार में सुन्दर पुस्तकों की कमी न रहे। लेकिन तब, जब हरेक को लिखना आता हो। लेकिन मुझे जान पड़ता है, मेरे जीवन की जो भी घटना मेरे सामने आती है, वह मेरी है, मौलिक है, अपने में सम्पूर्ण एक कहानी है, और मेरा सारा जीवन बढ़िया उपन्यास। शायद मुझ ही को ऐसा जान पड़ता हो, अपने जीवन के प्रति मोह उसे इतना विशिष्ट बनाता हो। लेकिन साथ ही मैं यह देखता हूँ कि वह इतना विशिष्ट, इतना एकान्त मेरा भी नहीं है कि दूसरे उसमें रुचि न रख सकें; मेरे व्यक्तिगत जीवन में मानव के समष्टिगत जीवन का भी इतना अंश है कि समष्टि उसे समझ सके और उसमें अपने जीवन की एक झलक पा सके। मेरे जीवन में भी व्यक्ति और टाइप का वह अविश्लेषण घोल है, जिसके बिना कला नहीं है, और उसके बिना, फलतः उपन्यास नहीं है। बिलकुल सम्भव है कि ऐसी सामग्री पाकर भी मैं उपन्यास न बना पाऊँ। लेकिन मेरा उद्देश्य उपन्यास लिखना कब है? मैं केवल एक बोझ अपने ऊपर से उतारना चाहता हूँ; मैं अपना जीवन किसी को देना नहीं चाहता, स्वयं पाना चाहता हूँ, क्योंकि मुझे अब उसे वैसे देना है, जैसे देकर वह फिर मुझे मिलेगा नहीं। बिलकुल पूर्णतया नष्ट हो जाएगा-कुछ नहीं रहेगा...यह अब शेखर नहीं है, यह मैं हूँ। कलाकार बनने का इच्छुक, कवियशः प्रार्थी, शेखर समाप्त हो गया है, अब वह बचा है जो मैं हूँ, जो फाँसी चढ़ेगा; जो मैं हूँ, जिसे मैं 'मैं' कहता हूँ और कहकर अर्थ नहीं समझता कि मैं क्या हूँ। लोग प्रायः भूल ही जाते हैं उनके जीवन क्या रहे। तभी समाज अपने लिए यह सम्भव पाता है कि विधान करे, 'योग्य माता-पिता वे हैं, जो बच्चों को वयःप्राप्त लोगों की तरह रहना सिखाएँ।' इस एक भावना ने यौवन का जितना अपघात किया है, उतना शायद ही किसी और कानून या प्रथा या विधान ने किया हो। अपनी सन्तान को वयःप्राप्त लोगों-सा बर्ताव सिखाते समय वे भूल जाते हैं कि उनके अपने जीवन क्या थे, कि वे भी कभी बच्चे थे, उनमें भी बच्चों की निष्पाप शरारत थी; कि बच्चों का कोई दोष है तो यही है कि वे इतने पोले, इतने अछूते, इतने स्वच्छ, निष्पाप हैं कि वे अपने माता-पिता को अपने कपट पर लज्जित कर देते हैं। यदि माता-पिता अपना बचपन याद भर रख सकते तो उनकी सन्तान और वे स्वयं, कितने सुखी होते! माता-पिता प्रायः समझते हैं कि बचपन बड़े सुख का समय है, क्योंकि वह उत्तरदायित्व-शून्य है। और यह विचार उनके हाथों बचपन के प्रति कितने अन्याय करवाता है! इसी विचार के कारण वे बहुधा मनाया करते हैं, "काश कि वे दिन फिर आ जात
े!" यदि कभी कुछ दिन के लिए उनकी इच्छा पूरी की जा सकती, तो वे एक बड़ा उपादेय सबक सीखकर आते! शेखर अपने पिता का उपासक था। अच्छे और बुरे का निर्णायक कौन है? शेखर साधारण नहीं था। और वह अपने पिता का उपासक था। यह नुस्खा शेखर ने कई बार सुना है, और वह जानता है कि इसके पीछे सदा कोई उलझन या असमर्थता छिपी होती है। लेकिन वह यह भी जानता है कि इससे आगे कुछ कहना बेकार है। एक दिन पिता के एक मित्र आये। बैरिस्टर थे, खूब भड़कीले कपड़े पहनते थे, बहुत फूले हुए पहाड़ी चूहे-से-दीखते थे, और भारतीय कला के पारखी होने का दावा करते थे। साथ में उनका लड़का, और ऊँची फ्राक पहने लड़की भी थी। परस्पर सामना होते ही जिस क्षण में दोनों बच्चों ने कहा, 'गुड ईवनिंग', उसी क्षण में शेखर भुन गया। पर कुछ बोला नहीं, उन्हें अपने साथ बगीचे में ले गया और अपने पालतू खरगोश दिखाने लगा। बैरिस्टर साहब पिता के साथ चले गये। लेकिन वे कुछ ही मिनट के लिए आये थे। शेखर और दोनों भाई-बहन खरगोशों से खेलने लगे ही थे कि वे उतर आये। गाँधीवादी शेखर द्वार तक सबको छोड़ने चला। शेखर को गाँधीवाद भूल गया। उस मुस्कराहट में जो अहंमन्यता थी, वह उसे सह्य नहीं हुई। और वह अन्तिम 'डियर'-यह, यह नामहीन जन्तु मुझे डियर कहने का साहस करे! शेखर ने तड़पकर अँग्रेजी में कहा, "You dirty, You sneak" (दम्भी! कमीना!) और ऐसा ही बहुत कुछ, और एक तमाचा उसके मुख पर जड़ दिया। वह डरे हुए पिल्ले की तरह चीखने लगा। थोड़ी देर बाद शेखर भी पिटा और खूब पिटा। लेकिन वह मन-ही-मन कहता रहा, मैं कुत्ते का पिल्ला नहीं हूँ, मैं चूँ-चूँ नहीं करता; और मार खा गया। एक दिन बैरिस्टर साहब फिर आये। अबकी बार वे अकेले थे। उन्होंने शेखर को देखा नहीं, शेखर ने उनको नहीं 'देखा'। ऊपर चले गये। लेकिन थोड़ी देर बाद शेखर की बुलाहट हुई। वह पिता के पास पहुँचकर खड़ा हो गया, बैरिस्टर साहब की ओर उसने देखा भी नहीं। नहीं। इस पहाड़ी चूहे के सामने नहीं। वह जन्तु है, प्रदर्शन के लिए है, लेकिन इसके सामने...नहीं पिता, नहीं। मुझे बाध्य मत करो। उसके स्वर में हिंसा थी, दृष्टि में रोप, मानो वे काल्पनिक दो थप्पड़ वह बैरिस्टर साहब के फूले गालों पर लगा रहा हो, लेकिन बात कहते हो उसने जो लम्बी साँस ली, उसमें कितनी गहरी हताशा, कितना प्रगाढ़ नैराश्य था, वह किसने समझा? शाम हो गयी। शेखर अभी वहीं बैठा था। उसका हिलता हुआ पिंजर शान्त हो गया था। आँसू एक भी नहीं आया था। और उसे पता नहीं था कि वह जीता है या मर गया है। निराशा इतनी बढ़ गयी थी कि वह निराश नहीं रहा था। वह अनुभूति से परे चला गया था। शेखर ने नहीं सुना। उसने फिर भी नहीं सुना। क्रोध होता तो शेखर उसका हाथ झटक देखा। लेकिन उसने मुँह ऊपर उठने न दिया, और शून्य दृष्टि से सरस्वती की ओर देखा किया। उसने सरस्वती को नहीं देखा। सरस्वती ने एक बार फिर अनिश्चित-से स्वर में कहा, "शेखर," और परे हट गयी। कमरे के एक दूसरे कोने में जाकर निश्चल बैठ गयी। बहुत देर तक कमरे के दो ओर दोनों बैठे रहे। वह नहीं बोली। सरस्वती उठी और ऊपर चली गयी। थोड़ी देर बाद शेखर भी उठा, मुँह धोकर चला गया, और रोटी खाने लगा। उस एक छोटी-सी घटना में शेखर के भीतर क्या टूट गया था, और इस एक और भी घटना ने किस चीज से उसे बचा लिया, कौन कहे? लेकिन गाँधी जी गये, और गाँधीवाद भी गया। और श्ेाखर के देवता उसके पिता भी, फिर वही कभी नहीं हुए। मैं अपनी कोठरी के बाहर सूनी दीवार की ओर देख रहा हूँ। रोजेटी की कुछ पंक्तियाँ मेरे भीतर गूँज रही हैं : मृत्यु! एक स्तिमित कर देनेवाली घटना। एक हल न होनेवाली पहेली। लेकिन मैं मरना नहीं चाहता। मैं दीवारों से कहता हूँ, मैं सींखचों से कहता हूँ, मैं हवा से कहता हूँ, मैं सुननेवाली न सुनती हुई हृदयहीन उपेक्षा से कहता हूँ, मैं मरना नहीं चाहता; मैं जीवन को प्यार करता हूँ; मैं मरना नहीं चाहता! मालती-फल...उनका मधुर सौरभ...लेकिन कहाँ है नीम के बराबर सौरभ-वह सौरभ जिसे मैं भूल नहीं सकता, जो मुझ में परिव्याप्त है। ईश्वर को और अपने जीवन को 'नाऽस्ति' कहकर शेखर मानो अपने चारों ओर के जीवन के लिए नंगा हो गया। मानो अपने किसी धोंधे में से बाहर निकल आया, प्रत्येक चोट, प्रत्येक झोंका, प्रत्येक आघात के लिए प्राप्य स्पृश्य...यह मानो संसार का एक दर्शक मात्र हो गया, दर्शक भी नहीं, केवल एक छाप लेनेवाली, अंकित करनेवाली मशीन। स्वयं उसमें कोई शक्ति नहीं रही थी, उसका कोई आवरण, कोई कवच कोई बचाव नहीं था; और मानो उसमें अनुभूति नहीं थी, प्राण ही नहीं थे। वह मानो एक विराट आँख मात्र हो गया था, जो सब कुछ देखती जाती थी, सब कुछ स्वीकार करती जाती थी, और कुछ भी प्रभावित नहीं होती थी। शेखर वैसा हो गया जिसे कि माँ, यदि उन्हें कभी किसी को किसी बात का श्रेय देने की आदत होती, आदर्श सन्तान कहतीं। वह कभी ज्याद
ा बात नहीं करता, कभी प्रश्न नहीं पूछता, भाजी कम हो जाने पर कभी नहीं माँगता। बिना शिकायत किये सर्दी में भी ठंडी पानी से नहा लेता है, यथासमय पढ़ता है, बल्कि पढ़ाई के समय में तनिक भी देर हो जाने पर सरस्वती को बुलाकर कहता है, 'बहिन जी, पढ़ाने का वक्त हो गया', दोनों वक्त यथानियम सन्ध्या करने बैठता है, संक्षेप में ऐसे रहता है कि माँ को ऐसा लगे, उसके पाँच ही सन्तान हैं, शेखर की देख-रेख उसे करनी ही न पड़े। शेखर मानो जीवन के स्लेट पर से, भूल से या गलत लिखे गये अक्षर की तरह अपने को मिटा देना चाहता था। पहले तो यह, कि माँ क्या कभी-कभी सबसे अलग जा बैठती हैं, रसोई में नहीं आतीं, अलग बर्तनों में खाना खाती हैं और कोई उनके पास जाता है-और तो कोई जाता ही नहीं, प्रायः शेखर के छोटे भाई ही जाते हैं-तो कहती हैं, 'मेरे पास मत आओ, जाओ खेलो' सो सब क्यों! पता नहीं किसने शेखर को बताया था कि वे बीमार होती हैं, लेकिन शेखर बीमारी के लक्षण तो देखता नहीं। और फिर, दो-चार दिन बाद एक दिन सवेरे उठकर शेखर देखता है, माँ नहा-धोकर रसोई में बैठी हैं और काम कर रही हैं-यदि कल रात तक बीमार थीं तो सबेरे क्या हो गया? दूसरे यह है कि शेखर को याद आ रहा है, ऐसी बात अब बहुत दिनों से नहीं हुई। लेकिन अब जैसे माँ कुछ बीमार जान पड़ने लगी हैं। उनका मुँह पीला पड़ गया है, और वे काम बहुत वज्र करती हैं, प्रायः ढीली-सी और कुछ उदास रहती हैं। तीसरे यह कि एक दिन उसने सहज ही सरस्वती से कहा, "माँ बीमार हैं क्या?" तो सरस्वती ने ऐसी तीखी दृष्टि से उसकी ओर देखा और बिना कुछ कहे चली गयी। और भी बहुत कुछ जानता चाहता है। जिन कमरे में माँ प्रायः रहती हैं, उसमें एक आलमारी है, जिसमें ताला लगा रहता है। शेखर ने माँ को कभी-कभी उसे खोलते देखा है-उसमें निचले खाने में वे अपने गहने इत्यादि रखा करती हैं, और कभी-कभी बिस्कुट के डिब्बे, गुलकन्द, च्यवनप्राश का डिब्बा, और अन्य ऐसी चीजें जो लड़कों से बचाने की हैं। लेकिन उसके ऊपर दो खानों में किताबें भरी पड़ी हैं, वे क्या हैं, जब घर-भर में किताबें बिखरी पड़ी हैं, अच्छी-से-अच्छी, बहुमूल्य; जब एन्साइक्लोपीडिया तक खुली रहती है, तब वे किताबें क्यों ऐसी सँभालकर रखी जाती हैं? वे अच्छी हैं, तो क्यों नहीं उन्हें पढ़ने को दी जातीं! बुरी हैं तो क्यों रखी गयी हैं? एक कमरा अलग कर दिया, साफ किया गया, गोबर से लीपा गया, खिड़कियाँ बन्द कर दी गयीं, और माँ उसमें चली गयीं। एक दाई आकर उनके पास रहने लगी और सब लोगों को वहाँ आने-जाने की मनाही हो गयी। चन्द्र के जन्म की बात याद करके इन लक्षणों से शेखर ने जान लिया कि दाई, या डाक्टर, या कोई और शक्ति, उनके परिवार पर एक बार फिर कृपादृष्टि करनेवाली है। और वह डाक्टर के आने की प्रतीक्षा करने लगा। वह उठकर बैठ गया, चारों ओर देखने लगा। उसने पाया, उसके साथ वाली चारपाई खाली है, सरस्वती वहाँ नहीं है। वह चारपाई से उतरा और दूसरे कमरे में गया जहाँ पिता सोते थे। पिता वहाँ नहीं थे। निचली मंजिल में प्रकाश था। न-जाने क्यों, शेखर को साहस नहीं हुआ कि वह नीचे जाकर देखे। पहले कभी ऐसी बात हुई होती, तो वह अवश्यमेव नीचे जाकर देखता, लेकिन अब नहीं। अब वह बुझ जाना चाहता है, दीखना नहीं चाहता; कोई उससे पूछे कि वह क्या करने आया, इसका उत्तर देना तो क्या, यह प्रश्न सुनने का भी साहस उसमें नहीं रहा है-अपने आप में उसका विश्वास टूट गया है। सीढ़ियों पर सरस्वती के पैर की आहट हुई। सरस्वती से डर नहीं था, फिर भी शेखर का दिल धड़क उठा, वह भागकर चारपाई पर जाकर लेट गया। सरस्वती आयी। चारपाई पर बैठ गयी, पाँव समेटकर, घुटने भुजाओं से घेरकर घुटनों पर ठोड़ी टेककर। शेखर नहीं रह सका। उसने पूछा, "क्या हुआ?" मानो अभी जागा हो। सरस्वती विस्मित-सी होकर, बोली, "क्या है?" शेखर ने कभी उसे नाम लेकर नहीं बुलाया था। सरस्वती ने सहसा कोई उत्तर न दिया। शेखर उठ बैठा। "मुझे नहीं पता!" कहकर मुँह, सिर लपेटकर लेट गयी। फिर शेखर ने बहुत बुलाया, उठकर जाकर हिलाया भी, लेकिन वह नहीं बोली, नहीं बोली। शेखर लेट गया और छत की ओर देखने लगा। और मानो अपने ही व्यक्तित्व के जोर से, अपने को वहाँ छत पर टाँगकर, उससे कहने लगा, शेखर, तू सोच। किसी से पूछ मत, तू सोच। तू बता, तू कहाँ से आया? कैसे आया? सवेरा हो गया, और शेखर तब भी अपनी आँखों से उसे वहाँ स्थापित किये हुए, छत पर टँगे अपने प्रतिरूप से वही प्रश्न पूछ रहा था। सरस्वती ने झूठ नहीं कहा था, नहीं तो वह इतनी लज्जित न होती। इतने दुःख और कष्ट जलन के बाद, एक बात शेखर के हाथ आयी है जो सच है; जो है, और बस है, बदल नहीं सकती। लेकिन इससे आगे? शेखर चोरी करने लगा। अब तक शेखर के लिए यह सम्भव नहीं था कि वह छिपाकर कोई बुरा काम करे। क्योंकि जब वह अकेला होता था, तभी उसके कर्मों पर उसकी अपनी आत्मा का
नियन्त्रण सबसे अधिक होता था। पर अब-वह ऊपर की दृष्टि से शरीफ, संस्कृत और भला-मानस होने लगा-जिसे कहते हैं 'हमारा बेटा तो बेटियों-जैसा है?'-और भीतर-ही-भीतर कहीं गिरने लगा। उसे उत्तरदायित्व के काम मिलने लगे। पहले जहाँ एक छोटा-सा काम पाकर वह इतना प्रसन्न होता था और इतनी लगन से उसे करता था कि वह बहुधा बिगड़ भी जाता था, वहाँ अब वह प्रत्येक अवसर पर यही सोचता था कि मैं कैसे छिपे-छिपे नुकसान कर सकता हूँ। उसे कभी सन्दूकची की चाभी दी जाती, तो कुछ एक पैसे निकाल लेता। इसलिए नहीं कि वे उसे चाहिए, केवल इसलिए कि चाभी उसके पास है और वह उसका दुरुपयोग कर सकता है। रात को उसे कहा जाता था कि ईश्वर और प्रभुदत्त के मास्टर को (वे उन दिनों परीक्षा की तैयारी कर रहे थे) दूध दे आये, तो वह रास्ते में एक-दो घूँट पी लेता था। इसलिए नहीं कि घर में उसे दूध नहीं मिलता, बल्कि इसलिए कि वह बिना किसी के देखे कुछ बुरा काम कर सकता है। यहाँ तक कि वह कभी रसद के कमरे में जाता, तो किसी बक्स के पीछे थोड़ा घी गिरा आता। ऐसी हरएक हरकत में मानो उसका मन कह रहा होता था, 'तुम मुझे अच्छा मत समझो, मैं अब भी बुरा हूँ। तुम बेवकूफ हो, जो मुझे अच्छा कहते हो,' इससे मानो उसके अभिमान की पुष्टि होती थी। उसे उस आलमारी की चाभी दी गयी, जिसमें किताबें बन्द थीं। बादाम या कुछ ऐसी चीज निकालने के लिए उसे कहा गया था। उसने आलमारी खोली, दो-तीन किताबें निकालकर आलमारी के नीचे ढकेल दीं, बादाम निकाले और चाभी दे आया। बाद में मौका पाकर उसने वे किताबें उठायीं और छिपकर पढ़ने लगा। रद्दी गुलाबी या पीले कागज पर, बड़े-बड़े लखनऊ टाइप में छपे हुए उन किस्सों को पढ़कर, शेखर सोचने लगा कि क्या है इनमें, जो ये इतने सुरक्षित रखे जाते हैं? शेखर चुगलखोर हो गया। जब कभी किसी भाई से कोई छोटी-सी गलती हो जाती, तो शेखर भागा हुआ माँ के पास जाता और कहता, "माँ, माँ,-ने यह कर दिया है, देखो-तो!" कभी अकारण भी किसी की शिकायत कर देता और तब उसे फटकार खाते या पिटते देखकर मन-ही-मन कहता, ठीक है। अच्छा, पिटना ही चाहिए। मैं बुरा हूँ, मुझे सब मानते हैं, मेरा आदर होता है। तुम अच्छे क्यों हो? एक सीढ़ी और। अच्छे या बुरे होने का, शेखर के लिए कोई महत्त्व नहीं रह गया था। उसके लिए बड़ी बात यह थी कि वह कुछ हो सही-और वह अनुभव करे कि वह कुछ है। इस विश्वास का सहारा उसके लिए बहुत जरूरी हो गया था। चन्द्र ने कहाँ, "माँ, मैं पहले कह चुका हूँ कि मैंने नहीं तोड़े।" मानो पहले कही जाने के कारण उसकी बात अधिक मान्य हो। शेखर मुड़कर बाहर जाने लगा, कुछ ऐसे भाव से कि मैंने अपना कर्तव्य कर दिया है, मुझे इस बात से कोई मतलब नहीं है। और उसका हाथ पकड़कर घसीटती हुई बाहर चलीं। बच्चे क्रुद्ध माता-पिता से पिटते हैं, तब पिट लेते हैं, उनकी आत्मा पर आघात नहीं पहुँचता। लेकिन बिना क्रोध के, निर्मम, दूरस्थ-भाव से पिटकर उनके मानसिक क्षेत्र में सदा के लिए एक दरार-सी फट जाती है। यह बात तब शेखर भी नहीं जानता था, उसकी माँ भी नहीं जानती थी, पर इससे उसकी सच्चाई कम नहीं हो गयी थी। सरस्वती ले आयी। सरस्वती खड़ी थी, यद्यपि उधर नहीं देख रही थी। और अंगारा चन्द्र के इतना पास था कि उसका ताप उसे लग रहा था और उसका सिर ऐसे हिल रहा था, जैसे मिरगी के रोगी का कभी-कभी हिला करता है। माँ उसका जबड़ा दबाए हुए थी, और मुँह खुला था, अंगारे की प्रतीक्षा में था। और उसके मन में हुआ, चन्द्र शाबाश? डूब मर, शेखर? शायद माँ को कुछ हुआ। वह कुछ बोली नहीं, शेखर को भी कुछ नहीं कहा, भीतर चली गयीं। बात खत्म हो गयी। आधे घंटे बाद। सरस्वती पढ़ रही थी। उसने बिना किताब से दृष्टि हटाए ही कहा, शेखर दे दे कलम! पर सरस्वती पढ़ने में लग गयी थी और चन्द्र माँ के पास शिकायत करने चला गया था; उसकी बात किसी ने नहीं सुनी। शेखर को मन-ही-मन लगा कि यह बात उसका पक्ष दृढ़ करती है, लेकिन वहाँ सुनता कौन था? माँ उसकी मुट्ठी खोलने की कोशिश करने लगीं। असफल होकर उन्होंने शेखर कागज मेज पर रखा, और उसे पहले घूँसे से, फिर पट्टी के सिरे से मारने लगीं। वह नहीं बुला। शेखर ने निष्प्राण स्वर में कहा, "हाँ, है।" और आगे चला गया। पिता देखते रह गये। उसके सिरहाने की ओर कहीं से अनिश्चित-सा स्वर आया, 'शेखर?' और सरस्वती उसकी चारपाई के सिरे पर बैठ गयी। शेखर ने उसकी गोद में सिर रख दिया! सरस्वती ने उसका सिर उठाकर बहुत धीरे से तकिये पर रखा। वह सो गया। रात को शेखर ने एक स्वप्न देखा। एक विस्तीर्ण मरुस्थल। दुपहर की कड़कड़ाती हुई धूप। शेखर एक ऊँट पर सवार उस मरुस्थल को चीरता हुआ भागा जा रहा है, भागा जा रहा है...सवेरे से, या कि पिछली रात से, वह वैसे ही भागा जा रहा है। तीसरा पहर। धूप कम नहीं हुई, और भी तीखी हो गयी जान पड़ती है। और शेखर भागता जा रहा है; और पीछे वह 'कुछ' भी बढ़ा आ र
हा है। एकाएक सामने सेब के वृक्षों का बाग, जिसके चारों ओर मिट्टी की ऊँची बाड़ लगी हुई है, जिसमें कहीं-कहीं बिलें हैं, और कहीं-कहीं आयरिस जैसा कोई पौधा है। शेखर ऊँट पर से उतरकर, बाड़ पार करके बाग में घुस जाता है। शेखर उठकर एक ओर को भागता है, बाग में से निकल जाता है। एक चट्टान के ऊपर चढ़कर शेखर आगे देखता है, और एकाएक रुक जाता है। शेखर देखता है, पानी के मध्य में प्रवाह से किसी प्रकार भी प्रभावित न होता हुआ, पतले-से नाल पर एक अकेला फूल खड़ा है। बहुत बड़ा-लिपटी हुई-सी एक ही बड़ी सफेद पत्ती, जिसके बीचोंगीच में एक तपे सोने-से वर्ण की एक डंडी है। वह जाग पड़ा। स्वप्न इतना सजीव, इतना यथार्थ था, कि शेखर ने हाथ बढ़ाया कि सरस्वती का हाथ पकड़े। वह उसने नहीं पाया। तब वह चारपाई पर उठ बैठा। इधर-उधर देखा। उठकर सरस्वती की चारपाई के पास गया। वह सोई हुई थी। शेखर ने उसका मुख देखने की चेष्टा की पर देख नहीं सका। लौट आया, एक सन्तुष्ट-सी साँस लेकर लेट गया, और फौरन निःस्वप्न नींद में अचेत हो गया।
एक बच्चा सुंदर होता है, क्योंकि उसके पास अहंकार नहीं है। एक बूढ़ा व्यक्ति कुरूप होता है, इसलिए नहीं कि वह वृद्ध हो गया है बल्कि इसलिए कि उसके पास बहुत अधिक अतीत होता है, बहुत अधिक अहंकार होता है। एक वृद्ध व्यक्ति फिर से सुंदर हो सकता है, वह एक बच्चे की तुलना में कहीं अधिक सुंदर हो सकता है, यदि वह अपना अहंकार छोड़ सके, तब यह वृद्धावस्था उसका दूसरा बचपन होगी, यह एक पुनर्जन्म होगा। जीसस के पुनर्जीवित होने का यही अर्थ है। यह कोई एक ऐतिहासिक सत्य नहीं है, यह एक नीति-कथा है। जीसस को क्रॉस पर चढ़ाया जाता है और तब वे पुनर्जीवित होते हैं। जो व्यक्ति क्रॉस पर चढ़ाया गया था, वह अब मृत है, वह एक बढ़ई का बेटा था- जीसस, जो अब नहीं रहा। जीसस को सूली दे दी, वह मर चुके। अब उस घटना से एक नए तथ्य का जन्म होता है। उनकी मृत्यु से ही एक नए जीवन का जन्म होता है। अब वे क्राइस्ट हैं, बेथलेहेम के किसी बढ़ई के बेटे नहीं हैं, वे एक यहूदी नहीं हैं, यहां तक कि एक मनुष्य भी नहीं हैं। वे क्राइस्ट हैं, नूतन और अहंकारहीन हैं। तुम्हारे साथ भी ऐसा ही होगा, जब कभी तुम्हारा अहंकार सूली पर होगा। जब कभी तुम्हारे अहंकार को सलीब पर लटकाया जाएगा तब वहां एक पुनर्जीवन अथवा पुनर्जन्म होगा। तुम फिर से जन्म लोगे और यह बचपन शाश्वत है, क्योंकि यह शरीर का नहीं, आत्मा का पुनर्जन्म है। अब तुम कभी भी बूढ़े नहीं होगे। तुम हमेशा-हमेशा के लिए नूतन और युवा बने रहोगे जैसे सुबह की ओंस की एक बूंद होती है, जैसा रात में उदित होने वाला पहला सितारा होता है। तुम हमेशा नूतन, युवा और एक बच्चे जैसे निर्दोष बने रहोगेक्योंकि यह आत्मा का पुनर्जीवन है और यह हमेशा एक क्षण में ही घटित होता है। अहंकार समय में होता है। जितना अधिक समय, उतना अधिक अहंकार। अहंकार को समय की आवश्यकता होती है। यदि तुम गहराई में प्रवेश करते हो तो तुम यह जानने में समर्थ हो सकते हो कि समय का अस्तित्व केवल अहंकार के ही कारण है। समय तुम्हारे चारों ओर के भौतिक संसार का भाग नहीं है। समय तुम्हारे अंदर के मनोमय संसार का एक भाग है : मन का संसार । समय, अहंकार को आगे बढ़ने, फैलने और विकसित होने के लिए भूमि प्रदान करता है। समय, वह स्थान देता है जिसकी अहंकार को जरूरत होती है। यदि तुमसे यह कहा जाए कि यह तुम्हारे जीवन का अंतिम क्षण है और अगले ही क्षण तुम्हारी मृत्यु होने वाली है तो अचानक समय विलुप्त हो जाता है। तुम बहुत बेचैनी का अनुभव करते हो। तुम अभी भी जीवित हो, लेकिन अचानक तुम अनुभव करते हो कि जैसे मानो तुम मर रहे हो और तुम नहीं सोच पाते कि क्या किया जाए? यहां तक कि सोचना भी कठिन हो जाता है, क्योंकि सोचने के लिए भी समय की आवश्यकता होती है, भविष्य आवश्यक है। जब कल ही नहीं बचा, तब कैसे सोचा जाए, कैसे कामना की जाए और कैसे आशा की जाए? वहां कोई भी समय नहीं है। समय समाप्त हो गया है। एक मनुष्य के साथ सबसे बड़ी वेदना तब घटित होती है, जब उसकी मृत्यु नियत हो, उससे बचा न जा सके, मृत्यु का पल निश्चित ही हो । एक व्यक्ति जिसे उम्रकैद की सजा दी गई है, वह अपनी मृत्यु की प्रतीक्षा कर रहा है। मृत्यु तो निश्चित है और वह इस बारे में कुछ भी नहीं कर सकता है। एक निश्चित समय के बाद वह मर जाएगा। उस निश्चित समय के पार उसके लिए कोई भी भविष्य नहीं होता इसलिए उसके आगे अब वह कोई कामना नहीं कर सकता, वह कोई सोच विचार नहीं कर सकता, वह कोई योजना नहीं बना सकता और वह सपने भी नहीं देख सकता। वह अवरोध, वह बाधा हमेशा वहां है। ऐसे में वह अत्याधिक वेदना से गुजरता है। यह वेदना अहंकार के लिए है, क्योंकि समय के बिना अहंकार भी अस्तित्व में नहीं रह सकता। अहंकार समय में ही श्वास लेता है और समय ही अहंकार के प्राण हैं। जितना अधिक समय होता है, अहंकार के लिए उतनी ही अधिक संभावना होती है। पूरब में अहंकार को समझने का बहुत अधिक प्रयास किया गया, बहुत परीक्षण और बहुत गहरी जांच की गई। उनमें से एक निष्कर्ष यह है कि जब तक तुमसे समय नहीं छूटता है, अहंकार नहीं छूटेगा। यदि कल का अर्थात भविष्य का अस्तित्व बना रहता है तो अहंकार भी अस्तित्व में बना रहेगा। यदि कोई कल न हो तो तुम अहंकार को आगे कैसे खींच सकते हो? यह ठीक ऐसा ही होगा जैसे बिना नदी के किसी नाव को खींचने का प्रयास किया जाए। वह एक बोझ बन जाएगा। एक नदी की नितांत आवश्यकता है तभी एक नाव कार्य कर सकती है। अहंकार के लिए समय की एक नदी की आवश्यकता होती है। इसी कारण अहंकार हमेशा धीमी प्रक्रिया और अंशों या घटकों के बाबत सोचता है। अहंकार कहता है :"ठीक है, बुद्धत्व का घटना संभव है, लेकिन इसके लिए समय की आवश्यकता है", क्योंकि इसके लिए तैयारी करनी होगी और तब ही उस दिशा में कार्य हो सकेगा। यह बहुत तर्कपूर्ण बात है क्योंकि यह सच है कि प्रत्येक कार्य के लिए स
मय की आवश्यकता होती है। यदि तुम एक बीज बोते हो तो उसे वृक्ष बनने में समय लगता है। यदि एक बच्चे का जन्म होता है, यदि एक नया शरीर सृजित होता है तो समय लगता है, बच्चे के विकास के लिए गर्भ भी समय लेगा। तुम्हारे चारों ओर प्रत्येक वस्तु विकसित हो रही है, इस विकास के लिए समय की आवश्यकता होती है, इसीलिए यह तर्कपूर्ण प्रतीत होता है कि बाहर के संसार की तरह, भीतर के संसार यानि आत्मिक विकास में भी समय आवश्यक होगा। लेकिन यह बात महत्त्वपूर्ण है और समझ लेने जैसी है कि वास्तव में आत्मिक विकास ऐसा नहीं है जैसा कि एक बीज का विकास है। बीज को वृक्ष बनना है और बीज से लेकर वृक्ष तक की यात्रा में एक अंतराल है। इस अंतराल को पार करना होता है, वह दूरी तय करनी पड़ती है। परंतु आत्मिक तल पर तुम किसी बीज की भांति विकसित नहीं होते हो, बल्कि तुम स्वयं ही "विकास" हो औरसंसार में केवल उसकाप्रकटीकरण है, एक रहस्योद्घाटन है। जो तुम वास्तव में हो, जो तुम्हारा स्वरूप है और जैसे तुम रूपांतरण के बाद बनोगे, इन दोनों के मध्य बिल्कुल भी दूरी नहीं है, वहां लेशमात्र भी फासला नहीं है। वहां सदैव एक पूर्णता बनी हुई है, वह समग्र ही है। इसलिए यह प्रश्न विकसित होने का नहीं है, बल्कि प्रश्न केवल अनावरण का है, एक पर्दा उठाने का है। यह केवल एक खोज है। कुछ जो पर्दे के पीछे छिपा हुआ था, वह वहां पहले से ही था, पर छुपा हुआ था, तुमने उस पर से पर्दा हटा दिया और वह वहां प्रकट हो गया। यह ठीक ऐसा ही है जैसे मानो तुम आंखें बंद करके बैठे हुए हो, सूरज वहां क्षितिज पर है पर तुम्हारी बंद आंखो के कारण तुम अंधकार में हो। अचानक तुम आंखें खोलते हो और उसी क्षण वहां प्रकाश हो जाता है, वहां दिन है ही। आत्मिक विकास वास्तव में एक विकास नहीं होता, यह शब्द ही ठीक नहीं है, यह शब्द-भ्रम है। आत्मिक विकास, वास्तव में एक अनावरण है, कुछ ऐसा जो छिपा हुआ था और प्रकट हो गया। जो वहां पहले से ही था पर अब तुमने उसे अनुभव कर लिया है। "वह" वास्तव में कभी खोया ही नहीं था, केवल विस्मृत हो गया था, तुम उसे भूल गए थे, अबतुम्हें याद आ गया है। यही मुख्य कारण है कि रहस्यदर्शी सदैव ही "याद" शब्द का प्रयोग करते हैं :नानक ने कहा "सिमरन" यानि स्मृति, बुद्ध ने कहा "सम्यक स्मृति", कबीर ने कहा "सुरति".. संत कहते हैं :दिव्य सत्ता कोई उपलब्धि नहीं है, वह तो बस अपने वास्तविक स्वरूप का एक सहज स्मरण है, कोई वस्तु जिसे तुम भूल गए थे, तुम्हें उसका स्मरण आ गया है। अतः वास्तविकता यही है कि समय की कोई आवश्यकता नहीं है, लेकिन मन कहता है, अहंकार कहता है कि प्रत्येक वस्तु के विकास के लिए समय की आवश्यकता होती है। यदि तुम इस तर्कपूर्ण विचार से ग्रस्त हो जाते हो, तुम इस विचार के शिकार हो जाते हो तो तुम कभी भी आत्मिक विकास न कर सकोगे। तुम उसे स्थगित करते चले जाओगे। तुम कहोगे कल, परसों और आगे ही आगे, परंतु वह कल कभी नहीं आएगा, क्योंकि कल कभी नहीं आता है। जो कुछ भी मैं कह रहा हूं, यदि तुम उसे समझ सकते हो तो अहंकार को ठीक इसी क्षण छोड़ा जा सकता है और यदि यह सत्य है तब प्रश्न उत्पन्न होता है कि यह क्यों नहीं छूट रहा है? तुम क्यों इसे नहीं छोड़ पाते हो? यदि क्रमिक विकास का कोई प्रश्न ही नहीं है, तब तुम उसे क्यों नहीं छोड़ रहे हो? क्योंकि तुम उसे छोड़ना ही नहीं चाहते। इससे तुम्हें आघात लगेगा, क्योंकि तुम यह सोचते हो कि तुम अहंकार छोड़ना चाहते हो। पुनः विचार करो, फिर से सोचो, तुम छोड़ना ही नहीं चाह रहे हो और इसलिए वह लगातार मौजूद रहता है। यह प्रश्न समय का नहीं है, क्योंकि तुम खुद उसे छोड़ना ही नहीं चाहते, इसलिए कुछ भी नहीं किया जा सकता है। मन के ढंग बड़े अजीब हैं, रहस्यमयी हैं, तुम सोचते हो कि तुम उसे छोड़ना चाहते हो और अपनी गहराई में तुम भलीभांति जानते हो कि तुम उसे छोड़ना नहीं चाहते हो। हां, हो सकता है कि तुम अपने मन के इस बर्ताव को थोड़ा रंग-रोगन पोतकर, थोड़ा चमका कर, पॉलिश करना पसंद करोगे, तुम उसे परिष्कृत ढंग से प्रस्तुत करने का प्रयास करोगे। लेकिन तुम वास्तव में उसे छोड़ना नहीं चाहते हो । यदि तुम उसे छोड़ना चाहते हो तो वहां ऐसा कोई भी नहीं है, जो तुम्हें रोक रहा हो। कोई भी बाधा मौजूद नहीं है। केवल चाहने भर से ही उसे छोड़ा जा सकता है। यदि तुम छोड़ना ही न चाहो तो कुछ भी नहीं किया जा सकता है, यहां तक कि हजार बुद्ध भी तुम पर कार्य कर करें, तुम्हें मार्गदर्शन दें, तो तुम उन्हें भी असफल कर दोगे, क्योंकि बाहर से कुछ भी नहीं किया जा सकता है। क्या सच में तुमने इसके बारे में सोचा है? क्या कभी तुमने इस पर ध्यान दिया है? क्या सचमुच तुम इसे छोड़ना चाहते हो? क्या तुम वास्तव में अस्तित्वहीन और नाकुछ होना चाहते हो? यहां तक कि अपने धार्मिक कृत्यों में भी तुम कुछ विशेष
होना चाहते हो, तुम कुछ प्राप्त करना चाहते हो और तुम कहीं पहुंचना चाहते हो । जब तुम विनम्र होते हो, तब तुम्हारी विनम्रता भी अपने अहंकार को छिपाने का केवल एक गुप्त स्थान मात्र है और कुछ भी नहीं है। तथाकथित विनम्र लोगों की ओर देखो। वे कहते हैं कि वे विनम्र हैं और वे अपने कस्बे में, अपने शहर में और अपने आसपास के स्थानों में यह सिद्ध करने का प्रयास भी करते हैं कि वे सबसे अधिक विनम्र हैं। पर यदि तुम उनसे तर्क करो और कहो-"नहीं, कोई अन्य व्यक्ति आपसे भी अधिक विनम्र है", तो यह सुनकर उन्हें चोट लगेगी। यह चोट लगने का अनुभव किसे हो रहा है? मैं एक ईसाई संत के बारे में पढ़ रहा था। वह रोज़ अपनी प्रार्थना में परमात्मा से कहता था-"मैं इस पृथ्वी पर सबसे बड़ा दुष्ट और पापी हूं।" देखने में, प्रकट रूप में वह बहुत विनम्र मालूम होगा, लेकिन वास्तव में ऐसा नहीं है। वह कहता है कि पृथ्वी पर सबसे बड़ा पापी है और यदि इस बात पर परमात्मा विवाद करने लगे तो वह जरूर तर्क-वितर्क करेगा। उसकी गहरी दिलचस्पी, उसकी आंतरिक रूचि पापी बनने में नहीं है बल्कि सबसे बड़ा पापी बनने में है। यदि तुम्हें सबसे बड़ा पापी बनने की अनुमति दी जाती है, तो तुम एक पापी भी बन सकते हो। तुम इसमें प्रसन्नता का अनुभव करोगे- एक महानतम पापी । तब तुम एक शिखर बन जाते हो। सदाचार या पाप दोनों ही महत्त्वहीन है, बस तुम्हें कुछ विशेष बनना है। अतः कारण कोई भी हो, खूंटी कोई भी हो, तुम्हारा अहंकार शीर्ष पर बना रहना चाहिए। जॉर्ज बर्नाड शॉकहते थे-"मैं स्वर्ग में द्वितीय स्थान पर रहने की अपेक्षा नर्क में प्रथम बने रहना पसंद करूंगा।" इसका मतलब यही निकलता है कि नर्क कोई बुरा स्थान नहीं हो सकता, यदि तुम वहां प्रथम हो, यदि तुम सबसे आगे हो तो नर्क भी स्वीकार्य है। स्वर्ग भी तुम्हें उदासीन लगेगा, यदि तुम बहुत भीड़ में कहीं किसी कोने में, एक पंक्ति में अनजान की भांति खड़े हो। और बर्नाड शॉ ठीक कहते हैं। मनुष्य का मन इसी तरह से कार्य करता है। कोई भी व्यक्ति अहंकार को छोड़ना नहीं चाहता अन्यथा कोई समस्या ही नहीं है। तुम बहुत सहजता सेठीक अभी और इसी क्षण उसे छोड़ सकते हो । यदि तुम्हें ऐसा लगता है कि अहंकार छोड़ने के लिए समय की आवश्यकता है, तब यह समय केवल तुम्हारी समझ बढ़ने के लिए चाहिए ताकि तुम जान सको कि तुम ही उसके साथ लिपटे हुए हो, तुम ही उसे पकड़े हुए हो और जिस क्षण तुम यह समझ सको कि यह तुम्हारा ही लगाव है, तुम ही चिपके हो तो बस घटना घट जाएगी। तुम इस सामान्य सच्चाई को समझने में अनेक जन्म लगा सकते हो। तुमने पहले ही से अनेक जन्म ले लिए हैं और तुम अभी तक नहीं समझे हो। यह बहुत ही विचित्रप्रतीत होता हैकि जो तुम पर एक बोझ है, जो तुम्हें निरंतर एक नर्क में धकेलता है... इस सब के बावजूद भी, तुम उस अहंकार को पकड़े रहते हो। इसके पीछे जरूर कोई गहरा कारण होना चाहिए। कोई ऐसा कारण, जिसकी जड़ें बहुत गहराई तक जम गई हैं। मैं इस बारे में थोड़ी सी बात कहना चाहूंगा । तुम उससे सचेत हो सकते हो। मनुष्य के मन का स्वभाव ही ऐसा है कि वह अक्रिया की अपेक्षा सदैव ही क्रिया या व्यस्तता का ही चुनाव करता है। यदि क्रिया पीड़ादायक है, यदि क्रिया में दुख है, तब भी वह वस्तुतः अव्यस्त होने की अपेक्षा व्यस्तता ही चुनाव करता है क्योंकि बिना किसी कार्य में व्यस्त हुए तुम स्वयं के मिटने का अनुभव करने लगते हो। मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि जब लोग अपनी नौकरी, काम-काज और व्यापार आदि से रिटायर होते हैं तो वे बहुत शीघ्र मर जाते हैं। उनकी आयु तुरंत ही लगभग दस वर्ष कम हो जाती है। वे अपनी मृत्यु से पहले ही मरना शुरू हो जाते हैं। उनके पास अब कोई कार्य नहीं है, वे व्यस्त नहीं हैं। जब तुम व्यस्त नहीं हो, जब तुम खाली होते हो तो तुम व्यर्थ और अर्थहीन अनुभव करने लगते हो। तुम यह अनुभव करते हो कि अब तुम्हारी जरूरत नहीं है। अब तुम अन्य लोगों के लिए आवश्यक नहीं हो और तुम्हारे बिना भी संसार सुगमता से चलता रहेगा। जब तक तुम व्यस्त बने रहते हो तो तुम्हें अनुभव होता है कि संसार तुम्हारे बिना एक कदम भी नहीं चल सकता है। तुम इस संसार के एक मुख्य हिस्से हो, महत्त्वपूर्ण भाग हो और तुम्हारे बिना यह दुनिया रूक जाएगी। यदि तुम अव्यस्त हो, खाली हो जाते हो तो अचानक तुम सचेत होते हो कि बिना तुम्हारे भी संसार बहुत सुंदरता से आगे बढ़ रहा है। कुछ भी नहीं बदल रहा है और तुम तिरस्कृत कर दिए गए हो, तुम कहीं कचड़े के ढेर पर फेंक दिए गए हो और तुम्हारी कोई भी आवश्यकता नही है। जिस क्षण भी तुम यह अनुभव करते हो कि तुम्हारी कोई भी आवश्यकता नहीं है तो अहंकार बेचैन हो जाता है, क्योंकि वह केवल तभी अस्तित्व में रह सकता है जब तक तुम्हारी जरूरत होती है। इसलिए चारों तरफ यह अहंकार अपने इसी दृष्टिकोण कोप्रत्येक व्यक्
ति पर थोपता चला जाता है कि तुमको होना ही चाहिए, तुम बहुत आवश्यक हो और बिना तुम्हारे कुछ भी नहीं हो सकता है, तुम्हारे बिना यह संसार मिट जाएगा। खाली होने पर तुम्हें यह अनुभव होता है कि तुम्हारे बिना भी दुनिया का खेल जारी है। तुम इसके महत्त्वपूर्ण भाग नहीं हो, तुम्हें सरलता से फेंका जा सकता है, कोई भी व्यक्ति तुम्हारी फिक्र नहीं करेगा और न ही कोई तुम्हारे बारे में सोचेगा। वस्तुतः ऐसा भी संभव है कि तुम्हारे न होने पर लोग मुक्ति का अनुभव करें। यह व्यवहार अहंकार को खंड-खंड कर देता है। इसलिए लोग व्यस्त बने रहना चाहते हैं, बल्कि उन्हें व्यस्त बने रहना होगा। उन्हें अपनी इस भ्रांति को बनाए रखना होगा कि वे समाज का अति आवश्यक हिस्सा हैं। ध्यान, मन के खाली होने की स्थिति है। बहुत गहराई में यह सभी कार्यों से मुक्त होने जैसा है। यह मुक्ति हिमालय पर भाग जाने जैसी कोई नकली मुक्ति नहीं है। ऐसी मुक्ति किसी भी कीमत पर मुक्ति हो ही नहीं सकती क्योंकि तुम हिमालय पर जाकर भी एक छोटा संसार बसा लोगे, तुम वहां भी व्यस्तता ढूंढ ही लोगे। तुम हिमालय पर भी अपनी नई-नई कल्पनाएं सृजित कर सकते हो कि तुम अपनी तपस्या से संसार को नष्ट होने से बचा रहे हो । हिमालय में बैठकर तुम ध्यान कर रहे हो और इसी कारण संसार तृतीय विश्व युद्ध से बच रहा है। चूंकि तुम विधायक तरंगें फैला रहे हो इसी कारण यह संसार "आदर्श समाज" और "शांति प्रिय" समाजबन रहा है। इन सब तरह की कल्पनाओं से तुम अपने आप को हिमालय में भी व्यस्त कर सकते हो। वहां कोई भी तुमसे तर्क नहीं करेगा क्योंकि तुम वहां अकेले हो। कोई भी तुमसे तुम्हारी कल्पना की सत्यता के संदर्भ में विवाद नहीं करेगा और कोई इसकी चिंता नहीं करेगा कि तुम एक विभ्रम अथवा एक भ्रांतिजनक स्थिति में हो। वहां तुम इन कल्पनाओं में पूरी तरह से डूबे रह सकते हो, और एक बार फिर से तुम्हारा अहंकार एक नए और सूक्ष्म रूप में अपने होने का दावा करेगा। ध्यान एक नकली मुक्ति नहीं है। यह एक गहन, अंतरंग और वास्तविक मिक्त है, यह एक प्रत्याहार है। ऐसा नहीं है कि ध्यान करने के बाद तुम जीवन में कोई काम ही नहीं करोगे, तुम अपने जीवन के क्रियाकलाप पहले जैसे ही जारी रख सकते हो, लेकिन ध्यान के बाद तुम अपने "अहं" को और अपने वर्चस्व कायम करने की प्रवृत्ति को हटा लेते हो। प्रत्येक जगह तुम्हारी जरूरत है, तुम्हारे बिना संसार नहीं चल सकता, ऐसे भ्रमों से तुम मुक्त होने लगते हो। तुम्हें यह अनुभव होने लगता है कि तुम्हारी ऐसी भ्रांतियां केवल तुम्हारी मूर्खता थी। तुम्हारे बिना भी संसार भलीभांति चल सकता है और इसमें निराश होने की कोई भी आवश्यकता नहीं है। बल्कि यह अच्छा है, यहां तक कि बहुत अच्छा है कि संसार तुम्हारे बिना भी चल सकता है। यदि तुम सही ढंग से समझ सको तो यह एक स्वतंत्रता बन सकता है । यदि तुम नहीं समझते हो, तभी तुम टूटने का, मिटने का, बिखरने का और खंड-खंड होने का अनुभव करते हो। इसलिए लोग किसी भी कार्य में व्यस्त बने रहना चाहते हैं और उनका अहंकार उन्हें महानतम तथा संभव व्यस्तताएं दे भी देता है। चौबीस घंटे अहंकार व्यक्ति को व्यस्त रखता है। वे लगातार सोच रहे हैं कि कैसे संसद सदस्य बना जाए? वे सोच रहे हैं कि कैसे एक मंत्री अथवा उपमंत्री बना जाए? कैसे राष्ट्रपति बना जाए? अहंकार सदैव सोचता ही रहता है और योजनाएं बनाता चला जाता है। वह तुम्हें निरंतर व्यस्त रखता है कि कैसे अधिक समृद्धिप्राप्त की जाए और कैसे अपना साम्राज्य निर्मित किया जाए। अहंकार तुम्हें निरंतर सपने देता है, वह इन सपनों के माध्यम से तुम्हें भीतर भी व्यस्त बनाए रखता है और तुम अनुभव करते हो कि तुम्हारे द्वारा बहुत कुछ हो रहा है और आगे भी होना है। व्यस्तता न मिलने पर अथवा खाली होने पर तुम अचानक अपनी आंतरिक रिक्तता के प्रति सचेत होते हो। तुम्हारे सपनों के कारण वह आंतरिक रिक्तता अनुभव नहीं हो पा रही थी। मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि एक व्यक्ति बिना भोजन के भी लगभग नब्बे दिनों तक जीवित रह सकता है, लेकिन नब्बे दिन तक वह बिना सपने देखे नहीं रह सकता। वह पागल हो जाएगा। यदि स्वप्न देखने की अनुमति न हो तो तुम तीन सप्ताह में ही पागल हो जाओगे। बिना भोजन के, तीन सप्ताह तक तुम्हें कोई भी हानि नहीं होगी और यहां तक कि ऐसा करना तुम्हारे स्वास्थ्य के लिए अच्छा हो सकता है। बिना भोजन किए तीन सप्ताह का उपवास तुम्हारी पूरी शारीरिक व्यवस्था को एक नई स्फूर्ति देगा। तुम अधिक जीवंत तथा युवा हो जाओगे, लेकिन तीन सप्ताहों तक बिना सपनों के तुम पागल हो जाओगे। सपने निश्चित ही मन की किसी गहरी जरूरत को पूरा करते हैं। यह गहरी जरूरत है कि बिना किसी व्यस्तता के भी यह सपने तुम्हें व्यस्त बनाए रखते हैं। तुम अपनी इच्छानुसार सपने देख सकते हो, तुम जो चाहो वह कर सकते हो और क
म से कम अपने सपनों में तो जो चाहो कर सकते हो। तुम्हारे सपनों में पूरा संसार तुम्हारे अनुसार ही गतिशील होता है। कोई भी वहां समस्या उत्पन्न नहीं करता है। तुम किसी को भी मार सकते हो, तुम किसी की भी हत्या कर सकते हो, तुम जैसा चाहो परिवर्तन कर सकते हो, तुम अपने सपने के मालिक होते हो। सपनों के दौरान अहंकार अधिक महत्त्वपूर्ण हो जाता है, क्योंकि वहां कोई दूसरा नहीं होता, जो तुम्हारा विरोध कर सके और तुमसे यह कह सके-"नहीं, यह गलत है।" तब तुम सर्वेसर्वा होते हो। तुम जो भी चाहते हो, तुम उसे अपने सपने में निर्मित कर लेते हो। जो तुम नहीं चाहते हो उसे तुम नष्ट कर देते हो। स्वप्न में तुम पूर्ण रूप से शक्तिशाली होते हो। तुम अपने सपनों में सर्वशक्तिमान होते हो। सपने केवल तभी बंद होते हैं जब अहंकार मिट जाता है। इसलिए यह एक संकेत है। वास्तव में ऐसा संकेत पुराने योग शास्त्रों में भी मिलता है कि जो व्यक्ति बुद्धत्व को उपलब्ध हो गया हो, वह स्वप्न नहीं देख सकता। उसका स्वप्न देखना बंद हो जाता है, क्योंकि उसे अब सपनों की कोई आवश्यकता ही नहीं है। वह तो अहंकार की आवश्यकता थी। अहंकार को पोषित करने के लिए ही तुम व्यस्त बने रहना चाहते थे। इसी कारण तुम अहंकार कोछोड़ नहीं सके। जब तक तुम खाली होने को तैयार नहीं हो, जब तक तुम नाकुछ होने को तैयार नहीं हो, जब तक तुम समाज के लिए अनुपयोगी होते हुए भी जीवन में आनंद और उत्सव मनाने के लिए तैयार नहीं हो, तब तक अहंकार को नहीं छोड़ा जा सकता है। समाज में उपयोगी बने रहना, महत्त्वपूर्ण बने रहना ही तुम्हारी गहरी जरूरत है। जब तक कोई तुम्हें महत्त्वपूर्ण समझता है, जब तक तुम किसी के लिए बहुत मूल्यवान होते हो, तब तुम बहुत भराव महसूस करते हो। यदि ज्यादा लोगों के लिए तुम ही एक मात्र केंद्र बन जाओ तो तुम अत्यंत प्रसन्नता का अनुभव करते हो। यही कारण है कि नेतृत्व करने में इतनी प्रसन्नता मिलती है, क्योंकि इतने अधिक लोगों को तुम्हारी आवश्यकता होती है। एक नेता बहुत अधिक विनम्र हो सकता है। उसे अपने अहंकार को स्थापित करने की कोई आवश्यकता ही नहीं होती क्योंकि बहुत अधिक लोगों के लिए वह महत्त्वपूर्ण है, बहुत लोग उस पर निर्भर हैं, इसलिए उसके अहंकार की अत्यंत सहजता और गहनता से प्रतिपूर्ति हो जाती है। वह इतने अधिक लोगों का जीवन-स्रोत बन जाता है कि वह प्रसन्न अनुभव करता है, और विनम्र बना रहता है, बल्कि वह विनम्र बने रहने में समर्थ हो जाता है। तुम्हें इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि जो लोग अपने अहंकार को बहुत अधिक दृढ़ करते हैं, वे हमेशा ऐसे लोग होते हैं, जो दूसरों कोप्रभावित नहीं कर सकते। तब वे अपने अहंकार को दृढ़तापूर्वक स्थापित करते हैं, क्योंकि उनके पास अपनी बात कहने का केवल यह ही एक रास्ता बचता है। इसी तरह से वे सिद्ध कर पाते हैं कि वे भी कुछ हैं। यदि वे लोगों कोप्रभावित कर पाते, यदि वे लोगों को अपनी बात पर राजी कर ही पाते, तो उन्हें अहंकार के इस दावे की जरूरत ही नहीं पड़ती। अतः ऐसे लोग केवल दिखावे के लिए ही सही, परंतु बहुत विनम्र होंगे। वे अहंकार को प्रदर्शित नहीं करेंगे, क्योंकि वे सूक्ष्म रूप से जानते हैं कि बहुत लोग उन पर आश्रित हैं, वे जानते हैं कि अब वे उन लोगों के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण हैं और इस महत्त्व के कारण ही उन्हें अपना जीवन उन लोगों के प्रति अर्थपूर्ण प्रतीत होता है। यदि इस तरह से किसी और के लिए अर्थपूर्ण होना ही तुम्हारा लक्ष्य है, यदि तुम्हारे अहंकार को पोषित करना ही तुम्हारे जीवन का अर्थ है, तब तुम उस अहंकार को कैसे छोड़ सकते हो? मुझे सुनते हुए तुम इस अहंकार को छोड़ने के बारे में सोचना शुरू कर देते हो, लेकिन केवल सोचने से ही तुम उसे नहीं छोड़ सकते हो। इस अहंकार को समझने के लिए उसकी जड़ों तक जाना होगा, जहां वह गहरा जमा हुआ है, जहां से उसका वजूद है, और यह भी जानना होगा कि वह वहां क्यों मौजूद है? यह अचेतन शक्तियों का एक प्रवाह है जो तुम्हारी आज्ञा के बिना, तुम्हारी जानकारी के बिना ही तुम पर कार्य करता है। इस प्रवाह को चेतन बनाना होगा। तुम्हें अपने अवचेतन की भूमि से, उस की गहरी पर्तों में जमी अहंकार की सभी जड़ों को उखाड़कर बाहर लाना होगा, जिससे तुम उन्हें देख सको और समझ सको। यदि तुम खाली बने रह सकते हो, यदि तुम संसार के लिए अनावश्यक होते हुए भी संतुष्ट रह सकते हो तो अहंकार इसी क्षण छूट सकता है, लेकिन यह "यदि "... बहुत बड़ा यक्ष- प्रश्न हैं और ध्यान तुम्हें इसी यक्ष- प्रश्न के उत्तर हेतु तैयार करता है। अहंकार के गिरने की घटना एक क्षण में ही घटती है परंतु समझ को गहरा होने में समय लग जाता है । यह लगभग ऐसा है, जैसेजब तुम पानी गर्म करते हो, तो वह धीमे धीमे गर्म होता जाता है, मध्यम गर्म और फिर तेज गर्म हो जाता है तथा सौ डिग्री के विशिष्
ट तापक्रम पर आते ही वह भाप बनना शुरू हो जाता है। यह पानी का भाप बन जाना... एक क्षण में ही घटित होता है, यह धीमे-धीमे नहीं होता बल्कि अचानक एक क्षण में होता है। पानी से भाप बनने की प्रक्रिया एक छलांग है। इस प्रक्रिया में अचानक पानी विलुप्त हो जाता है, परंतु पानी से भाप बनने के लिए समय लगता है, पानी धीरे-धीरे गर्म होते हुए उबाल के बिंदु तक पंहुचता है। भाप अचानक एक क्षण में बनती है पर भाप बनने के लिए सही तापमान तक आने में समय लगता है। समझ का गहरे होना, पानी के गर्म होने की तरह है, वह समय लेती है। अहंकार का छूटना भाप बनने की तरह है, वह अचानक घटित होता है। इसलिए अहंकार को छोड़ने का प्रयास मत करो। वस्तुतः अपनी समझ को गहरा बनाने का प्रयास करो। पानी को भाप में बदलने का प्रयास मत करो। केवल पानी को गर्म करो। एक घटना के घटित होते ही दूसरी वस्तुतः स्वयं ही घटित हो जाएगी, वह अनुसरण करेगी। वह निश्चित रूप से घटित होगी ही। इसलिए समझ को विकसित करो, अपनी समझ को और अधिक सघन करो, इसे केंद्रित करो। अपनी समस्त उर्जा का प्रयोग अपने अहंकार का मूल समझने हेतु करो। अपनी सारी शक्ति अपने अहंकार, अपने मन और अपने अचेतन को समझने में लगा दो। अधिक से अधिक सजग बनो और जो कुछ भी होता है, उसे हर हाल में समझने का प्रत्येक संभव प्रयास करो। कोई व्यक्ति तुम्हारा अपमान करता है और तुम क्रोध से भर जाते हो। इस अवसर से मत चूको, समझने का प्रयास करो कि क्यों? आखिर यह क्रोध क्यों आता है? इस क्रोध को एक दार्शनिक तथ्य मत बनाओ और पुस्तकालयों में जाकर क्रोध के संबंध में छानबीन मत करो। यह क्रोध तुम्हें घट रहा है, यह तुम्हारा अनुभव है, एक जीवंत अनुभव है। अपनी समस्त ऊर्जा, अपना पूरा ध्यान इस पर केंद्रित कर दो और समझने का प्रयास करो कि यह तुम्हें क्यों घट रहा है? यह कोई दार्शनिक अथवा मनोवैज्ञानिक समस्या नहीं है और इसके बारे में फ्रायड जैसे किसी प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक से परामर्श लेने की भी कोई आवश्यकता नहीं है। यह बहुत मूर्खतापूर्ण कृत्य है कि क्रोध तुम्हें घट रहा है और तुम दूसरे लोगों से इसका निदान पूछते हो। यह केवल एक मूढ़ता है। तुम क्रोध के इस अनुभव को महसूस कर सकते हो, तुम क्रोध में छुपे हुए अहंकार का रस ले सकते हो। तुम ही क्रोध के क्षणों के बाद बोझिल और अपमानित भी महसूस करोगे। अतः समझने का प्रयास करो कि यह क्यों हो रहा है? यह क्रोध कहां से आ रहा है? इसकी जड़ें कहां हैं? यह उत्पन्न कैसे होता है? यह कार्य कैसे करता है? यह कैसे तुम पर हावी हो जाता है? और कैसे तुम क्रोध में पागल हो जाते हो? यह क्रोध तुमसे पहले भी हो चुका है और अब भी हो रहा है, लेकिन अब तुम एक नया तत्त्व, एक नया आयाम इसमें जोड़ दो... और वह आयाम है समझ का आयाम, समझ के जुड़ते ही क्रोध के गुण और लक्षण बदल जाएंगे। तब धीरे-धीरे तुम पाओगे कि जितना अधिक तुम क्रोध को समझते हो, उतना ही वह कम होता जाता है और जब तुम उसे पूर्ण रूप से समझ लेते हो तो एक दिन वह विलुप्त हो जाता है। समझ को बढ़ाना तापमान को बढ़ाने के समान है। तापमान जैसे ही सौ डिग्री के विशिष्ट बिंदु तक पहुंचता है, तो पानी विलुप्त हो जाता है और भाप बन जाता है। इसी तरह, क्रोध की ही भांति सेक्स है :उसे भी समझने का प्रयास करो। जितनी गहरी समझ होगी, तुम्हारी कामुकता, तुम्हारी वासना उतनी ही क्षीण होती जाएगी। तुम्हारी समझ जैसे ही शिखर पर पंहुचेगी अथवा पूर्णतम होगी वैसे ही उसी क्षण कामुकता पूर्ण रूपेण विलुप्त हो जाएगी। यही मेरी कसौटी है कि आंतरिक ऊर्जा का कोई भी आयाम यदि उथली और बाहरी समझ से दमित होता है और नकारात्मक ढंग से प्रकट होता है, तो वह पाप है, अपराध है। परंतु गहरी समझ के द्वारा यदि वह आयाम रूपांतरित होता है, तो वही सदाचार है। तुम्हारी समझ की मात्रा जितनी गहरी होती जाएगी, उतना ही मात्रा में तुम्हारे भीतर से व्यर्थ विसर्जित हो जाएगा, नकारात्मकता विदा होती जाएगी और सकारात्मकता या सार्थकता सघन होगी। कामुकता और वासना विलुप्त हो जाएगी और प्रेम गहन होगा। क्रोध विलुप्त होगा और करुणा गहनतम होगी। लोभ मिटेगा और बांटने का भाव गहन होगा। इसलिए गहरी समझ के द्वारा जो कुछ भी विसर्जित होने लगे, जान लेना कि वह व्यर्थ है, नकारात्मक है और जो कुछ भी तुम्हारे भीतर गहरी जड़ें जमाने लगे, जान लेना कि वही सार्थक है। मैं इसी तरह से अच्छे और बुरे, सदाचार और व्याभिचार तथा पुण्य और पाप की व्याख्या करता हूं। एक धार्मिक व्यक्ति या पुण्यवान व्यक्ति और कुछ नहीं बल्कि एक गहरी समझ का मालिक होता है। अधार्मिक व्यक्ति या पापी व्यक्ति वही है जिसकी समझ का स्तर बहुत ही उथला है, छिछला है। एक धार्मिक और एक अधार्मिक व्यक्ति में मुख्य अंतर पाप या पुण्य का नहीं होता है अपितु एक गहरे तल की समझ का होता है । यही गहरी स
मझ, पानी को गर्म करने की प्रक्रिया की भांति कार्य करती है। जब वह क्षण आता है, जब तापमान उबलने के बिंदु तक पंहुच जाता है तो अचानक जैसे भाप बनती है वैसे ही अचानक अहंकार छूट जाता है। तुम प्रत्यक्ष रूप से, बिल्कुल सीधे ही अहंकार पर प्रहार नहीं कर सकते, हां! तुम उस स्थिति को अवश्य तैयार कर सकते हो, जिसमें अहंकार स्वतः ही नष्ट हो जाता है। वह स्थिति निर्मित होने में समय लगेगा। इस संदर्भ में सदैव से ही दो विचारधाराएं रहीं हैं पहली यह कि बुद्धत्व अचानक घटित होता है, यह समय के पार है। दूसरी यह है कि बुद्धत्व अचानक नहीं बल्कि धीरे-धीरे क्रमिक रूप से घटित होता है। यह दोनों विचारधाराएं परस्पर विपरीत हैं। एक के अनुसार बुद्धत्व अचानक ही, अनायास ही घटता है और दूसरी के अनुसार बुद्धत्व अचानक नहीं बल्कि धीमी प्रक्रिया में घटता है और दोनों ही सही हैं क्योंकि दोनों ने सिक्के के एक-एक पहलू को `चुन लिया है, धीमी प्रक्रिया वाली विचारधारा ने गहरी समझ को विकसित करने वाला भाग चुन लिया और उनके अनुसार इसमें समय लगेगा, गहरी समझ समय के साथ ही विकसित होगी। और वे सही हैं, उनके अनुसार अचानक होने वाली घटना के बारे में चिंतित नहीं होना चाहिए क्योंकि यह धीमी प्रक्रिया है। वे कहते हैं कि तुम केवल प्रक्रिया का अनुसरण करो और इस प्रक्रिया में जब पानी ठीक बिंदु तक गर्म हो जाएगा तो वह स्वतः ही वाष्प बन जाएगा। तुम्हें वाष्प के बारे में फिक्र करने की आवश्यकता ही नहीं है। तुम वाष्प से संबंधित सभी विचार अपने दिमाग से निकाल दो और तुम अपना पूरा ध्यान केवल और केवल पानी के गर्म करने पर लगा दो। इसके विपरीत, दूसरी विचारधारा जो कहती है कि बुद्धत्व अचानक घटता है, उसने अंत वाला भाग चुन लिया है। वह कहते हैं कि प्रक्रिया इतनी सारभूत नहीं है, मुख्य बात यह है कि बिना किसी समय-अंतराल के ही घटना घट जाती है, बस एक क्षण में ही विस्फोट होता है। पहली जोधीमी प्रक्रिया है, वह केवल परिधि है, परंतु दूसरी तरफ जो अचानक विस्फोट है, वही वास्तविक बिंदु है, वह केंद्र है। लेकिन मैं तुमसे कहता हूं कि दोनों ही ठीक हैं। बुद्धत्व अचानक घटता है और हमेशा अचानक ही घटित हुआ है। लेकिन समझ समय लेती है। दोनों ही सही हैं परंतु दोनों की व्याख्या गलत ढंग से की जा सकती है। तुम मन की चाल में फंस सकते हो, तुम स्वयं को ही धोखा दे सकते हो । यदि तुम कुछ भी नहीं करना चाहते हो, कोई भी प्रयास नहीं करना चाहते हो तो अचानक घटने वाले बुद्धत्व पर विश्वास करना एक आकर्षण होगा, क्योंकि तब तुम कहोगे कि यदि यह अचानक ही घटता है तो कुछ करने की आवश्यकता नहीं है, यह अचानक घट ही जाएगा और मैं इसमें कर ही क्या सकता हूं? मैं तो बस उस क्षण की प्रतीक्षा कर सकता हूं। यह स्वयं के प्रति धोखा हो सकता है। इसी कारण, विशेषतः जापान में धर्म पूरी तरह विलुप्त हो गया। जापान में अचानक बुद्धत्व घटने की एक प्राचीन परंपरा है। झेन कहता है कि बुद्धत्व अचानक घटता है। इसी कारण से पूरा देश गैर-धार्मिक बन गया। लोगों में यह विश्वास प्रचलित हो गया कि अकस्मात बुद्धत्व ही एक मात्र संभावना है। इसके अलावा कुछ भी नहीं किया जा सकता है और वह जब भी घटना होगा... तब ही घटेगा। यदि वह होना है तो होगा ही और यदि नहीं होना है तो नहीं होगा। हम इसके लिए कुछ भी नहीं कर सकते हैं, इसलिए कुछ किया ही क्यों जाए? कुछ करने की चिंता ही क्यों की जाए? पूरब में जापान सबसे अधिक भौतिकवादी देश है। पूरब में जापान, पश्चिम के एक भाग की भांति अस्तित्व में है। यह बड़ी अजीब बात है कि जापान की ध्यान और झाझेन जैसी अत्यंत सुंदर परंपराएं विलुप्त हो गईं? ऐसा क्यों हुआ? इस अचानक बुद्धत्व घटने की धारणा के कारण ऐसा हुआ । इसी धारणा के फलस्वरूप वह सुंदर परंपराएं विलुप्त हुईं। लोगों ने स्वयं को धोखा देना शुरू कर दिया। भारत में एक दूसरी चीज़ घटित हुई... और इसीलिए मैं बार-बार यह कहता रहता हूं कि मनुष्य का मन बहुत अधिक धोखेबाज और चालबाज है। तुम्हें निरंतर सजग बने रहना होगा अन्यथा तुम धोखा खाओगे। भारत में हमारे पास एक अन्य परंपरा है :क्रमिक बुद्धत्व की। भारत का योग-विज्ञान वही धीमी प्रक्रिया है। तुम्हें योग की इस प्रक्रिया के अंतर्गत कार्य करना पड़ता है, यहां तक कि अनेक जन्मों तक कठोर श्रम करना पड़ सकता है। अनुशासन की आवश्यकता होती है, अभ्यास की आवश्यकता होती है। जब तक तुम कठोर श्रम नहीं करते, तब तक तुम योग में कुशलता प्राप्त नहीं करोगे। इसलिए यह एक अत्यंत लंबी प्रक्रिया है, इतनी अधिक लंबी है कि भारत में माना जाता है कि इसके लिए एक जन्म पर्याप्त नहीं है और तुम्हें अनेक जन्मों की आवश्यकता होगी। अत्यंत सूक्ष्म और जटिल योग साधना के संबंध में यह बात गलत भी नहीं है। जहां तक समझ का संबंध है, यह सत्य है, लेकिन तब भारत ने माना
कि यदि यह प्रक्रिया इतनी अधिक लंबी है तो फिर जल्दी क्या है? इतनी शीघ्रता क्यों? तब संसार का भरपूर आनंद लो क्योंकि कोई जल्दबाजी नहीं है और पर्याप्त समय है। यह इतनी अधिक लंबी प्रक्रिया है कि तुरंत ही, आज ही इसका परिणाम मिल पाना संभव नहीं है। यदि परिणाम शीघ्रता से प्राप्त नहीं किया जा सकता है, तब क्रिया के प्रति रूचि ही समाप्त हो जाती है। कोई भी व्यक्ति इतनी गहन अभीप्सा नहींरखता है कि वह कई जन्मों तक प्रतीक्षा कर सके और इसलिए वह बुद्धत्व की बात ही भूल जाता है। अतः क्रमिक बुद्धत्व की धारणा ने भारत को नष्ट किया और अचानक बुद्धत्व की धारणा ने जापान को नष्ट कर दिया। मेरे लिए दोनों ही सत्य हैं, क्योंकि दोनों ही एक संपूर्ण प्रक्रिया के आधे-आधे भाग हैं। तुम्हें निरंतर सजग बने रहना होगा कि तुम स्वयं को धोखा न दे सको। यह विरोधाभासी दिखाई देगा, परंतु मैं तुमसे कहना चाहता हूं कि यह ऐसा है जोअभी "इसी क्षण" घटित हो सकता है, लेकिन इसी क्षण" को आने में कई जन्म लग सकते हैं। इसलिए कठोर श्रम करो, प्रयास ऐसे करो जैसे यह ठीक इसी क्षण घटित होने जा रहा हो और धैर्य से प्रतीक्षा भी करो, क्योंकि इस संबंध में कोई भविष्यवाणी नहीं की जा सकती है। यह कोई नहीं बता सकता है कि वह कब घटित होगा? हो सकता है कि वह अनेक जन्मों तक घटित ही न हो। इसलिए धैर्य से प्रतीक्षा करो, ऐसी प्रतीक्षा जैसे कि संपूर्ण प्रक्रिया स्वयं में एक लंबा और धीमा विकास हो और जितना संभव हो सके उतना कठोर श्रम भी करते रहो, जैसे कि बुद्धत्व अभी इसी क्षण घटित हो सकता है। ओशो! काम-ऊर्जा के प्रयोग द्वारा हमारे विकास के संबंध में कुछ कहने की कृपा करें, क्योंकि पश्चिमी देशों की अनेक समस्याओं में से यह भी एक मुख्यचिंता का विषय है। सेक्स या काम, ऊर्जा है। इसलिए मैं इसे काम-ऊर्जा नहीं कहूंगा, क्योंकि कोई दूसरी ऊर्जा है ही नहीं। केवल सेक्स ही वह मूलभूत ऊर्जा है, जो तुम्हें प्राप्त हुई है। ऊर्जा का रूपांतरण किया जा सकता है, यह एक उच्चतम और श्रेष्ठतम ऊर्जा बन सकती है। यह जितनी अधिक ऊंचाई पर गतिशील होती है, उतनी ही कामवासना निम्नतर हो जाती है और अंत में जब यह अपने चरम शिखर पर पंहुचती है तोप्रेम और करुणा में रूपांतरित हो जाती है। यह इसकी सर्वोच्च खिलावट है, हम इसे दिव्य अथवा आलौकिक ऊर्जा भी कह सकते हैं, परंतु इसका आधार, इसका मूल और इसका गढ़ सेक्स ही है। इसलिए सेक्स प्रथम है, सेक्स इस ऊर्जा की सबसे निचली परत है और दिव्यता या भगवत्ता इसकी सबसे ऊंची परत है। इन दोनों परतों के बीच यह एक ही ऊर्जा गतिशील होती है, केवल ध्रुवों पर इसका गुण बदल जाता है। पहली बात जो समझनी होगी, वह यह है कि मैं ऊर्जा को विभाजित नहीं करता हूं। एक बार यदि विभाजन हो जाए तो द्वैत निर्मित हो जाता है, इस विभाजन से तनाव और संघर्ष उत्पन्न होता है। यदि तुम इस ऊर्जा को विभाजित करते हो, तो तुम भी विभाजित हो जाते हो, ऐसे में या तो तुम सेक्स के पक्ष में हो जाओगे या सेक्स के विरोध में हो जाओगे। मैं न तो पक्ष में हूं और न ही विपक्ष में हूं, क्योंकि मैं उसे विभाजित नहीं करता हूं। मैं कहता हूं कि सेक्स एक ऊर्जा है, सेक्स या काम केवल इस ऊर्जा का एक नाम है। तुम उस ऊर्जा को कोई भी नाम दे सकते हो, तुम इसे "एक्स" या "वाई" या "ए" या "बी" कुछ भी कह सकते हो। जब तुम इस ऊर्जा का उपयोग जैव-वैज्ञानिक ढंग से, एक प्रजनन-शक्ति के रूप में करते हो, तब इस "एक्स" ऊर्जा का, इस अज्ञात ऊर्जा का नाम सेक्स या कामुकता है। यही "एक्स" ऊर्जा जब वह जैव-वैज्ञानिक बंधन से मुक्त होती है तब यह दिव्यता में रूपांतरित हो जाती है। एक बार यदि यह ऊर्जा शारीरिक बंध से, वासना से और उन्माद से मुक्त हो जाए तो यही ऊर्जा जीसस का प्रेम है और बुद्ध की करुणा है। आज ईसाईयत के कारण पूरा पश्चिम एक तरह के सनकीपन से पीड़ित है, मनोग्रसित है। दो हजार वर्षों से ईसाईयत द्वारा दमित की गई काम-ऊर्जा ने पश्चिमी मन को सेक्स के प्रति विक्षिप्त बना दिया है। पहली बातदो हजार वर्षों से यह प्रयास किया जा रहा था कि इस ऊर्जा को कैसे नष्ट किया जाए? तुम इसे नष्ट नहीं कर सकते। कोई भी ऊर्जा नष्ट नहीं की जा सकती, वह केवल रूपांतरित की जा सकती है। ऊर्जा को आमूल रूप से नष्ट करने का कोई उपाय ही नहीं है, इस संसार में किसी भी चीज़ को नष्ट नहीं किया जा सकता है, उसे केवल बदला जा सकता है, रूपांतरित किया जा सकता है और एक नई सत्ता में या एक नूतन आयाम में परिवर्तित किया जा सकता है। ऊर्जा का पूर्ण विनाश असंभव है। तुम एक नई ऊर्जा को निर्मित नहीं कर सकते हो, और न ही तुम किसी पुरानी ऊर्जा को नष्ट कर सकते हो । सृजन और विनाश दोनों ही तुम्हारे हाथ में नहीं है, यह तुम्हारी प्रत्येक संभव सीमा के बाहर की बात है। इसलिए निर्माण और विनाश असंभव है। अब व
ैज्ञानिक भी इस बात से सहमत हैं कि एक छोटे से छोटा अणु भी नष्ट नहीं किया जा सकता है। ईसाईयत दो हजार वर्षों से सेक्स ऊर्जा को नष्ट करने का प्रयास कर रही है। वह धर्म-पूर्ण ढंग से सेक्स के बिना अपना अस्तित्व बनाए रखना चाहती है। इससे एक पागलपन उत्पन्न हो गया। तुम इस सेक्स ऊर्जा से जितना अधिक लड़ते हो, तुम उतना ही अधिक इसका दमन करते हो और इसी दमन के कारण तुम और अधिक कामुक बन जाते हो। तब सेक्स तुम्हारे अवचेतन में गहरे तक प्रवेश कर जाता है और वह तुम्हारे पूरे अस्तित्व को विषैला बना देता है। इसलिए यदि तुम ईसाई संतों के जीवन चरित्र को पढ़ो तो तुम पाओगे कि वे सेक्स के प्रति मनोग्रसित हैं। वे प्रार्थना नहीं कर सकते हैं, वे ध्यान नहीं कर सकते हैं। वे जो कुछ भी करते हैं, उसमें सेक्स प्रवेश कर जाता है। तब वे सोचते हैं कि कोईशैतान उनके साथ छल-कपट कर रहा है, शैतान उनसे धूर्तता कर रहा है। कोईशैतान नहीं है, कोई छल-कपट नहीं कर रहा है। यदि तुम सेक्स ऊर्जा का दमन कर रहे हो तो तुम ही वह शैतान हो । निरंतर दो हजार वर्षों तक सेक्स का दमन करने के बाद, पश्चिम इससे दुखी हो गया, थककर चूर हो गया। सेक्स की अति हो गई। तब अचानक सबकुछ पलट गया। अब दमन के स्थान पर सेक्स के प्रति आसक्ति पैदा हो गई और इसके भोग का एक नया उन्माद उत्पन्न हुआ। मन एक छोर से दूसरे छोर पर, एक अति से दूसरी अति पर गतिशील हो गया। परंतु बीमारी ज्यों की त्यों बनी रही। एक बार वह दमन के रूप में थी, अब उसी बीमारी ने अतिशय भोग का रूप ले लिया। यह दोनों ही रुग्ण दृष्टिकोण हैं। न तो सेक्स का दमन करना है और न ही विक्षिप्त की तरह उसका भोग करना है, बल्कि सेक्स का तो रूपांतरण करना है। सेक्स को कामुकता से दिव्यता की ओर रूपांतरित करने का एकमात्र संभव उपाय यह है कि काम-क्रीड़ा में गहन ध्यानमयी सजगता के साथ उतरा जाए। यह ठीक वैसे ही है, जैसा मैं क्रोध के बारे में कह रहा था । सेक्स में उतरो परंतु एक जागरूक, होशपूर्ण और सचेतन ढंग से इसका उपभोग करो। इसे एक अचेतन शक्ति के रूप में हावी होने की आज्ञा मत दो। इसके प्रभाव में मत आओ, इसके द्वारा संचालित मत होवो। समग्र जागरूकता के साथ, जानतेसमझते हुए, प्रेमपूर्ण ढंग से इसमें सहभागी बनो। अपने सेक्स के अनुभव को ध्यान का एक गहन अनुभव बनाओ। इसमें ध्यानपूर्ण बने रहो। ध्यानपूर्ण ढंग से और सजगता से सेक्स में उतरने की प्रक्रिया को ही पूरब ने तंत्रयोग कहा है। यदि एक बार सेक्स के अनुभव में तुम ध्यानपूर्ण हो सको तो तुम पाओगे कि उसकी गुणवत्ता ही बदल गई है। वह ऊर्जा जो काम वासना के अनुभव में गतिशील हो रही थी, अब वही ऊर्जा चेतना की ओर गतिशील होना प्रारंभ कर देती है। तुम कामोन्माद के सर्वोच्च शिखर पर पूर्ण जागरूक और पूर्ण सजग रह सकते हो, जो किसी अन्य प्रकार से कभी भी संभव नहीं है, क्योंकि कोई दूसरा अनुभव इतना अधिक गहन, इतना अधिक तल्लीन करने वाला और इतना अधिक समग्र नहीं होता। संभोग के सर्वोच्च शिखर पर तुम पूर्ण रूप से ऊर्जा द्वारा अवशोषित कर लिए जाते हो, तुम्हारी समस्त जड़ें उस ऊर्जा को पी लेती हैं, तुम्हारा पूरा अस्तित्व इस ऊर्जा से आविष्ट हो जाता है और उस ऊर्जा में तरंगायित होने लगता है। तुम्हारा शरीर और मन दोनों ही तल्लीन हो जाते हैं। इस क्षण में विचार की प्रक्रिया पूर्णतः रुक जाती है। जब तुम संभोग के आनंद-शिखर पर पहुंचते हो तो चाहे एक क्षण के लिए ही सही, तुम्हारी पूरी विचार प्रक्रिया रूक जाती है, क्योंकि इस क्षण में तुम समग्र होते हो, इसलिए तुम विचार कर ही नहीं सकते। संभोग के सर्वोच्च शिखर तुम विशुद्ध चेतन सत्ता के रूप में होते हो। वहां तुम चेतनता के रूप में, ऊर्जा के रूप में होते हो और तुम्हारा अस्तित्व विचार रहित होता है। इस क्षण में यदि तुम सजग और सचेत हो सको, तो यही सेक्स एक द्वार बन सकता है, दिव्यता के जगत में प्रवेश करने के लिए। यदि इस क्षण में तुम सजग बने रह सकते हो तो अन्य क्षणों में भी और जीवन के अन्य अनुभवों में भी वह सजगता आ सकती है। यह सजगता तुम्हारा एक मुख्य अंग बन सकती है। तब भोजन करते हुए, टहलते हुए और कोई भी कार्य करते हुए, तुम सजग बने रह सकते हो। सेक्स के माध्यम से सजगता ने तुम्हारे अंतरतम और गहनतम केंद्र को अथवा आत्मा को स्पर्श किया है। सजगता ने तुम्हारी समस्त परतों को भेदकर, अंदर गहराई तक प्रवेश किया है। अब तुम सजगता ही हो। यदि तुम ध्यानपूर्ण हो जाते हो तो तुम एक नवीन तथ्य को अनुभव करोगेकि सेक्स तुम्हें परम आनंद नहीं देता है, सेक्स तुम्हें परम उन्माद नहीं देता है, वस्तुतः मन की निर्विचार स्थिति और काम-कृत्य में तुम्हारा समग्र रूप से तल्लीन हो जाना ही तुम्हें परमानंद का पूर्ण अनुभव देता है। एक बार यदि तुम इस रहस्य को समझ जाते हो तब सेक्स की आवश्यकता निम्नतम हो जात
ी है, क्योंकि मन की वह निर्विचार स्थिति सेक्स के बिना भी निर्मित की जा सकती है। और ध्यान करने का ठीक यही अर्थ होता है कि निर्विचार स्थिति को उपलब्ध हुआ जा सके। अस्तित्व के साथ समग्र रूपेण एक होने की स्थिति, बिना सेक्स के भी सृजित की जा सकती है। एक बार तुम जान जाते हो कि यह अनुभव सेक्स के बिना भी हो सकता है, तब सेक्स की आवश्यकता कम हो जाएगी। एक क्षण ऐसा आएगा जब सेक्स की आवश्यकता बिल्कुल भी महसूस नहीं होगी। स्मरण रहे, सेक्स हमेशा दूसरे पर आश्रित है, इसलिए सेक्स में एक बंधन और एक गुलामी बनी रहती है। तुम किसी अन्य व्यक्ति पर आश्रित हुए बिना, यदि एक बार भी संभोग के सर्वोच्च शिखर-आनंद को या समग्रता की उस स्थिति को निर्मित कर पाते हो, तो वह ऊर्जा तुम्हारे लिए अंतरस्रोत बन गई। अब तुम स्वतंत्र हो और मुक्त हो। इसी स्वतंत्रता को, इसी मुक्ति को, भीतरी ऊर्जा और ब्रह्माण्डीय उर्जा के इस निराश्रित संयोग को ही भारत में ब्रह्मचर्य कहा गया है। ब्रह्मचर्य अर्थात पूर्ण रूप से कुंवारा... ऐसा व्यक्ति जो मुक्त रह सकता है क्योंकि अब वह किसी अन्य व्यक्ति पर आश्रित नहीं है, उसका परमानंद केवल उसी के भीतर से उपजता है। ध्यान के द्वारा सेक्स विलुप्त हो जाता है, लेकिन यह ऊर्जा का विनाश नहीं है। ऊर्जा कभी भी नष्ट नहीं होती है, केवल ऊर्जा का रूप बदल जाता है। ध्यान के द्वारा, अब वह ऊर्जा काम-वासना नहीं है और जब उसका रूप कामुक नहीं है, वासनामय नहीं है, तब तुम एकदम प्रेमपूर्ण हो जाते हो। वास्तव में, जो व्यक्ति कामुक होता है, वह प्रेमल नहीं हो सकता। उसका प्रेम केवल एक दिखावा हो सकता है, उसका प्रेम केवल एक छल-कपट हो सकता है। उसका प्रेम केवल और केवल सेक्स की ओर जाने का एक साधन है। कामातुर व्यक्तिप्रेम का उपयोग सेक्स के लिए एक तकनीक की भांति करता है। उसके लिए प्रेम एक मार्ग है, सेक्स तक जाने का। एक कामातुर व्यक्ति सचमुच प्रेम कर ही नहीं सकता है। वह केवल दूसरे का शोषण कर सकता है। उसके लिए प्रेम केवल दूसरे तक पंहुचने का और दूसरे को पाने का या दूसरे पर कब्ज़ा करने का एक साधन मात्र है। एक व्यक्ति जो वासना से मुक्त हो गया है और उसकी काम ऊर्जा उसके ही भीतर, उसकी चेतना की ओर गतिशील हो रही है, तो वह स्वतः ही परम आनंद बन जाता है। उसका परमानंद कुंवारा है, निराश्रित है, वह स्वयं से ही जन्मा है। ऐसा व्यक्ति ही वास्तव में प्रेमल होगा। उसका प्रेम निरंतर बरसेगा, उसका प्रेम निरंतर बंटेगा और निरंतर उसका प्रेम दूसरों में वितरित होता रहेगा। लेकिन इस स्थिति कोप्राप्त करने के लिए तुम्हें सेक्स-विरोधी बनने की आवश्यकता नहीं है। इस स्थिति कोप्राप्त करने के लिए तुम्हें सेक्स को जीवन के एक अभिन्न अंग की भांति स्वीकार करना होगा। सेक्स को एक स्वाभाविक और प्राकृतिक जीवन शैली की भांति स्वीकार करना होगा। सेक्स में अत्यंत सहजता और सचेतनता से गतिशील होना होगा। चेतन तत्व एक पुल की तरह है, एक स्वर्ण-सेतु की तरह है जो इस लौकिक संसार और उस आलौकिक संसार; स्वर्ग एवं नरक तथा अहंकार एवं दिव्यता के जगत को आपस में जोड़ता है।
तुम्हें क्या मिला? पुरानी भाषा की एक भविष्यवाणी। लैनफियर। फिर हमारी दुनिया में आ गई। लैन पर भरोसा कर सकते हैं? महारत के लिए मशहूर थी। स्वप्न लोक। आख़िरकार। मैं फ़िदाबक्ष से प्यार करने का नाटक करूँ? कि वह क्या चाहता है। मैट को चोट नहीं आने दूँगी। तुम्हारे श्राप से मुक्ति दिलाऊँ? उसे सियारहीन लेकर आओ। जिसे तुमने अगवा किया। काल संघ सच में है। कुछ करो! नहीं कर सकती। इग्वीन कहाँ है? पश्चिमी तट पर हमला हुआ है। मीनार ने बहनों को जाँच के लिए भेजा है। जाँच करने पश्चिम जाना पड़ेगा। तुम कौन हो? रायमा, पीतांबर संघ से। क्या हश्र करते हैं? इसे बाँधो। इसे काबू करना होगा। तुमने कैसे चोट नहीं पहुँचा सकती। उसकी जोगन को दोगुना महसूस होता है। मौत तक। पहली सीख। दूसरी सीख। जंजीर को हटा नहीं सकते। तुम तो कतई नहीं। मैं रेना हूँ। तुम्हारा नाम? कई योगनारी इससे सहमत नहीं होतीं दोस्ती बनाने में यकीन रखती हूँ। तुम्हारा नाम क्या है? तो बेहतर होगा कि मुझे बता दो। इग्वीन। इग्वीन। न रखने देने की कोई वजह नहीं दिखती। यह क्या जगह है? तुम्हारा घर। आराम करो, इग्वीन। जल्द तुम्हारा प्रशिक्षण शुरू होगा। तो? क्या तुम चिल्लाकर अपनी जान की भीख माँगोगे? रिझाने की कोशिश करोगे? तो क्या चाल है? क्या चाहती हो, लैनफियर? अब सेलिन नहीं बुलाओगे? लुईस थेरिन। यकीन नहीं होता तुम पर भरोसा किया। मुझ पर भरोसा क्यों नहीं कर सकते? तुम्हारी हिफ़ाज़त करती आई। इश्माएल को तुम्हारे सपनों से दूर रखा। मुझे विश्वास नहीं होता। तुमने पिछले जन्म में भी यही किया था। तारीफ़ की बात है? मेरे बारे में कुछ नहीं जानती। तुम्हारे दोस्त कहाँ हैं, रैंड? पेरिन, मैट, न्यानेव इग्वीन? उन सबको बताया कि तुम मर गए। क्या इससे उनकी हिफ़ाज़त होगी? और आसान हो जाएगा। ताकि तुम्हें काबू कर सके। वे पक्ष नहीं बदलेंगे। मुझे भी एक समय पर यही लगा था। और तुम्हें किस पर भरोसा है? मोइराने पर? बस तुम्हें छला है और लगाम कसी है? ऐसी एक जगह जहाँ पर आज भी उसकी साख है? यह इत्तेफ़ाक है कि लोगैन वहाँ है? अपने इशारों पर नचा रही थी। पता है क्या? तो उसे कमाना पड़ेगा। मुझे बताओ कि इश्माएल कहाँ है। बताओ कि उसका क्या इरादा है। अरे वाह, ज़रा देखो। अभी तुम्हारे अंदर थोड़ा सा लुईस बचा है। तो मेरी एक शर्त है। उसने क्या कहा? मुझे जाना है। कहाँ? उसने बताया कि कहाँ? नहीं। तुमसे दूर। उसकी यही शर्त थी। तुम्हें मार डालेगी। लोगैन। तुम उसे सियारहीन लाई, है न? ताकि मैं यहाँ आऊँ। हाँ, बेशक। जहाँ वह तुम्हें कभी न सिखा पाता। पहले ही बहुत देर तक रुक गया। वह एक फ़िदाबक्ष है, रैंड। उसकी बात मत सुनो। सियारहीन। अब समझा कि तुम यहाँ क्यों आना चाहती थी। मैट। रुको, मैट। मेरे ख़्याल से यह एक भूल है। हमें जाना चाहिए। किसी और मधुबाला का जादू चल जाएगा। वह तुम्हारे जितनी दिलचस्प नहीं होगी। उससे फ़र्क नहीं पड़ता। चलो। कहाँ जा रहे हो? चलो, मिन। चलो भी! तुम चलना बंद करोगी? वे हमें सुन लेंगे। मैं चल नहीं रही। छानबीन कर रही हूँ। हमें किसी अनजान ने अटारी में बंद किया है। रायमा सेडाई, जो रक्षा कर रही हैं। हमें आइ सेडाई पर भरोसा करना चाहिए? हम इस स्थिति में मेरी वजह से नहीं फँसे। बात तक नहीं की थी। तुम ही थी जिसने कि आइ सेडाई और उसका रक्षक नहीं तुम दोनों की बहस सुन सकता हूँ। कोई बात नहीं, बसन। वे अभी के लिए जा चुके हैं। इसे भाषण देने की आदत है। एल्डरबेरी और अस्ट्रैगैलस। मेरा पसंदीदा शक्तिवर्धक पेय था। वह कमरबंद। तुम एक विदुषी हो। हाँ। तो जानती हो कि यह पेय मन शांत करता है। श्वेत मीनार से क्यों भागीं? मुझ पर भरोसा कर सकती हो। इसका आश्वासन देता है। यह बात लियांड्रिन से कहो। लियांड्रिन सेडाई? वह इसका हिस्सा कैसे है? वह निशाचर की दास है। और उसी ने हमें सैंचन के हवाले किया। उसने तीन वचन तोड़े? हर एक वचन। पर इसका मतलब है काल संघ। यह सच नहीं हो सकता। अगर तुम्हारी बात सच हुई तो हमारी सारी बहनें गंभीर ख़तरे में हैं। माफ़ करना कि इतनी देर छोड़कर गई। पहला वाला जाने दूँगी। तुम्हारे बेटे को खिला दूँगी। तुमने कैसे मैं तुम्हारे सपनों में गई। ज़्यादातर अपने मनोरंजन के लिए। तुम्हारे काफ़ी दिलचस्प शौक हैं। इश्माएल ने बताया आप आज़ाद हैं, पर क्यों काम करती हो? मर्दों से नफ़रत करती हो। हालाँकि, एक मर्द को छोड़कर। रहम करो। इसका नाम क्या है? एलुड्रैन। मर्द हमें चोट पहुँचाते हैं हमें धोखा देते हैं और फिर भी हम उन्हें चाहते हैं। पर यह कोई ज़िंदगी नहीं है। मुझे पता है। यह तुम्हें पीछे रख रहा है। जो तुम हुआ करती थी। ब्याह करने का ज़ोर डाला गया। मुझे पता है। जो तुम नहीं कर पाओगी। दूसरी औरत को दे सकती है। नहीं। नहीं। वचन लिया था, इश्माएल का नहीं। उन्हें वापस नहीं ले सकती। यह नामुमकिन है। कई रास्ते होते हैं। त
ो मेरे पास तुरक से ज़्यादा होगी, है न? तुम लोग मेरे अमानुष ख़ादिम से मिले? हमारे लिए गाना गाओ, माली। इन्हें दिखाओ। तरुगायन ऐसे नहीं गाओ! हमारे लिए। मुझे इसे तोहफ़े में तुरक को देना चाहिए। कल्पना कर सकते हो? चलो फ़ैसला करें। मैं उसे यह तोहफ़े में कैसे दूँ? क्या पता चला? कमरा है। बिगुल वहाँ है। वहाँ बहुत कम पहरा है। कि उन्हें उसके चोरी होने का डर तक नहीं है। पर इग्वीन अल'वेर का क्या? बाहरी इलाके में एक जगह है जहाँ जोगनों को रखा जाता है। वहाँ बिगुल से ज़्यादा पहरेदार तैनात हैं। बिगुल ज़्यादा मायने रखता है, सर्जक। हमें हम उस तक पहुँचने का रास्ता ढूँढ लेंगे। लोयाल वह जगह केनेल्स कहलाती है। अंदर से उतनी ही सख्त है। तो वह। इग्वीन। जिसे वह हथियार समझती है। तब तक नहीं जब तक वह जंजीर पहने रहेगी। चाहे ज़िंदगी कितनी भी लंबी हो। कि तुम बस एक जोगन हो। लड़ नहीं सकती, इग्वीन। अब मुझे प्याले में पानी दो। हम अभ्यास जारी रखेंगे। यह कि मुझे कभी चोट नहीं पहुँचाओगी। तब ही तुम उसे छू पाओगी। तुम मज़बूत हो और हिम्मत वाली हो। जंजीर में तुम्हारी ताक़त महसूस हो रही है। सबसे मुश्किल होता है। मैं कल वापस आऊँगी। अच्छे से आराम कर लो, इग्वीन। तुम्हारे सपनों से भी बेतहाशा अमीर। और पियक्कड़ों के बीच सो रही हो? हुक्म के मुताबिक मैट को यहाँ ले आई। अपना वादा निभा दिया। कि चुटकियों में तुम्हारा श्राप मिटा दूँ? इसी को सौदा कहते हैं। ड्रैगन यहाँ सियारहीन में है। रैंड अल'थॉर। उससे मिल चुकी हो। तो पक्का करो कि मैट उसके साथ यहाँ से जाए। तुम जानते हो मैंने क्या देखा। मैट और रैंड की वह झलकी। तुमने कैसे देखा श्राप से मुक्त कर दूँगा। और अगर मैंने न किया तो? यह भी रुकने के लिए ठीक ही जगह है। चाय की तलब लगी है। यह फ़िदाबक्षों का मंदिर है। दिलचस्प जगह चुनी। आश्रय आश्रय होता है। एमिर्लिन की इजाज़त चाहिए होगी। जब तक वह मीनार अभिलेखों से हटा न दिया जाए। वापस नहीं लौटेंगी। वह केमलिन के दौरे से लौट रही हैं। फ़िदाबक्ष। जो आइ सेडाई ने खो दीं? ऐसे कवच जो यह युग भूल गया? वे निशाचर की सेना के सेनापति हुआ करते थे। जो हमारी आइ सेडाई कभी नहीं करेंगी। पर निर्भर करता है जिनका सामना कर रहे हैं। बस करो। यूँ चिढ़ाना बंद करो। छोड़कर जाना बेअदबी होती है। तो और भी बड़ी बेअदबी है। मैं लड़ना नहीं चाहता। ठुकराए जाना लगभग एक नया अनुभव है। यह पूछने के लिए मुझे माफ़ करना, पर तुम कहाँ जा रहे हो, भाई? वह मेरा ज़ाती मामला है। "लहू से लहू पैदा होता है। लहू लहू को पुकारता है। सवाल का जवाब दो, लैन। रहम करके। तुम्हें वाकई लगता है कुछ यकीन से नहीं कह सकते। क्योंकि तुमने हमें कुछ नहीं बताया है। जान जोखिम में डाल रहे हो, क्यों? तो तुम इस जगह से नहीं जाओगे। मैं निशाचर से लड़ा था। रास्ते से हटो। निष्कासित नहीं किया था। तुम जानते हो। तुम्हें उनका ठिकाना बताऊँ। क्यों? मुझे उन्हें ढूँढ़ना है। तुम्हें सिउआन सांचे से क्या चाहिए? यह मोइराने को लेकर है। अ'लैन मैनड्रैगोरैन। तो हम तुम्हें यहीं मार देंगे। हमें पुनर्जीवित ड्रैगन मिला। तुम उन सबको मार डालोगे। आगे जाकर तुम्हारा यही हश्र होगा। यह जानते हो, है न? और उन सबको मार देते हैं जिन्हें चाहते हैं। यह नहीं चाहता कि तुम यहाँ रहो, तो जाओ। कि उससे तुम्हारी रक्षा करूँगी। स्वप्न लोक में सावधान रहना, रैंड। यहाँ मर भी सकते हो। उसके असली रूप में। जिसे चाहो उसे देख सकते हो। ऐसे लगेगा मानो कि तुम दोनों जाग रहे हो। मैंने उस बारे में सोचा, और तुम सही थे। मैंने तुम्हें भरोसे की कोई वजह नहीं दी। तो अब शुरुआत करती हूँ। मैं तुम्हें एक सपने का तोहफ़ा देती हूँ। कोई ऐसा है जिससे मिलना चाहोगे? कोई भी? कोई भी। इग्वीन? इग्वीन? इग्वीन। रैंड? तुम्हें क्या हो गया? रैंड? रैंड क्या यह तुम हो? नहीं। उसे क्या हो गया? श्वेत मीनार में होना चाहिए था। मुझे पता है कि वह कहाँ है। मुझे बताओ। रहम करके बताओ, लैनफियर। मेरी परवाह की है, तो बस रहम करके बता दो कि वह कहाँ है। मुझे बताओ! इश्माएल के कब्ज़े में। मैंने कहा था वह उन्हें ढूँढ़ लेगा। मैं कुछ भी करूँगा। रैंड? ख़ुद को संभालो। मैं पागल हो रही हूँ। चलो भी। ख़ुद को संभालो। उसकी जोगन को दोगुना महसूस होता है। मैं तुम्हें सुन नहीं पा रही। कोई है? कोई है? उसकी जोगन को दोगुना महसूस होता है। हे दिव्यज्योति। पता है हम कहाँ हैं? जिसे वह हथियार समझती है। नहीं, हम जोगन नहीं हैं। ज़रा बता सकती हो कि हम कहाँ हैं? तुम्हारा नाम क्या है? मैं इग्वीन हूँ। उसकी जोगन को दोगुना महसूस होता है। जहाज़ के कप्तान से बात की है। वह तुम्हें मीनार ले जाएगा। जोखिम नहीं ले सकते। लियांड्रिन सेडाई के बारे में बताओ। आप बता देना। मैं इग्वीन के बिना नहीं जाऊँगी। बचाने की पूरी कोशिश करेंगे। मैं न
हीं जाऊँगी। और हम दोनों को कम आँका है। न्यानेव या मैं यहाँ से नहीं जाएँगे। उसे यहाँ रखो। तो हमें इसे खोलने का तरीका ढूँढ़ना होगा। मेरे साथ कुछ हुआ है तुम्हें बहुत पहले बता देना चाहिए था मैं तंग तो नहीं कर रहा? सोचा कि आपके लिए कुछ खाने को ले आऊँ। रैंड चला गया? उसके लिए भी बनाया। वह आज शाम बाहर रहेगा और मुझे भूख नहीं है। बस छोटा सा टुकड़ा है। देखिए। एक बेहद ख़ास गाय के मक्खन से बने हैं। ज़ाहिर है, यह सच नहीं था। तो यकीनन अब तक मर चुकी होगी। मैं बस दोनों तरफ़ मक्खन लगाता था। इसे यहीं रख दो। मैं तंग देने के लिए माफ़ी चाहूँगा। आपने सही कहा था। हमेशा की तरह। कोशिश करके देख ली। बहन, मैं सोई नहीं हूँ। कि हम उल्लू कैसे बन गए। मेरा बेटा तुम्हारी पूजा करता है। जैसा मैं करती थी। जैसे पिताजी चुप। उन्होंने तुम्हें याद किया था। पर वह बारबार तुम्हें ही याद करते रहे। और बस तुमसे मिलना चाहते थे। तुम्हें पता था। आख़िरी समय में उनका हाथ नहीं पकड़ पाई? पर उन्हें चाहती थी। हमेशा से उनसे प्यार करती थी। ऐसी क्या आफ़त आ गई थी, मोइराने? इस घर और इस शहर से चली जाओ। उतना ही मेरा है जितना कि तुम्हारा। मेरी कृपा से यहाँ हैं। अच्छा गुण नहीं है, मोइराने। एक भी नहीं। तुम पूरी तरह से माँ पर गई हो। प्यारी सिउआन। मेरे साथ कुछ हुआ है रुको! तुम कौन हो? गति धीमी करो। ठहरो! ठहरो! ठहरो! लैन। एकांत दो। माता। क्या हुआ? क्या बात है? मोइराने को लेकर है। जानता था तुम वापस आओगे। तुम्हें मुझे सिखाना होगा। जिनसे तुम आइ सेडाई से लड़े थे। बारबार अभ्यास किया। क्यों सोचते हो कि मैं यूँ ही बता दूँगा? क्योंकि तुम अपनी छाप छोड़ना चाहते हो। दुनिया को बचाओगे, या उसे बिखेरोगे। अपनी छाप छोड़ सकते हो। स्रोत को गले लगाओ। कम से कम इतना तो कर लेते होगे? उसे जकड़ लो। उसके आगे घुटने मत टेको, लड़के। इसी तरह। उसे अपना बनाओ। अब न दिखावा, न ही छिपनाछिपाना। अगर शक्ति चाहिए, तो उसे लो। हाँ। ज़्यादा ले ली तो संभाल नहीं पाओगे। हाँ। ज़्यादा होने से पहले छोड़ देना। रुक जाओ! रुको! इतना वक़्त नहीं है। किसके लिए? लड़ने के लिए इसका इस्तेमाल सीखने के लिए। इतनी शक्ति के साथ किसी से भी लड़ सकते हो। सब्र रखने के लिए बहुतबहुत शुक्रिया। सारा पैसा देना आसान बात रही होगी। हमें दोनों पासों में चार चाहिए, ठीक? मेज़ के बीचोबीच रख दीजिए। चलिए। पैसे डालिए, हाँ। प्लीज़। अच्छा, बहुत ख़ूब। क्या बात है। कोई और? शुक्रिया। पासे फेंक रहे हैं, हाँ? मैट? जल्दी! तुम सियारहीन में क्या कर रहे हो? और तुम्हारे बाल कहाँ गए? यार, बड़े भद्दे लग रहे हो। बाकी सब कहाँ हैं? क्या वे यहाँ हैं? पेरिन कहाँ है? इग्वीन? मैं मैट, बड़ी लंबी कहानी है। वह तो अच्छी चीज़ है। मेरे पास वक़्त ही वक़्त है। मेरी बाज़ी को बिगाड़ने के लिए। कभी ध्यान मत करना। आगे बढ़ो, पर बस थोड़ी देर। कोई ताला नहीं है। कोई जोड़ नहीं है। मैंने आज तक ऐसा कुछ नहीं देखा। यह एक तिलिस्मी द्वार है? कसौटी की तरह। एक मिनट के लिए दो। तुमने नहीं बताया कि ये कहाँ से मिले। पहले, केवल अफ़वाहें थीं। गुलाम बनाने की फुसफुसाहट। इन दावों की पुष्टि करने के लिए भेजा। ख़तरे को कितना कम आँका था। हुकूमत में लाना चाहते हैं। दो मारी गईं, अपनेअपने रक्षकों के साथ। एक को क़ैद कर लिया गया। आइ सेडाई को क़ैद कर लिया? मामूली आइ सेडाई नहीं। नील संघ की दूत। तुम बालबाल बची थी। पर हमारी वफ़ादारी पर कोई शक़ नहीं था। एकदूसरे और हमारे मकसद की ओर। अपनी जान से इसकी कीमत चुकाई। तुम उसे उतार नहीं सकती। बिना असहनीय दर्द सहे उसे छू भी नहीं सकती। तुम यह जानती हो। जानना चाहोगी कि जंजीर किसने बनाई? किसी राक्षस ने। वह तुम्हारी श्वेत मीनार की बहन थी। आइ सेडाई के गुलाम नहीं होते। तुम एक शिष्या के तौर पर क्या करती थी? वे तुम्हारी शक्ति पर लगाम लगाना चाहती हैं। करतब करके सबका मनोरंजन करो। जिसके लिए तुम पैदा हुई। कोई औरत शक्तिशाली नहीं हो सकती। अरे, इग्वीन तुम कोई आम औरत नहीं हो। तुम एक जोगन हो, एक बहुत ताक़तवर जोगन। बताया गया होगा कि तुम कितनी ख़ास हो। मेरे साथ चलो। देखा? तो बेहतर महसूस होता है, है न? पेड़ को देखो, इग्वीन। पता है तुम्हें सुकून मिलता है। उसकी ओर हाथ बढ़ाओ। उसकी जड़ें खोजो। तुमने वे ढूँढ़ लीं। शाबाश। उसके तने में जाओ। उसके रस को बहते हुए महसूस करो। उसे अपने मन में और गर्म होने दो। इतना गर्म कर दो कि भाप निकलने लगे। अब उस भाप को आग में बदल दो। ऐसा ही महसूस होना चाहिए। हम ऐसी शक्ति के लिए बने हैं, इग्वीन। महसूस हो रहा है? हमारा नाता? यह लो। अपने लिए पानी डालो। तुम इसकी हक़दार हो। पानी डालो, इग्वीन। तो तुम चली जाना। लियांड्रिन के बारे में बताना होगा। और हम तीनों उन्हें बताएँगे। तुम्हारी कुछ जिम्मेदारियाँ हैं। तुम
ऐनडोर की राजपुत्री हो। तो मैं राजपुत्री बन गई? सब कुछ जोखिम में क्यों डाल रही हो? वह मेरी सहेली है। और आज तक मेरी कोई सहेली नहीं थी। कि बाकी कहाँ हैं, या नहीं? कि मैंने निशाचर को हरा दिया तो मुझे बहुत अजीब लगता है मैं चला गया। उन्हें पीछे छोड़ गया। इग्वीन, पेरिन, न्यानेव, उन सबको। मैट, उन्हें लगता है मैं मर गया। मैंने सोचा इससे वह सलामत रहेंगे। मैंने सोचा पता नहीं, मुझे लगा सब मेरे बिना ही बेहतर रहेंगे। ज़्यादा सुरक्षित भी। नहीं। हम तुम्हारे बिना बेहतर नहीं हैं, रैंड। कसम से। हम तुम्हारे बिना भी अधूरे हैं, मैट। पर अब वह उसके कब्ज़े में है। इश्माएल के। इग्वीन फ़ाल्मे में क़ैद है। मुझे पता है कि वे चाहते हैं मैं वहाँ जाऊँ। पर अगर मैं नहीं गया तो उसके साथ क्या होगा? तो, हम चलते हैं। मुझे उससे पहले बस एक काम करना होगा। दरअसल, एक लड़की का दिल तोड़ना होगा। मैं एक घंटे में तुमसे फाटक पर मिलता हूँ। मैट मेरे साथ जाने की ज़रूरत नहीं है। सच में। हाँ, ज़रूरत है। और कौन तुम्हें घमंडी बनने से रोकेगा? पुनर्जीवित ड्रैगन। एक घंटे में। मैं पहुँच जाऊँगा। मिनी मिन मिन? मिन? तुम्हारे साथ कोई है? क्या मुझे जलना चाहिए? मिल? अंदर आ जाओ। तुम्हें किसने शराब के बदले पानी दे दिया? मैं केवल बढ़िया शराब ही पीती हूँ। और मैं तुम्हें इसी तरह याद रखूँगा। तुम्हें शराब अच्छी चाहिए। पता है मैं किससे टकराया? मेरे दोस्त से। जिसने बारे में तुम्हें बताया था। वह यहाँ है। तुम नहीं जा सकते। बताया भी नहीं कि मैं जा रहा हूँ। मैंने देखा। नहीं। मैं कह चुका हूँ, मुझे नहीं तुम रैंड को मार डालोगे। क्या? नहीं। नहीं। हाँ, उस खंजर से। सुनहरे मूठ पर माणिक वाली? नहीं। फ़ाल्मे। वह तुम्हें वहीं ले जा रहा है? नहीं। तुम रैंड को कैसे जानती हो? तुमने मुझे फँसाया। नहीं। हाँ? इसीलिए हम यहाँ आए। नहीं। उसकी वजह से? वह मेरा वह इरादा नहीं था, मुझे पता न था कब से? जबसे हम बाहर निकले? नहीं। हमारे मिलने से पहले से। मुझे माफ़ कर दो। मुझे मुझे सच में लगा कि तुम मेरी दोस्त हो। मैं हूँ भी। मैं हूँ। तभी यह बता रही हूँ। नहीं जानते इसकी क्या कीमत चुकानी होगी। तुम उसे मार डालोगे, मैट। अगर उसे चाहते हो, तो दूर रहो। नील संघ की अनाया सेडाई तक पहुँचाना है। वह उसे इसकी मंज़िल तक ले जाएँगी। जैसा आप कहें, हुकुम। मोइराने मौसी। बर्थेनेस, मुझे माफ़ करना। और उससे भी बदतर मौसी थी। मुझे याद है। तुम्हारे सैंडविच पहले और अब भी बेहद स्वादिष्ट हैं। तुम एक लाजवाब राजा बनोगे, बर्थेनेस। दरियादिल और दयालु। हमारे राजघराने का गौरव बनोगे। एमिर्लिन सीट यहाँ आई हैं और उन्होंने तुमसे मिलने का आदेश दिया है। नए राजा को बिठाया था। यह सभा तुम्हें थोड़ी तुच्छ लगे, बेटी। हमें इंतज़ार करना होगा। तो अकेले ही जाता हूँ। लैन! मुझे माफ़ कर दो। तुम नहीं जा सकते। न्यानेव, तुम मदद कर सकती हो? ज़्यादा ध्यान किया, वे जान जाएँगी। मैं उसे यूँ काबू में नहीं कर सकती। उस बारे में ज़्यादा मत सोचो। जैसे जब तुम्हारे पास कोई मरीज़ आता है। सोचती नहीं, मदद कर देती हो। मैं इतना नहीं करना चाहती थी, माफ़ करना। कोई बात नहीं। क्या महसूस कर रही हो? इसे उपचार चाहिए। इसका उपचार हो सकता है। यह उसी तरह पूरा होगा। इसे तोड़ा नहीं जा सकता। कि उनकी जोगनों ने हमें ढूँढ़ किया। माफ़ करना, मैं ऐसा नहीं जो मैं कहूँ, वही करना। अपनी पहचान का खुलासा मत करना। ढूँढ़ने आए हैं, वह मैं हूँ। रायमा सेडाई, नहीं। हमारी बहनों को आज़ाद करना। वादा करोगी, विदुषी? मशाल के पास मेरी मुद्रिका ले जाओगी? तुम ऐसा नहीं कर सकती। तुम पर भरोसा कर सकती हूँ? बहन? हाँ। पानी डालो, इग्वीन। तुम्हें प्यास नहीं लगी? पानी डालो, इग्वीन। पानी डालो। पानी डालो। हमें मदद करनी चाहिए। ऐसे इग्वीन को नहीं बचा पाएँगे। तुम्हारे लिए कुछ नहीं है, इग्वीन। न ही इस दरवाज़े और इन पत्थरों के बाहर। प्याले के अलावा कुछ नहीं। तीरंदाज़ो, तीर खींचो! करो। मैं नहीं कर सकता। उन्हें मुझे ले जाने मत देना। मुझे मारो! बसन! मेरा प्याला। तुम्हारी दुनिया इसी तक सीमित है। बस यहीं तक। नहीं। पानी डालो। तुम्हारी दुनिया इसी तक सीमित है, इग्वीन। मेरा प्याला। पानी डालो, इग्वीन। यह कभी हथियार नहीं बन पाएगा। तुम मुझे कभी चोट नहीं पहुँचा सकती। तुम मुझे कभी छोड़कर नहीं जा सकती। डालो। अच्छी बच्ची। रोओ मत। तुम मुझसे ज़्यादा समय तक अड़ी रही, बेटी। और मैं तो नील संघ की दूत थी। तुम्हें क्या मिला? पुरानी भाषा की एक भविष्यवाणी। लैनफियर। फिर हमारी दुनिया में आ गई। लैन पर भरोसा कर सकते हैं? लैनफियर कल्पनामंडल पर महारत के लिए मशहूर थी। स्वप्न लोक। आख़िरकार। मैं फ़िदाबक्ष से प्यार करने का नाटक करूँ? यह जानने का इकलौता मौका है कि वह क्या चाहता है। मैट को चोट नहीं आने
दूँगी। तुम्हारे श्राप से मुक्ति दिलाऊँ? उसे सियारहीन लेकर आओ। तुम्हारा बेटा मर रहा है, अपनी बहनों को दगा दिया, और उस औरत को सफ़ाई दे रही हो जिसे तुमने अगवा किया। काल संघ सच में है। कुछ करो! नहीं कर सकती। इग्वीन कहाँ है? पश्चिमी तट पर हमला हुआ है। मीनार ने बहनों को जाँच के लिए भेजा है। जहाज़ों के लापता होने की जाँच करने पश्चिम जाना पड़ेगा। तुम कौन हो? रायमा, पीतांबर संघ से। अंदाज़ा भी है कि सैंचन ध्यान लगाने वाली का क्या हश्र करते हैं? इसे बाँधो। इसे काबू करना होगा। तुमने कैसे... चोट नहीं पहुँचा सकती। योगनारी को पहुँचने वाला दर्द उसकी जोगन को दोगुना महसूस होता है। मौत तक। पहली सीख। दूसरी सीख। जंजीर को हटा नहीं सकते। तुम तो कतई नहीं। मैं रेना हूँ। तुम्हारा नाम? पता है, कई योगनारी इससे सहमत नहीं होतीं... पर मैं योगनारी और जोगन के बीच दोस्ती बनाने में यकीन रखती हूँ। तुम्हारा नाम क्या है? जब तक बताती नहीं तब तक तुम्हें दर्द दूँगी, तो बेहतर होगा कि मुझे बता दो। इग्वीन। इग्वीन। ठीकठाक नाम है। मुझे तुम्हें इस नाम को न रखने देने की कोई वजह नहीं दिखती। यह क्या जगह है? तुम्हारा घर। आराम करो, इग्वीन। जल्द तुम्हारा प्रशिक्षण शुरू होगा। द व्हील ऑफ़ टाइम तो? क्या तुम चिल्लाकर अपनी जान की भीख माँगोगे? रिझाने की कोशिश करोगे? तुम जानते थे यह पल आने वाला है, तो क्या चाल है? क्या चाहती हो, लैनफियर? अब सेलिन नहीं बुलाओगे? तुम्हें तो सबसे ज़्यादा चुने गए नाम की अहमियत पता होनी चाहिए, लुईस थेरिन। यकीन नहीं होता तुम पर भरोसा किया। मुझ पर भरोसा क्यों नहीं कर सकते? मैं पिछले कुछ महीनों से तुम्हारी हिफ़ाज़त करती आई। इश्माएल को तुम्हारे सपनों से दूर रखा। मुझे विश्वास नहीं होता। तुमने पिछले जन्म में भी यही किया था। सोचते हो लोगों को दूर रखना तारीफ़ की बात है? "प्रियजनों की रक्षा करना?" मेरे बारे में कुछ नहीं जानती। तुम्हारे दोस्त कहाँ हैं, रैंड? पेरिन, मैट, न्यानेव... इग्वीन? उन सबको बताया कि तुम मर गए। क्या इससे उनकी हिफ़ाज़त होगी? इससे इश्माएल का उन तक पहुँचना और आसान हो जाएगा। अब उन्हें बुराई की ओर कर देगा, ताकि तुम्हें काबू कर सके। वे पक्ष नहीं बदलेंगे। मुझे भी एक समय पर यही लगा था। और तुम्हें किस पर भरोसा है? मोइराने पर? वह आइ सेडाई जिसने तुमसे मिलने के बाद से बस तुम्हें छला है और लगाम कसी है? तुम्हें लगता है यह इत्तेफ़ाक है कि तुम सियारहीन आए, ऐसी एक जगह जहाँ पर आज भी उसकी साख है? यह इत्तेफ़ाक है कि लोगैन वहाँ है? वह तुम्हें शुरुआत से ही अपने इशारों पर नचा रही थी। पता है क्या? अगर चाहती हो कि मैं तुम पर भरोसा करूँ, तो उसे कमाना पड़ेगा। मुझे बताओ कि इश्माएल कहाँ है। बताओ कि उसका क्या इरादा है। अरे वाह, ज़रा देखो। अभी तुम्हारे अंदर थोड़ा सा लुईस बचा है। पर अगर सच में मेरे साथ काम करना चाहते हो, तो मेरी एक शर्त है। उसने क्या कहा? मुझे जाना है। कहाँ? उसने बताया कि कहाँ? नहीं। तुमसे दूर। उसकी यही शर्त थी। उसने दोबारा हमें साथ देखा, तुम्हें मार डालेगी। लोगैन। तुम उसे सियारहीन लाई, है न? ताकि मैं यहाँ आऊँ। हाँ, बेशक। श्वेत मीनार से दूर, जहाँ तुम उससे कभी न मिल पाते, जहाँ वह तुम्हें कभी न सिखा पाता। पहले ही बहुत देर तक रुक गया। वह एक फ़िदाबक्ष है, रैंड। उसकी बात मत सुनो। सियारहीन। अब समझा कि तुम यहाँ क्यों आना चाहती थी। मैट। रुको, मैट। मेरे ख़्याल से यह एक भूल है। हमें जाना चाहिए। तुम्हें चिंता है कि मुझ पर किसी और मधुबाला का जादू चल जाएगा। वह तुम्हारे जितनी दिलचस्प नहीं होगी। उससे फ़र्क नहीं पड़ता। चलो। कहाँ जा रहे हो? चलो, मिन। चलो भी! तुम चलना बंद करोगी? वे हमें सुन लेंगे। मैं चल नहीं रही। छानबीन कर रही हूँ। हमें किसी अनजान ने अटारी में बंद किया है। रायमा सेडाई, जो रक्षा कर रही हैं। हमें आइ सेडाई पर भरोसा करना चाहिए? हम इस स्थिति में मेरी वजह से नहीं फँसे। मैंने लियांड्रिन सेडाई से बात तक नहीं की थी। तुम ही थी जिसने... मुझे पता है मैंने क्या किया, राजकुमारी, इसीलिए मैं यह पक्का करूँगी कि आइ सेडाई और उसका रक्षक नहीं... फल बाज़ार से तुम दोनों की बहस सुन सकता हूँ। कोई बात नहीं, बसन। वे अभी के लिए जा चुके हैं। इसे भाषण देने की आदत है। एल्डरबेरी और अस्ट्रैगैलस। यह टियर में बहुत उगता है और बचपन में मेरा पसंदीदा शक्तिवर्धक पेय था। वह कमरबंद। तुम एक विदुषी हो। हाँ। तो जानती हो कि यह पेय मन शांत करता है। उम्मीद है कि हम सोचसमझकर बातचीत कर सकते हैं, विदुषी, कि दो नौजवान लडकियाँ श्वेत मीनार से क्यों भागीं? मुझ पर भरोसा कर सकती हो। आइ सेडाई बहन संघ का आश्रय इसका आश्वासन देता है। यह बात लियांड्रिन से कहो। लियांड्रिन सेडाई? वह इसका हिस्सा कैसे है? वह निशाचर की दास है
। वही हमें यहाँ लेकर आई थी और उसी ने हमें सैंचन के हवाले किया। उसने तीन वचन तोड़े? हर एक वचन। पर इसका मतलब है... काल संघ। यह सच नहीं हो सकता। अगर तुम्हारी बात सच हुई... तो हमारी सारी बहनें गंभीर ख़तरे में हैं। माफ़ करना कि इतनी देर छोड़कर गई। पहला वाला जाने दूँगी। यह फिर से किया, तो खाल उधेड़कर तुम्हारे बेटे को खिला दूँगी। तुमने कैसे... मैं तुम्हारे सपनों में गई। ज़्यादातर अपने मनोरंजन के लिए। तुम्हारे काफ़ी दिलचस्प शौक हैं। मोहतरमा लैनफियर, इश्माएल ने बताया आप आज़ाद हैं, पर... बताओ, तुम इश्माएल के लिए क्यों काम करती हो? मर्दों से नफ़रत करती हो। हालाँकि, एक मर्द को छोड़कर। रहम करो। इसका नाम क्या है? एलुड्रैन। मर्द हमें चोट पहुँचाते हैं... हमें धोखा देते हैं... और फिर भी हम उन्हें चाहते हैं। तुम इसे ज़िंदा रखने के लिए वे वचन लिए, पर यह कोई ज़िंदगी नहीं है। मुझे पता है। यह तुम्हें पीछे रख रहा है। उस लड़की से आख़िरी कड़ी, जो तुम हुआ करती थी। जिसे पीटा गया और भूखा रखा गया, जिस पर सयानी होने से पहले ब्याह करने का ज़ोर डाला गया। मुझे पता है। और इसलिए मैं यहाँ वह करने आई जो तुम नहीं कर पाओगी। ऐसी तोहफ़ा जो एक औरत ही दूसरी औरत को दे सकती है। नहीं। नहीं। तुमने निशाचर की सेवक बनने का वचन लिया था, इश्माएल का नहीं। उन्हें वापस नहीं ले सकती। यह नामुमकिन है। पर अंधेरे से गुज़रने के कई रास्ते होते हैं। अगर हम अपनी दौलत को जोगन की संख्या में गिनें, तो मेरे पास तुरक से ज़्यादा होगी, है न? तुम लोग मेरे अमानुष ख़ादिम से मिले? हमारे लिए गाना गाओ, माली। इन्हें दिखाओ। तरुगायन ऐसे नहीं... गाओ! हमारे लिए। मुझे इसे तोहफ़े में तुरक को देना चाहिए। कल्पना कर सकते हो? चलो फ़ैसला करें। मैं उसे यह तोहफ़े में कैसे दूँ? क्या पता चला? तुरक का एक अनोखी वस्तुओं का कमरा है। बिगुल वहाँ है। वहाँ बहुत कम पहरा है। ये सैंचन अपने तथाकथित गौरव से इतने बँधे हुए हैं, कि उन्हें उसके चोरी होने का डर तक नहीं है। पर इग्वीन अल'वेर का क्या? बाहरी इलाके में एक जगह है... महल परिसर की बाहरी सीमा पर एक जगह है जहाँ जोगनों को रखा जाता है। वहाँ बिगुल से ज़्यादा पहरेदार तैनात हैं। बिगुल ज़्यादा मायने रखता है, सर्जक। हमें... हम उस तक पहुँचने का रास्ता ढूँढ लेंगे। लोयाल... वह जगह केनेल्स कहलाती है। वह बाहर से जितनी कोमल दिखती है, अंदर से उतनी ही सख्त है। अगर कोई उस जगह में ज़िंदा बच सकती है, तो वह। इग्वीन। एक जोगन किसी ऐसी चीज़ को छू नहीं पाती जिसे वह हथियार समझती है। तब तक नहीं जब तक वह जंजीर पहने रहेगी। तुम यह जंजीर अपनी पूरी ज़िंदगी पहनोगी, चाहे ज़िंदगी कितनी भी लंबी हो। यह यकीनन मुश्किल होगा, यह सोचकर बड़ा होना कि तुम एक इंसान हो, पर अंत में यह पता चलना कि तुम बस एक जोगन हो। तुम अपनी असली पहचान से लड़ नहीं सकती, इग्वीन। अब... मुझे प्याले में पानी दो। जब तक तुम यह आसान सा काम नहीं कर लेती, हम अभ्यास जारी रखेंगे। तुम्हें उस सुराही को देखकर मानना होगा कि वह मुझ पर नहीं मार सकती, यह कि मुझे कभी चोट नहीं पहुँचाओगी। तब ही तुम उसे छू पाओगी। तुम मज़बूत हो... और हिम्मत वाली हो। जंजीर में तुम्हारी ताक़त महसूस हो रही है। सबसे मज़बूत जोगन को तोड़ना सबसे मुश्किल होता है। मैं कल वापस आऊँगी। अच्छे से आराम कर लो, इग्वीन। तुम्हारा हुनर तुम्हें एक पैगंबर बना सकता था, तुम्हारे सपनों से भी बेतहाशा अमीर। उसके बजाय तुम मक्खियों और पियक्कड़ों के बीच सो रही हो? हुक्म के मुताबिक मैट को यहाँ ले आई। अपना वादा निभा दिया। अब चाहती हो कि चुटकियों में तुम्हारा श्राप मिटा दूँ? इसी को सौदा कहते हैं। ड्रैगन यहाँ सियारहीन में है। रैंड अल'थॉर। उससे मिल चुकी हो। अगर आज़ाद होना चाहती हो, तो पक्का करो कि मैट उसके साथ यहाँ से जाए। तुम जानते हो मैंने क्या देखा। मैट और रैंड की वह झलकी। तुमने कैसे देखा... यह आखिरी काम कर दो और मैं वादा करता हूँ, श्राप से मुक्त कर दूँगा। और अगर मैंने न किया तो? यह भी रुकने के लिए ठीक ही जगह है। चाय की तलब लगी है। यह फ़िदाबक्षों का मंदिर है। दिलचस्प जगह चुनी। आश्रय आश्रय होता है। मुझे मीनार लौटने के लिए एमिर्लिन की इजाज़त चाहिए होगी। मोइराने का निष्कासन मुझ पर लागू है, जब तक वह मीनार अभिलेखों से हटा न दिया जाए। एमिर्लिन अभी कुछ और दिनों तक वापस नहीं लौटेंगी। वह केमलिन के दौरे से लौट रही हैं। फ़िदाबक्ष। क्या उनके पास ऐसी शक्तियाँ थीं जो आइ सेडाई ने खो दीं? ऐसे कवच जो यह युग भूल गया? वे निशाचर की सेना के सेनापति हुआ करते थे। उन्होंने ऐसे सितम किए जो हमारी आइ सेडाई कभी नहीं करेंगी। हम जो करने को तैयार हैं, वह उन हालातों पर निर्भर करता है जिनका सामना कर रहे हैं। बस करो। यूँ चिढ़ाना बंद करो। दोस्तों
को सोते हुए छोड़कर जाना बेअदबी होती है। उनके खिलाफ़ अपना हथियार उठाना तो और भी बड़ी बेअदबी है। मैं लड़ना नहीं चाहता। ठुकराए जाना लगभग एक नया अनुभव है। यह पूछने के लिए मुझे माफ़ करना, पर... तुम कहाँ जा रहे हो, भाई? वह मेरा ज़ाती मामला है। "लहू से लहू पैदा होता है। लहू लहू को पुकारता है। लहू है, लहू था और लहू सदा रहेगा।" सवाल का जवाब दो, लैन। रहम करके। तुम्हें वाकई लगता है... कुछ यकीन से नहीं कह सकते। क्योंकि तुमने हमें कुछ नहीं बताया है। तुम हमारी और अलन्ना की जान जोखिम में डाल रहे हो, क्यों? हमने हमेशा तुम्हारा साथ दिया, पर अगर तुम लैनफियर के वफ़ादार निशाचर के दास हो, तो तुम इस जगह से नहीं जाओगे। मैं निशाचर से लड़ा था। रास्ते से हटो। एमिर्लिन ने तुम्हें टार वैलॉन से निष्कासित नहीं किया था। तुम जानते हो। तुम चाहते थे कि मैं तुम्हें उनका ठिकाना बताऊँ। क्यों? मुझे उन्हें ढूँढ़ना है। तुम्हें सिउआन सांचे से क्या चाहिए? यह मोइराने को लेकर है। तुम हमें सच तो बताकर रहोगे, अ'लैन मैनड्रैगोरैन। अगर न बताया तो हम तुम्हें यहीं मार देंगे। हमें पुनर्जीवित ड्रैगन मिला। तुम उन सबको मार डालोगे। आगे जाकर तुम्हारा यही हश्र होगा। यह जानते हो, है न? ध्यान करने वाले पुरुष आख़िरकार पागल हो जाते हैं और उन सबको मार देते हैं जिन्हें चाहते हैं। इशी, जान, यह नहीं चाहता कि तुम यहाँ रहो, तो जाओ। मैंने कहा था कि उससे तुम्हारी रक्षा करूँगी। स्वप्न लोक में सावधान रहना, रैंड। यहाँ मर भी सकते हो। और तुम दुनिया भी देख सकते हो, उसके असली रूप में। जिसे चाहो उसे देख सकते हो। उससे बात भी कर सकते हो, ऐसे लगेगा मानो कि तुम दोनों जाग रहे हो। मेरे झूठ के बारे में जो कहा था, मैंने उस बारे में सोचा, और तुम सही थे। मैंने तुम्हें भरोसे की कोई वजह नहीं दी। तो अब शुरुआत करती हूँ। मैं तुम्हें एक सपने का तोहफ़ा देती हूँ। कोई ऐसा है जिससे मिलना चाहोगे? कोई भी? कोई भी। इग्वीन? इग्वीन? इग्वीन। रैंड? तुम्हें क्या हो गया? रैंड? रैंड... क्या यह तुम हो? नहीं। उसे क्या हो गया? वह कहाँ है? उसे तो श्वेत मीनार में होना चाहिए था। मुझे पता है कि वह कहाँ है। मुझे बताओ। रहम करके बताओ, लैनफियर। सेलिन, अगर तुमने कभी भी मेरी परवाह की है, तो बस... रहम करके बता दो कि वह कहाँ है। मुझे बताओ! इश्माएल के कब्ज़े में। मैंने कहा था वह उन्हें ढूँढ़ लेगा। मैं कुछ भी करूँगा। रैंड? ख़ुद को संभालो। मैं पागल हो रही हूँ। चलो भी। ख़ुद को संभालो। योगनारी को पहुँचने वाला दर्द उसकी जोगन को दोगुना महसूस होता है। मैं तुम्हें सुन नहीं पा रही। कोई है? कोई है? योगनारी को पहुँचने वाला दर्द उसकी जोगन को दोगुना महसूस होता है। हे दिव्यज्योति। पता है हम कहाँ हैं? एक जोगन किसी ऐसी चीज़ को छू नहीं पाती जिसे वह हथियार समझती है। नहीं, हम जोगन नहीं हैं। ज़रा बता सकती हो कि हम कहाँ हैं? तुम्हारा नाम क्या है? मैं इग्वीन हूँ। योगनारी को पहुँचने वाला दर्द उसकी जोगन को दोगुना महसूस होता है। लड़कियो, मैंने एक भरोसेमंद जहाज़ के कप्तान से बात की है। वह तुम्हें मीनार ले जाएगा। ऐसी ख़बर को पत्र द्वारा भेजने का जोखिम नहीं ले सकते। ख़ुद जाकर एमिर्लिन सीट को लियांड्रिन सेडाई के बारे में बताओ। आप बता देना। मैं इग्वीन के बिना नहीं जाऊँगी। बसन और मैं यहाँ रहकर तुम्हारी सहेली को बचाने की पूरी कोशिश करेंगे। मैं नहीं जाऊँगी। रायमा सेडाई, मैं माफ़ी चाहूँगी, पर शायद आपने इस परिस्थिति और हम दोनों को कम आँका है। इग्वीन के हमारे साथ होने तक न्यानेव या मैं यहाँ से नहीं जाएँगे। उसे यहाँ रखो। अगर अपनी सहेली को बचाना है, तो हमें इसे खोलने का तरीका ढूँढ़ना होगा। मेरे साथ कुछ हुआ है... कुछ ऐसा जिसके बारे में मुझे तुम्हें बहुत पहले बता देना चाहिए था... ...मुझे निषेध कर दिया गया है मैं तंग तो नहीं कर रहा? सोचा कि आपके लिए कुछ खाने को ले आऊँ। रैंड चला गया? उसके लिए भी बनाया। वह आज शाम बाहर रहेगा और मुझे भूख नहीं है। बस छोटा सा टुकड़ा है। देखिए। आपको याद नहीं, जब मैं छोटा था तो आप मेरे सैंडविच की कितनी तारीफ़ करती थीं और मैं कहता था कि वे एक बेहद ख़ास गाय के मक्खन से बने हैं। ज़ाहिर है, यह सच नहीं था। किस्मत अच्छी थी, क्योंकि वह गाय तो यकीनन अब तक मर चुकी होगी। मैं बस दोनों तरफ़ मक्खन लगाता था। इसे यहीं रख दो। बेशक, मो मौसी, मैं तंग देने के लिए माफ़ी चाहूँगा। आपने सही कहा था। हमेशा की तरह। कोशिश करके देख ली। बहन, मैं सोई नहीं हूँ। मैं कभीकभी सोचती हूँ कि हम उल्लू कैसे बन गए। मेरा बेटा तुम्हारी पूजा करता है। जैसा मैं करती थी। जैसे पिताजी... चुप। उन्होंने तुम्हें याद किया था। वह मरने की कगार पर थे और मैंने उनका हाथ पकड़ा था, पर वह बारबार तुम्हें ही याद करते रहे। हम
ने श्वेत मीनार में संदेश भेजा और तुम जानती थी वह मरने वाले थे और बस तुमसे मिलना चाहते थे। तुम्हें पता था। ऐसी क्या आफ़त आ गई थी कि तुम घर आकर अपने पिता के आख़िरी समय में उनका हाथ नहीं पकड़ पाई? तुम मेरी परवाह नहीं करती, पर उन्हें चाहती थी। हमेशा से उनसे प्यार करती थी। ऐसी क्या आफ़त आ गई थी, मोइराने? मैं चाहती हूँ कि तुम कल तक इस घर और इस शहर से चली जाओ। मैं बड़ी बहन हूँ, दामोड्रेड घराने की वारिस हूँ और यह घर उतना ही मेरा है जितना कि तुम्हारा। तुम और तुम्हारा बेटा मेरी कृपा से यहाँ हैं। तुम में उनका एक भी अच्छा गुण नहीं है, मोइराने। एक भी नहीं। तुम पूरी तरह से माँ पर गई हो। प्यारी सिउआन। मेरे साथ कुछ हुआ है... रुको! तुम कौन हो? गति धीमी करो। ठहरो! ठहरो! ठहरो! लैन। एकांत दो। माता। क्या हुआ? क्या बात है? मोइराने को लेकर है। जानता था तुम वापस आओगे। तुम्हें मुझे सिखाना होगा। युद्ध के वे सारे कवच जिनसे तुम आइ सेडाई से लड़े थे। मैंने वे कवच बुनने में सालों की मेहनत की, बारबार अभ्यास किया। क्यों सोचते हो कि मैं यूँ ही बता दूँगा? क्योंकि तुम अपनी छाप छोड़ना चाहते हो। तुमने सोचा था कि तुम दुनिया को बचाओगे, या उसे बिखेरोगे। पर फिर आइ सेडाई ने तुम्हें मिटा दिया, और अब तुम केवल मेरे ज़रिए अपनी छाप छोड़ सकते हो। स्रोत को गले लगाओ। कम से कम इतना तो कर लेते होगे? उसे जकड़ लो। उसके आगे घुटने मत टेको, लड़के। इसी तरह। उसे अपना बनाओ। अब न दिखावा, न ही छिपनाछिपाना। अगर शक्ति चाहिए, तो उसे लो। हाँ। ध्यान से, लड़के, ज़्यादा ले ली तो संभाल नहीं पाओगे। हाँ। ज़्यादा होने से पहले छोड़ देना। रुक जाओ! रुको! इतना वक़्त नहीं है। किसके लिए? लड़ने के लिए इसका इस्तेमाल सीखने के लिए। इतनी शक्ति के साथ... तुम कुछ भी कर सकते हो, किसी से भी लड़ सकते हो। देवियो और सज्जनो, सब्र रखने के लिए बहुतबहुत शुक्रिया। मुझे नहीं लगता कि अपना सारा पैसा देना आसान बात रही होगी। तो इस बार, हमें दोनों पासों में चार चाहिए, ठीक? मतलब आठ। तो अगर आपको नहीं लगता कि दोनो में चार आएगा, तो अपने पैसों को मेज़ के बीचोबीच रख दीजिए। चलिए। पैसे डालिए, हाँ। प्लीज़। अच्छा, बहुत ख़ूब। क्या बात है। कोई और? शुक्रिया। तो, हम दो चार के लिए पासे फेंक रहे हैं, हाँ? मैट? जल्दी! तुम सियारहीन में क्या कर रहे हो? और तुम्हारे बाल कहाँ गए? यार, बड़े भद्दे लग रहे हो। बाकी सब कहाँ हैं? क्या वे यहाँ हैं? पेरिन कहाँ है? इग्वीन? मैं... मैट, बड़ी लंबी कहानी है। वह तो अच्छी चीज़ है। मेरे पास वक़्त ही वक़्त है। पहला जाम तुम पिलाओगे, मेरी बाज़ी को बिगाड़ने के लिए। उनकी कुछ जोगन जान जाती हैं जब कोई औरत ध्यान करती है, तो सावधान रहना और उनके करीब रहते कभी ध्यान मत करना। आगे बढ़ो, पर बस थोड़ी देर। कोई ताला नहीं है। कोई जोड़ नहीं है। मैंने आज तक ऐसा कुछ नहीं देखा। यह एक तिलिस्मी द्वार है? कसौटी की तरह। एक मिनट के लिए दो। तुमने नहीं बताया कि ये कहाँ से मिले। पहले, केवल अफ़वाहें थीं। अजीब जानवरों और ध्यान करने वालों को गुलाम बनाने की फुसफुसाहट। एमिर्लिन सीट ने हमें श्वेत मीनार से इन दावों की पुष्टि करने के लिए भेजा। फ़ाल्मे आने के बाद ही हमें एहसास हुआ कि हमने ख़तरे को कितना कम आँका था। ये लोग पूरी दुनिया को अपनी मल्लिका की हुकूमत में लाना चाहते हैं। दो मारी गईं, अपनेअपने रक्षकों के साथ। एक को क़ैद कर लिया गया। आइ सेडाई को क़ैद कर लिया? मामूली आइ सेडाई नहीं। नील संघ की दूत। तुम बालबाल बची थी। मेरी बहनें और मैं हमेशा सहमत नहीं थे, पर हमारी वफ़ादारी पर कोई शक़ नहीं था। एकदूसरे और हमारे मकसद की ओर। मेरे पास यह इसलिए है क्योंकि मेरी बहनों ने अपनी जान से इसकी कीमत चुकाई। तुम उसे उतार नहीं सकती। बिना असहनीय दर्द सहे उसे छू भी नहीं सकती। तुम यह जानती हो। जानना चाहोगी कि जंजीर किसने बनाई? किसी राक्षस ने। वह तुम्हारी श्वेत मीनार की बहन थी। आइ सेडाई के गुलाम नहीं होते। तुम एक शिष्या के तौर पर क्या करती थी? वे तुम्हारी शक्ति पर लगाम लगाना चाहती हैं। ताकि तुम ज़िंदगी भर करतब करके सबका मनोरंजन करो। हम सैंचन चाहते हैं कि तुम अपनी शक्ति का पूरा इस्तेमाल करो, जिसके लिए तुम पैदा हुई। गले में जंजीर डालकर कोई औरत शक्तिशाली नहीं हो सकती। अरे, इग्वीन... तुम कोई आम औरत नहीं हो। तुम एक जोगन हो, एक बहुत ताक़तवर जोगन। उम्मीद है तुम्हें श्वेत मीनार में बताया गया होगा कि तुम कितनी ख़ास हो। मेरे साथ चलो। देखा? जब हम पूरे होते हैं तो बेहतर महसूस होता है, है न? पेड़ को देखो, इग्वीन। पता है तुम्हें सुकून मिलता है। उसकी ओर हाथ बढ़ाओ। उसकी जड़ें खोजो। तुमने वे ढूँढ़ लीं। शाबाश। अब आगे बढ़ती रहो, जड़ों से होकर उसके तने में जाओ। उसकी शाखाओं से उसके रस को बहते
हुए महसूस करो। उसे अपने मन में और गर्म होने दो। इतना गर्म कर दो कि भाप निकलने लगे। अब उस भाप को आग में बदल दो। ऐसा ही महसूस होना चाहिए। हम ऐसी शक्ति के लिए बने हैं, इग्वीन। महसूस हो रहा है? हमारा नाता? यह लो। अपने लिए पानी डालो। तुम इसकी हक़दार हो। पानी डालो, इग्वीन। जहाज़ के कप्तान के जाने से पहले इग्वीन न मिली, तो तुम चली जाना। रायमा सही थी। एमिर्लिन को लियांड्रिन के बारे में बताना होगा। और हम तीनों उन्हें बताएँगे। तुम्हारी कुछ जिम्मेदारियाँ हैं। तुम ऐनडोर की राजपुत्री हो। पीछा छुड़ाने का मौका मिला, तो मैं राजपुत्री बन गई? एक अजनबी के लिए सब कुछ जोखिम में क्यों डाल रही हो? वह मेरी सहेली है। और आज तक मेरी कोई सहेली नहीं थी। चलो भी, तुम मुझे बताओगे कि बाकी कहाँ हैं, या नहीं? पिछले साल, जब मुझे लगा कि मैंने निशाचर को हरा दिया... माफ़ करना। हाँ, जब तुम ऐसी बातें कहते हो, तो मुझे बहुत अजीब लगता है... मैं चला गया। उन्हें पीछे छोड़ गया। इग्वीन, पेरिन, न्यानेव, उन सबको। मैट, उन्हें लगता है मैं मर गया। मैंने सोचा इससे वह सलामत रहेंगे। मैंने सोचा... पता नहीं, मुझे लगा... सब मेरे बिना ही बेहतर रहेंगे। ज़्यादा सुरक्षित भी। नहीं। हम तुम्हारे बिना बेहतर नहीं हैं, रैंड। कसम से। हम तुम्हारे बिना भी अधूरे हैं, मैट। पर अब वह उसके कब्ज़े में है। इश्माएल के। इग्वीन फ़ाल्मे में क़ैद है। मुझे पता है कि वे चाहते हैं मैं वहाँ जाऊँ। पर अगर मैं नहीं गया... तो उसके साथ क्या होगा? तो, हम चलते हैं। मुझे उससे पहले बस एक काम करना होगा। दरअसल, एक लड़की का दिल तोड़ना होगा। मैं एक घंटे में तुमसे फाटक पर मिलता हूँ। मैट... मेरे साथ जाने की ज़रूरत नहीं है। सच में। हाँ, ज़रूरत है। और कौन तुम्हें घमंडी बनने से रोकेगा? पुनर्जीवित ड्रैगन। एक घंटे में। मैं पहुँच जाऊँगा। मिनी मिन मिन? मिन? तुम्हारे साथ कोई है? क्या मुझे जलना चाहिए? मिल? अंदर आ जाओ। तुम्हें किसने शराब के बदले पानी दे दिया? मैं केवल बढ़िया शराब ही पीती हूँ। और मैं तुम्हें इसी तरह याद रखूँगा। बाकी सब अच्छा हो या न हो, तुम्हें शराब अच्छी चाहिए। पता है मैं किससे टकराया? मेरे दोस्त से। जिसने बारे में तुम्हें बताया था। वह यहाँ है। तुम नहीं जा सकते। बताया भी नहीं कि मैं जा रहा हूँ। मैंने देखा। नहीं। मैं कह चुका हूँ, मुझे नहीं... तुम रैंड को मार डालोगे। क्या? नहीं। नहीं। हाँ, उस खंजर से। सुनहरे मूठ पर माणिक वाली? नहीं। फ़ाल्मे। वह तुम्हें वहीं ले जा रहा है? नहीं। तुम रैंड को कैसे जानती हो? तुमने मुझे फँसाया। नहीं। हाँ? इसीलिए हम यहाँ आए। नहीं। उसकी वजह से? वह... मेरा वह इरादा नहीं था, मुझे पता न था... कब से? जबसे हम बाहर निकले? नहीं। हमारे मिलने से पहले से। मुझे माफ़ कर दो। मुझे... मुझे सच में लगा कि तुम मेरी दोस्त हो। मैं हूँ भी। मैं हूँ। तभी यह बता रही हूँ। नहीं जानते इसकी क्या कीमत चुकानी होगी। तुम उसे मार डालोगे, मैट। अगर उसे चाहते हो, तो दूर रहो। जोनास, इस पत्र को नील संघ की अनाया सेडाई तक पहुँचाना है। वह उसे इसकी मंज़िल तक ले जाएँगी। जैसा आप कहें, हुकुम। मोइराने मौसी। बर्थेनेस, मुझे माफ़ करना। मैं एक बुरी मेहमान और उससे भी बदतर मौसी थी। मुझे याद है। तुम्हारे सैंडविच... पहले और अब भी बेहद स्वादिष्ट हैं। तुम एक लाजवाब राजा बनोगे, बर्थेनेस। दरियादिल और दयालु। हमारे राजघराने का गौरव बनोगे। एमिर्लिन सीट यहाँ आई हैं... सियारहीन में, चौदह आइ सेडाई के साथ और उन्होंने तुमसे मिलने का आदेश दिया है। आख़िरी बार जब एमिर्लिन सीट ने यहाँ सियारहीन में चौदह बहनों को मिलने के लिए बुलाया था, हमने स्वर्ण सिंहासन पर नए राजा को बिठाया था। यह सभा तुम्हें थोड़ी तुच्छ लगे, बेटी। हमें इंतज़ार करना होगा। तो अकेले ही जाता हूँ। लैन! मुझे माफ़ कर दो। तुम नहीं जा सकते। न्यानेव, तुम मदद कर सकती हो? हमें थोड़ी और शक्ति चाहिए, पर हममें से एक ने ज़्यादा ध्यान किया, वे जान जाएँगी। मैं उसे यूँ काबू में नहीं कर सकती। उस बारे में ज़्यादा मत सोचो। जैसे जब तुम्हारे पास कोई मरीज़ आता है। तुम उनकी मदद करने के बारे में सोचती नहीं, मदद कर देती हो। मैं इतना नहीं करना चाहती थी, माफ़ करना। कोई बात नहीं। क्या महसूस कर रही हो? इसे उपचार चाहिए। इसे किसी औरत को पहनाकर ही इसका उपचार हो सकता है। यह उसी तरह पूरा होगा। इसे तोड़ा नहीं जा सकता। सुनो, इसका मतलब है कि उनकी जोगनों ने हमें ढूँढ़ किया। माफ़ करना, मैं ऐसा नहीं... जो मैं कहूँ, वही करना। अपनी पहचान का खुलासा मत करना। वे ध्यान करने वाली को ढूँढ़ने आए हैं, वह मैं हूँ। रायमा सेडाई, नहीं। हमारी बहनों को आज़ाद करना। वादा करोगी, विदुषी? मशाल के पास मेरी मुद्रिका ले जाओगी? तुम ऐसा नहीं कर सकती। तुम पर भरोसा
कर सकती हूँ? बहन? हाँ। पानी डालो, इग्वीन। तुम्हें प्यास नहीं लगी? पानी डालो, इग्वीन। पानी डालो। पानी डालो। हमें मदद करनी चाहिए। ऐसे इग्वीन को नहीं बचा पाएँगे। इस कोठरी के बाहर तुम्हारे लिए कुछ नहीं है, इग्वीन। न ही इस दरवाज़े और इन पत्थरों के बाहर। इस सुराही और मेरे खाली प्याले के अलावा कुछ नहीं। तीरंदाज़ो, तीर खींचो! करो। मैं नहीं कर सकता। उन्हें मुझे ले जाने मत देना। मुझे मारो! बसन! मेरा प्याला। तुम्हारी दुनिया इसी तक सीमित है। बस यहीं तक। नहीं। पानी डालो। तुम्हारी दुनिया इसी तक सीमित है, इग्वीन। मेरा प्याला। पानी डालो, इग्वीन। यह कभी हथियार नहीं बन पाएगा। तुम मुझे कभी चोट नहीं पहुँचा सकती। तुम मुझे कभी छोड़कर नहीं जा सकती। डालो। अच्छी बच्ची। रोओ मत। तुम मुझसे ज़्यादा समय तक अड़ी रही, बेटी। और मैं तो नील संघ की दूत थी। संवाद अनुवादक श्रुति शुक्ला रचनात्मक पर्यवेक्षक अशोक बक्षी
मैं अपनी ज़िंदगी की बैलेंसशीट बना रहा हूँ। मेरी समझ में नहीं आ रहा कि क्लोजिंग बैलेंस पर आकर मैं बार बार क्यों गलती कर जाता हूँ। 'हानि' वाले कॉलम भरते हुए मेरे मन में आता है कि मैं अपने आप को गालियाँ बकूँ। कमीना, घटिया और अन्य अपशब्दों से अपने आप को संबोधित करूँ। मॉर्क्स के चित्र के सामने हाथ जोड़कर सिर निवा कर कहूँ, "सर्वोत्तम पुरुष, मुझे माफ़ कर दो। मुझे किस तरफ जाना था। मेरी मंज़िल क्या थी। मैं किसी तरफ चल पड़ा हूँ। अब तुम ही बताओ, क्या मेरे पास कोई और विकल्प नहीं रहा? क्या यही एकमात्र रास्ता बचा है?" पता नहीं, किस तरफ से बार बार एक आवाज़ आती है, 'आदमी के अंदर से उसकी जात नहीं जाती। संस्कार नहीं मरते।' अब मैं इस आवाज़ को क्या जवाब दूँ। यही कि मैंने तो कभी अपनी जाति के बारे में सोचा ही नहीं था। मेरा इस तरफ कभी ध्यान ही नहीं गया था। मेरे दोस्तों के घेरे में अपरकास्ट वाले भी थे और दलित भाई भी। मेरे लिए सभी साथी थे। मेरे अपने। पचास वर्ष की उम्र तक मैं वर्ग-चेतना, संघर्ष, बुर्जुआ, पैटी बुर्जुआ, सर्वहारा व्यवहार में उलझा रहा हूँ। अब मुझे वर्ण चेतना, दलित चेतना, चिंतन, दलित जातियाँ तंग करने लगी हैं। मैं यह बात मानता हूँ कि अंदरखाते मैं दूसरी जातियों को कुछ कुछ नफ़रत करने लगा हूँ। क्या यह रूप लाल का असर है जो मुझे नित्य समझाता रहता है, "ब्राह्मणों, क्षत्रियों, अरोड़ों, जट्टों ने हमारे साथ बहुत भेदभाव किया। बहुत ही ज्यादा। तू अपना पास्ट देख। भविष्य की ओर झाँक। गाँव में जाकर देख, हमारी वैल्यू कितनी है। हम आज भी उन लोगों के लिए चूहड़े-चमार हैं। मेरा एक कुलीग है। जसवंत। गोहीरां गाँव का। उनके गाँव का एक विलैतिया बीस सालों बाद गाँव आया था। उसने आते ही कोठी बनानी आरंभ कर दी। जसवंत ने उससे कहा, 'तेरे तीनों बेटों में से किसी ने आकर यहाँ नहीं रहना। यूँ ही व्यर्थ में चालीस-पचास लाख खर्च करने की क्या तुक है। कोई अस्पताल या कोई यादगार बना जा।' विलैतिये ने जसवंत की ओर घूर कर देखा और बोला, 'तेरी तो बातें उल्टी ही रहीं। गाँव में तो चूहड़े-चमार कोठियाँ बनाए जा रही हैं, हम गाँव के मालिक हैं। ज़मीन-जायदादों वाले।' देख ले, इन लोगों की नफ़रत की हद...।" मेरा बेटा सतीश मेरा गुरू बन जाता है, "यह कंप्यूटर का युग है जहाँ हर संबंध और हर आदमी की कीमत महज मुनाफ़ा है। जिसने इस बात को समझ लिया, वही कामयाब होगा। अब हमारा फ़ायदा मायावती जी के साथ जुड़ने में है। दूसरी बात, हमें अपनी जाति के बारे में और अपने लोगों के बारे में भी सचेत होने की ज़रूरत है। डैडी जी, बी प्रैक्टीकल। पंजाब में हमारी कितनी आबादी है, बताओ कभी हमारी जाति का सी.एम. बना। आप पहले अपने पास्ट को देखो, फिर भविष्य को जानना। आप अपने डिपार्टमेंट में बैलेंसशीट बनाने में माहिर हो, अब अपनी ज़िंदगी की बैलेंसशीट बनाकर देखो। कामरेडों के साथ जुड़कर क्या कमाया और क्या गँवाया।" सीबो कहती है, "मुझे तो अब समझ में आया है। अपने अपने ही होते हैं। कल मुझे सैर करते हुए सत्या मिली थी। वह कहती थी कि हम महीने में एक बार किट्टी पार्टी रखा करें जिसमें अपनी बिरादरी की ही औरतें शामिल हों।" भापा जी अपना ज्ञान झाड़ते हैं, "तूने कामरेड बनकर क्या कर लिया। अब बहुजन समाज पार्टी में आ जा। महिंदर मुझे कह रहा था कि प्यारे को मना लो। वह रिटायरमेंट पर बैठा है। हम उसे काउंसलर की सीट पर खड़ा कर देंगे। उसकी जीत निश्चित है। अपनी बिरादरी की वोटें तो लोहे जैसी पक्की है। अब तू सयाना बन। अपने मूल को पहचान। मुझे खुद अब समझ में आया है कि यहाँ आदमी का मूल्य उसकी जाति की बदौलत पड़ता है।" मेरे अंदर अपने मूल को जानने की जिज्ञासा पैदा हुई है। यह कभी बहुत ही तीव्र हो जाती है, कभी मद्धम पड़ जाती है। मैं उस समय परेशान होता हूँ जब मेरे अंदर बैठा कामरेड मेरे होंठों पर अपना खुरदरा हाथ रखकर चीखता है, "ओए मूर्ख, अक्ल कर। तू किस तरफ चल पड़ा। कोई ढंग का काम कर। इतना निराश नहीं होते। कोई भी पार्टी एक या दो व्यक्तियों की मिल्कियत नहीं हुआ करती। चल उठ, शेर बन जा। नहीं तो देख ले, सुरजन संधू जैसे लोग कहेंगे - कर दी न चमारों वाली बात।" इसकी कहे हुए पिछले वाक्य पर मैं परेशान हो जाता हूँ। जी करता है कि अपने अंदर बैठे कामरेड का गला घोंट दूँ। अभी तक मैं इसका गला नहीं घोंट पाया। लेकिन घोंटने की ख्वाहिश बरकरार है। मैं इसे मारकर सुखी हो सकता हूँ। इससे डरता भी हूँ कि कहीं यह ही मुझे न मार दे। अचानक मेरे सामने बाबा हरनाम सिंह कालासंघिया का चेहरा प्रगट होता है। बाबा हरनाम सिंह वल्द सुंदर सिंह, गाँव-कालासंघिया। देशभक्त। वह कहता है, "तू क्यों किसी की परवाह करता है? जो तेरे मन को अच्छा लगता है, वही कर। पार्टी की ज्यादा परवाह नहीं किया करते। मेरी तरफ देख, मुझे भी सोहन सिंह भकना औ
र रूड़ सिंह चूहड़चक ने पार्टी में से निकाल दिया था। इस कारण कि मैंने पार्टी का हुक्म नहीं माना था। मेरी कुर्बानी देख, मैं पिंजरे में डाल दिया गया। मैंने सवा मन अनाज पीसा, चींटियों और सुंडियों वाला आटा खाया, गोरों की अंधी सख्ताई झेली। मैंने अपनी जवानी बर्बाद की। दोनों बेटे मर गए। पर मैंने हार नहीं मानी। तू अच्छे काम कर। समय तेरा साथ देगा। समझा, मेरी बात?" समझता तो मैं सब कुछ हूँ परंतु आत्मा और मन के बीच का द्वंद्व-युद्ध मेरा कोई वश नहीं चलने देता। ज़िंदगी में कुछ पूरी तरह मरता क्यों नहीं? मेरे मन पर ये विचार भारी होने लगे हैं। जब मैं अकेला होता हूँ, उस समय मैं बहुत ज्यादा सोचता हूँ। जैसे अब की मेरी अवस्था है। सतीश ने मुझसे कल पूछा था, "आपकी ज़िंदगी की बैलेंसशीट कहाँ तक पहुँची है?" अब मैंने एक और बैलेंसशीट बनानी आरंभ की है। इसबार एडजस्टमेंट अकाउंट का सहारा लेता हूँ। यहाँ मुझे छूट होती थी कि मैं जैसे चाहूँ, रकमों को इधर-उधर कर सकता था। मुझे पता होता था कि मुझे इसे कैसे फाइनल टच देना था। लेकिन मुझसे अपनी बैलेंसशीट बनाते हुए गड़बड़ हो गई है। 'लाभ' वाले हिस्से पर कामरेड भारी है। मैं अपने फायदे को लेकर कुछ अधिक ही सोच रहा हूँ। मुझे यह बैलेंसशीट भी अधूरी लगती है। मैं कागज दूर फेंक देता हूँ। दिमाग का नाड़ी तंत्र पीछे की ओर दौड़ता है। कभी आगे ही भागता जाता है। एक और बैलेंसशीट बनानी आरंभ करता हूँ। इस बार लिखता हूँ - हानि। कामरेड। लाभ। दलित। 'लाभ' वाले हिस्से में मुझसे बार बार दलित लिखा जाता है। मैं अकाउंटिंग विधि त्यागकर डैरीएटिव विधि का प्रयोग करता हूँ। सोचता हूँ कि मैं अपना ध्यान 'हानि' पर क्यों केंद्रित कर रहा हूँ। हानि पार्टी के संग जुड़ जाती है। क्या मेरे साथ भेदभाव सिर्फ़ मेरी जाति के कारण ही हुआ है। बहुत कुछ और है जिसकी तरफ मेरा ध्यान नहीं जाता। मुझे अपने कुलीग जसविंदर जिससे मैंने बैलेंसशीट बनानी सीखी थी, का कहा याद आतेा है, "बैलेंसशीट में कुछ फिगरें अपनी ओर से भी डालनी पड़ती हैं। इसे एडजस्टमेंट अकाउंट कहते हैं। इसके बग़ैर बैलेंसशीट नहीं बन सकती।" मुझे लगता है कि यही कुछ ज़िंदगी में भी घटित होता है। एक बार फिर मैं एडजस्टमेंट अकाउंट का सहारा लेता हूँ। शायद यहीं मेरे अंदर की नफ़रत विराट रूप धारण करने लगी है। 'वियाना कांड' के कारण पिछले दो दिनों से भिन्न भिन्न चैनलों से दलितों से संबंधित कई विशेष प्रोग्राम दिखाए जा रहे हैं। 'स्टार न्यूज़' ने दलितों के विषय में एक पुरानी रिकार्डिंग दिखाई थी। चंद्रभान प्रसाद ने बताया था, "मायावती द्वारा उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री के तौर पर शपथ लेना आज़ादी के बाद भारत के इतिहास की अहम घटना है। यह दलितों के लिखित इतिहास में दर्ज़ तीसरी अहम घटना है जब एक दलित को इतने ऊँचे ओहदे पर पहुँचने और अगुवाई करने का गर्व हासिल हुआ। पहली घटना यह थी कि संत रविदास ने तर्क के आधार पर बनारस के ब्राह्मणों को हरा दिया था। यह बात शास्त्रों में दर्ज़ है। दूसरी अहम घटना डॉ. अंबेडकर का भारत के संविधान का मसौदा तैयार करने वाली कमेटी का चेयरमैन बनना था। इसी तरह जब मायावती भाजपा की मदद से मुख्यमंत्री बनी तो उसने दिखा दिया कि एक दलित भी लीडर की भूमिका निभा सकता है। इसने भारतीयों की अंतरात्मा को भी झिंझोड़ा। उसने आख़िर यह दर्शा दिया कि एक दलित पर पूरा भरोसा किया जा सकता है और एक दलित, दलितों और ग़ैर-दलितों दोनों की अगुवाई कर सकता है।" फिर टी.वी. स्क्रीन पर के.आर. नारायण की बहन के.आर. गोवरी का चेहरा प्रगट हुआ था। उन्होंने के.आर. नारायण के विषय में बताना आरंभ किया था, "हमारे भाईचारे का कोई व्यक्ति तो यहाँ तक पहुँचने के बारे में सोच भी नहीं सकता। वह बहुत पढ़ाकू था। अंग्रेजी सरकार के समय दलित विद्यार्थियों को वजीफा नहीं मिलता था। हम सख़्त मेहनत करके पढ़े। जब लोग मेरे भाई द्वारा भिन्न भिन्न पदों जैसे कि सफीर, केंद्रीय राज्य मंत्री, उप-राष्ट्रपति और राष्ट्रपति के पद हासिल करने के बारे में बात करते हैं तो ऐसा लगता है कि लोग सोचते हैं कि एक दलित होने के कारण ही शायद उन्हें कोई लाभ मिला और वे इन पदों तक पहुँचे, पर यह सच नहीं है। उन्होंने जो भी पद हासिल किया, वह अपनी योग्यता के बलबूते पर हासिल किया।" ...तभी रमन आया था। अपना होमवर्क करने। वह ज्यादा झुककर लिखता। मैं उसे पकड़कर सीधा बिठाता। वह पुनः पहली वाली स्थिति में बैठ जाता। उसे अंग्रेजी के 'जी' अक्षर को घुमाव देना नहीं आता था। मैं समझाता। वह फिर गलती कर जाता। पाँच-सात बार ऐसा हुआ। फिर उसे घुमाव देना आ गया। करीब आधे घंटे बाद वह मेरी टाँग पर सिर रखकर लेट गया। थक गया होगा। मैंने उसकी ओर से फुर्सत पाकर सामने रैक में पड़ी काशीराम की किताबों, कैसेटों, वीडियों कैसेटों जो कि पिछले महीने सतीश दिल्
ली से खरीदकर लाया था, की ओर ऊपरी नज़र दौड़ाई। लेनिन की मूर्ति की ओर श्रद्धा भाव से देखा। मैं रुक-रुक कर वॉल क्लॉक की ओर देखता हूँ। सीबो अभी तक लौटी नहीं। मैंने उसे बाहर जाने से रोका था। पिछले दो दिनों से हमारी ओर के हिस्से में कर्फ्यू लगा हुआ है। शहर में तनाव है। लूटपाट और आगजनी की अनेक वारदातें हुई हैं। पर उसने मेरी बात नहीं मानी थी। यह कह गई थी, "मुझ बूढ़ी ठेरी को किसी ने क्या कहना है।" क्या मालूम वह वीना की ओर चली गई हो। उसके मूड का भी कोई पता नहीं चलता। मैं 'हानि' वाले पन्ने पर लिखना आरंभ करता हूँ। मेरे पास तेरी पार्टी का कोई कार्ड न सही। मेरे पास तो पार्टी का कार्ड था। मेरा विरोध सुरजन संघू ने किया था। उसने मुझे गाली देकर कहा था, "तुम चमारों को पार्टी की क्या समझ है।" रोकते रोकते मेरे अंदर से गाली निकल जाती है, "..." मैंने तो पार्टी की ख़ातिर ससुराल वालों से भी बिगाड़ ली थी। मेरे ससुर ने जगदीश को दुकान किराए पर दे दी थी। वह खुद इंग्लैंड रहता था। यह दुकान भी मैंने स्वयं जगदीश को लेकर दी थी। करीब दो साल बाद जगदीश ने चौबारे पर एक तरह से कब्ज़ा ही कर लिया था। मेरा जगदीश के पास रोज़ का आना-जाना था। मेरे ससुर का फोन आया तो मैंने जगदीश को इस बारे में बताया था। जगदीश ने मेरी बात को अनसुना कर दिया था। दो वर्ष बाद मेरा ससुर आया तो उसने पाँच-सात प्रतिष्ठित व्यक्तियों को संग लेकर जगदीश को चौबारा खाली करने के लिए कहा था। बात न बनती देख कर वह थाने चला गया था। मैं अपनी पार्टी वालों के संग थाने गया था। मैं ससुराल वालों के संग नहीं, अपनी पार्टी के संग खड़ा था। मुझे ससुराल से अधिक पार्टी प्यारी थी। मेरे ससुर ने कोर्ट में केस कर दिया था। इस केस से जगदीश और पार्टी मेंबर परेशान थे। उनका मेरे प्रति व्यवहार बदल गया था। उन्हें लगा था कि मैं उनके साथ नहीं हूँ। उधर ससुर अलग गुस्से में था कि मैंने उसका साथ नहीं दिया। जगदीश और अन्य पार्टी मेंबरों ने मेरे से मुँह मोड़ लिया था। मैंने जगदीश के सामने अपना गिला जाहिर किया था, "मैं इतनी जल्दी पार्टी नहीं छोड़ने वाला।" जगदीश के पास बैठे सुरजन संधू ने कहा था, "तेरे जैसे वर्करों की पार्टी को ज़रूरत नहीं। तू जानता नहीं यह दुकान पार्टी के लिए कितनी फायदेमंद है। बता, कोई दूसरी दुकान हो सकती है। तू अपने ससुर को समझा नहीं सकता, लोगों को क्या समझाएगा।" लॉबी में से आवाज़ आती है। सतीश और राजविंदर सैर करके लौट आए हैं। अब सतीश भापा जी के पास बैठेगा। राजविंदर रोटी-पानी का प्रबंध करेगी। सतीश भापा जी के पास बैठ कोई एक बात छेड़ लेगा या उन्हें याद करवाएगा। उसने भापा जी को अपने पीछे लगा लिया है। भापा जी ने रविदास भगत की बड़ी-सी फोटो ड्राइंग रूम में लगवाई है। इसे वे बूटा मंडी के मेले में से खरीदकर लाए थे। उन्होंने तो गुरू रविदास जी के जन्म दिवस पर पूरी कोठी में बिजली वाली लड़ियाँ लगवाई थीं। पिछले हफ़्ते सतीश ने भापा जी को बताया था, "हम कुछ दोस्तों ने प्लैनिंग की है कि एक ऐसा चैनल शुरू किया जाए जहाँ चौबीस घंटे गुरु रविदास जी की बाणी का प्रसारण हो। अगर हिंदू या सिक्खों के चैनल शुरू हो सकते हैं तो हमारे गुरु के क्यों नहीं। बस, अब फाइनेंनशियल प्रॉब्लम्स हैं, जिस दिन ये सोल्व हो गईं, फिर देखना हमारी शक्ति।" मुझे इनकी कई बातें अजीब लगती हैं। पर फिर भी मैं उनमें शामिल होना चाहता हूँ। कई बार गया था। आधा घंटा बैठा था। इन्हें मेरी मौजूदगी चुभी थी। मैं उठकर आ गया था। किसी ने मुझे बैठने के लिए नहीं कहा था। अब जब ये दोनों इकट्ठे बैठे हों, मैं उनके पास नहीं जाता। इन्होंने कभी नहीं कहा कि तू भी हमारे पास आकर बैठ जाया कर। अपनी अच्छी-बुरी राय दे दिया कर। मन हल्का हो जाएगा। शाम को मैं लॉन में चटाई बिछाकर बैठा होऊँ तो सतीश मेरे पास आ खड़ा होता है। दो घड़ी के लिए। खड़े-खड़े ही बातें करता है। जैसे इन पलों में मैं उसका बाप होऊँ। आगे-पीछे आँख बचाकर निकल जाता है। सवेरे मैं सबसे पहले उठता हूँ। दो कप चाय के बनाता हूँ। अपने लिए फीकी चाय। भापा जी के लिए तेज़ मीठे वाली। तब तक वह पाठ कर चुके होते हैं। वह बैड से पीठ टिका लेते हैं। लिफाफे में से दो रस निकालते हैं। एक मुझे देते हैं, दूसरा स्वयं चाय में डुबो डुबो कर खाने लगते हैं। वह कहते हैं, "कामरेड, जा लॉन में ही सैर कर आ। दो घड़ी ताज़ी हवा मिल जाएगी। फिर फ्रंट वालों के अख़बार पढ़ लेना। इसके बग़ैर तुझे खुलकर टट्टी नहीं उतरेगी।" वह अभी भी मुझे कामरेड कहकर बुलाते हैं। शायद वह मुझे पसंद नहीं करते। उन्हें मेरा कामरेड वाला रूप कतई पसंद नहीं था। कह देते थे, "कामरेड बनकर तूने क्या खट लिया? हमारी पार्टी में शामिल हो जा। इसी बात में तेरा फायदा है। सतीश की बातें ध्यान से सुना कर।" जब सुरजन संधू ने मुझे इग्नोर करना
शुरू कर दिया तो मुझे बहुत कुछ भूला-बिसरा याद आने लगा था। मैं गाँव जाता तो मुझे कई बातें तंग करती थीं। विशेष कर यह बात... बीबी को ज्वाले के बूढ़े ने मेंढ़ पर से घास खोदने से हटाया था और चाँटा मारकर बोला था, "ले, रामू ने भैंसें तो दो दो रख लीं, अब हमारी मेंढ़ें सफाचट करने के लिए हैं। ज्यादा ही शौक है तो मोल के पट्ठे डाले।" उसने बीबी द्वारा खोदा हुआ घास भी रखवा लिया था। बीबी घर आकर बहुत कलपी थी। मैंने उसे इतनी ऊँची आवाज़ में बोलते हुए पहली बार सुना था। उसके अंदर इतना गुस्सा समाया हुआ था। पता नहीं लग रहा था कि वह ज़ोर-ज़ोर से रोते हुए क्या से क्या बोले जा रही थी। मैंने तो यही समझा था कि अब वह घास खोदने नहीं जाएगी। आगे से भापा जी ने चुप्पी साध रखी थी। वह गर्दन झुका कर ज़मीन पर लकीरें खींचने लगे थे। मैं उन्हें गरीब और असहाय देख रहा था। उस रात मुझे नींद नहीं आई थी। मैंने यह घटना अपने साथी गुरमेल को बताई थी। उसने मुझे समझाने के लिए कहा था, "हमें छोटी-छोटी बातों के पीछे नहीं जाना है। हमारे लिए पार्टी पहले है। व्यक्ति बाद में।" फिर उसने मुझे एक पेपर पढ़ने के लिए दिया था। इसमें गढ़शंकर के निकट गाँव खेड़ा में रहते बाबू राम चंद की आपबीती छपी थी। उसने लिखा था, "एक बार मैं जंगल-पानी गया। वहाँ बाहर कुएँ पर हाथ धोने लगा तो मेरे पीछे से आकर फुम्मण सिंह ने जो जाति से महतो थो, मेरे पाँच-सात थप्पड़ जड़ दिए। गालियाँ बकीं। कहा - साले, हमारा कुआँ भ्रष्ट कर दिया। मैं तब दूसरी कक्षा में पढ़ता था। उस समय इंस्पेक्टर परीक्षा लेने के लिए आए। उन्होंने प्रश्न किया कि एक व्यापारी ने उन्नीस टोपियाँ खरीदीं। सवा-सवा आने की। उसने दुकानदार को डेढ़ रुपया दिया। दुकानदार उसे क्या लौटाये, क्या नहीं। उस वक्त पहाड़े हुआ करते थे - आधा, पौना, सवाया, डेढ़ा। उन दिनों हमारे पास स्लेटें, तख्तियाँ हुआ करती थीं। मैंने सवाल करके स्लेट एक तरफ उल्टी करके रख दी। शेष लड़कों ने भी अपनी अपनी स्लेटें उल्टाकर रख दीं। इंस्पेक्टर ने उनकी स्लेटें देखीं। काटे मारकर वैसे ही ढेर लगा दिया। फिर उसने मेरी स्लेट उठाई। उसने पूछा कि यह किसकी स्लेट है? मैं खड़ा हो गया। उसने मुझे अपने पास बुलाया और शाबाशी दी। उसी समय फुम्मण सिंह जिसने मुझे थप्पड़ मारे थे, वह भी वहीं आ गया। कहने लगा कि हट परे, यह तो चमार है। इंस्पेक्टर ने कहा कि ये जो स्लेटों का ढेर पड़ा है, इसे ईंट मारकर तोड़ दो। जिसे तुम चमार कहते हो, उस चमार की समझ के आगे तुम सब राजपूत बौने हो। उसने मुझे ईनाम के तौर पर पाँच रुपये दिए। फिर मैंने उन्हें बताया कि ये हमें पोखर में अपनी तख्तियाँ भी धोने नहीं देते तो डविडे रिहाणे के एक मुंशी राधेश्याम ने कहा कि इस बारे में रिपोर्ट दो। रिपोर्ट दी। थानेदार आ गया। सारा गाँव एकत्र हुआ। फिर राजपूतों ने हमसे भरी सभा में माफ़ी माँगी। गुरमेल द्वारा समझाने पर मैं पार्टी की मीटिंग में शामिल होने लगा था। मुझे इस बात का नहीं पता कि उन्होंने अपनी कथा कहाँ से शुरू की थी। जब मैंने उठकर खिड़की से कान लगाए तो भापा जी कह रहे थे, "गाँव के स्कूल में एक मास्टर हुआ करता था। उसका नाम लालचंद था। गुणी ज्ञानी बंदा। दो वक्त रब का नाम लेने वाला। फारसी पढ़ाता था। न शराब पीता, न शराब पीने वाले के करीब बैठता। न मीट को हाथ लगाता। छिपकर चोरी से सिगरेट पीता। एक बार सोहण वलैतिये ने स्कूल में दो कमरे बनवाने शुरू किए। मैं वहाँ दिहाड़ियाँ किया करता था। मेरी लालचंद के साथ सिगरेट पीने की लत पड़ गई। वह बहुत समझदार बातें किया करता। कई गहरी बातें बताता। एक दिन मुझे बताने लगा, "रामू तुम पूशा की औलाद हो।" मुझे उसकी इस नई घुंडी का पता न लगा। यह कौन से पूशे की बात कर रहा है। मैंने यह नाम पहले कभी नहीं सुना था। लेकिन मुझे उस पर इतना यकीन अवश्य था कि वह मेरे आगे कोई झूठी बात नहीं करता। वह बेधड़क किस्म का व्यक्ति था। सच बात कहते समय आगा-पीछा नहीं देखता था। ले, अब जो घुंडी उसने मेरे सामने खोली थी, तुझे उसके बारे में बताता हूँ। पहले ब्रह्म अकेला था। कोई जात पात नहीं थी। कोई वर्ण-अवर्ण नहीं था। कोई ऊँच नहीं था, कोई नीच नहीं था। उस हालत में उस अलौकिक शक्ति ने अपना रूप फैलाया। क्षत्रियपन विकसित किया। इंदर, वरुण, सोम, रुद्र, मेघ, यम, मृत्यु और सूरज आदि आदि क्षत्रीय देवता पैदा किए। अब बहुत कुछ और भी चाहिए था। व्यापार की आवश्यकता था। फिर उसने वैश्य जाति के वशू, आदित्य और मारुत देवताओं की सृजना की। लेकिन इससे भी संपूर्णता नहीं मिली। मेहनतकशों की फौजें भी चाहिए थीं। इनके बग़ैर संसार कैसे चलता। आख़िर में उसने शूद्र वर्ण के देवता पूशे का सृजन किया।..." भापा जी की सारी उम्र तो 'सार जी' 'सार जी' कहते हुए गुजरी थी। अब पिछली उम्र में आकर अपनी जाति का पता लगा है। वह कां
शी राम और मायावती के भाषणों को उसी एकाग्रता से सुनते हैं जैसे कोई गुरबाणी या भजन सुनता है। सतीश ने बताया था, "बाबा जी, ये सब मनगढ़ंत बातें हैं। मिथ हैं। इसमें कोई भी बात सच नहीं। ब्राह्मणों ने कूड़ा फैलाया हुआ है। इन्होंने हमें इतनी बुरी तरह जकड़ रखा है कि इनमें से निकलने के लिए कई दशक लग जाएँगे। पुराने समय में कई शूद्र मंत्री हुए हैं। इतिहासकारों ने कभी उनका जिक्र तक नहीं किया। कभी समानता का दर्जा नहीं दिया। यह बहुत लंबी कथा है। ...हमारे लोगों को सचेत करने के लिए अंबेडकर के बाद कांशीराम और बहन मायावती का बहुत बड़ा रोल है। यह जो परिवर्तन आया है, यह हमारी राजनीतिक शक्ति, वोटों के कारण आया है। जिसने बता दिया है कि दलित वोटों के बग़ैर कोई भी पार्टी कामयाब नहीं हो सकती। ...आपके समय में हमारे लोगों को कमजात, कुत्ती जात, जूठ, कम्मी, कुतीड़ कहा जाता था। अब हमारे वक्त में भी चमार, डी.एस. फोर, कोटे वाले, दलित आदि कई नाम दिए गए हैं। इन दिनों दलित शब्द ज्यादा चल रहा है।" राजविंदर की आवाज़ आई है, "डैडी जी, डैडी जी तुम्हारा फोन है।" करीब आधे मिनट के लिए मैं सुन्न हुआ ज्यों का त्यों बैठा रहा मानो मुझे राजविंदर की आवाज़ सुनाई ही न दी हो। राजविंदर की आवाज़ पुनः आई है, "डैडी जी, तुम कहाँ हो? तुम्हारा फोन है।" मुझे जाना ही होगा। फोन पर दिलबाग पूछता है, "कैसे हो दलित भाई?" मुझे खिझाने के लिए ही वह रहा है। "बता, शैतान की टूटी।" "कहीं सीबो तेरे पास तो नहीं बैठी? तूने सारी उम्र जनानी से डरते हुए गुजार दी। उसने तुझे घुटनों के नीचे से निकलने नहीं दिया। सुन रहा है, मैं क्या कह रहा हूँ?" "चल चल पंडित, कह जो कहना है।" "मेरे बताए नुस्खे का क्या हुआ?" "यह उसी से आकर पूछ लेना।" "देख ले, मैं पूछ भी लूँगा। फिर न चड्डियों में पूँछ दबाकर दौड़ते रहना।" "तूने कुछ और बकना है।" "दलित भाई, गुस्से में क्यों बोलता है। मुझे पता चला कि अब तू भी मायावाती का पक्का चेला बन जाएगा।" इसे कैसे पता चला कि मैं बहुजन समाज पार्टी में शामिल हो रहा हूँ। ज़रूर सतीश ने बताया होगा या भापा जी ने बात की होगी। इसे पूरे घर की हर बात का पता होता है। पर मैंने तो अपने मन की बात किसी से साझा नहीं की। मन की गाँठें नहीं खोलीं। "शहर में इतना इतना नुकसान करवा कर खुश हो?" वह गुस्से से कहता है। मैं टेलीफोन काट देता हूँ। अरे! यह क्या? बुक एडजस्टमेंट वाली सारी जगह पर उस बुज़ुर्ग का चेहरा फैलता जा रहा है। हाँ, यही बुज़ुर्ग है। मेरी नज़रें धोखा नहीं खा सकतीं। मैंने उसे पहचान लिया है। भापा जी को भी अवश्य दर्शन देता होगा। इसलिए उन्होंने कोठी के पिछवाड़े दीवार में एक आला बनवाया था। बिलकुल एक कोने में। मुझसे डरते हुए उनका साहस अंदर बनाने का नहीं हुआ था। वह इतवार वाले दिन इसे धोते, सुच्चे कपड़े से साफ करते। फूल रखते। नतमस्तक होते। चिराग जलाते। काफ़ी पुरानी बात थी। एक दिन वह दिल्ली चले तो मुझे उन्होंने कहा था, "तू चिराग ज़रूर करना।" मुझसे इनकार न हो सका, पर मेरा मन बिलकुल भी इस तरफ नहीं गया। दूसरे दिन इतवार आ गया। घड़ी ने छह बजाये। मैं तेल की शीशी लेकर आले की तरफ जाता हुआ बहुत परेशानी महसूस कर रहा था। मन बार बार कह रहा था कि दो ईंटें उठाकर इसे बंद कर दूँ। असमंजस की स्थिति में मैंने दीया तेल से भर दिया। तीली जलाने के समय मेरे हाथ काँपे। उसी समय मुझे लगा मानो किसी ने कहा हो, "बड़े कामरेड! दरख़्त भी जड़ों बग़ैर नहीं होते। तू अपने बड़े-बुज़ुर्गों को ही भूल गया। कभी देखना, सोचना। मैं किन हालातों में जीता रहा हूँ।" अर्द्ध-चेतनावस्था की हालत में मैंने चिराग जलाया था। उसी रात वह बुज़ुर्ग पहली बार मुझे सपने में दिखाई दिया था। हाँ, यही बुजुर्ग है। मेरा पूर्वज़। मैं उसके अंश में से हूँ। मेरी नज़रें धोखा नहीं खा सकतीं। मैंने उसे पहचान लिया है। मैं देख रहा हूँ... धुंध तो पहले पहर की पड़नी शुरू हो गई थी। आगे चला जा रहा आदमी दिखाई नहीं देता। चुपचाप। जैसे सारी कायनात सोई पड़ी हो। गाँव की तरफ से कुम्हार की आवाज़ आई, "जवान, दौड़कर गधों के आगे हो जा। कहीं कोई ससुरा कुएँ में ही न गिर पड़े। इतनी ठंड में बाहर कौन निकालेगा।" सुनते ही बुज़ुर्ग खुलकर हँसा। वह मन में सोचने लगा, मैंने अपने होश में कभी गधा कुएँ में गिरता नहीं देखा। न ही सुना। इसके जानवर पेशावर से आए लगते हैं। "ले, अब सो गया सैब बहादुर, ओए करमे, भैण के लक्कड़। सुस्त पड़ गया। ज़रा भरपूर झौका लगा तो।" जोगिंदर ने कड़ाहे में से पौनी से मैल निकालते हुए कहा, "पत्त उठने वाली समझ।" करमे ने शहतूत के पेड़ की गुलेल से गन्ने के छिलके का बड़ा सा ढेर खींचा। आग को तेज कर दिया। लपटें बाहर को आईं। वह राम राम करता मुँह पर हाथ फेरने लगा। दिन बीतते पता ही नहीं चला था। यह आज की पाँचवी और अं
तिम पत्त (शीरा)थी। "अब ऐसा करो। पहले ये टोकरे घर छोड़ आओ। भेलियाँ मैं खुद बना लूँगा।" जोगिंदर ने कहा तो करमे ने लँगोटी का घुटनों के बीच लटकता सिरा खोंसा, उबासी ली, खेस को लपेटा और कीकर पर से बींडी उतारकर टोकरे को आ हाथ डाला। छिंदर करमे से काफ़ी आगे निकल गया था। जोगिंदर ने भारी टोकरा उसे उठवाया था। इस लालच में कि एक चक्कर बच जाएगा। वह चरागाह में पड़ती ईंखों में से निकलने लगा तो उसे भ्रम हुआ जैसे किसी के बोझ से ईंख का पूला टूटा हो। कड़क-सी आवाज़ आई थी। उसके सिर पर इतना भारी टोकरा था कि उसके लिए सिर घुमा कर ईंख की तरफ देखना भी बहुत कठिन था। उसके मन में आया कि उसे कोई टोकरा उतरवाने वाला मिल जाए तो वह देखे कि कौन-सा जानवर है। वह कुछ पल खड़ा रहा। अब आवाज़ नहीं आ रही थी। उसने एक हाथ की ओट करके आगे की ओर देखा, उसे आगे से छिंदर लौटता हुआ दिखाई दिया। दुविधा में ही वह आगे चल पड़ा। उसका साँस उखड़ा-उखड़ा रहा। वह अपने आप को परेशान सा महसूस करने लगा। अगले पल ही उतरती आती रात का ख़याल आते ही उसने अपनी चाल तेज़ कर दी। दूसरे चक्कर पर मुड़ा तो उसे ईंख के कोने से आवाज़ आई। वह खड़ा हो गया। आवाज़ फिर आई, "बापू, मुझे यह गट्ठर उठवाना।" वह आवाज़ की दिशा में चल दिया। बोझ ने उसकी हालत बुरी कर रखी थी। जगीरो ने खोरी का गट्ठर अपने बूते से बाहर बाँध रखा था। "तू थी मरजाणी।" करमे ने शक भरी नज़रों से उसे घूरा। जगीरो की आवाज़ में घबराहट थी। उससे जगीरो की ओर अधिक देर देखा न गया। उसने गट्ठर को हाथ लगवाने की की। बेध्यानी में गट्ठर एक तरफ से खुल गई। जगीरो बोली, "दिन खराब होता जाता था। मैंने सोचा, दो गट्ठर लेती जाऊँ। एक तो मैं घर में फेंक आई हूँ।" करमा आगे से कुछ न बोला, पर उसके मन में यह ज़रूर आया था कि वह जगह देखकर आए जहाँ पूला टूटने की आवाज़ आई थी। उसके पैर उधर जाने की बजाय छिंदर की तीखी आवाज़ के पीछे बढ़े, "ओए बहनचोदे चमार... तूने खुद तो देर करनी ही होती है, मुझे भी संग टाँग लेता है।" वापस आते हुए ईंख के पास आकर उसके पैर मन मन भारी होने लगे। उसके मन में तेज़ी से यह विचार आया, कहीं जगीरो तो नहीं थी? पीछे आते छिंदर की फट फट करती जूती की आवाज़ ने उसके पैरों में भी तेजी ला दी। उसे पता ही नहीं चला कि कब घर का आँगन पार कर आया। जगीरो ने फुर्ती से उसकी ओर बढ़ते हुए मैल के टोकरे को हाथ डाला। उसने उसकी तरफ अजीब नज़रों से देखा। मुँह से कुछ न बोला। वह डर गई। उसने अपनी घबराहट दबाकर कहा, "बापू, तू यूँ ही क्यों परेशान हुआ। मुझे बुला लेता।" प्रत्युत्तर में वह चुप रहा और सीधा दालान पार कर गया। चिंती रजाई में मुँह-सिर छिपाए पड़ी थी। वह उसके पैताने बैठ गया। वह कहना तो यह चाहता था कि सोने से पहले जगीरो से ईंख वाली बात पूछना, पर उसकी हिम्मत न पड़ी। वह पूछने लगा, "कैसी है अब तेरी तबीयत?" चिंती ने रजाई में से मुँह बाहर निकाला। उसे कँपकँपी के साथ ज़ोरों की खाँसी भी छिड़ी। "पड़ी रह, पड़ी रह।" कहते हुए उसने चिंती की रजाई चारों तरफ से अच्छी प्रकार खोंस दी। पूछने लगा, "मैं केहरू से दोशांदा बनवा लाऊँ? उसी से तुझे आराम आएगा।" "मैं कहीं नहीं मर चली। तू आराम से बैठ।" चिंती ने अपना आप सँभाला। हिम्मत की और दीवार से पीठ टिकाकर बैठ गई। जगीरो अंदर आई और पूछने लगी, "बेबे, मैल का क्या करना है?" चिंती ने कहा, "पड़ी रहने दे।" इन दिनों में चिंती का दमा कुछ अधिक ही बिगड़ गया था। वह खाट से लग गई थी। वैसे वह कहाँ टिककर बैठने वाली थी। तीनों घरों का गोबर-कूड़ा करती। भैंस के चारे के लिए भी बाहर अंदर आती-जाती। "सवेर का कुछ खाया-पिया भी है कि नहीं?" जगीरो के जाने के बाद उसने पूछा। चिंती ने उसकी ओर मोह भरी नज़रों से देखा। बताने लगी, "मुझे दोपहर के समय बेचैनी सी हुई थी। जगीरो तो लंबरदारों के गई थी। मैंने कहा - चल मन उठ। रात की रोटी पड़ी थी। मैंने रोटी को भूरा। लस्सी में नमक-मिर्चें डालीं। मुझे बड़ी स्वाद लगी।" "तूने अब क्या खाना है?" वह कहना तो कुछ और ही चाहती थी पर बोली, "जगीरो ने छोलों की दाल चढ़ा रखी है। उसके साथ दो रोटियाँ खा लो।" उससे चिंती की तरफ देखा न गया। रोटी खाकर उसने चारपाई पर लेटने की की। जगीरो वाली घटना ने कुछ समय तक उसे परेशान किया। फिर उसे अपने बुजुर्गों की नसीहत याद आ गई, "यह हमारी होनी है। पंचायत और पुलिस के पास शिकायत करके कुछ नहीं होगा।" "डैडी जी, डैडी जी, डैडी जी," राजविंदर ने लगातार आवाज़े दीं थी पर मुझे कुछ भी नहीं सुनाई दिया था। "डैडी जी... डैडी जी..." उसने मुझे झकझोरते हुए कहा है, "आप कहाँ खो गए?" "कहीं भी नहीं।" "सो तो नहीं गए थे?" "सॉरी बेटे, आय एम रीयली सॉरी।" "चलो, खाना खा लो।" "मुझे तो अभी भूख ही नहीं।" "जितनी है, उतना खा लो। चलो चलो उठो।" "बेटा, तू मुझे यहीं दो फुलके ला दे।" सीबो अभ
ी तक नहीं लौटी। उसका कोई फोन भी नहीं आया। कहीं पुलिस ने न पकड़ लिया हो। पर पुलिस औरतों को तो कुछ नहीं कहती। लड़के भी नहीं कहते। क्या पता वह वीना के पास ही सो जाए। सवेर को सैर करती हुई लौट आएगी। इतनी जल्दी तो मुझे नींद नहीं आने वाली। क्यों न दिलबाग को छेड़ूँ। पर यदि आगे से उसने कोई और घुंडी खोल दी तो मुझे गोली खाने के बाद भी नींद नहीं आएगी। मैं दीवार से कान लगाकर भापा जी के कमरे का सुराग लेता हूँ। वे सो गए हैं। मैं एक के बाद एक चैनल बदलता हूँ। चवालीस नंबर पर 'आज तक' वाला प्रभु चावला मायावती से पूछ रहा है, "आपके यू.पी. के चुनाव जीतने के क्या कारण हैं?" "मैंने ब्राह्मणों और मुसलमानों को संग लेकर चुनाव लड़ा। एस.सी. मिश्रा की ब्राह्मण वोटों को अपने साथ जोड़ने की जिम्मेदारी सौंपी। नसीमुद्दीन सिद्दीकी को मुस्लिम वोटों की। मैंने छयासी ब्राह्मणों और स्वर्णों को कुल एक सौ चवालीस सीटों पर खड़ा किया था। मेरा नारा था - हाथी नहीं, गणेश है, ब्रह्मा, विष्णु, महेश है। जै भीम, जै गणेश...।" "आपका सपना क्या था?" "मेरा सपना है बहुजन समाज, जिसमें अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति के अलावा बहुजन समाज से जुड़े सिक्ख, मुसलमान, बौद्ध, पारसी और ईसाई भी शामिल हैं। ऊँची जाति के वे लोग भी शामिल हैं जिनकी सोच मनुवादी नहीं है। मैं आरंभ से मानवता में विश्वास करती हूँ। मैं गरीब, दबे-कुचले और शोषित वर्ग को समर्थ बनाना चाहती हूँ ताकि उनकी सुरक्षित सीटें पूरी तरह भरी जा सकें।" मुझे गुस्सा आने लगा है। मायावती भी कांग्रेस वाली बोली बोलने लग पड़ी है। इसने गरीबों का क्या भला करना है। मैं सिर को ज़ोर देकर झटके देता हूँ। मेरे मुँह से निकलता है - दुनियाभर के मेहनतकशो, एक हो जाओ। मैं अपनी ज़िंदगी की बैलेंसशीट पर मोटे मोट अक्षरों में लिखता हूँ : 'नहीं, मैं दलित नहीं हूँ।' यह कागज थामे सतीश के कमरे की ओर चल पड़ता हूँ, यह जानते हुए भी कि वह अब सो गया होगा।
नहीं। तुम धोखा दे सकते हो, बेईमानी कर सकते हो, सिर्फ इसलिए कि प्रेम का अभाव है। समस्त पाप प्रेम की गैर-मौजूदगी में पैदा होते हैं। जैसे प्रकाश न हो तो अंधेरे घर में सांप, बिच्छू, चोर, बेईमान, लुटेरे सभी का आगमन हो जाता है। मकड़ियां जाले बुन लेती हैं। सांप अपने घर बना लेते हैं। चमगादड़ निवास कर लेते हैं । रोशनी आ जाए, सब धीरे-धीरे विदा होने लगते हैं। प्रेम रोशनी है। और तुम्हारे जीवन में प्रेम का कोई भी दीया नहीं जलता, इसलिए पाप है। पाप के पास कोई विधायक ऊर्जा नहीं है। कोई पाजिटिव एनर्जी नहीं है। पाप सिर्फ नकारात्मक है। वह सिर्फ अभाव है। तुम कर पाते हो, क्योंकि जो तुम्हारे भीतर होना था वह नहीं हो पाया। थोड़ा समझें। तुम क्रोध करते हो, और सारे धर्म-शास्त्र कहते हैं क्रोध मत करो। लेकिन अगर तुम्हारी जीवन-ऊर्जा का बहाव प्रेम की तरफ न हो तो तुम करोगे भी क्या? क्रोध करना ही पड़ेगा। क्योंकि क्रोध, ठीक से समझो तो वही प्रेम है, जो मार्ग नहीं खोज पाया। वही ऊर्जा जो फूल नहीं बन पायी, कांटा बन गयी है। प्रेम है सृजन। और अगर तुम्हारे जीवन में सृजनात्मकता, क्रिएटीविटी न हो पाए, तो तुम पाओगे कि तुम्हारी जीवनऊर्जा विध्वंसात्मक हो गयी, डिस्ट्रक्टिव हो गयी। तुम्हारे संतों में और तुम्हारे शैतानों में जो फर्क है, वह इतना ही है कि एक की जीवन-ऊर्जा विध्वंस बन गयी है और एक की जीवन-ऊर्जा सृजन बन गयी है। तो जो आदमी भी सृजन कर सकता है, वह शैतान नहीं हो सकता। और जो आदमी भी सृजन नहीं करता, वह लाख अपने को समझाए कि संत है, वह संत नहीं हो सकता। क्योंकि ऊर्जा का क्या होगा? जीवन-शक्ति है, उस शक्ति का तुम क्या करोगे? कुछ होना चाहिए। अगर तुम प्रेम करने लगो तो तुमने उसी शक्ति के लिए नयी नहरें खोद दीं। अगर तुम्हारे जीवन में कहीं प्रेम न हो तो तुम्हारी सारी जीवन-शक्ति क्या करेगी? तोड़ेगी, फोड़ेगी, मिटाएगी। अगर तुम बनाने में न लगा सके तो मिटाने में लगोगे। पुण्य जीवन-ऊर्जा की विधायक स्थिति है, पाप नकारात्मक। पाप से सीधा संघर्ष करने की कोई भी जरूरत नहीं है। मेरे पास लोग आते हैं। वे कहते हैं, क्रोध बहुत है, क्या करें? मैं उनसे कहता हूं, क्रोध का तो तुम विचार ही मत करो। क्योंकि तुम जितना विचार करोगे क्रोध का, क्रोध को उतनी ही ऊर्जा मिलेगी। जिस चीज का हम विचार करते हैं, उसी तरफ शक्ति बहने लगती है। शक्ति के बहने का ढंग विचार है । विचार नहर की तरह है। तुम जिस तरफ ध्यान देते हो, उसी तरफ तुम्हारा जीवन बहने लगता है। जैसे हमने एक तालाब के पास एक नहर खोद दी, उस नहर से तालाब का पानी हम खेत में ले जाने लगे। जीवन की जो ऊर्जा है, ध्यान उसके लिए नहर है। तुम जिस तरफ ध्यान देते हो, उसी तरफ जीवन की धारा बहने लगती है। गलत ध्यान हुआ, गलत तरफ बहने लगेगी। ठीक ध्यान हुआ, ठीक तरफ बहने लगेगी। प्रेम, ठीक ध्यान का नाम है। और नानक कहते हैं, जिस दिन तुम्हारा प्रेम परमात्मा के नाम की तरफ बहेगा, रंग गए तुम! फिर धुल जाओगे। और फिर अतीत के पाप से ही नहीं धुल जाओगे, भविष्य की संभावना से भी धुल जाओगे। इसके पहले कि गंदे होओ, धुले रहोगे। तुम सद्यस्त्रात हो जाओगे। तुम प्रतिपल नहाए हुए होओगे। इसलिए जब तुम कभी किसी ज्ञानी के पास जाओगे तो एक सद्यस्त्रात प्रतीति तुम्हें होगी। जैसे वह प्रतिपल नहाया हुआ है। जैसे अभी-अभी नहा कर निकला हुआ है । एक वैसी ताजगी, जो सुबह की ओस के पास प्रतीत होती है, तुम्हें संत के पास होगी। और उसका कारण सिर्फ इतना है कि धूल इकट्ठी ही नहीं होती। प्रेम के अभाव में धूल इकट्ठी होती है। और प्रेम से उसे धोया जा सकता है। तो प्रेम के संबंध में पहली बात कि तुम्हारी जीवन-ऊर्जा विध्वंस न बने। क्योंकि विध्वंस ही पाप है। क्या है पाप? जब तुम कुछ तोड़ते हो, भविष्य में कुछ बनाने के ख्याल से नहीं, सिर्फ तोड़ने में ही रस लेने के लिए। क्योंकि तोड़ना दो तरह का हो सकता है। एक आदमी मकान गिराता है, ताकि नया बनाया जा सके। वह तोड़ना नहीं है। वह तो बनाने की प्रक्रिया का अंग है। जब तुम कुछ तोड़ते हो, सिर्फ तोड़ने के लिए, तब पाप हो जाता है। समझो, तुम्हारा छोटा लड़का है। तुम उसे कभी चांटा भी मारते हो, लेकिन वह चांटा पाप नहीं है। अगर वह प्रेम से मारा गया है, तो सृजनात्मक है। वह उस बच्चे को मिटाने के लिए नहीं है, वह उस बच्चे को बनाने के लिए है। तुमने भरपूर प्रेम से मारा है। तुमने मारा ही इसलिए है कि तुम प्रेम करते हो। और अगर प्रेम न होता तो तुम फिक्र ही नहीं करते। भाड़ में जाओ! जो करना हो, करो । एक उपेक्षा होती है कि ठीक है! जहां जाना हो, जाओ। जो करना हो, करो । एक उदासी होती है। लेकिन तुम प्रेमपूर्ण हो, इसलिए तुम बच्चे को हर कहीं नहीं जाने दे सकते। वह आग में गिरना चाहे तो आग में नहीं गिरने दोगे। तुम उसे रोकोगे। तुम उसे
मार भी सकते हो। लेकिन उस मारने में पाप नहीं है, उस मारने में पुण्य है। क्योंकि सृजन हो रहा है। तुम कुछ बनाना चाहते हो। लेकिन तुम एक दुश्मन को मारते हो। चांटा वही है, हाथ वही है, ऊर्जा वही है। लेकिन जब तुम दुश्मन के भाव से मारते हो, तो तुम कुछ बनाने को नहीं मारते, तुम कुछ मिटाने को मारते हो। पाप हो गया! कृत्य पाप नहीं होते। तुम्हारे भीतर की दृष्टि अगर विधायक है, तो कोई कृत्य पाप नहीं है। अगर तुम्हारी दृष्टि विध्वंसात्मक है, तो सभी कृत्य पाप हैं। सूफी कहानी है। एक गांव में एक सूफी आया । उसे किसी यात्रा पर जाना था। पहाड़ों में छिपा हुआ एक छोटा सा मंदिर था, जिसकी वह तलाश कर रहा था। तो उस सूफी फकीर ने गांव के लोगों से पूछा एक चाय घर के सामने जा कर कि इस गांव में सबसे सच्चा आदमी कौन है? और सबसे झूठा आदमी कौन है? गांव के लोगों ने बता दिया। छोटे गांव में सभी को सभी का पता होता है कि सबसे झूठा आदमी कौन है, सबसे सच्चा आदमी कौन है। वह सूफी सबसे सच्चे आदमी के पास गया पहले । और उसने पूछा कि मैं उस छिपे हुए मंदिर की तरफ जाना चाहता हूं, जिसकी चर्चा शास्त्रों में सुनी है। अगर तुम्हें मार्ग पता हो तो सबसे सुगम मार्ग क्या है, वह मुझे बता दो। तो उसने कहा, सबसे सुगम मार्ग पहाड़ों से ही हो कर जाता है। और इस-इस विधि से तुम चलो, लेकिन पहाड़ों से गुजरना होगा। वह आदमी फिर सब से झूठे आदमी के पास गया । और बड़ा हैरान हुआ। क्योंकि उस झूठे आदमी से भी उसने पूछा, तो उसने कहा कि सबसे सुगम मार्ग पहाड़ों से गुजरता है। और यह यह मार्ग है और तुम्हें इस-इस भांति जाना होगा। दोनों के उत्तर समान थे। तब वह बड़ा हैरान हुआ। तब उसने गांव में जा कर तलाश की कि यहां कोई सूफी तो नहीं है! कोई फकीर तो नहीं है! ध्यान रखना, सच्चा आदमी, झूठा आदमी दो छोर हैं। और जब कोई आदमी संतत्व को उपलब्ध होता है तो दोनों के पार होता है। अब यह बड़ी मुश्किल में पड़ गया कि किसकी मानूं? और उसने सोचा था कि झूठा आदमी विपरीत बात कहेगा। लेकिन पापी, पुण्यात्मा दोनों ने एक ही उत्तर दिया, अब कौन सही है? तो वह एक सूफी फकीर का पता लगा कर उसके पास गया। उस फकीर ने कहा, दोनों ने एक सा उत्तर दिया है, लेकिन दोनों की नजर अलग-अलग है। सच्चे आदमी ने इसलिए तुम्हें कहा कि तुम पहाड़ से हो कर जाओ... । एक मार्ग नदी से हो कर भी जाता है, वह उसे पता है। लेकिन न तो तुम्हारे पास नाव है जिससे तुम यात्रा कर सको, और न नाव से यात्रा करने के अन्य साधन और सामग्री तुम्हारे पास है। फिर तुम्हारे पास यह गधा भी है जिस पर तुम सवार हो । यह पहाड़ पर तो सहयोगी होगा, नाव में उपद्रव होगा। इसलिए तुम्हारी पूरी स्थिति को सोच कर उसने कहा कि तुम पहाड़ से जाओ। सुगम मार्ग तो नाव से है। लेकिन तुम्हारी स्थिति देख कर सुगम मार्ग पहाड़ से बताया गया। और झूठे आदमी ने इसलिए पहाड़ से कहा, ताकि तुम मुसीबत में पड़ो। सुगम मार्ग तो नाव से है, नदी से है, और झूठे आदमी ने इसलिए कहा है कि पहाड़ से जाओ, ताकि तुम मुसीबत में पड़ो। वह तुम्हें सताना चाहता है। उत्तर एक से हैं, दृष्टि भिन्न है। कृत्य भी एक से हो सकते हैं। इसलिए कृत्यों से कुछ तय नहीं होता। अंतर्भाव से तय होता है। इसलिए तो बेटे को बाप मार देता है, इसका कोई हिसाब नहीं रखा जाता। मां बेटे को मार देती है, इसका कोई हिसाब नहीं रखा जाता। सच तो यह है कि मनस्विद कहते हैं, जिस मां ने अपने बेटे को कभी नहीं मारा, उस मां और बेटे के बीच कभी कोई गहरा संबंध न बन सकेगा। क्योंकि आत्मीयता ही नहीं बन सकी। अगर तुम बेटे को मारने से डरते हो, तो तुम उसे अपना ही नहीं मानते। फासला है। जो बाप बेटे की हर इच्छा पर झुक जाएगा, बेटा उसे कभी माफ नहीं कर सकेगा। क्योंकि जिंदगी में वह पाएगा कि बाप ने उसे बरबाद कर दिया। क्योंकि बेटा तो अनुभवी नहीं है। इसलिए उसकी मांगों का कोई बहुत अर्थ नहीं है। बाप को सोचना ही पड़ेगा कि कौन सी मांग ठीक है और कौन सी गलत। वह ज्यादा अनुभवी है और अगर प्रेम करता है बेटे को तो वह अपने अनुभव से तय करेगा, बेटे की मांग से नहीं। और अगर किसी बाप ने बेटे को पूरी स्वतंत्रता दे दी, तो बेटा कभी क्षमा नहीं कर पाएगा। इसलिए तो पश्चिम में बेटे बाप को क्षमा नहीं कर पा रहे हैं। और पश्चिम में बाप ने जितनी स्वतंत्रता बेटे को दी है, दुनिया में कभी नहीं दी गयी थी। पिछले सौ वर्षों के विचारकों ने यही समझाया कि बेटों को पूरी स्वतंत्रता दो। और उसका परिणाम यह हुआ कि बेटे और बाप के बीच इतनी बड़ी खाई पैदा हो गयी है कि उसे पाटना मुश्किल है। पुराने जमाने में बेटे बाप से डरते थे, पश्चिम में बाप बेटों से डर रहे हैं। और पुराने जमाने में बेटे बाप को अंत तक श्रद्धा देते थे। और नए पश्चिम में रत्तीभर श्रद्धा का भाव नहीं है, प्रेम का भाव नहीं है। और का
रण क्या है? कारण यह है कि बेटा एक न एक दिन पाएगा कि बाप ने मुझे बरबाद किया। उसे रोकना था। अगर मैं गलत कर रहा था तो उसे रोकना था। अगर मैं भटक रहा था तो उसे रोकना था। क्योंकि वह अनुभवी था, मैं गैर-अनुभवी था। मेरी बात क्यों सुनी? उसे झुकना ही नहीं था। यह बेटा अनुभव करेगा। इसे ध्यान रखना। क्योंकि प्रेम चिंता करेगा। दूसरे का जीवन शुभ हो, सुंदर हो, सत्य हो, महिमा को उपलब्ध हो । उपेक्षा का अर्थ ही है कि कोई आत्मीयता नहीं। जो भी होना हो, हो । हमारा कोई प्रयोजन नहीं है। संयोग की बात है कि तुम बेटे हो । संयोग की बात है कि मैं पिता हूं। अन्यथा कुछ लेना-देना नहीं है। तो पश्चिम में अंतःसंबंध गिर गए हैं। प्रेम भी मार सकता है, क्योंकि प्रेम इतना सबल है। और प्रेम इतना आस्थावान है कि विध्वंस से भी सृजन को ला सकता है। लेकिन एक बात ध्यान रखनी जरूरी है। सृजन हमेशा लक्ष्य होगा। विध्वंस अगर जरूरी है, तो हमेशा विधि होगी। गुरु तो शिष्य को बिल्कुल ही मारता है। मार ही डालता है। कोई बाप इतना नहीं मार सकता। क्योंकि बाप की चोटें तो ऊपर-ऊपर होंगी, शरीर पर होंगी। जैसे पानी शरीर का मैल धोता है, वैसे बाप शरीर को, जीवन को ठीक करेगा। उसकी चोट ऊपर-ऊपर होगी। गुरु तो भीतर मारेगा। गहरी चोट करेगा। जहां तक तुम्हें पाएगा, वहां तक छेदेगा। वह तुम्हारे अहंकार को गला कर ही रहेगा। और जब तक तुम ऐसा गुरु न पा लो, तक समझना कि जिसे तुमने पा लिया है, उसे तुम माफ न कर सकोगे। आज नहीं कल तुम पाओगे, उसने तुम्हारा जीवन, तुम्हारा समय नष्ट किया है। प्रेम का लक्ष्य है सृजन - - एक बात । और जब तुम सृजनात्मक होते हो जीवन-संबंधों में, तुम पाप नहीं कर सकते। और जब मैं प्रेम करता हूं तो पाप कैसे संभव है? प्रेम धीरे-धीरे फैलता जाएगा तो तुम पाओगे, मैं ही हूं सभी के भीतर छिपा हुआ। किसकी चोरी करूं? किसको धोखा दूं? किसकी जेब काटूं! क्योंकि जितना तुम्हारा प्रेम बढ़ेगा उतना ही तुम पाओगे कि ये सारी जेबें अपनी ही हैं। और इधर मैं किसी को नुकसान पहुंचाता हूं, वह नुकसान अंततः मुझे ही पहुंच जाता है । जीवन एक प्रतिध्वनि है। प्रेम करने वाले को पता चलता है कि जीवन एक प्रतिध्वनि है। तुम जो करते हो वह तुम पर ही बरस जाता है। जितना तुम्हारा प्रेम बढ़ता है, उतना तुम्हें यह साफ होने लगता है कि यहां पराया कोई भी नहीं है। जिस व्यक्ति से तुम्हारा प्रेम हो जाता है, उससे परायापन मिट जाता है। तुम अपनी पत्नी को दुख न पहुंचाना चाहोगे। क्योंकि उसे पहुंचाया गया दुख अंततः तुम्हें ही पहुंचाया गया दुख सिद्ध होता है। वह दुखी होती है तो तुम दुखी होते हो। तुम चाहोगे, वह सुखी रहे। क्योंकि वह जितनी सुखी होती है उतनी तुम्हारे सुख की संभावना बढ़ जाती है। तब तुम पाओगे कि दूसरे को दिया गया दुख तुम्हें भी दुखी करता है। दूसरे को दिया गया सुख तुम्हें भी सुखी करता है। हालांकि हम बिल्कुल उलटी भाषा में सोचते हैं। हम सोचते हैं, अपने को सुख दो और दूसरे को दुख दो। शायद इससे हमारा सुख बढ़ेगा। तुम आखिर में पाओगे कि तुम दुख ही दुख से भर गए। क्योंकि जो तुम दूसरे को देते हो वही लौटता है। तुमने अगर सबके लिए कांटे बोए हैं, तो तुम आखिर में पाओगे कि तुम्हारा पूरा जीवन कांटों से भर गया है। और तुमने अगर फिक्र ही नहीं की कि दूसरे क्या कर रहे हैं, तुम फूल बोते गए, तो आखिर में तुम पाओगे कि जो तुमने बोया है वही तुम काटोगे। जो दूसरों ने बोया है, उनकी फसलें उनके लिए। लेकिन हम उलटा चलते हैं। एक महिला मुझसे पूछने आयी थी। वह पति को तलाक देना चाहती है। उसने जो बात पूछी वह मुझे भूलती नहीं। उसने मुझसे पूछा कि क्या तलाक देने की ऐसी भी कोई तरकीब है कि मेरे पति को इससे खुशी न मिले? वह जानती है भलीभांति कि तलाक देने से खुशी मिलेगी। क्योंकि उसने काफी सताया है पति को। अब वह यह भी इंतजाम करना चाहती है कि तलाक भी हो, तो भी इंतजाम ऐसा हो कि पति को खुशी न मिल पाए। हम साथ हो कर भी दुख देना चाहते हैं, दूर हो कर भी दुख देना चाहते हैं। ज. ुडे हों तो भी दुख देना चाहते हैं, अलग हो जाएं तो भी दुख देना चाहते हैं। लेकिन ध्यान रखें, जब तुम इतना दुख देना चाहोगे तो तुम्हारी दुख के प्रति जो इतनी आतुरता है, तुम्हारा दुख पर जो इतना ध्यान है, वह धीरे-धीरे तुम पाओगे कि तुम्हारे भीतर दुख का घाव इसी ध्यान से निर्मित होता जाएगा। इसको ही तो हमने कर्म की जीवन पद्धति कहा है, जीवन का नियम कहा है। कर्म का कुल इतना ही अर्थ है कि तुम जो करते हो, अंततः तुम्हीं को मिल जाता है। देर अबेर हो सकती है। इसलिए तुम वही करना, जो तुम चाहते हो कि तुम्हें मिले। तुम अगर इतने नर्क में खड़े हो तो किसी और के कारण नहीं। जन्मों-जन्मों में जो तुमने किया है, उसका फल है। लोग मेरे पास आते हैं, वे कहते हैं, आशीर्वाद दे दें कि ज
ीवन में सुख हो जाए। अगर आशीर्वादों से सुख होता होता, तो एक आदमी सभी को सुखी कर देता। क्योंकि आशीर्वाद देने में क्या कंजूसी? इतना आसान नहीं है। तुमने दुख बोया है, मेरे आशीर्वाद से कैसे कटेगा ? तुम मुझसे समझ लो । आशीर्वाद मत मांगो। क्योंकि आशीर्वाद तो बेईमानी का ढंग है। दुख तुमने दिया है न मालूम कितने लोगों को। तुमने दुख बोया है सब तरफ । अब तुम उसकी फसल काटने के वक्त आशीर्वाद मांगने आ गए! और तुम्हारे ढंग से ऐसा लगता है कि जैसे अगर तुम्हें दुख मिल रहा है, तो मैं आशीर्वाद नहीं दे रहा हूं इसलिए दुख मिल रहा है। किसी के आशीर्वाद से तुम्हारा दुख न कटेगा। किसी के आशीर्वाद से तुम्हारी समझ बढ़ जाए तो काफी। किसी के आशीर्वाद से तुम में प्रेम का बीज आ जाए तो काफी। पाप तो प्रेम से कटेगा। और दुख तो तुम जब दूसरों के लिए सुख बोने लगोगे तब कटेगा। नानक कहते हैं, बुद्धि पापों से भरी हो तो वह नाम के प्रेम से ही शुद्ध की जा सकती है । और जब एक व्यक्ति से तुम प्रेम करते हो, तो उसे दुख देना मुश्किल हो जाता है। क्योंकि उसका सुख तुम्हारा सुख, उसका दुख तुम्हारा दुख। उसके जीवन और तुम्हारे बीच की सीमा टूट गयी। तुम एक-दूसरे में बहते हो। जब ऐसी ही घटना किसी व्यक्ति के और परमात्मा के बीच घटती है, तो उसका नाम प्रार्थना, आराधना, पूजा, भक्ति। वह प्रेम का अंतिम स्वरूप है। और जब तुम एक व्यक्ति को सुख दे कर इतने सुखी हो जाते हो, और जब तुम एक व्यक्ति को दुख दे कर इतने दुखी हो जाते हो, तो परमात्मा से भी तुम्हारे दो संबंध हो सकते हैं। एक तो प्रेम का, तब तुम स्वर्ग में हो जाओगे। और एक अप्रेम का, तब तुम नर्क में गिर जाओगे। परमात्मा का अर्थ है, समस्त, दि टोटैलिटी। यह जो सारा विस्तार है, इस सारे विस्तार के साथ इस भांति प्रेम, जैसे यह एक व्यक्ति हो। और इस प्रेम में तो तुम्हारे सारे पाप बह जाएंगे। क्योंकि यह प्रेम तो तुम्हें सबके ही प्रेम में गिरा देगा। तुम किसे धोखा दोगे? तुम जहां भी धोखा देने जाओगे, उसी को पाओगे झांकता हुआ। तुम जिस आंख में भी झांकोगे, वहीं परमात्मा को बैठा हुआ पाओगे। भक्ति बड़ी क्रांतिकारी प्रक्रिया है। भक्ति का अर्थ है, अब उसके सिवाय कोई भी नहीं। और तब तुम्हारा जीवन अनायास सरल हो जाएगा। क्योंकि अब पाप करने को न बचा। मिटाना किसको है? धोखा किसे देना है ? छीनना किससे है? तो भक्ति से तुम यह अर्थ मत समझना कि मंदिर में तुम पूजा कर आते हो; कि गुरुद्वारे में जा कर तुम जपुजी का पाठ कर लेते हो; कि तुम यह मत समझना कि रोज उठ कर तुम जोर से जपुजी यांत्रिक रूप से दोहरा लेते हो; कि नमाज पढ़ लेते हो। इन सबसे कुछ भी न होगा। क्योंकि फिर तुमने झूठी चाबी बना ली। असली चाबी का तो अर्थ ही यह है कि अब मैं अनंत के प्रेम में गिर गया। अब इस जगत की रत्ती-रत्ती मेरा प्रेम-पात्र है। इंच-इंच मेरी प्रेयसी है या मेरा प्रेमी है। पत्ते पत्ते पर उसी का नाम है और आंख - आंख में उसी की झलक है। सभी कुछ उसका है। सभी तरफ उसे मैं पाता हूं। अब तुम जिस ढंग से जीओगे--अगर परमात्मा सब तरफ तुम पाते हो--उस ढंग का नाम भक्ति है। वह तुम्हारे जीवन की पूरी शैली बदल देगी। तुम उठोगे और ढंग से। तुम बैठोगे और ढंग से। क्योंकि वह सब जगह मौजूद है। तुम बोलोगे और ढंग से, क्योंकि तुम जिससे भी बोलोगे वही वह है। तुम कैसे गाली दे सकोगे? तुम कैसे निंदा कर सकोगे? तुम कैसे किसी का अपमान कर सकोगे? तुम कैसे अपने को दूसरे की सेवा से बचा सकोगे? क्योंकि सभी चरणों में वही छिपा है। और अगर यह बोध तुम में गहरा हो जाए, इसको नानक कहते हैं, नाम का रंग चढ़ जाना। तुम पर एक मस्ती छा जाएगी। तुम्हारे पास कुछ भी न होगा और सब कुछ मालूम पड़ेगा। तुम बिल्कुल अकेले होओगे और सारा जगत तुम्हारे साथ होगा। अस्तित्व और तुम्हारे बीच तालमेल आ गया। अस्तित्व और तुम्हारे बीच तारी लग गयी। अस्तित्व और तुम्हारे बीच संबंध जुड़ गया। नानक कहते हैं, ऐसा प्रेम ही पापों को काट सकता है। अन्यथा तुम कुछ भी करो --पूजा करो, पाठ करो, यज्ञ करो, मंदिर बनाओ, मस्जिद बनाओ - तुम कुछ भी करो, तुम्हारे भीतर मूल-सूत्र नहीं है। एक ट्रेन में मैं सफर कर रहा था। और एक औरत कोई नौ-दस बच्चों को लिए हुए सफर कर रही थी। वे बच्चे बड़ा उपद्रव मचा रहे थे। इधर से उधर दौड़ रहे थे, लोगों का सामान गिरा रहे थे। पूरे कमरे को उन्होंने अराजकता बना रखा था। आखिर एक आदमी से नहीं रहा गया। क्योंकि पहले उन बच्चों ने उसकी पेटी गिरा दी, फिर उसका अखबार फाड़ डाला। तो उसने उससे कहा कि बहन जी, इतने बच्चों को साथ ले कर सफर न किया करें तो अच्छा। आधों को घर छोड़ आया करें। उस स्त्री ने बड़े क्रोध से उस आदमी की तरफ देखा और कहा, क्या समझा है? क्या तुम मुझे बेवकूफ समझते हो? आधों को घर ही छोड़ आयी हूं। समझ का सूत्र न हो, तो
तुम कितने ही घर छोड़ आओ, क्या फर्क पड़ने का है? और जब बीस बच्चों को पैदा करते वक्त समझ काम नहीं आयी, तब छोड़ते वक्त कहां से आ जाएगी? हजार पाप हैं। पुण्य तो एक ही है। हजार पुण्य नहीं हैं, पुण्य तो एक ही है। हजार तरह की बीमारियां हैं, स्वास्थ्य तो एक ही है। स्वास्थ्य थोड़े ही हजार तरह का होता है। कि तुम अपने ढंग से स्वस्थ, मैं अपने ढंग से स्वस्थ। बीमार हम अलग-अलग हो सकते हैं, कि तुम टी.बी. के बीमार, कि कोई कैंसर का बीमार, कि कोई कुछ और का बीमार। बीमारियों में भेद हो सकता है, बीमारियों में मौलिकता हो सकती है, निजीपन हो सकता है। बीमारियों पर तुम्हारे हस्ताक्षर हो सकते हैं। क्योंकि बीमारियां अहंकारों का हिस्सा हैं। अहंकार अलग-अलग, उनकी बीमारियां अलग-अलग। लेकिन पुण्य तो एक है। स्वास्थ्य तो एक है। क्योंकि परमात्मा एक है। उस संबंध में तुम अलग-अलग नहीं हो सकते। वह क्या है स्वास्थ्य, जो एक है? वह है प्रेम का भाव। और धीरे-धीरे उसमें रमते जाना है। उठो ऐसे जैसे प्रेमी मौजूद है। अकेले कमरे में भी तुम ऐसे ही प्रवेश करो जैसे परमात्मा मौजूद है। एक सूफी फकीर हुआ जुन्नैद। वह अपने शिष्यों को कहता था, भीड़ में जाओ तो ऐसे जाना जैसे तुम अकेले हो। और जब अकेले में जाओ तो ऐसे जाना जैसे कि परमात्मा चारों तरफ मौजूद है। ठीक कहता है। क्योंकि भीड़ में अगर तुम अपना अकेलापन याद रख सको तो परमात्मा की याद रहेगी; नहीं तो भीड़ छा जाएगी। तुम भीड़ में भटक जाओगे। और एकांत में अगर तुम परमात्मा की याद न रख सको, तो अपने में भटक जाओगे। दो खतरे हैं। या तो दूसरे में भटक जाओ या अपने में भटक जाओ। या तो भीड़ में, या खुद में। और परमात्मा दोनों के पार है। और अगर तुम यह याद रख सको कि भीड़ में मैं अकेला हूं और अकेले में वह मौजूद है, तो तुम कभी भी न खोओगे। नानक कहते हैं कि नाम के प्रेम में जो रंग गया, वह भीतर से शुद्ध हो गया। उसने अंतरंग स्नान कर लिया। "कहने से न तो कोई पुण्यात्मा होता है न पापी।" तुम कितना ही सोचते रहो और तुम कितना ही विचार करते रहो और तुम कितना ही कहते रहो कि मैं कोशिश कर रहा हूं पुण्यात्मा होने की। कहने से कुछ भी नहीं होता। "जो-जो कर्म हम करते हैं वे लिख लिए जाते हैं। मनुष्य स्वयं ही बोता है और स्वयं ही खाता है । " सिर्फ कहने से कुछ न होगा, सोचने से कुछ न होगा। क्योंकि बड़े मजे की बात है कि पुण्य के संबंध में तुम सदा सोचते हो और पाप के संबंध में तुम क्षणभर नहीं सोचते; करते हो। अगर कोई तुमसे कहे कि जब क्रोध आए, तो आधा घड़ी रुक जाना, फिर करना । तो तुम कहोगे, यह कैसे हो सकता है? जब क्रोध आता है तो रुकने का सवाल ही नहीं रह जाता। रुकने वाले का पता ही नहीं रह जाता, रोकने की बुद्धि खो जाती है। जब क्रोध होता है तब हम होते ही कहां? क्रोध तो उसी वक्त करते हैं हम, कभी पोस्टपोन नहीं करते। लेकिन अगर कोई कहे कि ध्यान । तो तुम कहते हो, आज समय नहीं, कल। फिर अभी जल्दी भी क्या है? जीवन इतना पड़ा है। और ध्यान इत्यादि तो जीवन के अंत में करने की बातें हैं, जब मौत करीब आने लगती है। और मौत तुम्हें कभी भी नहीं लगती कि करीब आएगी, मरते हुए आदमी को भी नहीं लगती। एक नेता मर गए। तो मुल्ला नसरुद्दीन व्याख्यान करने गया, उनकी मृत्यु पर, शोक-समारंभ में। उसने बड़ी काम की बात कही। उसने कहा कि देखो, भगवान की कैसी कृपा है! कि हम जब भी मरते हैं, जीवन के अंत में मरते हैं। सोचो, अगर मौत कहीं जीवन के प्रारंभ में या मध्य में आ जाती, तो कैसी मुसीबत होती! सोचो कि मौत अगर जीवन के प्रारंभ में या मध्य में आ जाती, तो कैसा दुख आता! अंत में आती है। बड़ी उसकी कृपा है। और अंत को हम दूर टालते रहते हैं। अंत कभी आता हुआ मालूम नहीं पड़ता--जब तक आ ही न जाए। और जब आ जाता है तब दूसरों को पता चलता है, तुम्हें तो पता ही नहीं चलता। तुम तो गए ! तो अगर ठीक से समझो तो तुम कभी मरते ही नहीं। तुम अपनी धारणा में तो जिंदा ही रहते हो। मरने की घटना भी दूसरों को पता चलती है। तुम तो मरते क्षण में भी योजना बनाते रहते हो जीवन की। और कल पर टालते रहते हो। शुभ को हम टालते हैं। अशुभ को हम तत्क्षण करते हैं। जिस दिन इससे विपरीत हो जाओगे तुम, उसी दिन नाम का रंग लग जाएगा। जिस दिन तुम अशुभ को टालोगे और शुभ को प्रतिक्षण कर लोगे... । जब देने का भाव उठे तो देर मत करना, उसी वक्त दे डालना। क्योंकि तुम अपने पर ज्यादा भरोसा मत करना । क्षण भर बाद तुम्हारा मन हजार तरकीबें खड़ी कर देगा। मार्क ट्वेन ने लिखा है कि एक सभा में मैं गया। और जो पुरोहित बोल रहा था, बड़ा अदभुत बोल रहा था। पांच मिनिट सुन कर मुझे हुआ कि मेरे पास जो सौ डालर हैं, आज दान कर जाऊंगा। दस मिनट के बाद -- मार्क ट्वेन लिखता है कि -- मुझे भीतर विचार उठने लगा कि सौ डालर जरा ज्यादा हैं, पचास
से भी काम चल सकता है। अब सौ के ख्याल करने से सारा संबंध ही टूट गया। क्योंकि अब भीतर एक अंतरंग वार्तालाप चलने लगा, उसके भीतर। आधा घंटा बीतते-बीतते वह पांच डालर पर आ चुका था। और जब करीब-करीब व्याख्यान तीन चौथाई पूरा हो गया था, तब उसने सोचा कि किसी से कहा थोड़े ही है, किसी को पता थोड़े ही है कि मैं सौ देने की सोचा था! और कौन देता है सौ? एक डालर भी लोग नहीं देते हैं, लोग पैसे देते हैं। एक डालर से काम चल जाएगा। और जब थाली उसके पास आयी भेंट मांगने के लिए, तो उसने लिखा है कि वह एक डालर तो मेरे खीसे से न निकला, मैंने एक डालर उठा कर अपने खीसे में डाल लिया... कि कौन देखता है? किसको पता चलेगा? तुम अपने पर ज्यादा भरोसा मत करना ! क्योंकि शुभ कठिन है। कभी-कभी किन्हीं क्षणों में तुम उन चोटियों पर होते हो जब शुभ करने की भावना जगती है। तुमने अगर वह मौका खो दिया तो शायद दुबारा न जगे। शुभ के लिए सोचना ही मत। क्योंकि शुभ का अर्थ ही यह है कि जिसमें सोचने जैसा कुछ भी नहीं है, जैसा है। जब तुम देना चाहो, दे देना। जब बांटना चाहो, तब बांट देना। जब त्यागना चाहो, त्याग देना। जब संन्यस्त होना चाहो, हो जाना। क्षणभर मत खोना । क्योंकि कोई भी नहीं जानता वह क्षण दुबारा तुम्हारे जीवन में कब आएगा। आएगा, न आएगा। और जब बुरा तुम्हारे मन में उठे, तो स्थगित करना । चौबीस घंटे का नियम बना लेना कि किसी को नुकसान पहुंचाना हो, चौबीस घंटे बाद पहुंचाएंगे। जल्दी क्या है? अभी कोई मौत नहीं आयी जा रही है। और आ भी गयी तो कुछ हर्जा नहीं होगा। नुकसान नहीं पहुंचेगा, और क्या होगा? अगर तुम चौबीस घंटे भी रुक जाओ बुरा करने से, तो तुम बुरा न कर पाओगे। क्योंकि बुरा करने की मूर्च्छा भी क्षण में ही आती है। जिस तरह शुभ करने की जागृति क्षण में आती है, वैसे ही बुरा करने की मूर्च्छा भी क्षण में आती है। अगर तुम थोड़ी देर रुक गए, तो तुम खुद ही पाओगे कि क्या हत्या करनी? हत्यारे को अगर दो क्षण रोक लिया जाए, तो हत्या नहीं होगी। नदी में कोई डूब कर मरने जा रहा है, आत्महत्या करने जा रहा है, तुम जरा हाथ पकड़ कर उसको एक मिनिट रोक लो, बात गयी! क्योंकि कृत्य किन्हीं क्षणों में संभव होता है। और तुम्हारे भीतर मूर्च्छा के क्षण होते हैं, सघन मूर्च्छा के, और सघन जागृति के क्षण भी होते हैं। जब सघन जागृति का क्षण होता है, तब तुम प्रेम से भरे होते हो, सृजन से। और जब मूर्च्छा का क्षण होता है, तब तुम बेहोशी से भरे होते हो, विध्वंस से। तब तुम तोड़ डालना चाहोगे, फिर पीछे पछताओगे। पछताने से कोई सार नहीं। अगर पछताना ही हो तो पुण्य करके पछताना। पाप कर के क्या पछताना? लेकिन तुम हमेशा पाप करके पछताते हो। और पुण्य तो तुम करते ही नहीं, इसलिए पछताने का सवाल ही नहीं उठता। नानक कहते हैं कि सोचने से कुछ भी न होगा। कहने से कुछ भी न होगा। शब्दों से पाप और पुण्य का कोई लेना-देना नहीं है। पाप और पुण्य का लेना-देना कृत्यों से है। और परमात्मा के समक्ष तुम्हारा जो हिसाब है, वह तुम्हारे शब्दों का नहीं, तुम्हारे कृत्यों का है। उसके सामने तुम्हारा जो निर्णय है, वह तुमने क्या किया है, तुम क्या हो, उस पर आधारित होगा। तुमने क्या कहा था, क्या पढ़ा था, क्या सोचा था, उससे कोई संबंध नहीं है । तुम्हारे विचार मूल्यवान नहीं हैं। अंतिम निर्णायक बात तुम्हारे कृत्य तो नानक कहते हैं, "मनुष्य स्वयं ही बोता है और स्वयं ही खाता है।" आपे बीजि आपे ही खा साधारणतः हमारा मन कहता है कि दुख हमें दूसरे दे रहे हैं। साधारणतः हमारा मन कहता है, सफलता तो मैं पाता हूं, असफलता दूसरों की अड़चन की वजह से आती है। शुभ तो मेरे जीवन में मेरी उपलब्धि है और अशुभ दूसरों के द्वारा मेरे जीवन पर आरोपण है। यह बात बिल्कुल ही गलत है। तुम्हारे जीवन में जो भी है, वह तुम्हारे ही कृत्यों कीशृंखला है। शुभ-अशुभ, अच्छा-बुरा, फूल लगें, कांटे लगें, सभी का संपूर्ण दायित्व तुम्हारे ऊपर है। जिस दिन कोई व्यक्ति इसका अनुभव करता है, टोटल रिस्पांसिबिलिटी, समग्र दायित्व मेरा है, उसी दिन से जीवन में क्रांति शुरू हो जाती है। जब तक तुम दूसरों पर टालते हो, तब तक क्रांति न होगी। क्योंकि अगर दूसरे दुख दे रहे हैं तो तुम क्या करोगे? जब तक सभी दूसरे न बदले जाएं तब तक दुख जारी रहेगा। और सभी दूसरे कब बदले जाएंगे? तो फिर दुख को झेलने के सिवा कोई उपाय नहीं है । इसलिए धर्म के अतिरिक्त दुख के रूपांतरण की कोई कीमिया नहीं है। जिस दिन तुम जानोगे, मैं अपने ही बोए हुए बीजों की फसल काटता हूं। और जो दुख मैं पा रहा हूं, वह मैंने ही दिया है, फैलाया है, वही अब लौट रहा है... । निश्चित ही, बीज बोने में और फल आने में वक्त लगता है। वक्त लगने के कारण तुम भूल ही जाते हो कि तुमने ये बीज बोए थे, और अब ये फल आने शुरू हो गए। जब फल आते
हैं तब तुम बीज बोए थे, यह ख्याल विस्मरण हो गया है। उस विस्मरण के कारण तुम सदा सोचते हो, दूसरे कुछ कर रहे हैं। ध्यान रखना, यहां कोई दूसरा तुममें चिंतित नहीं है। दूसरे अपने लिए चिंतित हैं। दूसरे अपने कारण परेशान हैं। तुम अपने कारण परेशान हो। और हर आदमी अपने ही कृत्यों की खोल में रहता है। इस बात को जितना तुम ठीक से पहचान लो, उतनी ही गहरी क्रांति संभव हो जाएगी। क्योंकि जैसे ही यह समझ में आता है कि मैं ही जिम्मेवार हूं, कुछ किया जा सकता है। दो कामः एक कि जो मैंने किया है पीछे, उसे मैं शांति से भोग लूं, उसके भोगने में और नयी अशांति खड़ी न करूं, तो अतीत की निर्जरा हो जाएगी। लेन-देन साफ हो जाएगा। बुद्ध के ऊपर एक आदमी थूक गया, तो बुद्ध ने थूक पोंछ लिया अपनी चादर से। वह आदमी बहुत नाराज था। बुद्ध के ऊपर थूका तो बुद्ध के शिष्य भी बहुत नाराज हो गए। लेकिन जब वह आदमी चला गया, तो आनंद ने पूछा कि यह बहुत सीमा के बाहर हो गयी बात। और सहिष्णुता का यह अर्थ नहीं है। और इस तरह तो लोगों को प्रोत्साहन मिलेगा। और हमारे हृदय में आग जल रही है। आपका अपमान हम बर्दाश्त नहीं कर सकते। बुद्ध ने कहा, तुम व्यर्थ ही उत्तेजित मत होओ। यह तुम्हारा उत्तेजित होना, तुम्हारे कर्म कीशृंखला बन जाएगी। मैंने इसे कभी दुख दिया था, वह निपटारा हो गया। मैंने कभी इसका अपमान किया था, वह लेना-देना चुक गया। इस आदमी के लिए ही मैं इस गांव में आया था। यह न थूकता तो मेरी मुसीबत थी। अब सुलझाव हो गया। इससे मेरा खाता बंद हो गया। अब मैं मुक्त हो गया। यह आदमी मुझे मुक्त कर गया है, मेरे ही किसी कृत्य से। इसलिए मैं धन्यवाद करता हूं उसका। और तुम नाहक उत्तेजित मत हो। क्योंकि तुम्हारा तो कुछ लेना-देना नहीं है इसमें। लेकिन अगर तुम उत्तेजित होते हो और तुम उस आदमी के खिलाफ कुछ करते हो, तो तुम एक नयीशृंखला बना रहे हो। मेरीशृंखला तो टूटी और तुम्हारी व्यर्थ बन गयी। तुम बीच में क्यों आते हो? जिन्हें मैंने दुख दिया है, उनसे मुझे उत्तर लेना ही पड़ेगा। और मेरी परिपूर्ण समाप्ति के पूर्व-- जिसको वे महापरिनिर्वाण कहते हैं--इसके पहले कि मैं अनंत में पूरी तरह लीन हो जाऊं; व्यक्तियों से, वस्तुओं से, संबंधों में, क्रोध में, अपमान में, घृणा में, मोह में, लोभ में, जो भी नाते-रिश्ते बने हैं, उन सबकी निर्जरा हो जानी जरूरी है। उसको ही हम परममुक्त पुरुष कहते हैं, जिसके सारे कर्मों की निर्जरा हो गयी। तो एक तो ध्यान रखना कि अतीत में जो किया है, उसे शांत भाव से, संतोष से, परम तृप्ति से, निपटारा समझ कर, प्रसन्नता से पूरा हो जाने देना। नयीशृंखला खड़ी मत करना । तो अतीत से संबंध धीरे-धीरे शांत हो जाता है। और दूसरी बात है कि नया कुछ मत करना दूसरे को दुख देने के लिए। अन्यथा फिर तुम बंधे हुए चले आओगे। हम अपने ही भीतर अपनी जंजीरों को ढालते हैं। तो पुरानी जंजीरों को तोड़ना है और नयी बनानी नहीं। ये दो बातें ख्याल रखना। महावीर के दो शब्द बड़े प्रिय हैं। एक शब्द है आस्रव, और एक है निर्जरा। आस्रव का अर्थ है, नए को आने मत देना। और निर्जरा का अर्थ है, पुराने को गिर जाने देना। धीरे-धीरे एक ऐसी घड़ी आएगी कि पुराना कुछ
बहुत ही खुश हुये। पास में बिठाकर बड़े ही प्यार से बातें करते हुये मुझे खूब तरक्की करने को प्रोत्साहित करने लगे। बाद में मुझे मालूम हुआ कि प्रधान शिक्षक से मेरे बारे में वे बहुत सी बातें पूछ रहे थे । हाँ, तो मिडिल फर्स्ट डिविजन में मैंने पास किया। कुछ ही दिनों बाद मेरे हेड मास्टर साहब के यहाँ उनका पत्र थाया कि मुझे अंग्रेजी स्कूल में जरूर ही दाखिल कराया जाय । बस क्या था ? सफलता तो चेरी बनकर मेरे आगे-पीछे घूमने लग गयी। इण्टर तक पूरी फील माफ रही। ट्यूशन करके अपनी पढ़ाई का खर्च निकाल लेता रहा। हाँ, युनिवर्सिटी के जमाने में खर्च चलाने के लिये कुछ नया काम करना पड़ा। बस उपन्यास लिखने लग गया। पैसे मिलते गये। फिर युनिवसिटी में भो 'मेरिट' के कारण मेरी फीस बराबर माफ रही। पढ़ता चला गया । बढ़ता चला गया । हमेशा अव्वल आता रहा लेकिन इससे यह न समझना कि चौबीस घण्टे में किताबी कीड़ा बनकर पढ़ता ही रहता था। पढ़ता भी था, खेलता भी था, सामाजिक जीवन में होने वाले समारोहों, उत्सवों, खेल-तमाशों, आन्दोलनों - सभी में बराबर भाग लेता रहा । किताबों तक ही मेरी दुनियाँ सीमित नहीं रह गयी थी। फिर कोर्स की किताबें कम, बाहरी किताबें ज्यादा पड़ता था । अपने क्लास के लड़कों से कम, बल्कि अपने से ऊँचे क्लास के लड़कों से ज्यादा सम्पर्क रखता था। छात्र जीवन की हलचल, जागृति, जोश से भी दूर नहीं रहता था। कभी-कभी साथियों के सङ्गसाथ के कारण उच्छृङ्खल अवश्य हो जाता था किन्तु सदैव अनुशासनप्रिय होने का अभ्यास करने की चेष्टा में लगा रहता था । वैसे इस दौरान में कोई बहुत खास बात तो नहीं हुयी । बस यही कि बहुत पढ़ा, बहुत देखा, बहुत सुना, बहुत जाना । मेरा निर्माण इसी काल में हुआ और इस काल में सीखी हुथी तत्व की बातों पर फिर कभी विवेचना होगी लेकिन जिस घटना ने मेरे जीवन में महान उपस्थित कर दिया उसका सम्बन्ध है मेरी पैदायश व मेरे माँ बाप से " श्रव सेठजी बोलेइसी हिस्से को सुनने के लिये इतनी देर से बैठा हूँ क्योंकि अभी-अभी मुझे ख्याल आया कि मुझे ज़रूरी कामों से कुछ सरकारी अधिकारियों से आज मिलने जाना था। ठीक है, वह सब होता ही रहेगा लेकिन तुम्हारे जैसा श्रादमी कहाँ रोज़ किसी को मिलता है ।" "बाबूजी ! आपको थादेश देना चाहिये था। शुरू में ही मैं वही पहले सुना दिये होता । अच्छी बात है।" कहकर क्षण भर मौन रहकर मैं पुनः कहने लगा"कहानी के इस हिस्से में भी दो ही बात मेरे समझ से ज्यादा महत्वपूर्ण है। दो क्यों तीन । अपनी माँ के पेट में आने के पहले मेरे पिताजी के जीवन की झाँकी, गर्भावस्था काल में मेरी और मेरी माँ की जिन्दगी, और तीसरी बात यह कि इन बातों की मुझे कैसे जानकारी हुयी और उस जानकारी का मुझपर क्या असर हुआ ? मामा के घर मेरी परवरिश ही नहीं पैदायश भी हुयी क्योंकि मेरी माँ ने अपनी ससुराल छोड़ दी थी, या यह कहिये कि मेरे पिता के जन्मस्थान में उस गाँव वालों ने मेरी गर्भवती माँ को रहने ही नहीं दिया। माँ के सर पर कोई नहीं था । अबला के लिये और कौन सा दूसरा रास्ता ही बचा था । मेरी माँ महान है और सचमुच उसी की शालीनता, सुबुद्धि एवं साहस का परिणाम है कि मैं जिन्दगी में निडर होकर छाज भी बढ़ता चला जा रहा हूँ। मेरी माँ क्या है बस लक्ष्मी समझो । समाज के हाथों बुरी तरह सतायी हुयी है । उफू कमी-कमी जी में थाता है कि ऐसे समाज के सीने पर चढ़कर, उसका खून पी डालूँ किन्तु मेरे प्रति अध्ययन ने मुझे शेर से बकरी बना दिया है । मन में जब कोई विचार सिद्धान्त बनकर मन की बुनियाद में जमकर बैठ जाता है तो उसके प्रभाव को मिटाना मुश्किल हो जाता है। मैं नहीं मानता कि इन्सान अपने स्वभाव से जानवर होता है । मिट्टी में मूर्ति बनने की प्रतिभा छिपी हुयी है । शिल्पी जड़ में प्राण डालता अपने कलात्मक स्पर्शो से जड़ को चैतन्थ बनाता है। मिट्टी के लोंदे सुन्दर खिलौने में बदल देता है। इन्सान में तमाम सद्गुण किन्तु उसका दर्शन हमें नहीं हो पाता। सच है, सामाजिक परिस्थितियाँ मानव का निर्माण करती हैं। विद्वान के समाज में रहते-रहते श्रादमी कहाँ कहाँ नहीं पहुँच जाता । सामाजिक परिस्थितियाँ मानव मन में निहित प्रतिभा के अंकुर को सींच कर उसे पौधे की शकल देती हैं। और वही पौधा एक दिन बढ़कर कल्पवृक्ष हो मानव मंगल में करत हो जाता है। भला आदमी भी चोर डाकुओं की सोहबत में पड़कर बुरा बन जाता है। इसलिये मैंने तै कर लिया है कि मुझे उन सभी सामाजिक परिस्थितियों से लड़ना है जो मानवमात्र को आगे बढ़ने से रोकती हैं। और आजकल सारी बुराइयों की बुनियाद में दुबका हुआ मिलेगा आपको यर्थं वैषम्य हो । यही वर्तमान युग की भयकर बुराई है। इसी को दूर करना है। लेकिन कैसे ? बुराई को बुराई से या बुराई को भलाई से ? यही प्रश्न आाज अखिल विश्व के समक्ष है। खैर, छोड़िये इन बातों को । अब जरा आँसुओं स
े भींगी हुयी एक कहानी सुनिये। उसी का श्राशय मैं सुना रहा हूँ । इसे - मुझे मेरी माँ ने सुनाया था । और सीधे-सीधे तो उन्होंने सुनाया नहीं ? " "रूठना पड़ा होगा।" सुधीर ने कहा । "सुनो भी, उपद्रव मचा कर रख दिया न बचपन में मैं माटी का • माधो मात्र नहीं था। काफी शरीर था । कभी-कभी उलाहने सुनते-सुनते माँ रो पड़ती थी लेकिन पढ़ने-लिखने में -भान्जा था ही, सभी लोग मुझे बहुत करीब है साल का था। यही कक्षा एक या दो की बात है। मैं दजें का मानीटर भी था । बात-बात पर बच्चों का आपस में झगड़ जाना कोई नयी बात नहीं है । एक दिन की बात है कि छुट्टी हुयी, हम सभी घर लौट रहे थे कि एक बहुत ही छोटे बच्चे को अनायास ही कोई दूसरा हट्टा-कट्टा श्राट नौ साल का लड़का पीटने लग गया। मैंने उस छोटे बच्चे की मदद की। और भी लड़कों ने मेरी सहायता की। दोनों को अलग किया। लड़ाई बन्द हो गयी किन्तु बड़ा लड़का मुझे घंटमट बकता ही रहा । इसी वक्फ उस शरारती लड़के के पिता जी वहाँ ग्रा पहुँचे। वह रोकर उनसे मेरी मुठ की शिकायतें करने लगा । उसने अपने बाप से इतना तक कह डाला कि मैं उसे माँ-बाप की गालियाँ दे रहा था । बाप ने उससे कहा- जाने दो बेटा, इसके बाप नहीं हैं। फिर यह बाप की क्या कदर जानें, चलो, आपस में झगड़ा नहीं किया जाता । खैर भगढ़ा तो खतम ही हो चुका था लेकिन एक और ही भयङ्कर किस्म के झगड़े की बुनियाद मेरे मन में नहीं पड़ गयी । घर पहुँचते ही माँ से मैं रूठ गया । बोलाजब तक मेरे पिताजी के बारे में सारी बातें बता दोगी तब तक में खाना न खाऊँगा। माँ ने कहा- बेटा, मुझी को अपना सब कुछ समझ । तेरे पिताजी तेरे पैदा होने के पहले ही चल बसे थे। इतना तो मैं कई बार बता चुकी हूँ। मैंने पूछा- लेकिन भाँ तुमने गाँव क्यों छोड़ा ? यह पिताजी का जन्म स्थान था। उसे छोड़ना नहीं चाहिये था।" भेरी इतनी सी बात सुनकर मेरी माँ की आँखों में आँसू उमद आये । मैंने फिर कहा- माँ क्यों रोती हो । जाने दो, वहाँ में थोड़े ही तुमसे चलने को कहता हूँ। यहीं रहो लेकिन रोना बन्द करो। माँ ने कहाबेटा, रो रही हूँ अपने समय पर । मेरे भी घर-द्वार, खेती-बारी, सब कुछ था । तेरे पिता खेती के पूरे परिडत थे। गाँव में सबसे ज्यादा गला पैदा करते थे। वह आज होते तो क्या यहाँ भाई के दरवाजे बैठकर रोटी तोड़नी पड़ती। मैंने कहा- माँ, इसमें क्या है ? मामा अपने घर में तुम्हें सिर्फ एक कोठरी दिये हैं न ? चरखे कर सूच बनाती हो, हाथ से कपड़े सिजती हो, इसी से कपड़े सिजती हो, इसोसे हम दोनों के वास्ते काफी मजूरी मिल जाती है। कोई मामा का थोड़े ही खाते हैं । माँ ने कहा-बेटा सब कुछ सही है लेकिन तेरी मामी को नहीं विश्वास पड़ता । वह समझती है कि तेरे मामा ही चोरी-चोरी हमलोगों की परवरिश करते हैं। यों वह कुछ खुलकर नहीं कहती लेकिन उसके व्यवहार से इसका संकेत तो मिल ही जाता है। मैंने कहा- माँ क हो अपने गाँव ही लौट चलें। बस गाँव का नाम सुनते ही उसकी आँखों के आँसू सूखने लगे। माँ का घेहरा जाल हो आया किन्तु व मौन रही। मैंने पुनः पूछा- माँ क्यों नहीं गाँव लौट चलती ? माँ ने कहा- बेटा, वहाँ क्या रक्खा है ? फिर जो कुछ था उसे मैंने तेरे चाचा को तेरे जन्म की खुशी में भेंट कर दिया। "तब मैं अपने चाचा से मिलूँगा तो वह मुझे देखकर बहुत खुश होंगे। क्यों माँ ?" माँ चुप रही। मैंने रूठते हुये कहा- माँ क्या बात है कि तुम कमी रोने लगत हो, कभी हँसने लगती हो, कभी उदास हो जाती हो। और गाँव लौट चढ़ने को क्यों नहीं राजी होती ? क्या हमलोगों ने किसी का कुछ चुराया है ? अच्छा धबड़ाओ नहीं। जरा बड़ा होने दो, और बड़ा क्या, कभी भी मैं पूछते-पूछते वहाँ अपने से चला जाऊँगा तब नाराज न होना माँ । क्यों सुधीर ? सुन रहे हो न ?" "जी हाँ, बखूबी। आपने माँ को धमकी दी ?" " यह भी कह सकते हो पर माँ की ममता तो जानते ही हो । फिर में ही उसका सर्वस्व था । वह चौबीस घण्टा मेरे पीछे पागल गनी रहती थी। बारी-बगीचा, ताल तलैया, नारे-खोरे बस मेरे पीछे-पीछे छाया बनकर घूमती रहती थी। किसी भी पेड़ पर ज्योंही चढ़ने को मैं तैयार होता कि बगल में माँ खड़ी हुग्री मिल जाती। वैसा करने [ गाँधो चबूतरा को मना करती। जब मैं ज़िद करने लगता तो वह आँसुओं के प्रमोघ अस्त्र से मेरी बाल सुलभ चञ्चलता और शैतानी पर विजय प्राप्त कर बेती। पड़ोस में एक पोखरी थी मेरे घर से निकलते ही । बस वह जाकर उसी पोखरी के किनारे बैठ जाती क्योंकि पढ़ी-लिखी समझदार होते हुये भी अपनेपन के मोहवश उसने गाँवों में घूमने-फिरने वाले मँगता टाइप के किसी योगी से कभी यह सुन रक्खा था कि मुझे ग्रह है तथा दस वर्ष की उमर तक पानी से दूर ही रक्खा जाय। इसलिये मेरी माँ, दीवानी मीराँ बनकर मेरी बाट जोहती उस पोखरी के भीटे पर जा बैठती और मुझे वहाँ श्राते देखकर दूर से ही छाती पीटती दौड़ती मेरे पास या जा
ती और मुझे पकड़कर घर लौटा ले जाती । सोचो, ऐसी माँ मेरे जैसे सात साल के बालक को अकेले मला है गाँव से बाहर कैसे जाने देना गवारा कर सकती थी । मेरी बातें सुनकर वह जैसे डर गयी। सोचा होगा, कौन जाने में चला ही जाऊँ. तब बहुत ही बुरा होगा ? गाँव की सीमा के बाहर जो कभी नहीं गया वह कैसे बिना जाने अकेले ही इतनी लम्बी-चौड़ी यात्रा ते कर सकेगा। बस उसकी आँखों में शनैः शनैः आँसू... आवाज भी उसकी भारी हो गयी। उसने कहा- बेटा, मैं दुनियाँ में सबसे बड़ी दुखिया हूँ । तुम्हीं मेरे एक आधार हो । ऐसी बातें कहकर मुझे दुखित न. किया करो । बेटा, गरीब की कमजोरी ही अमीर की ताकत है। इस दुनियाँ में गरीब और कमजोर होने से बढ़कर और कोई भी दूसरी खराब बात नहीं है। मुझे कमजोरी, गरीबी और बहुत सी बातों से इतना लड़ना पड़ा है और आज भी लड़ना पड़ रहा है कि शायद मेरी जगह कोई और दूसरी नारी होती तो उस बेचारी की बुरी गत हो गयी होती । लेकिन तुम्हें इन बातों की फिकर नहीं करनी है। अभी मैं हूँ । खूब खाओ, खेलो और अच्छे लड़कों की तरह जी लगाकर पढ़ी-लिखो और एक दिन इस काबिल बन जाओ कि मैं इतना आँख भर देख सकूँ कि तुम दुनिया के सुयोग्य लोगों में से एक हो । तब मरूँ । बस मैं ऊँ ऊँ करके रोने का बहाने करने लगा। माँ ने कहा - अच्छा मैं नहीं मरूंगी लेकिन वादा करो कि मुझे छोड़कर अकेले कहीं नहीं जाओगे। मैंने कहा- नहीं जाऊँगा । माँ मुझे दुलराने लगी, चूमने लगी, बहुत बहुत तरह से प्यार करने लगी। वह मुझे अब भी गोदी का शिशु ही समझती थी। माँ को बहुत ही खुश देखकर मैंने उससे पूछा- क्या पिता जी ने मेरा मुँह देखा था ? उसने कहा - बेटा, तुम पेट में ही थे, उसी समय उन्हें समाज की बुराइयों से लड़ते-लड़ते शहीद हो जाना पड़ा था। मैंने कहा - माँ, यह शहीद क्या होता है ? माँ ने कहा -- दूसरों के लिये, अपने को मिटा देना, मर जाना, समझता था सब कुछ शहीद आदि लेकिन माँ से मुझे बहुत सारी बातें पूछनी थी । इसीलिये ऐसा सवाल कर बैठा ।" "वही तो मैं सोच रहा था कि मला आप... "हाँ, तो मैंने माँ से फिर कहा- इसीलिये उस दिन मामी पड़ोस की पण्डिताइन से कह रही थी - यह सोच कर कि मैं उन बातों को क्या समझ सकूँगा - कि "जन्मतै खाये, बाप महतारी" और सब मामा मामी की बारी है। माँ ने कहा - बेटा, इन छोटी-छोटी बातों पर ध्यान नहीं दिया जाता। एक दिन तुम देश के बहुत बड़े लोगों में से एक होगे। और जब बड़ा बनना है तो अभी से बड़ों जैसी आदत डालो । बड़े लोग छोटी बातों पर कहाँ ख्याल करते हैं। वैसे उनकी नजरों से कोई भी बात छूट नहीं सकती। छोटी बातों से मतलब यह है कि गन्दी बातें, तुच्छ बातें । मैंने कहा- अच्छा माँ पिता जी के सम्बन्ध में सारी बातें सुना जाओ । वह कैसे थे ? माँ वह होते तो कल बहुत ही खुश हो जाते । दर्ज में अव्वल आया हूँ । इसी से कल डिप्टी साहब ने मुझे तस्वीरों की कई किताबें इनाम में दी हैं। तुम तो उन्हें देख चुकी हो... बस इतना सुनना था कि माँ फुका फाड़कर रोने लग गयीं । घरे माँ रोने लग गयी... इस वाक्य के पूरा होते होते तक मेरी भी आँखें भर आयीं। सामने देखा, थरे सभी के कपोल तर हो रहे हैं ! सेठ जी तो बिना कुछ कहें सुने ही आँसू पोंछते हुये यहाँ से उठकर चले ही गये। मैं भी अपने को रोक न पाया । इसी समय अपने आँसू पोछते हुये सुधीर ने कहा"प्रसंगान्तर की आवश्यकता है ।" "ठीक कहते हो, सचमुच 'मूड' बिगाड़ दिया लेकिन क्या कहूँ ?" "कुछ नहीं ! यह जीवन है। फिर आपको क्या बताना ? अच्छा, आप वहाँ से सुनाइये - जब श्राप पेट में नहीं थाये थे, उसके पूर्व अपने पिताजी की जीवन गाथा और पेट में आने के बाद आप माँ को किन परिस्थितियों के कारण अपनी ससुराल छोड़नी पड़ी क्योंकि श्रब काणिक प्रसंग सुनते-सुनते जी भर गया है। आखिकार बाबूजी से बर्दाश्त नहीं ही हुआ और वह चले गये । " "अच्छी बात है, तो सुनो, मेरे मामा का गाँव शहर से कोई छेः सात भील उत्तर गङ्गाजी के किनारे पर बसा है। वहाँ से कोई पचाससाठ मील दक्षिण राबर्ट सगञ्ज तहसील में 'पलाशपुर' नाम का एक गाँव है । वही मेरा असली स्थान है। वहाँ मेरा जन्म नहीं हुआ तो इससे क्या ? माँ के पेट में तो वहीं थाया। पिताजी गाँव के एक अच्छे खासे खेतिहर किसान थे । पिताजी के दो छोटे भाई भी थे। मेरे दोनों चाचा अब भी हैं बल्कि अब तो मेरी खूब खातिरदारी करते हैं। हमेशा हर पसल पर तरह-तरह का सामान माँ के पास पहुँचाते रहते हैं और पहले यह हालत थी कि माँ उन लोगों का मुँह भी देखना नहीं चाहती थीं किन्तु मैंने ही उनको बहुत समझाया । मान गयीं लेकिन इसके लिये राजी नहीं ही कर सका कि एक बार वह पलाश पुर चलकर, वहाँ घण्टे सर ही रहकर चल झावें ! सभी लोगों ने बहुत समझाया, दोनों चाचा उनके पैरों पड़े मगर माँ नहीं हो गयीं वहाँ। मैंने भी उन लोगों से कह दिया कि ज्यादा जिद न करें। मैं हर काम-
काज में शामिल होता रहूँगा । जब कभी मुझे मौक मिलता तो मैं वहाँ यजा भी जाता रहा हूँ किन्तु पचास बोधा के ऊपर खेत, बारी, बगीचा, घर-द्वार जो माँ ने छोड़ा तो फिर उनकी तरफ फूटी थाँखों से भी नहीं देखा। जब शहर में रहकर मैं पढ़ने लगा तब से चाचा लोगों का मुझप्ले मिलने-जुलने का सिलसिला चालू हुआ। मुझे भी वे बाज़ौकात सहायता करते ही रहे किन्तु ये बातें माँ की चोरी-चोरी ही कुछ दिनों तक चल पायीं ।" इसी समय सुधीर ने प्रश्न किया"लेकिन इन्हीं लोगों के कारण शायद माँ को अपना घर-द्वार छोड़ना बड़ा रहा हो ? ऐसी सूरत में भला वह कैले इन लोगों से खुश रह सकतीं थीं ? अपनी माँ की इच्छा के विरुद्ध अपने चाचा लोगों से सम्बन्ध स्थापित करके क्या आपने उचित किया ?" " सुधीर ! क्यों भूल जाते हो कि मैं आदमी को मूलतः स्वभाव से दुष्ट नहीं मानता । शैतान मी आदमी बनना चाहता है, जानवर भी आदमी बनना चाहता है, और तो और, देवता तक आदमी बनने की ख्वाहिश रखता है। यह मानव महान है न ? पिता जी की मृत्यु के समय मेरे दोनों चौचा काफो नौजवान हो चुके थे। उनकी बहुयें या चुकी थीं । कई बाल-बच्चे तक उन्हें हो चुके थे । वे कायदे से चले होते तो न घर गृहस्थी ही मेरी बिगड़ती और न माँ पर मुसीबतों का पहाड़ ही टूटता पिता की मृत्यु से माँ जर्जर हो ही चलीं थीं, अनाथ हो गयी थीं कि तत्काल उनपर दूसरा साङ्घातिक प्रहार हो गया । एक घाव भरा नहीं था कि दूसरा फोड़ा निकल आया । हमारे देश की विधवाथों की कहानी न पूछो । हाँ, तो बात यह है कि पिता जी की जिन्दगी में उनके साथ-साथ घर और परिवार के सभी लोग उस जमीदार का डटकर मुकाबिला करते रहे किन्तु उनके मरते ही जमीदार [ गाँधी चबूतर ने मेरे चाचा लोगों को अपने पक्ष में कर लिया। उन लोगों को बहूकाया कि भौजाई को मारो ज्ञात और बस कोई ऐसा फसाद पैदा करो कि वह ऊबकर या तो आत्महत्या ही कर डाले या घर ही छोड़कर भाग जाय । उस वक्त तक मेरी माँ को कोई भी सन्तान नहीं हुयी थी । और दोनों चाचा के कई बच्चे कच्चे हो गये थे। घर की बहुथों ने भी सुर में सुर मिलाया । कितना फायदा था । जमीदार से चलनेवाली रञ्जिश खतम हो जाती, भाई की सारी जायदाद दोनों मिलकर बाँट लेते । फिर बात इतनी ही तो थी नहीं और इतनी ही होती तो शायद माँ को घर न छोड़ना पड़ता मगर वहाँ तो एक तीसरी और बहुत ही भयङ्कर किस्म की बात पैदा हो गयी थी। " इतना कहकर मैं चुप होकर कुछ सोचने लगा । " माँ और दोनों चाचियों में झगड़ा होना भी रहा होगा ।" सुधीर ने कहाशुरू ही हो गया "यह तो मामूली बात है। यह जानते ही मृत्यु के समय मेरी माँ को तीन महीने का गर्भ पैदा हुआ । माँ खद्दर, सुत, चर्खा, तकली श्रादि की प्रेमी शुरू से ही रही हैं। गरीबों के लिये अपने हृदय का दरवाजा हमेशा खुला रखती. थीं। गाँव के हरिजन चमार जब कभी उनसे किसी प्रकार की आर्थिक सहायता के लिये कहते तो वह खुले श्राम या छिपाकर उन सबों की मदद गल्ले से, रुपये से कर देतीं थीं। उन्हीं की प्रेरणा से गाँव के सारे गरीब, विशेषतः हरिजन समाज, पिताजी की पूजा पीर की तरह करते थे। गाँव के जमींदार को यह सब कत्तई पसन्द नहीं था। उन दोनों के बीच रञ्जिस की यही वजह थी। उनकी मृत्यु के छः महीने पूर्व की बात है कि गाँव के पूरब तरफ, हरिजन बस्ती से सटकर, एक तालाब था, जो काफी छिछला था किन्तु पानी उसमें फिर भी बरसात का जमा हो ही जाता था । आसपास के मवेशियों के पानी पीने की यही एक जगह रही हो, ऐसी बात बिलकुल नहीं थी । वहाँ और भी कई तालाब थे। हाँ, हरिजनों को इस तालाब से ज्यादा फायदा था। इसी लिये इस तालाब को जुतवा कर फसल बोने की योजना जो जमींदार ने हरिजनों से नाराज होकर बनायी कि बेचारे सभी के सभी हैरान हो गये। हरिजनों के बीच युग की चेतना एवं जागृति की लहर पहुँच चुकी थी । वे पहले की अपेक्षा अब अधिक सङ्गठित थे। जमींदार द्वारा मुफ्त में उनसे पुरवट वाला मोट, कच्चे चमड़े का जूता, हरी-बेगारी आदि की वसूली अरसे से चली आ रही थी किन्तु जन-जागृति के परिणाम स्वरूप ये चीजें धीरे-धीरे बन्द होने लग गयी थीं। इतना तो यहाँ भी हो चुका था कि जहाँ एक चमार को चार जोड़ा जूता जमींदार को साल में देना पड़ता था मुफ्त में, वहाँ जमींदार को अब एक ही जोड़ा पाकर सन्तोष कर लेना पड़ता था । पुराना रोब-दाब भी धीरे-धीरे कम होता जा रहा था। उनकी जागृति एवं सङ्गठन को कुचलने के ख्याल से जमींदार ने यह कुचक्र चलाया था । बस यहीं से महाभारत का श्रीगणेश हुना समझो । " सुधीर ने कहा"कांग्रेस के हाथ में ताकत थायी नहीं कि जमींदारी प्रथा का पहले ही विनाश करेंगे ।" "कोई एहसान थोड़े ही करेंगे। यह युग की माँग है। युग के. साथ कदम में कदम मिलाकर चलेंगे, तभी वे लोग भी कुछ दिनों तक. टिक सकेंगे। लेकिन अभी तो हमें गोरे जमींदारों को भगाना है। बाद में कालों से निबट लिया जायगा ।" "सही कहा आ
पने। हाँ, तो पिताजी ने हरिजनों के नेतृत्व की बागडोर निश्चय ही सम्भाल ली होगी । "उस 'कुर्गजवार' में और कौन था ही उन बे-ज़बानों की तरफ.. * पास-पड़ोस । से बोलने वाला। शव धीरे-धीरे जमींदार के यादमियों के द्वारा हरिजनों को सताया जाना शुरू हो गया। वे सर पटक कर रह गये । बाख प्रयत्न किया किन्तु उस तालाब में जमींदार का हल नहीं ही चल पाया । -हरिजनों के सङ्गठित विरोध ने व्यापक रूप धारण कर लिया। शास-पास के लोगों ने इस संक्रामक बीमारी को समझौते की दवा के द्वारा बढ़ने से रोका । बन्दूक की गोलियाँ, लठैतों का बल, पुलिस, सरकार समी का नैतिक समर्थन प्राप्त किये रहने पर तथा सभी साधनों से सम्पन होने पर भी स्थिति की गम्भीरता ने जमींदार को हरिजनों से समझौता करने को विवश किया। इस अल्पकालीन संघर्ष में जमींदार की जो छीछालेदर हुयी कि उसका सारा जमींदारी का रङ्ग ही हवा हो गया । लेकिन वह टुटपुँजिया सामन्त इतनी बेइज्जती बर्दाश्त करके कभी चुप बैठा रह सकता था ? पिताजी उसकी आँखों में गड़ गये। वह जरा रोज शाम को भाँग की दो पत्ती सिलबट्टे पर रखकर शिवजी की परसादी' के रूप में उसे ग्रहण कर लेने के शादी से हो गये थे । षड्यन्त्र रचकर उन्हें भाँग में जहर दिलवा दिया और वह श्रानन-फानन की बीमारी में चल बसे । लेकिन उनकी मौत जहर खोरी ही से हुयी, इस बात की खबर, उस वक्त, किसी को भी कानों-कान नहीं लग सकी। उन दिनों पास-पड़ोस के गाँवों में हैजे की बीमारी का प्रकोप फैला हुआ था। उन्हें भी कै-दस्त होने लगी थी और चटपट दो-तीन घन्टे में खून का के करते हुये वे चल बसे । इस थाक्समिक मृत्यु से कुछ लोगों को उस समय अवश्य थोड़ा शक हुआा किन्तु जमींदार के सधे हुये गोइन्दे जैसे पटवारी, पुरोहित, मुखिया मेरे चाचा-द्वय को तुरन्त ही दाह-क्रिया कर डालने को जोर देने लगे। शायद उन्हें डराया-धमकाया भी कि कहीं जमींदार ने पुलिस को उकसा दिया और पुलिस थाकर कहने लगी कि पंडितजी ने शात्महत्या की है तब तो एक दूसरा ही बावेला मचा जायगा । मुसीबत अकेले नहीं आती। बस चाचा-द्वय ने तुरन्त ही पास ही नदी के किनारे उनका दाह संस्कार सम्पन्न कर डाला। सच तो यह है कि वे कोई 'कॉलरा' से मरे नहीं थे। साफ जहर खोरी का मामला था । बेचारे चाचा-द्वय विपत्ति में पड़ गये थे। वे दोनों उसी मुसीबत से औौर-तौर हुये जा रहे थे और यहाँ यार लोगों ने एक नयो मुसीबत का नकशा लाकर उनके सामने खड़ा कर दिया । इसलिये अपनी से चे काम ले नहीं पाये। अव गाँव के वे ही गुर्गे लग गये दोनों चाचा का कान भरने और उनको इस बात का यकीन दिलाने कि पंडितजी को जहर देकर मार डाला गया है। ऐसे ही गुर्गों का एक दूसरा 'सेट' था जो बाग्वा द्वय एवं जमींदार में छाब समझौता कराने को प्रयत्नशील हो गया था। चाचा-द्वय जमींदार के उन गोइन्दों को बातों में आ गये और इस तरह ब्राह्मण ठाकुर की बहुत पुरानी लड़ाई खतम हुयी । देखते-देखते जमींदार और चाचा-द्वय में इतनी सुहब्बत गयी कि पिताजी की 'तेरही' में ब्राह्मण भोजन की सारी व्यवस्था को जमींदार ने अपने हाथों में ले लिया तथा अपनी निजी देख-रेख में वह सारा कार्य सम्पादन करता रहा। जमींदार कहने लग गया था. माई, शान की लड़ाई थी हमारी और पंडितजी की। मेरे लिये उनके भाई वैसे ही हैं जैसे मेरे अपने भाई । अब वह उनकी तारीफ करते नहीं था। उधर उनका काम-काज बीता और इधर मेरे चाचाद्वय अपने विश्वासीजनों के साथ जहर देने वालों की तलाश में पड़े। सुधीर, जरा यहीं से गौर करना । इसी जगह से एक अन्य भयकर कोटि के काण्ड की भूमिका तुम्हारे सामने आ रही है। वहीं तीसरी भयकर बात...।" "यही न कि जमींदार ने जहर दिलवाया लेकिन अपने चाचा-द्रय को विश्वास न हुआ होगा ।" "क्या तमाशा करते हो ! चाचा-द्वय के सामने जहरखोरी कीं चर्चा के सिलसिले में ठाकुर का नाम तक नहीं आया। आश्चर्य है कि उस गाँव में चिड़िया का कोई पूत भी उन दोनों को यह सुझाव देने वाला नहीं रह गया था कि इस सारे कुकृत्य के पीछे जमींदार का ही हाथ है। बेचारे हरिजनों की बात कौन सुनने ही जाता। फिर जब उनका नेता ही इस दुनियाँ में नहीं रहा तो वे किस बिरते पर सिर उठाते । जनाब ! वहाँ बिलकुल ही नयी 'थियरी' की बुनियाद डाली गयी ?" "आखिर वह क्या ?" "सुनकर ताज्जुब होगा। स्थिति यहाँ तक बिगड़ गयी कि पिता जी के गत होने के एक महीना बीतते-बीतते माँ को वह गाँव छोड़कर डूब मरने की नौबत श्री गयी । वह कहीं मुँह नहीं दिखा सकती थीं । जो स्त्री गाँव में नमूने की नारी थी, वही अब घीर दुश्चरित्रा घोषित की जाने लगी थी और उसे ऐसा कहने वाले थे उसके दोनों देवर और ये दोनों जमींदार और गाँव के गुर्गों की बातों में था गये थे। गाँव के एक चमार के साथ लगाकर माँ के शरीर की हवा उड़ाने लग गये उनके दोनों देवर। इतना ही नहीं, दोनों लाठी लेकर उस चमार को जान से मार डालने के लिये घूमने
लग गये । " सुधीर के चेहरे पर चिह्नित हैरानी की भावनाओं को देखकर में जरा चुप हो गया। बस सुधीर मेरा मुँह ही ताकते ताकते, जैसे मुझे चुप देखकर यकायक बोल उठा - "अरे मास्टरजी ! भला यह आप क्या कह रहे हैं ? माँ के सम्बन्ध में ऐसी बातें कहने की मला उन दोनों को कैसे हिम्मत पड़ी ? माँ क्या उनकी इज्जत नहीं थीं ?" " सुधीर ! गँवारों की खोपड़ी की बनावट कुछ और ही किस्म की होती है। उनके दिमाग में जहाँ कोई चीज बैठा दी गयी तो उसपर वे अन्त तक कायम रहेंगे, चाहे जान निकल जाय, चाहे आय बर्बाद हो जाय किन्तु अक्क से काम लेंगे नहीं। उन दोनों का कान इस तरह भर दिया गया था कि उन दोनों को वैसा ही कुछ यकीन हो गया था । बे
।इस लेख का पुनरीक्षण एवं सम्पादन होना आवश्यक है। आप इसमें सहायता कर सकते हैं। "सुझाव" आज मैं अकेला जाकर मोदी के यहाँ खड़ा हो गया। परिचय पाकर मोदी ने एक छोटा-सा पुराना चिथड़ा बाहर निकाला और गाँठ खोलकर उसमें से दो सोने की बालियाँ और पाँच रुपये निकाले। उन्हें मेरे हाथ में देकर वह बोला, "बहू ये दो बालियाँ मुझे इकतीस रुपये में बेचकर शाहजी का समस्त ऋण चुकाकर, चली गयी हैं। किन्तु कहाँ गयी हैं सो नहीं मालूम।" इतना कहकर वह किसका कितना ऋण था इसका हिसाब बतलाकर बोला, "जाते समय बहू के हाथ में कुल साढ़े पाँच आने पैसे थे।" अर्थात् बाईस पैसे लेकर उस निरुपाय निराश्रय स्त्री ने संसार के सुदुर्गम पथ में अकेले यात्रा कर दी है! पीछे से, उसके ये दोनों प्यारे बालक, कहीं उसे आश्रय देने के व्यर्थ प्रयास में, उपायहीन वेदना से व्यथित न हों, इस भय से बिना कुछ कहे ही वे बिना किसी लक्ष्य के घर से बाहर चली गयी हैं- कहाँ, सो भी किसी को उन्होंने जानने नहीं दिया। नहीं दिया-इतना ही नहीं, किन्तु मेरे पाँच रुपये भी नहीं स्वीकार किये। फिर भी, मन में यह समझकर कि वे उन्होंने ले लिये हैं, मैं आनन्द और गर्व से, न जाने कितने दिनों तक, न जाने कितने आकाश-कुसुमों की सृष्टि करता रहा था। पर वे मेरे सब कुसुम शून्य में मिल गये। अभिमान के मारे ऑंखों में जल छल छला आया जिसे उस बूढ़े से छिपाने के लिए मैं तेज़ीसे बाहर चल दिया। बार-बार मन ही मन कहने लगा कि इन्द्र से तो उन्होंने कितने ही रुपये लिये, किन्तु, मुझसे कुछ भी नहीं लिया- जाते समय 'नहीं' कहकर वापिस करके चली गयीं! किन्तु अब मेरे मन में वह अभिमान नहीं है। सयाना होने पर, अब मैंने समझा है कि मैंने ऐसा कौन-सा पुण्य किया था जो उन्हें दान दे सकता! उस जलती अग्नि-शिखा में जो भी मैं देता वह जलकर खाक हो जाता- इसीलिए जीजी ने मेरा दान वापिस कर दिया! किन्तु इन्द्र? इन्द्र और मैं क्या एक ही धातु के बने हुए हैं जो जहाँ वह दान करे वहाँ ढीठता से मैं भी अपना हाथ बढ़ा दूँ? इसके सिवा, यह भी तो मैं समझ सकता हूँ कि आखिर किसका मुँह देखकर उन्होंने इन्द्र के आगे हाथ फैलाया था- खैर जाने दो इन बातों को। इसके बाद अनेकों जगह मैं घूमा-फिरा हूँ; किन्तु इन जली ऑंखों से मैं कहीं भी उन्हें नहीं देख पाया। मुझे वे फिर नहीं दिखाई दीं, किन्तु हृदय में वह हँसता हुआ मुँह हमेशा वैसा ही दीख पड़ता है। उनके चरित्र की कहानी का स्मरण करके जब कभी, मैं मस्तक झुकाकर मन ही मन उन्हें प्रणाम करता हूँ, तब केवल यही बात मेरे मन में आती है कि भगवान, यह तुम्हारा कैसा न्याय है? हमारे इस सती-सावित्री के देश में, तुमने पति के कारण सहधर्मिणी को अपरिसीम दुःख देकर, सती के माहात्म्य को उज्ज्वल से उज्ज्वलतर करके संसार को दिखाया है, यह मैं जानता हूँ। उनके समस्त दुःख दैन्य को चिर-स्मरणीय कीर्ति के रूप में रूपान्तरित करके, जगत की सम्पूर्ण नारी जाति को कर्तव्य के ध्रुव-पथ पर आकर्षित करने की तुम्हारी इच्छा है, इसको भी मैं अच्छी तरह समझ सकता हूँ; किन्तु हमारी ऐसी जीजी के भाग्य में इतनी बड़ी विडम्बना और अपयश क्यों लिख दिया? किसलिए तुमने ऐसी सती के मुँह पर असती की गहरी काली छाप मारकर उसे हमेशा के लिए संसार से निर्वासित कर दिया? उनको तुमने क्यों नहीं छुड़ा लिया? उनकी जाति छुड़ाई, धर्म छुड़ाया- समाज, संसार, प्रतिष्ठा, सभी कुछ तो छुड़ा लिया। और जो अपरिमित, दुःख तुमने दिया है, उसका तो मैं आज भी साक्षी हूँ। इसका भी मुझे दुःख नहीं है जगदीश्वर! किन्तु जिनका आसन, सीता, सावित्री आदि सतियों के समीप है, उन्हें उनके माँ-बाप, कुटुम्बी, शत्रु-मित्र आदि ने किस रूप में जाना? कुलटा रूप में, वेश्या रूप में! इससे तुम्हें, क्या लाभ हुआ? और संसार को भी क्या मिला? हाय रे, कहाँ हैं उनके वे सब आत्मीय स्वजन और भाई-बन्धु? यदि एक दफे भी मैं जान सकता, वह देश फिर कितनी ही दूर क्यों न होता, इस देश से बाहर ही क्यों न होता, तो भी, मैंने वहाँ जाकर अवश्य कहा होता- यही हैं तुम्हारी अन्नदा और यही उनकी अक्षय कहानी! तुमने अपनी जिस लड़की को कुल-कंलकिनी मान लिया है, उसका नाम यदि सुबह एक दफे भी ले लिया करोगे तो अनेक पापों से छुट्टी पा जाओगे? इस घटना से मैंने एक सत्य को प्राप्त किया है। पहले भी मैं एक दफे कह चुका हूँ कि नारी के कलंक की बात पर मैं सहज ही विश्वास नहीं कर सकता; क्योंकि मुझे जीजी याद आ जाती हैं। यदि उनके भाग्य में भी इतनी बड़ी बदनामी हो सकती है, तो फिर संसार में और क्या नहीं हो सकता? एक मैं हूँ, और एक वे हैं जो सर्व काल के सर्व पाप-पुण्य के साक्षी हैं- इनको छोड़कर दुनिया में ऐसा और कौन है, जो अन्नदा को जरा से स्नेह के साथ भी स्मरण करे। इसीलिए, सोचता हूँ कि न जानते हुए नारी के कलंक की बात पर अविश्वास करके संसार में ठगा जाना भ
ला है, किन्तु विश्वास करके पाप का भागी होना अच्छा नहीं! उसके बाद बहुत दिनों तक इन्द्र को नहीं देखा। गंगा के तीर घूमने जाता था तो देखता था कि उसकी नाव किनारे बँधी हुई है। वह पानी में भीग रही है और धूप में फट रही है। सिर्फ एक दफे और हम दोनों उस नाव पर बैठे थे। उस नौका पर वही हमारी अन्तिम यात्रा थी। इसके बाद न वही उस नाव पर चढ़ा और न मैं ही। वह दिन मुझे खूब याद है। सिर्फ इसीलिए नहीं कि वह हमारी नौका-यात्रा का समाप्ति-दिवस था, किन्तु इसलिए कि उस दिन अखण्ड-स्वार्थपरता का जो उत्कृष्ट दृष्टान्त देखा था, उसे मैं सहज में नहीं भूल सका। वह कथा भी कहे देता हूँ। वह कड़ाके की शीत-काल की संध्याख थी। पिछले दिन पानी का एक अच्छा झला पड़ चुका था, इसलिए जाड़ा सूई की तरह शरीर में चुभता था। आकाश में पूरा चन्द्रमा उगा था। चारों तरफ चाँदनी मानो तैर रही थी। एकाएक इन्द्र आ टपका; बोला, "थियेटर देखने चलेगा?" थियेटर के नाम से मैं एकबारगी उछल पड़ा। इन्द्र बोला, "तो फिर कपड़े पहिनकर शीघ्र हमारे घर आ जा।" पाँच मिनट में एक रैपर लेकर बाहर निकल पड़ा। उस स्थान को ट्रेन से जाना होता था। सोचा, घर से गाड़ी करके स्टेशन पर जाना होगा- इसलिए इतनी जल्दी है। इन्द्र बोला, "ऐसा नहीं, हम लोग नाव पर चलेंगे। मैं निरुत्साहित हो गया, क्योंकि, गंगा में नाव को उस ओर खेकर ले जाना पड़ेगा, और इसलिए बहुत देर हो जाने की सम्भावना थी। शायद समय पर पहुँचा न जा सके। इन्द्र बोला, "हवा तेज है, देर न होगी। हमारे नवीन भइया कलकत्ते से आए हैं, वे गंगा से ही जाना चाहते हैं।" खैर, दाँड लेकर, पाल तानकर ठीक तरह से हम लोग नाव में बैठ गये- बहुत देर करके नवीन भइया घाट पर पहुँचे। चन्द्रमा के आलोक में उन्हें देखकर मैं तो डर गया। कलकत्ते के भयंकर बाबू! रेशम के मोजे, चमचमाते पम्प शू, ऊपर से नीचे तक ओवरकोट में लिपटे हुए, गले में गुलूबन्द, हाथ में दस्ताने, सिर पर टोपी- शीत के विरुद्ध उनकी सावधानी का अन्त नहीं था। हमारी उस साधाकी डोंगी को उन्होंने अत्यन्त 'रद्दी' कहकर अपना कठोर मत ज़ाहिर कर दिया; और इन्द्र के कन्धों पर भार देकर तथा मेरा हाथ पकड़कर, बड़ी मुश्किल से, बड़ी सावधानी से, वे नाव के बीच में जाकर सुशोभित हो गये। "तेरा नाम क्या है रे?" डरते-डरते मैंने कहा, "श्रीकान्त।" उन्होंने आक्षेप के साथ मुँह बनाकर कहा, "श्रीकान्त- सिर्फ 'कान्त' ही काफ़ी है। जा हुक़्क़ा तो भर ला। अरे इन्द्र, हुक्का-चिलम कहाँ है? इस छोकरे को दे, तमाखू भर दे!" अरे बाप रे! कोई अपने नौकर को भी इस तरह की विकट भाव-भंगी से आदेश नहीं देता। इन्द्र अप्रतिभ होकर बोला, "श्रीकान्त, तू आकर कुछ देर डाँड़ पकड़ रख। मैं हुक़्क़ा भरे देता हूँ।" उसका जवाब न देकर मैं खुद ही हुक़्क़ा भरने लगा। क्योंकि वे इन्द्र के मौसेरे भाई थे, कलकत्ते के रहने वाले थे और हाल ही में उन्होंने एल.ए. पास किया था। परन्तु मन मेरा बिगड़ उठा। तमाखू भरकर हुक़्क़ा हाथ में देते ही उन्होंने प्रसन्न मुख से पीते-पीते पूछा, "तू कहाँ रहता है रे कान्त? तेरे शरीर पर वह काला-काला सा क्या है रे? रैपर है? आह! रैपर की क्या ही शोभा है। इसके तेल की बास से तो भूत भी भाग जावें! छोकरे-फैलाकर बिछा तो दे यहाँ उसे, बैठें उस पर।" "मैं देता हूँ, नवीन भइया, मुझे ठण्ड नहीं लगती। यह लो" कहकर इन्द्र ने अपने शरीर पर की अलवान चट से उतारकर फेंक दी। वह उसे मजे से बिछाकर बैठ गया और आराम से तमाखू पीने लगा। शीत ऋतु की गंगा अधिक चौड़ी नहीं थी- आधा घण्टे में ही डोंगी उस किनारे से जा भिड़ी। साथ ही साथ हवा बन्द हो गयी। इन्द्र व्याकुल हो बोला, "नूतन भइया, यह तो बड़ी मुश्किल हुई- हवा बन्द हो गयी। अब तो पाल चलेगा नहीं।" नूतन भइया बोले, "इस छोकरे के हाथ में दे न, डाँड़ खींचे।" कलकत्तावासी नूतन भइया की जानकारी पर कुछ मलिन हँसी हँसकर इन्द्र बोला, "डाँड़! कोई नहीं ले जा सकता। नूतन भइया, इस रेत को ठेलकर जाना किसी के किये भी सम्भव नहीं। हमें लौटना पड़ेगा।" प्रस्ताव सुनकर नूतन भइया मुहूर्त भर के लिए अग्निशर्मा हो उठे, "तो फिर ले क्यों आया हतभागे? जैसे हो, तुझे वहाँ तक पहुँचाना ही होगा। मुझे थियेटर में हारमोनियम बजाना ही होगा- उनका विशेष आग्रह है।" इन्द्र बोला, "उनके पास बजाने वाले आदमी हैं नूतन भइया, तुम्हारे न जाने से वे अटके न रहेंगे।" "अटके न रहेंगे? इस गँवार देश के छोकरे बजावेंगे हारमोनियम! चल, जैसे बने वैसे ले चल।" इतना कहकर उन्होंने जिस तरह का मुँह बनाया, उससे मेरा सारा शरीर जल उठा। उसका हारमोनियम बजाना भी हमने बाद में सुना, किन्तु वह कैसा था सो बताने की ज़रूरत नहीं। इन्द्र का संकट अनुभव करके मैं धीरे से बोला, "इन्द्र, क्या रस्सी से खींचकर ले चलने से काम न चलेगा?" बात पूरी होते न होते मैं चौंक उठा। वे इस तरह दाँत किटकि
टा उठे, कि उनका वह मुँह आज भी मुझे याद आ जाता है। बोले, "तो फिर जा न, खींचता क्यों नहीं? जानवर की तरह बैठा क्यों है?" इसके बाद एक दफे इन्द्र और एक दफे मैं रस्सी खींचते हुए आगे बढ़ने लगे। कहीं ऊँचे किनारे के ऊपर से, कहीं नीचे उतर कर, और बीच-बीच में उस बरफ सरीखे ठण्डे जल की धारा में घुसकर, हमें अत्यन्त कष्ट से नाव ले चलना पड़ा। और फिर बीच-बीच में बाबू के हुक्के को भरने के लिए भी नाव को रोकना पड़ा। परन्तु बाबू वैसे ही जमकर बैठे रहे- जरा भी सहायता उन्होंने नहीं की। इन्द्र ने एक बार उनसे 'कर्ण' पकड़ने को कहा तो जवाब दिया, कि "मैं दस्ताने खोलकर ऐसी ठण्ड में निमोनिया बुलाने को तैयार नहीं हूँ।" इन्द्र ने कहना चाहा, "उन्हें खोले बगैर ही..." "हाँ, कीमती दस्तानों को मिट्टी कर डालूँ, यही न! ले, जा जो करना हो कर।" वास्तव में मैंने ऐसे स्वार्थ पर असज्जन व्यक्ति जीवन में थोड़े ही देखे हैं। उनके एक वाहियात शौक़ को चरितार्थ करने के लिए हम लोगों को- जो उनसे उम्र में बहुत छोटे थे- इतना सब क्लेश सहते हुए अपनी ऑंखों देखकर वे जरा भी विचलित न हुए। कहीं से जरा-सी ठण्ड लगाकर उन्हें बीमार न कर दें, एक छींटा जल पड़ जाने से कहीं उनका कीमती ओवरकोट ख़राब न हो जाय, हिलने-चलने में किसी तरह का व्याघात न हो- इसी भय से वे जड़ होकर बैठे रहे और चिल्ला-चिल्लाकर हुक्मों की झड़ी लगाते रहे। और भी एक आफत आ गयी- गंगा की रुचिकर हवा में बाबू साहब की भूख भड़क उठी और, देखते-ही-देखते, अविश्राम बक-झक की चोटों से, और भी भीषण हो उठी। इधर चलते-चलते रात के दस बज गये हैं-थियेटर पहुँचते-पहुँचते रात के दो बज जाँयगे, यह सुनकर बाबू साहब प्रायः पागल हो उठे। रात के जब ग्यारह बजे तब, कलकत्ते के बाबू बेकाबू होकर बोले, "हाँ रे इन्द्र, पास में कहीं हिन्दुस्तानियों की कोई बस्ती-अस्ती है कि नहीं? चिउड़ा-इउड़ा कुछ मिलेगा?" इन्द्र बोला, "सामने ही एक खूब बड़ी बस्ती है नूतन भइया, सब चीज़ें मिलती हैं।" "तो फिर चला चल- अरे छोकरे, जरा खींच न ज़ोर से- क्या खाने को नहीं पाता? इन्द्र, बोल न तेरे इस साथी से, थोड़ा और ज़ोर करके खींच ले चले?" इन्द्र ने अथवा मैंने किसी ने इसका जवाब नहीं दिया। जिस तरह चल रहे थे उसी तरह चलते हुए हम थोड़ी देर में एक गाँव के पास जा पहुँचे। यहाँ पर किनारा ढालू और विस्तृत होता हुआ जल में मिल गया था। नाव को बलपूर्वक धक्का देकर, उथले पानी में करके, हम दोनों ने एक आराम की साँस ली। बाबू साहब बोले, "हाथ-पैर कुछ सीधे करना होगा। उतरना चाहता हूँ।" अतएव इन्द्र ने उन्हें कन्धों पर उठाकर नीचे उतार दिया। वे ज्योत्स्ना के आलोक में गंगा की शुभ्र रेती पर चहलकदमी करने लगे। हम दोनों जनें उनकी क्षुधा-शान्ति के उद्देश्य से गाँव के भीतर घुसे। यद्यपि हम लोग जानते थे कि इतनी रात को इस दरिद्र खेड़े में आहार-संग्रह करना सहज काम नहीं है तथापि चेष्टा किये बगैर भी निस्तार नहीं था। इस पर, अकेले रहने की भी उनकी इच्छा नहीं थी। इस इच्छा के प्रकाशित होते ही इन्द्र उसी दम आह्नान करके बोला, "नवीन भइया, अकेले तुम्हें डर लगेगा- हमारे साथ थोड़ा घूमना भी हो जायेगा। यहाँ कोई चोर-ओर नहीं है, नाव कोई नहीं ले जायेगा। चले न चलो।" नवीन भइया अपने मुँह को कुछ विकृत करके बोले, "डर! हम लोग दर्जी पाड़े के लड़के हैं- यमराज से भी नहीं डरते- यह जानते हो? फिर भी नीच लोगों की डर्टी (गन्दी) बस्ती में हम नहीं जाते। सालों के शरीर की बू यदि नाक में चली जाय तो हमारी तबियत ख़राब हो जाए।" वास्तव में उनका मनोगत अभिप्राय यह था कि मैं उनके पहरे पर नियुक्तर होकर उनका हुक़्क़ा भरता रहूँ। किन्तु उनके व्यवहार से मन ही मन में इतना नाराज हो गया था कि इन्द्र के इशारा करने पर भी मैं किसी तरह, इस आदमी के संसर्ग में, अकेले रहने को राजी नहीं हुआ। इन्द्र के साथ ही चल दिया। दर्जीपाड़े के बाबू साहब ने हाथ-ताली देते हुए गाना शुरू कर दिया। हम लोगों को बहुत दूर तक नाक के स्वर की उनकी जनानी तान सुनाई देती रही। इन्द्र खुद भी मन ही मन अपने भाई के व्यवहार से अतिशय लज्जित और क्षुब्ध हो गया था। धीरे से बोला, "ये कलकत्ते के आदमी ठहरे, हमारी तरह हवा-पानी सहन नहीं कर सकते- समझे न श्रीकान्त?" मैं बोला, "हूँ।" तब इन्द्र उनकी असाधारण विद्या बुद्धि का परिचय, शायद श्रद्धा आकर्षित करने के लिए देते हुए चलने लगा। बातचीत में यह भी उसने कहा कि वे थोड़े ही दिनों में बी.ए. पास करके डिप्टी हो जाँयगे। जो हो, अब इतने दिनों के बाद भी इस समय वे कहाँ के डिप्टी हैं अथवा उन्हें वह पद प्राप्त हुआ या नहीं, मुझे नहीं मालूम। परन्तु, जान पड़ता है कि वे डिप्टी अवश्य हो गये होंगे, नहीं तो बीच-बीच में बंगाली डिप्टियों की इतनी सुख्याति कैसे सुन पड़ती? उस समय उनका प्रथम यौवन था। सुनते हैं, जीवन
के इस काल में हृदय की प्रशस्सता, संवेदना की व्यापकता, जितनी बढ़ती है उतनी और किसी समय नहीं। लेकिन, इन कुछ घण्टों के संसर्ग में ही जो नमूना उन्होंने दिखाया इतने समय के अन्तर के बाद भी वह भुलाया नहीं जा सका। फिर भी, भाग्य से ऐसे नमूने कभी-कभी दिखाई पड़ जाते हैं- नहीं तो, बहुत पहले ही यह संसार बाकायदा पुलिस थाने के रूप में परिणत हो जाता। पर रहने दो अब इस बात को। परन्तु, पाठकों को यह खबर देना आवश्यक है कि भगवान भी उन पर क्रुद्ध हो गये थे। इस तरफ के राह-घाट, दुकान-हाट, सब इन्द्र के जाने हुए थे। वह जाकर एक मोदी की दुकान पर उपस्थित हो गया। परन्तु दुकान बन्द थी और दुकानदार ठण्ड के भय से दरवाज़े-खिड़कियाँ बन्द करके गहरी निद्रा में मग्न था। नींद की वह गहराई कितनी अथाह होती है, सो उन लोगों को लिखकर नहीं बताई जा सकती, जिन्हें खुद इसका अनुभव न हो। ये लोग न तो अम्ल-रोगी निष्कर्मा ज़मींदार हैं और न बहुत भार से दबे हुए, कन्या के दहेज की फ़िक्र से ग्रस्त बंगाली गृहस्थ। इसलिए सोना जानते हैं। दिन भर घोर परिश्रम करने के उपरान्त, रात को ज्यों ही उन्होंने चारपाई ग्रहण की कि फिर, घर में आग लगाए बगैर, सिर्फ चिल्लाकर या दरवाज़ा खटखटाकर उन्हें जगा दूँगा- ऐसी प्रतिज्ञा यदि स्वयं सत्यवादी अर्जुन भी, जयद्रथ-वध की प्रतिज्ञा के बदले कर बैठते तो, यह बात कसम खाकर कही जा सकती है कि उन्हें भी मिथ्या प्रतिज्ञा के पाप से दग्ध होकर मर जाना पड़ता। हम दोनों जनें बाहर खड़े होकर तीव्र कण्ठ से चीत्कार करके तथा जितने भी कूट-कौशल मनुष्य के दिमाग में आ सकते हैं, उन सबको एक-एक करके आजमा करके, आधा घण्टे बाद ख़ाली हाथ लौट आए। परन्तु घाट पर आकर देखा तो वह जन-शून्य है। चाँदनी में जहाँ तक नजर दौड़ती थी वहाँ तक कोई भी नहीं दिखता। 'दर्जीपाड़े' का कहीं कोई निशान भी नहीं। नाव जैसी थी वैसी ही पड़ी हुई है- फिर बाबू साहब गये कहाँ? हम दोनों प्राणपण से चीत्कार कर उठे-'नवीन भइया' किन्तु कहीं कोई नहीं। हम लोगों की व्याकुल पुकार, बाईं और दाहिनी बाजू के खूब ऊँचे कगारों से टकराकर, अस्पष्ट होती हुई, बार-बार लौटने लगी। आस-पास के उस प्रदेश में, शीतकाल में, बीच बीच में बाघों के आने की बात भी सुनी जाती थी। गृहस्थ किसान इन दलबद्ध बाघों की विपत्ति से व्यस्त रहते थे। सहसा इन्द्र इसी बात को कह बैठा, "कहीं बाघ तो नहीं उठा ले गया रे!" भय के मारे मेरे रोंगटे खड़े हो गये। यह क्या कहते हो? इसके पहले उनके निरतिशय अभद्र व्यवहार से मैं नाराज तो सचमुच ही हो उठा था परन्तु, इतना बड़ा अभिशाप तो मैंने उन्हीं नहीं दिया था! सहसा दोनों जनों की नजर पड़ी कि कुछ दूर बालू के ऊपर कोई वस्तु चाँदनी में चमचमा रही है। पास जाकर देखा तो उन्हीं के बहुमूल्य पम्प-शू की एक फर्द है? इन्द्र भीगी बालू पर लेट गया- "हाय श्रीकान्त! साथ में मेरी मौसी भी तो आई हैं। अब मैं घर लौटकर न जाऊँगा!" तब धीरे-धीरे सब बातें स्पष्ट होने लगीं। जिस समय हम लोग मोदी की दुकान पर जाकर उसे जगाने का व्यर्थ प्रयास कर रहे थे, उसी समय, इस तरफ कुत्तों का झुण्ड इकट्ठा होकर आर्त्त चीत्कार करके इस दुर्घटना की खबर हमारे कर्णगोचर करने के लिए व्यर्थ मेहनत उठा रहा था, यह बात अब जल की तरह हमारी ऑंखों के आगे स्पष्ट हो गयी। अब भी हमें दूर पर कुत्तों का भूँकना सुन पड़ता था। अतएव जरा भी संशय नहीं रहा कि बाघ उन्हें खींच ले जाकर जिस जगह भोजन कर रहे हैं, वहीं आस-पास खड़े हो ये कुत्ते भी अब भौंक रहेहैं। अकस्मात् इन्द्र सीधा होकर खड़ा हो गया और बोला, "मैं वहाँ जाऊँगा।" मैंने डरकर उसका हाथ पकड़ लिया और कहा, "पागल हो गये हो भइया!" इन्द्र ने इसका कुछ जवाब नहीं दिया। नाव पर जाकर उसने कन्धों पर लग्गी रख ली, एक बड़ी लम्बी छुरी खीसे में से निकालकर बाएँ हाथ में ले ली और कहा, "तू यहीं रह श्रीकान्त, मैं न आऊँ तो लौटकर मेरे घर खबर दे देना- मैं चलता हूँ।" उसका मुँह बिल्कुतल सफेद पड़ गया था, किन्तु दोनों ऑंखें जल रही थीं। मैं उसे अच्छी तरह चीन्हता था। यह उसकी निरर्थक, ख़ाली उछल-कूद नहीं थी कि हाथ पकड़ कर दो-चार भय की बातें कहने से ही, मिथ्या दम्भ मिथ्या में मिल जायेगा। मैं निश्चय से जानता था कि किसी तरह भी वह रोका नहीं जा सकता- वह ज़रूर जायेगा। भय से जो चिर अपरिचित हो, उसे किस तरह और क्या कहकर रोका जाता? जब वह बिल्कुसल जाने ही लगा तो मैं भी न ठहर न सका; मैं भी, जो कुछ मिला, हाथ में लेकर उसके पीछे-पीछे चल दिया। इस बार इन्द्र ने मुख फेरकर मेरा एक हाथ पकड़ लिया और कहा, "तू पागल हो गया है श्रीकान्त! तेरा क्या दोष है? तू क्यों जायेगा?" उसका कण्ठ-स्वर सुनकर मेरी ऑंखों में एक मुहूर्त में ही जल भर आया। किसी तरह उसे छिपाकर बोला, "तुम्हारा ही भला, क्या दोष है इन्द्र? तुम ही क्यों जाते हो?" जवाब में इन
्द्र ने मेरे हाथ से बाँस छीनकर नाव में फेंक दिया और कहा, "मेरा भी कुछ दोष नहीं है भाई, मैं भी नवीन भइया को लाना नहीं चाहता था। परन्तु, अब अकेले लौटा भी नहीं जा सकता, मुझे तो जाना होगा।" परन्तु मुझे भी तो जाना चाहिए। क्योंकि, पहले ही एक दफे कह चुका हूँ कि मैं स्वयं भी बिल्कुतल डरपोक न था। अतएव बाँस को फिर उठाकर मैं खड़ा हो गया और वाद-विवाद किये बगैर ही हम दोनों आगे चल दिए। इन्द्र बोला, "बालू पर दौड़ा नहीं जा सकता-खबरदार, दौड़ने की कोशिश न करना। नहीं तो, पानी में जा गिरेगा।" सामने ही एक बालू का टीला था। उसे पार करते ही दीख पड़ा, बहुत दूर पर पानी के किनारे छह-सात कुत्ते खड़े भौंक रहे हैं। जहाँ तक नजर गयी वहाँ तक थोड़े से कुत्तों को छोड़कर, बाघ तो क्या, कोई शृंगाल भी नहीं दिखाई दिया। सावधानी से कुछ देर और अग्रसर होते ही जान पड़ा कि कोई एक काली-सी वस्तु पानी में पड़ी है और वे उसका पहरा दे रहे हैं। इन्द्र चिल्ला उठा, "नूतन भइया!" नूतन भइया गले तक पानी में खड़े हुए अस्पष्ट स्वर से रो पड़े, "यहाँ हूँ मैं!" हम दोनों प्राणपण से दौड़ पड़े, कुत्ते हटकर खड़े हो गये, और इन्द्र झप से कूद कर गले तक डूबे हुए मूर्च्छित प्रायः अपने दर्जीपाड़े के मौसेरे भाई को खींचकर किनारे पर उठा लाया। उस समय भी उनके एक पैर में बहुमूल्य पम्प-शू, शरीर पर ओवरकोट, हाथ में दस्ताने, गले में गुलूबन्द और सिर पर टोपी थी। भागने के कारण फूलकर वे ढोल हो गये थे! हमारे जाने पर उन्होंने हाथ-ताली देकर जो बढ़िया तान छेड़ दी थी, बहुत सम्भव है, उसी संगीत की तान से आकृष्ट होकर, गाँव के कुत्ते दल बाँधकर वहाँ आ उपस्थित हुए थे! और उस अभूतपूर्व गीत और आदरपूर्ण पोशाक की छटा से विभ्रान्त होकर इस महामान्य व्यक्ति के पीछे पड़ गये थे। पीछा छुड़ाने के लिए इतनी दूर भागने पर भी आत्मरक्षा का और कोई उपाय न खोज सकने के कारण अन्त में झप से पानी में कूद पड़े; और इस दुर्दान्त शीत की रात में, तुषार-शीतल जल में आधे घण्टे गले तक डूबे रहकर अपने पूर्वकृत् पापों का प्रायश्चित करते रहे। किन्तु, प्रायश्चित के संकट को दूर करके उन्हें फिर से चंगा करने में भी हमें कम मेहनत नहीं उठानी पड़ी। परन्तु सबसे बढ़कर अचरज की बात यह हुई की बाबू साहब ने सूखे मैं पैर रखते ही पहली बात यही पूछी, "हमारा एक पम्प-शू कहाँ गया?" "वह वहाँ पड़ा हुआ है।" यह सुनते ही वे सारे दुःख-क्लेश भूलकर उसे शीघ्र ही उठा लेने के लिए सीधे खड़े हो गये। इसके बाद, कोट के लिए गुलूबन्द के लिए, मोजों के लिए, दस्तानों के लिए, पारी-पारी से एक-एक के लिए शोक प्रकाशित करने लगे और उस रात को जब तक हम लोग लौटकर अपने घाट पर नहीं पहुँच गये, तब तक यही कहकर हमारा तिरस्कार करते रहे कि क्यों हमने मूर्खों की तरह उनके शरीर से उन सब चीजों को जल्दी-जल्दी उतार डाला था। न उतारा होता तो इस तरह धूल लगकर वे मिट्टी न हो जाते। हम दोनों असभ्य लोगों में रहने वाले ग्रामीण किसान हैं, हम लोगों ने इन चीजों को पहले कभी ऑंख से देखा तक नहीं होगा- यह सब वे बराबर कहते रहे। जिस देह पर, इसके पहले, एक छींटा भी जल गिरने से वे व्याकुल हो उठते थे, कपड़े-लत्तों के शोक में वे उस देह को भी भूल गये। उपलक्ष्य वस्तु असल वस्तु से भी किस तरह कई गुनी अधिक होकर उसे पार कर जाती है, यह बात, यदि इन जैसे लोगों के संसर्ग में न आया जाए, तो इस तरह प्रत्यक्ष नहीं हो सकती। रात को दो बजे बाद हमारी डोंगी घाट पर आ लगी। मेरे जिस रैपर की विकट बूसे कलकत्ते के बाबू साहब, इसके पहले, बेहोश हुए जाते थे, उसी को अपने शरीर पर डालकर- उसी की अविश्रान्त निन्दा करते हुए तथा पैर पोंछने में भी घृणा होती है, यह बार-बार सुनाते हुए भी- और इन्द्र की अलवान ओढ़कर, उस यात्रा में आत्म रक्षा करते हुए घर गये। कुछ भी हो, हम लोंगों पर दया करके जो वे व्याघ्र-कवलित हुए बगैर सशरीर वापिस लौट आए, उनके उसी अनुग्रह के आनन्द से हम परिपूर्ण हो रहे थे। इतने उपद्रव-अत्याचार को हँसते हुए सहन करके और आज नाव पर चढ़ने के शौक़ की परिसमाप्ति करके, उस दुर्जय शीत की रात में, केवल एक धोती-भर का सहारा लिये हुए, काँपते-काँपते, हम लोग घर में लौट आए। लिखने बैठते ही बहुत दफा मैं आश्चर्य से सोचता हूँ कि इस तरह की बेसिलसिले घटनाएँ मेरे मन में निपुणता से किसने सज़ा रक्खी हैं? जिस ढंग से मैं लिख रहा हूँ इस ढंग से वे एक-के बाद एक श्रृंखलाबद्ध तो घटित हुई नहीं। और फिर साँकल की क्या सभी कड़ियाँ साबुत बनी हुई हैं? सो भी नहीं। मुझे मालूम है कि कितनी ही घटनाएँ तो विस्मृत हो चुकी हैं, किन्तु फिर भी तो श्रृंखला नहीं टूटती। तो कौन फिर उन्हें नूतन करके जोड़ रखता है? और भी एक अचरज की बात है। पण्डित लोग कहा करते हैं कि बड़ों के बोझ से छोटे पिस जाते हैं। परन्तु यदि ऐसा ही होता तो फिर